त्यागसे शान्ति मिलती ही है
सादर हरिस्मरण! आपका कृपापत्र मिला। आपने जो कुछ पूछा उसका एकमात्र उत्तर यही है कि वास्तविक त्याग होनेपर तो शान्ति मिलती ही है—‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२। १२)। यदि शान्ति नहीं है तो त्यागमें ही त्रुटि है। सच्चा त्याग मनसे होता है। पर जबतक त्यागकी स्मृति है और त्यागका अहंकार है, तबतक भी यथार्थ त्याग नहीं समझना चाहिये। इसलिये त्यागका भी त्याग होना चाहिये। त्यागकी वास्तविकतामें त्याग किये हुए पदार्थोंमें आसक्ति या ममता नहीं रह जाती। उसमें एक आनन्दकी अनुभूति होती है, पर वह आनन्द भी अहंकारजनित नहीं होता। सहज तृप्तिजनित सुख होता है। वस्तुत: त्यागके बिना सच्ची सेवा भी नहीं हो पाती। जो सेवा करके बदला चाहता है, उसका कोई पुरस्कार चाहता है, उसमें त्यागका अभाव होनेसे उसकी सेवा मलिन और अशुद्ध हो जाती है। उससे शान्तिरूपी सच्चा सुख नहीं मिल सकता।
हम ऊपरसे वस्तुओंका त्याग करते हैं; परंतु मनमें उनके प्रति आसक्ति, मोह और महत्त्व बना रहता है। इसलिये उनकी बार-बार स्मृति होती है, मन उनके संगसे मुक्त नहीं होता। अतएव कभी तो उनका अभाव खटकता है और कभी यदि कोई वस्तु हमने किसीको दी है तो उसके प्रति यह भावना होती है कि मैंने उसका बड़ा उपकार किया है, उसे मेरा कृतज्ञ होना चाहिये। वह नहीं होता, उपकार नहीं मानता तो मनमें दु:ख होता है। दोनों ही स्थितियोंमें यथार्थ त्यागका अभाव है। नहीं तो, त्यागमें न तो कोई अभाव दीखता और न दु:ख ही होता। त्याग करनेवाला मनुष्य न तो त्याग की हुई वस्तुका स्मरण करके अभावका अनुभव करता है और न दूसरेके लिये उत्सर्ग की हुई वस्तुके लिये अहंकार करके उसपर अहसान ही करता है।
त्यागकी कसौटी ही है शान्ति। जिस त्यागके अनन्तर शान्ति मिलती है और शान्तिजनित शुद्ध आनन्दकी अनुभूति होती है, वही यथार्थ त्याग है। आपको जो दोनों ही प्रकारसे शान्ति नहीं मिली, न तो वस्तुओंके छोड़नेपर और न उन्हें सुयोग्य पात्रोंको प्रदान करनेपर ही; इससे तो यही सिद्ध होता है कि वस्तुओंका परित्याग और दान दोनों ही किसी-न-किसी अंशमें त्रुटियुक्त हैं—त्यागकी सच्ची भावनासे रहित हैं। आप अपने मनको गहराईसे देखिये, आपको त्रुटियोंका पता लग ही जायगा।
परंतु इससे आपको हताश नहीं होना चाहिये और न त्याग एवं दानको बुरा ही मानना चाहिये। जितने अंशमें त्याग और दान सम्पन्न हुआ है, उतने अंशमें वह उत्तम ही है। उससे शान्ति नहीं मिली, यह ठीक है, परंतु उसका परिणाम शान्तिकी प्राप्तिमें सहायक अवश्य होगा। सत्कर्मका फल किसी-न-किसी अंशमें कल्याणकारक ही होगा, उससे हानि तो होगी ही नहीं—
‘न हि कल्याणकृत् कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति॥’
(गीता ६। ४०)
‘शुभ कर्म करनेवाला कभी दुर्गतिको प्राप्त नहीं होता।’ अतएव आपको ऐसे शुभ संकल्पों और कार्योंसे कभी विरत नहीं होना चाहिये, वरं त्यागकी मानसिक भावनाको यथासाध्य विशुद्ध बनाना चाहिये। उसमें जितनी ही विशुद्धि आयेगी, उतना ही वह त्याग सच्ची शान्तिकी प्राप्ति करानेवाला होगा। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
इसके लिये एक बहुत अच्छा भाव यह है कि हम जो कुछ भी शुभ कार्य करें, उसे भगवान्के लिये करें और यह समझें कि भगवान्की ही प्रेरणासे भगवत्प्रीत्यर्थ यह कार्य किया जा रहा है। त्यागका कार्य हो तो यह समझें कि भगवान्की ही वस्तु है और भगवत्प्रेरणासे भगवान्के लिये ही उसका त्याग हो रहा है। दानमें यह भावना करें कि भगवान्की ही वस्तु, भगवान्की ही प्रेरणासे भगवान्के प्रति अर्पण की जा रही है। भगवान् जो इस काममें मुझको निमित्त बना रहे हैं और स्वयं ही गृहीताके रूपमें आकर उसे ग्रहण कर रहे हैं, यह उनकी परम कृपा है। इन भावोंके रहनेपर मनमें अहंकार, आसक्ति या ममता नहीं रहेगी और परिणाममें शान्ति अवश्य मिलेगी। विशेष भगवत्कृपा।