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शान्तिका अचूक साधन

सप्रेम हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला। आपके प्रश्नोंके उत्तरमें निवेदन है—

(१) भगवान् विष्णु, राम, श्रीकृष्ण और शंकरजी आदि भगवान‍्के जिस नाम-रूपमें आपकी विशेष रुचि हो, आप उसीको अपना परम इष्ट मानकर उनकी आराधना करें। असलमें एक ही भगवान‍्के ये सब विभिन्न स्वरूप हैं। इनमें छोटे-बड़ेकी भावना करना अपराध है। जिस स्वरूपमें अपनी निष्ठा हो, उसकी भक्ति करें और शेष स्वरूपोंके लिये यह माने कि मेरे ही इष्टदेव इन सब स्वरूपोंको धारण किये हुए हैं। ऐसा मान लेनेपर न तो अनन्यतामें बाधा आती है और न किसी अन्य भगवत्-स्वरूपका अपमान ही होता है। जो लोग भगवान‍्के किसी भी स्वरूपकी निन्दा या अपमान करते हैं, वे वस्तुत: अपने ही भगवान‍्का तिरस्कार करते हैं।

(२) संसारमें जो कुछ है, सब भगवान‍्का ही रूप है और जो कुछ हो रहा है, सब भगवान‍्की लीला है; परंतु जहाँ-जहाँपर विशेष विभूति और पूज्य सम्बन्ध हो, वहाँ विशेषरूपसे भगवान‍्की भावना करनी चाहिये। माता-पिताको भगवान‍्का ही स्वरूप समझकर उनकी सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिये और उनकी आज्ञाओंका पालन कर उन्हें सुख पहुँचाना चाहिये। इस प्रत्यक्ष भगवत्स्वरूपोंकी पूजा करनेसे भगवान् बड़े प्रसन्न होते हैं। भक्त पुण्डरीककी कथा प्रसिद्ध है। साथ ही गृहस्थके पालनके लिये धर्म और न्याययुक्त आजीविकाके कर्म भी भगवत्-पूजाके भावसे करने चाहिये। भगवत्-पूजाका भाव रहनेपर प्रत्येक शास्त्रोक्त और वैध कर्म भगवान‍्का भजन बन जाता है। माता-पिताकी प्रत्येक आज्ञाका पालन करना निश्चय ही धर्म है; परंतु यदि वे पापकी आज्ञा दें—चोरी, हिंसा, व्यभिचार, असत्य आदिका आचरण करनेके लिये कहें तो उसे नहीं मानना चाहिये। माता-पिताकी आज्ञाका पालन करनेमें अपनेको बड़े-से-बड़ा त्याग करना पड़े, यहाँतक कि नरकमें भी जाना पड़े तो उसे भी स्वीकार करना चाहिये; परंतु जिस आज्ञाके पालनसे आज्ञा देनेवाले माता-पिताका भी अनिष्ट होता हो, उस आज्ञाको उनके हितके लिये नहीं मानना चाहिये। चोरी, हिंसा, व्यभिचार आदिकी आज्ञासे उनका अवश्य ही अनिष्ट होगा; क्योंकि ये बड़े पाप हैं और इनके करवानेवाले वे बनेंगे। ऐसी अवस्थामें उनकी आज्ञा न मानकर उन्हें विनयके साथ समझाना चाहिये और श्रीभगवान‍्से उनकी बुद्धि शुद्ध करनेके लिये प्रार्थना करनी चाहिये। ऐसा करते हुए भी न तो किसीके प्रति द्वेष करना चाहिये और न ‘मैं श्रेष्ठ हूँ और ये निकृष्ट हैं’ इस प्रकार अपनेमें श्रेष्ठताका अभिमान और उनमें हेय-बुद्धि ही करनी चाहिये।

(३) यद्यपि संसारके नश्वर भोगोंकी प्राप्तिके लिये भगवान‍्से प्रार्थना करना उच्चकोटिकी भक्ति नहीं है, तथापि विश्वासपूर्वक यदि ऐसा किया जाय तो कोई बुरी बात भी नहीं है, वह भी भक्ति ही है, अवश्य ही सकाम होनेसे उसका स्तर नीचा है। आपको भगवान‍्में विश्वास करना चाहिये और यह समझना चाहिये कि ‘भगवान् नित्य सभी स्थितियोंमें मेरे साथ हैं, वे सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ और सर्वेश्वर होते हुए भी मेरे परम आत्मीय हैं। उनकी कृपा तथा प्रेमसे मैं सराबोर हूँ। मेरे ऊपर-नीचे, दाहिने-बायें, भीतर-बाहर सर्वत्र उनकी कृपा भरी हुई है। एक क्षणके लिये भी मैं कभी उनकी कृपासे वंचित नहीं होता। वे कृपामय हैं। उनका श्रीविग्रह कृपासे ही बना है। अतएव वे किसीपर भी कभी अकृपा नहीं कर सकते। वे मेरी प्रत्येक आवश्यकताको जानते हैं और उनमें जो उचित होगा, उन्हें वे अवश्य ही पूरा करेंगे।’ यों उनकी कृपापर विश्वास करके उनके नामका जप करते रहिये। मेरा दृढ़ विश्वास है कि ऐसा करनेपर आपको अवश्य ही शान्ति मिलेगी। यही शान्तिका अचूक साधन है। भगवान‍्ने श्रीमुखसे कहा है—

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥

‘जो मुझको समस्त यज्ञ-तपोंका भोक्ता, सर्वलोकमहेश्वर और समस्त प्राणियोंका (बिना किसी भेदभावके) सुहृद् जान लेता है, वह परम शान्तिको प्राप्त होता है।’

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