श्रेष्ठ साध्यके लिये श्रेष्ठ साधन ही आवश्यक है
सप्रेम हरिस्मरण! आपका कृपापत्र मिला। आपने लिखा कि ‘एक आदमी चाहता है कि मैं बहुत धन कमाकर उसके द्वारा लोकसेवा तथा भगवत्सेवाके पवित्र कार्य करूँ; परंतु धन कमानेमें असत्य, छल, कपट, चोरी, हिंसा, दूसरोंका स्वत्वहरण और बहीखातोंमें झूठा जमाखर्च आदि करने पड़ते हैं। इनके बिना काम ही नहीं चलता। ये न किये जायँ तो आजकल सीधे उपायसे धन आना असम्भव है और धनके न होनेपर लोकसेवा तथा भगवत्सेवाके कार्य नहीं हो सकते। ऐसी अवस्थामें क्या करना चाहिये? क्या श्रेष्ठ उद्देश्यकी सिद्धिके लिये इस प्रकारके अनिवार्य दोषोंका स्वीकार करना पाप है? जब साध्य उत्तम है, कर्ताका भाव शुद्ध है और उसकी नीयत अच्छी है, तब फिर साधन यदि निकृष्ट भी हो तो क्या हानि है? भगवत्प्राप्तिके लिये यदि कभी निषिद्ध कर्म भी करने पड़ें तो क्या वह कोई बुरी बात है?’
इसका सीधा उत्तर यह है कि फल वही होता है, जिसका बीज होता है। जब साधन निकृष्ट है, तब साध्य श्रेष्ठ कहाँसे आयेगा? एक आदमीका सर्वथा शुद्ध उद्देश्य है कि मुझको आम मिले, उसका भाव भी यही है और नीयत भी अच्छी है; पर वह बोता है आकके बीज, तो बताइये उसे आम कहाँसे मिलेंगे। इसी प्रकार नीयत, उद्देश्य और भाव कुछ भी हो—झूठ, कपट, छल, चोरी और हिंसा आदि साधनोंसे सच्ची लोकसेवा और भगवत्सेवारूपी परिणाम कभी नहीं हो सकता। बुरेका अच्छा फल होगा, यह तो अज्ञानविमोहित आसुरी भाववालोंकी मान्यता है। वे कहते हैं—
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥
असौ मया हत: शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥
आढॺोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिता:॥
(गीता १६। १३—१५)
‘आज यह कमाया, कल वह कमाऊँगा। मेरे पास इतना धन तो हो गया है, फिर और भी हो जायगा। मेरे उस शत्रु (एक मार्गके रोड़े)-को तो मारकर हटा दिया गया है, शेष दूसरोंको भी मार दूँगा। मैं सत्ताधीश—ईश्वर हूँ, मैं भोगमें समर्थ हूँ, मैं सफलताओंका केन्द्र हूँ, मैं बलवान् हूँ और सुखी हूँ। मैं धनी हूँ, मैं जनवान् हूँ—जनता मेरे पीछे चलती है, मेरे समान दूसरा है कौन? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आनन्द लूटूँगा, (भगवान् कहते हैं) वे इस प्रकारके अज्ञानसे विमोहित हैं।’
बुरेका फल अच्छा कभी हो नहीं सकता। श्रीतुलसीदासजी महाराजने कहा है—‘साधन सिद्धि राम पग नेहू।’ भगवच्चरणोंमें प्रेम ही साधन है और वही साध्य है। वस्तुत: साधनके स्वरूपपर ही साध्यका स्वरूप निर्भर करता है। इसलिये मनमें किसी भी साध्यकी कल्पना हो, साधकको तो पहले साधनकी श्रेष्ठता ही देखनी है। अतएव ‘साध्य उत्तम हो तो साधन निकृष्ट होनेपर भी कोई हानि नहीं है’ ऐसा मानना भ्रमपूर्ण है।
धनके द्वारा लोक-सेवा और भगवत्सेवाकी भावना उत्तम है। (यद्यपि केवल धनके द्वारा सेवा बनती नहीं, उसके लिये तो सेवाके योग्य मन चाहिये) परंतु इसका क्या निश्चय है कि मनुष्य अपने इच्छानुसार धन कमा ही लेगा। सम्भव है, जीवनभर जीतोड़ प्रयत्न करनेपर भी धन न मिले। कदाचित् मिल भी गया तो फिर यह कौन कह सकता है कि उस समय लोक-सेवा और भगवत्सेवाकी विशुद्ध भावना बनी ही रहेगी। सच्ची और युक्तिसंगत बात तो यह है कि असत्य, चोरी, छल, कपट, हिंसा आदि दुष्ट साधनोंमें लगे रहनेसे चित्तकी अशुद्धि बढ़ जायगी और अशुद्ध चित्तमें शुद्ध भावनाओंका टिकना सम्भव नहीं है। अतएव लोक-सेवा और भगवत्सेवा नहीं बन सकेगी। लोक-सेवा और भगवत्सेवाके नामपर कहीं कोई दम्भ भले ही बन जाय। हाँ, एक फल अवश्य होगा। जीवनभर दूषित कर्मोंमें लगे रहनेसे पापोंकी वृद्धि होगी। दूषित संस्कारोंके कारण अन्तकालमें बुरी वस्तुका चिन्तन होगा और परिणामस्वरूप बुरी गति अवश्य प्राप्त होगी!
अवश्य ही कुछ समझदार लोग भी ऐसा मानते हैं कि ‘साध्य उत्तम है तो फिर साधन कैसा भी क्यों न हो। हमें तो साध्यको प्राप्त करना है, फिर चाहे वह किसी भी साधनसे हो।’ पर यह बड़ी भूल है। जैसा साधन होगा, वैसा ही साध्य बनेगा और जैसा साध्य होगा, वैसा ही साधन होगा। यदि किसीका साधन निकृष्ट है तो सच मानना चाहिये कि उसका साध्य भी श्रेष्ठ नहीं है, भले ही वह भूलसे, धोखेसे या दम्भसे अपने साध्यको श्रेष्ठ कहता हो। चोरी करके साधु-सेवा करना, अतिथि-सत्कारके लिये व्यभिचार करना, भगवान्की पूजाके लिये द्वेषपूर्वक हिंसा करना, वैर और क्रोधके द्वारा धर्मकी रक्षा करना, दम्भ करके भगवान्को प्रसन्न करना और आत्महत्या करके भगवान्को पा लेना आदि कुछ ऐसी बातें हैं, जो यदि किसी विशेष परिस्थितिमें विशेष व्यक्तियोंद्वारा हुई भी हों, तो भी वे आदर्श नहीं हैं। वे अपवाद हैं, नियम कदापि नहीं। नियम तो यही है कि साधन उत्तम होगा, तभी साध्य उत्तम होगा।
फिर जो श्रेष्ठ पुरुष हैं वे तो श्रेष्ठसे भी श्रेष्ठ उद्देश्यकी सिद्धिके लिये भी नीच कर्मको कदापि स्वीकार नहीं करेंगे। भगवान्से मिलना अवश्य है, भगवत्प्रेम अवश्य चाहिये, पर वह चाहिये भगवान्के अनुकूल परम श्रेष्ठ शास्त्रीय साधनोंके द्वारा ही। निषिद्ध कर्मके द्वारा कहीं भगवान् या भगवत्प्रेम मिलता भी हो तो श्रेष्ठ पुरुष उसे स्वीकार नहीं कर सकते। इसीलिये प्रेमी भक्त अपने भगवान्से यहाँतक कह दिया करते हैं कि ‘भगवन्! हमें तो तुम्हारा भजन प्यारा है। यदि तुम्हारी प्राप्ति हो जानेपर तुम्हारा भजन छूटता हो तो हम ऐसी प्राप्ति नहीं चाहते। हमें चाहे जहाँ, चाहे जैसी परिस्थितिमें रहना पड़े, पर तुम्हारा प्रेमपूरित भजन कभी न छूटे। हमें सुगति, सुमति, सम्पत्ति, ऋद्धि-सिद्धि और विशाल कीर्ति नहीं चाहिये। हमारा तो बस, तुम्हारे युगलचरणकमलोंमें नित नया अनुराग ही बढ़ता रहे—
चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु,
रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई।
हेतु-रहित अनुराग राम-पद
बढ़ै अनुदिन अधिकाई॥
गोस्वामीजीने दोहावलीमें कह दिया है कि मुझे नरकमें रहना स्वीकार है; यदि राम प्रेमका फल अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष हो तो इन चारों पुरुषार्थ-शिशुओंको मौत डाकिनी खा जाय। मुझे तो केवल ‘राम-प्रेम’ चाहिये। यदि राम-प्रेमका और कोई फल भी होता हो तो उसमें आग लग जाय—
परौं नरक फल चारि सिसु
मीच डाकिनी खाउ।
तुलसी राम सनेह को
जो फल सो जरि जाउ॥