श्रेय ही प्रेय है
आपका कृपापत्र मिला। श्रेय-प्रेयके विषयमें कठोपनिषद् में यम-नचिकेताके संवादमें बड़ा सुन्दर वर्णन है। आपको वहाँ देखना चाहिये। श्रेयका अर्थ है भगवान्—कल्याण, मंगल, शुभ, परम हित आदि और प्रेयका अर्थ है भोग—अत्यन्त प्रिय, सुखदायक, प्रीतिकर, रमणीय आदि। श्रेयार्थीकी दृष्टि परिणामकी ओर होती है और प्रेयार्थीकी आपातसुखकर भोगोंकी ओर। या यों कहना चाहिये कि प्रेयार्थी प्रत्यक्षवादी होता है और श्रेयार्थी यथार्थवादी। प्रेय अविद्या है और श्रेय विद्या। इसीलिये प्रेयको श्रेयका विरोधी माना गया है। मनुष्य जबतक आपातरमणीय विषयोंके पीछे पागल रहता है और मतवाले भँवरेकी भाँति एक फूलसे दूसरे फूलपर मँडराता रहता है, तबतक उसे प्रेयके अतृप्तिकारी, अनित्य, परिणाममें भय और मृत्यु देनेवाले, दु:खमय स्वरूपका पता नहीं लगता। श्रुति कहती है—‘यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति’—‘जो भूमा है, उसीसे सुख है, अल्पमें सुख नहीं है।’ जो सदा ही अधूरा है, कभी पूर्ण होता ही नहीं, जिसका आज अस्तित्व है पर जो कल ही नष्ट हो सकता है अथवा जो प्रतिपल प्रवाहरूपसे विनाशकी ओर ही जा रहा है। उस अल्पात्मा, अल्पकालस्थायी पदार्थमें सुख कहाँ? इसीसे तो श्रीराघवेन्द्र मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने कहा है—
एहि तन कर फल बिषय न भाई।
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
मनुष्यकी महान्, अनन्त और असीम आकांक्षा है—भगवान्के पूर्ण स्वरूपकी उपलब्धि। अत: अल्प, सान्त और ससीम वस्तुसे उसकी तृप्ति कैसे हो सकती है। फिर प्रेयका सुख तो वास्तवमें अल्प भी नहीं है। उसमें तो सुखका केवल भ्रम ही होता है। अज्ञानके कारण ही आपातरमणीय वस्तु सुखकर प्रतीत होती है। जैसे जहरके लड्डू मीठे मालूम होते हैं, परन्तु परिणाममें मृत्युकारक होते हैं, वैसे ही प्रेय—भोग भी बार-बार मृत्युके मुखमें ही ले जानेवाले हैं। इतनेपर भी प्रेयका मोह नहीं छूटता।
शास्त्र और संत डंकेकी चोटपर भोगोंकी दु:खरूपता और हेयताका प्रतिपादन करते हैं तथा बीच-बीचमें श्रेयकी सुन्दर झाँकी भी करा देते हैं, परंतु मनुष्य प्रेयको ही सुखकर मानता है और श्रेयकी उपेक्षा करता है। तथापि श्रेयस्वरूप आत्माका लक्ष्य स्वाभाविक ही श्रेय होनेके कारण उसे अन्यत्र कहीं भी विश्राम नहीं मिलता। वह प्रेयके लक्ष्यसे जहाँ भी जाता है, वहीं उसे—चाहे वह उसे न समझे—श्रेयकी ही आवश्यकता प्रतीत होती है; श्रेयके लिये ही उसके प्राण छटपटाते हैं। वह सर्वत्र पूर्णको ही खोजता है। यों करते-करते भगवत्कृपासे जब कभी ज्ञानकी आँखें खुलने लगती हैं, तब उसे प्रतीत होने लगता है कि वास्तवमें एकमात्र भगवान् ही—जो जीवमात्रके अंदर आत्मरूपसे विराजित हैं (‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:।’)—परमपूर्ण सुखस्वरूप हैं। जगत्के जितने पदार्थ हमें प्रिय और आवश्यक प्रतीत होते हैं, वे सभी इस आत्माकी प्रियताको लेकर ही या आत्माके लिये ही प्रिय प्रतीत होते हैं। आत्माके लिये ही उनसे हमारा प्रेम होता है; उन पदार्थोंके लिये नहीं।
‘न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।’
(बृह० उ० २। ४। ५)
‘याज्ञवल्क्यने कहा—अरी मैत्रेयि! सबके लिये सब प्रिय नहीं होते, आत्माके लिये ही सब प्रिय होते हैं, अत: सबसे बढ़कर प्रेय वस्तु आत्मा ही है।’
‘तदेतत्प्रेय: पुत्रात् प्रेयो वित्तात् प्रेयोऽन्यस्मात्सर्वस्मादन्तरतरं यदयमात्मा।’
(बृह० उ० १। ४। ८)
‘यह जो अन्तरतर आत्मा है, यह पुत्रसे बढ़कर प्रेय है, वित्तसे बढ़कर प्रेय है, यह सभीसे बढ़कर प्रेय है।’ इस अवस्थामें प्रेय भी श्रेयका ही रूपान्तर या नामान्तर हो जाता है; क्योंकि यहाँ श्रेयस्वरूप—मंगलमय परम प्रेमास्पद प्रेममय भगवान् ही प्रेय बन जाते हैं। ऐसी अवस्थामें जीवनके समस्त कार्य इन परम प्रेय भगवान्के सुखके लिये ही होते हैं। असलमें जो सुख आत्माके लिये सुखकर हो, वही श्रेय है और जो इन्द्रियोंके लिये सुखकर हो, वही प्रेय है। भगवान् आत्माके भी आत्मा परमात्मा हैं। इनकी प्रीतिके लिये जो सांसारिक भोगोंका ग्रहण होता है, वह वस्तुत: विषयोपभोग नहीं होता, वह तो विषयरूप सामग्रीके द्वारा भगवान्का पूजन होता है और इसीलिये उसका परम फल भी परम श्रेय—कल्याण ही है।
भक्ति-साम्राज्यकी सर्वोच्च सम्राज्ञी श्रीराधिकाजी एवं उनकी अभिन्न प्रतिमा व्रजांगनाएँ इसी भावसे परम प्रियतम भगवान् श्रीकृष्णके लिये जीवनके समस्त कार्य करती थीं। उनका भगवान्के प्रति वात्सल्य और मधुर भाव इसी बुद्धिसे था। राजा परीक्षित् के यह पूछनेपर कि ‘गोपियोंका अपने पति-पुत्रादिसे भी बढ़कर श्रीकृष्णमें प्रेम क्यों हुआ?’ श्रीशुकदेवजीने कहा—
तस्मात् प्रियतम: स्वात्मा सर्वेषामपि देहिनाम्।
तदर्थमेव सकलं जगदेतच्चराचरम्॥
कृष्णमेनमवेहि त्वमात्मानमखिलात्मनाम्।
(श्रीमद्भा० १०।१४।५४-५५)
‘आत्मा ही सब प्राणियोंके लिये प्रियतम है। यह सारा चराचर जगत् (पति-पुत्र, भूमि-भवन, साम्राज्य-सुख्याति आदि) आत्माके सुखके लिये ही प्रिय हुआ करता है और श्रीकृष्ण ही अखिल आत्माओंके आत्मा हैं।’ (इसीलिये श्रीकृष्णके प्रति गोपियोंका इतना स्नेह है।) भगवान् श्रीकृष्णने गोपांगनाओंके विषयमें स्वयं उद्धवजीसे कहा है—
‘ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिका:।’
(श्रीमद्भा० १०।४६।४)
‘गोपियोंने अपने मन और प्राण मेरे समर्पण कर दिये हैं और मेरे लिये ही उन्होंने समस्त देह-सम्बन्धियोंका त्याग कर दिया है।’
इससे सिद्ध है कि यहाँ प्रेय और श्रेयमें कोई भेद नहीं रह गया है। श्रेय ही प्रेय है और प्रेय ही श्रेय है। श्रेयस्वरूप श्रीकृष्ण ही प्रियतम हैं और प्रियतम श्रीकृष्ण ही श्रेयस्वरूप हैं। इस प्रकार श्रेयको प्रेय बना लेनेमें ही मनुष्यजीवनकी सार्थकता है।