तीन श्रेष्ठ भाव
आपका कृपापत्र मिला। आपने पूछा कि ‘जगत्के सब जीवोंमें सच्चा प्रेम कैसे हो, सब एक-दूसरेकी भलाईमें कैसे प्रवृत्त हों और कोई भी किसीकी कभी बुराई न करे, इसका क्या उपाय है?’ सो मेरी समझमें निम्नलिखित तीन भावोंके अनुसार व्यवहार करनेपर ऐसा होना सम्भव है।
(१) जगत्के सभी जीव श्रीभगवान्से उत्पन्न हैं, उनकी सन्तान हैं और इसलिये सब भाई-भाई हैं।
(२) जगत्के सभी जीवोंमें एक ही आत्मा है।
(३) जगत्के समस्त जीवोंके रूपमें एकमात्र श्रीभगवान् ही प्रकट हैं।
ये तीनों ही शास्त्रसम्मत और सत्पुरुषोंके द्वारा अनुभूत सत्-भाव हैं एवं इनमें प्रत्येक उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। अब इन तीनोंपर कुछ अलग-अलग विचार कीजिये—
(१) जगत्के सभी जीव भगवान्से ही पैदा हुए हैं और भगवान्की ही सत्तासे भगवान्में ही जी रहे हैं और अन्तमें भगवान्में ही सबका प्रवेश होता है।
‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति। यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।’ (तै०उ०)
भगवान् ही सबके माता, पिता, पितामह हैं। अतएव सब भाई-भाई हैं। भाईका भाईमें प्रेम होना ही चाहिये तथा भाई भाईका भला करता ही है और भाई वस्तुत: भाईका बुरा कर नहीं सकता। इस भावका यथार्थ विकास होनेपर परस्पर प्रेम और हितकी चेष्टा होना अनिवार्य है। सच्चे भ्रातृभावमें त्याग अपने-आप ही खिल उठता है। भाईका सुख-स्वार्थ ही अपना सुख-स्वार्थ बन जाता है और उसीमें परस्पर परितृप्ति होती है। श्रीरामजी भाई भरतको सिंहासनासीन बनाना चाहते हैं और भरतजी भगवान् रामकी सेवा करनेके सिवा और कुछ स्वीकार ही नहीं करते। भरतकी राज्य-प्राप्तिके लिये वन जाते समय रामजी अपना अहोभाग्य मानते हैं—
भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू।
बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू॥
और भरतजी वनमें जाकर रामजीसे कहते हैं—
सानुज पठइअ मोहि बन
कीजिअ सबहि सनाथ।
नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ
नाथ चलौं मैं साथ॥
विश्वका दुर्भाग्य है कि आज यह पवित्र भाव लुप्तप्राय हो गया है। आज भाईका स्थान वैरीका-सा हो चला है। भाई ही सबसे बढ़कर भाईकी बुराई करनेपर तुला है। यह भारी प्रमाद है। इस प्रमादसे बचनेके लिये यूरोपके मनीषियोंने ‘विश्वभ्रातृत्व’ (Universal Brotherhood)- का प्रचार करना चाहा। यद्यपि उसमें एक बड़ा दोष था, वह केवल मानव-मानवमें ही भ्रातृत्वकी स्थापना करना चाहता था, भूतमात्रमें नहीं; तथापि वह भी चला नहीं। नीच व्यक्तिगत स्वार्थने भ्रातृत्वके पवित्र भावकी जड़ नहीं जमने दी। स्वार्थवश भाई ही भाईका गला काटनेको तैयार हो गया। इसीसे आज जगत्में हाहाकार मचा है। आज ऐसा राम-सा भाई कहाँ है जो भाईके गुण गाते-गाते अघाता न हो।
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा।
जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा॥
गहि गुन पय तजि अवगुन बारी।
निज जस जगत कीन्हि उजिआरी॥
(२) भगवान्ने कहा है—‘सर्वत्र आत्माको समभावसे देखनेवाला युक्तात्मा देखता है कि समस्त प्राणियोंमें आत्मा है और समस्त प्राणी आत्मामें हैं—
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥
(गीता ६। २९)
अपने-आपमें सबका स्वाभाविक प्रेम है, सभी स्वाभाविक अपनी भलाई चाहते और करते हैं तथा जान-बूझकर अपना बुरा कोई नहीं करता। वरं सब चौकन्ने रहते हैं कि कहीं हमारा कोई अनिष्ट न हो जाय। अतएव जब यह भाव हो जायगा कि सब मेरे आत्मा ही हैं, सब मैं-ही-मैं हूँ, तब अपने-आप ही उपर्युक्त बातें बन जायँगी। हमारे शरीरके किसी अंगमें कहीं भी काँटा चुभ जाय, कहीं कुछ पीड़ा हो जाय तो उसका अनुभव हमें समानरूपसे होता है। हमारे शरीर और नामको किसी अंशमें कहीं कोई सुख-सम्मान मिलता है तो हम प्रसन्न होते हैं। कभी ऐसा नहीं सोचते कि अमुक अंगमें सुख है तो दूसरेमें नहीं होना चाहिये या अमुक अंगमें दु:ख है तो दूसरेमें भी होना चाहिये। हम चाहते हैं हमारे किसी अंगमें कभी कोई दु:ख या पीड़ा न हो, सबमें सदा सुख रहे। सर्वत्र आत्मभाव हो जानेपर सबके सुख-दु:खमें ऐसी ही समदृष्टि हो जाती है। फिर, प्राणी-मात्रका दु:ख हमारा दु:ख और सुख हमारा सुख हो जाता है। हमारी सीमाबद्ध अहंता विश्वचराचरमें विस्तृत हो जाती है, हमारी क्षुद्र आत्मसत्ता विश्वकी विराट सत्तामें मिल जाती है और हमारा क्षुद्र स्वार्थ विश्वके विस्तृत स्वार्थमें घुल-मिलकर एक हो जाता है। इसी अवस्थाको प्राप्त पुरुषके लिये भगवान्ने कहा है—
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:॥
(गीता ६।३२)
‘जो अपने आत्माके समान ही सबके सुख-दु:खको समानरूपसे देखता है, अर्जुन! वही श्रेष्ठ योगी माना गया है।’
यह भाव प्रथम भावकी अपेक्षा बहुत श्रेष्ठ है। भाई-भाईमें स्वार्थवश वैर-विरोध हो सकता है, परंतु अपने आत्मासे किसीका वैर-विरोध नहीं होता। तथापि मनुष्य जैसे क्रोध या मोहके आवेशमें आप ही अपनी हानि कर बैठता है, आत्महत्यातक कर डालता है, वैसे ही मोहवश आत्मभूत जगत्का भी अनिष्ट करनेपर उतारू हो जाता है। आज यही हो रहा है।
(३) एकमात्र हमारे परमाराध्य इष्टदेव भगवान् ही विश्व और विश्वके प्रत्येक प्राणीके रूपमें प्रकट हैं। उनके सिवा और कुछ है ही नहीं। सर्वत्र वे-ही-वे हैं। उन्होंने कहा है—‘अर्जुन! मेरे सिवा और कुछ है ही नहीं।’
‘मत्त: परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय।’
(गीता ७। ७)
‘अत: जो मुझको सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसकी आँखोंसे मैं कभी ओझल नहीं होता एवं वह मेरी आँखोंके सामनेसे कभी नहीं हटता’—
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६। ३०)
इस परम भावकी प्राप्ति होनेपर उसे सर्वत्र पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, अग्नि, ग्रह, नक्षत्र, वृक्ष, लता, दिशाएँ, नदी, समुद्र—सभीमें अपने भगवान्के दर्शन होते हैं। ‘जित देखों तित स्याममयी है।’ फिर वह सबका सम्मान, सबका हित, सभीकी पूजा, सभीका सत्कार स्वभावसे ही करता है। उसका मस्तक और हृदय सबके सामने सदा झुका रहता है—
सीय राममय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
इनमेंसे किसी भी भावका यथार्थ प्रकाश मनुष्यके क्षुद्रस्वार्थका नाश कर सकता है। स्वार्थ और अभिमानसे ही वैर-विरोध, अनिष्ट-चिन्तन और असद्-व्यवहार होता है। स्वार्थ और अभिमानका जितने अंशमें त्याग होता है, उतने ही अंशमें इन दोषोंका नाश होता है तथा प्रेम और हित-चिन्तनकी वृद्धि होती है।