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तीन विश्वास आवश्यक हैं

सप्रेम हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला। आज जो इतनी विपत्तियाँ आयी हुई हैं, चारों ओर सन्देह और भय छाया है तथा भगवत्प्राप्तिके लिये इतनी बात सुननेपर भी तनिक भी उत्साह नहीं है, इसमें प्रधान कारण है ‘भगवान‍्में विश्वासका अभाव।’ भगवान‍्में विश्वास होते ही जीवको ऐसा दिव्य प्रकाश मिलता है कि फिर सन्देह, भय, भ्रम और विपत्तिका सारा कुहासा कट जाता है, सारा अन्धकार मिट जाता है एवं अज्ञानका अपार आवरण तुरंत हट जाता है। तीन प्रकारके विश्वासकी आवश्यकता है—१-भगवान‍्के अस्तित्वमें विश्वास। २-भगवान् जीवोंको मिलते हैं, यह विश्वास और ३-हमें भी अवश्य मिलेंगे, यह विश्वास!

जबतक भगवान‍्के अस्तित्वमें विश्वास नहीं होता, तबतक उन्हें प्राप्त करने और उनके सहज स्नेहमय स्वभावसे और उनकी शरणागत-वत्सलतासे लाभ उठानेका कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इसलिये सबसे पहले यह विश्वास होना चाहिये कि भगवान् हैं।

‘भगवान् हैं, पर वे समस्त ईश्वरोंके महान् ईश्वर हैं; अपने दिव्यलोकमें पार्षदोंके साथ रहते हैं अथवा समस्त संसारमें बर्फमें जलकी भाँति ओत-प्रोत हैं। वे किसी एकसे मिलेंगे क्यों? उनके मिलन-सुखका अनुभव जीवको क्यों होने लगा?’ ऐसा सन्देह रहनेपर भी हमारे मनमें उनके साक्षात्कार करनेका कोई मनोरथ या उत्साह नहीं होगा। इसलिये यह दूसरा विश्वास होना चाहिये कि वे सर्वेश्वर, दिव्यधामवासी और नित्य सर्वगत तथा सर्वरूप होनेपर भी साधनसिद्ध पुरुषोंको कृपापूर्वक दर्शन देकर कृतार्थ करते हैं।

‘मान लिया भगवान् हैं और वे सिद्ध साधकोंको मिलते हैं; पर हम-जैसे साधनहीन विषयी पामर जीवोंको क्यों मिलेंगे। वे मिलेंगे तपस्वियोंको, योगियोंको, अपने प्यारे भक्तोंको और अपने आत्मरूप ज्ञानियोंको। हम-सरीखे तप, त्याग, प्रेम और ज्ञानसे रहित मनुष्य उनके मिलनेकी कैसे आशा करें?’ ऐसा सन्देह बना रहेगा तब भी भगवान‍्के मिलनेकी स्फूर्ति और उत्कट इच्छा नहीं होगी। मनुष्य समझेगा कि हमारे लिये तो भगवान् आकाशकुसुमके समान सर्वथा दुर्लभ ही हैं। इसलिये तीसरा यह विश्वास होना चाहिये कि भगवान् सर्वलोकमहेश्वर, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, सर्वात्मा और सर्वरूप होनेके साथ ही जीवमात्रके अकारण प्रेमी—परम सुहृद् हैं। जो उनसे मिलना चाहता है, उसीसे मिल लेते हैं। जरा भी भेदभाव नहीं करते। ऐसे दयालु हैं कि पूर्व जीवनके कृत्योंकी ओर ध्यान नहीं देते। वे देखते हैं केवल वर्तमान समयकी उसकी इच्छाको। यदि वह मिलनेके लिये आतुर है तो वे भी आतुर हो जाते हैं और तुरंत उसको दर्शन देकर कृतार्थ कर देते हैं। ज्ञानी, प्रेमी, विषयी, पामर या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चाण्डाल अथवा पुरुष या स्त्री—कुछ भी नहीं देखते। न यही देखते हैं कि यह अभीतक दारुण पाप कर रहा था। वे तो वर्तमान क्षणका मन देखते हैं और उसमें यदि सच्चाई और अनन्याश्रय पाते हैं तो बस सब कुछ भुलाकर उसे अपना लेते हैं, अपने हाथों—‘स्नेहमयी जननीके द्वारा बच्चेके मलको धो डालनेके समान’—उसकी सम्पूर्ण पापराशिको धो डालते हैं और उसे परम पवित्र, स्वच्छ, शुद्ध बनाकर अपनी गोदमें बैठा लेते हैं—

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥

भगवान‍्ने गीताजीमें कहा है—

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥
किं पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥
(९। ३०—३३)

‘दारुण पाप करनेवाला पुरुष भी यदि अनन्यभावसे (एकमात्र मुझको ही त्राणकर्ता और शरण्य मानकर) भजता है तो उसे ‘साधु’ मान लेना चाहिये; क्योंकि उसका निश्चय (अनन्यभावसे मुझे भजनेका निश्चय) यथार्थ है। ऐसा करनेवाला (पापी) मनुष्य तुरंत ही धर्मात्मा बन जाता है और सनातनी परमा शान्तिको प्राप्त हो जाता है। भैया! तुम निश्चयपूर्वक सत्य समझो कि मेरे भक्तका नाश नहीं होता। (जो अबतक महापापी था, वही तुरंत साधु, भक्त और परम शान्तिका अधिकारी हो गया, यह है भगवान‍्के पतितपावन स्वभावका महत्त्व।) अर्जुन! स्त्री, वैश्य और शूद्र यहाँतक कि पापयोनिवाले भी यदि मेरा आश्रय ले लेते हैं तो वे भी परम गतिको ही प्राप्त होते हैं, फिर पुण्यशील ब्राह्मण, राजर्षि भक्त क्षत्रियोंके लिये तो कहना ही क्या है? अतएव इस सुखरहित और अनित्य मानव-शरीरको पाकर तुम मुझको ही भजो।’

इससे सिद्ध है कि भगवान् नीच-से-नीच प्राणीको भी मिल सकते हैं; क्योंकि वे ‘सभी प्राणियोंके सुहृद्’ ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ हैं, इसलिये हमको भी अवश्य ही मिलेंगे।

ये तीन विश्वास जब मनुष्यके हृदयमें उत्पन्न हो जाते हैं, तब फिर भगवत्प्राप्तिमें विलम्ब नहीं होता और यह तो कहना ही व्यर्थ है कि भगवत्प्राप्तिके साथ ही सारे दु:ख-द्वन्द्व सदाके लिये नष्ट हो जाते हैं।

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