मानसिक पूजाकी विधि
ॐ पादयो: पाद्यं समर्पयामि नारायणाय नम:॥ १॥
इस मन्त्रको बोलकर शुद्ध जलसे श्रीभगवान् के चरणकमलोंको धोकर उस जलको अपने मस्तकपर धारण करना॥ १॥
ॐ हस्तयोरर्घ्यं समर्पयामि नारायणाय नम:॥ २॥
इस मन्त्रको बोलकर श्रीहरिभगवान् के हस्तकमलोंपर पवित्र जल छोड़ना॥ २॥
ॐ आचमनीयं समर्पयामि नारायणाय नम:॥ ३॥
इस मन्त्रको बोलकर श्रीनारायणदेवको आचमन कराना॥ ३॥
ॐ गन्धं समर्पयामि नारायणाय नम:॥ ४॥
इस मन्त्रको बोलकर श्रीहरिभगवान् के ललाटपर रोली लगाना ॥ ४॥
ॐ मुक्ताफलं समर्पयामि नारायणाय नम:॥ ५॥
इस मन्त्रको बोलकर श्रीभगवान् के ललाटपर मोती लगाना॥ ५॥
ॐ पुष्पं समर्पयामि नारायणाय नम:॥ ६॥
इस मन्त्रको बोलकर श्रीभगवान् के मस्तकपर और नासिकाके सामने आकाशमें पुष्प छोड़ना॥ ६॥
ॐ मालां समर्पयामि नारायणाय नम:॥ ७॥
इस मन्त्रको बोलकर पुष्पोंकी माला श्रीहरिके गलेमें पहनाना॥ ७॥
ॐ धूपमाघ्रापयामि नारायणाय नम:॥ ८॥
इस मन्त्रको बोलकर श्रीभगवान् के सामने अग्निमें धूप छोड़ना॥ ८॥
ॐ दीपं दर्शयामि नारायणाय नम:॥ ९॥
इस मन्त्रको बोलकर घृतका दीपक जलाकर श्रीविष्णुभगवान् के सामने रखना॥ ९॥
ॐ नैवेद्यं समर्पयामि नारायणाय नम:॥ १०॥
इस मन्त्रको बोलकर मिश्रीसे श्रीहरिभगवान् के भोग लगाना॥ १०॥
ॐ आचमनीयं समर्पयामि नारायणाय नम:॥ ११॥
इस मन्त्रको बोलकर श्रीभगवान् को आचमन कराना॥ ११॥
ॐ ऋतुफलं समर्पयामि नारायणाय नम:॥ १२॥
इस मन्त्रको बोलकर ऋतुफल (केला आदि) श्रीभगवान् के भोग लगाना॥ १२॥
ॐ पुनराचमनीयं समर्पयामि नारायणाय नम:॥ १३॥
इस मन्त्रको बोलकर श्रीभगवान् को फिर आचमन कराना॥ १३॥
ॐ पूगीफलं सताम्बूलं समर्पयामि नारायणाय नम:॥ १४॥
इस मन्त्रको बोलकर सुपारीसहित नागरपान श्रीभगवान् के अर्पण करना॥ १४॥
ॐ पुनराचमनीयं समर्पयामि नारायणाय नम:॥ १५॥
इस मन्त्रको बोलकर पुन: श्रीहरिको आचमन कराना। फिर सुवर्णके थालमें कपूरको प्रदीप्त करके श्रीनारायणदेवकी आरती उतारना॥ १५॥
ॐ पुष्पांजलिं समर्पयामि नारायणाय नम:॥ १६॥
इस मन्त्रको बोलकर सुन्दर-सुन्दर पुष्पोंकी अंजलि भरकर श्रीहरिभगवान् के मस्तकपर छोड़ना॥ १६॥
फिर चार प्रदक्षिणा करके श्रीनारायणदेवको साष्टांग दण्डवत्-प्रणाम करना॥ ९॥
उक्त प्रकारसे श्रीहरिभगवान् की मानसिक पूजा करनेके पश्चात् उनको अपने हृदय-आकाशमें शयन कराके जीवात्मा अपने मन-ही-मनमें श्रीभगवान् के स्वरूप और गुणोंका वर्णन करता हुआ बारम्बार सिरसे प्रणाम करता है—
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभांगम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥
‘जिनकी आकृति अतिशय शान्त है, जो शेषनागकी शय्यापर शयन किये हुए हैं, जिनकी नाभिमें कमल है, जो देवताओंके भी ईश्वर और सम्पूर्ण जगत् के आधार हैं, जो आकाशके सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नील मेघके समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुन्दर जिनके सम्पूर्ण अंग हैं, जो योगियोंद्वारा ध्यान करके प्राप्त किये जाते हैं, जो सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी हैं, जो जन्म-मरणरूप भयका नाश करनेवाले हैं, ऐसे श्रीलक्ष्मीपति कमलनेत्र विष्णुभगवान् को मैं सिरसे प्रणाम करता हूँ।’
असंख्य सूर्योंके समान जिनका प्रकाश है, अनन्त चन्द्रमाओंके समान जिनकी शीतलता है, करोड़ों अग्नियोंके समान जिनका तेज है, असंख्य मरुद्गणोंके समान जिनका पराक्रम है, अनन्त इन्द्रोंके समान जिनका ऐश्वर्य है, करोड़ों कामदेवोंके समान जिनकी सुन्दरता है, असंख्य पृथ्वियोंके समान जिनमें क्षमा है, करोड़ों समुद्रोंके समान जो गम्भीर हैं, जिनकी किसी प्रकार भी कोई उपमा नहीं कर सकता, वेद और शास्त्रोंने भी जिनके स्वरूपकी केवल कल्पनामात्र ही की है, पार किसीने भी नहीं पाया, ऐसे अनुपमेय श्रीहरिभगवान् को मेरा बारम्बार नमस्कार है।
जो सच्चिदानन्दमय श्रीविष्णुभगवान् मन्द-मन्द मुसकरा रहे हैं, जिनके सारे अंगोंपर रोम-रोममें पसीनेकी बूँदें चमकती हुई शोभा देती हैं, ऐसे पतितपावन श्रीहरिभगवान् को मेरा बारम्बार नमस्कार है॥ १०॥
जीवात्मा मन-ही-मनमें श्रीहरिभगवान् को पंखेसे हवा करता हुआ एवं उनके चरणोंकी सेवा करता हुआ उनकी स्तुति करता है
अहो! हे प्रभो! आप ही ब्रह्मा हैं, आप ही विष्णु हैं, आप ही महेश हैं, आप ही सूर्य हैं, आप ही चन्द्रमा और तारागण हैं, आप ही भूर्भुव:, स्व:—तीनों लोक हैं तथा सातों द्वीप और चौदह भुवन आदि जो कुछ भी है, सब आपहीका स्वरूप है, आप ही विराट्स्वरूप हैं, आप ही हिरण्यगर्भ हैं, आप ही चतुर्भुज हैं और मायातीत शुद्ध ब्रह्म भी आप ही हैं, आपहीने अपने अनेक रूप धारण किये हैं, इसलिये सम्पूर्ण संसार आपहीका स्वरूप है तथा द्रष्टा, दृश्य, दर्शन जो कुछ भी है सो सब आप ही हैं।*
* ‘एको विष्णुर्महद्भूतं पृथग्भूतान्यनेकश:।’
(विष्णुसहस्रनाम १४०)
‘पृथक्-पृथक् सम्पूर्ण भूतोंको उत्पन्न करनेवाला महान् भूत एक ही विष्णु अनेक रूपसे स्थित है।’ तथा ‘एकोऽहं बहु स्याम’ (इति श्रुति:)
(सृष्टिके आदिमें भगवान् ने संकल्प किया कि) ‘मैं एक ही बहुत रूपोंमें होऊँ।’
अतएव—
नम: समस्तभूतानामादिभूताय भूभृते।
अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे॥
‘सम्पूर्ण प्राणियोंके आदिभूत पृथ्वीको धारण करनेवाले और युग-युगमें प्रकट होनेवाले अनन्त रूपधारी (आप) विष्णुभगवान् के लिये नमस्कार है।’
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥
‘आप ही माता और आप ही पिता हैं, आप ही बन्धु और आप ही मित्र हैं, आप ही विद्या और आप ही धन हैं, हे देवोंके देव! आप ही मेरे सर्वस्व हैं’॥ ११॥
उक्त प्रकारसे परमात्माकी प्रेमभक्तिमें लगे हुए पुरुषका जब परमात्मामें अतिशय प्रेम हो जाता है, उस कालमें उसको अपने शरीरादिकी भी सुध नहीं रहती; जैसे सुन्दरदासजीने प्रेम-भक्तिका लक्षण करते हुए कहा है—
इन्दव छन्द
प्रेम लग्यो परमेश्वरसों, तब भूलि गयो सिगरो घरबारा।
ज्यों उन्मत्त फिरै जित ही तित, नेक रही न शरीर सँभारा॥
श्वास उसास उठे सब रोम, चलै दृग नीर अखण्डित धारा।
सुन्दर कौन करै नवधा विधि, छाकि पर्यौ रस पी मतवारा॥
नाराच छन्द
न लाज तीन लोककी, न वेदको कह्यो करै।
न शंक भूत प्रेतकी, न देव यक्षतें डरै॥
सुने न कान औरकी, द्रसै न और इच्छना।
कहै न मुख और बात, भक्ति-प्रेम-लच्छना॥
बीजुमाला छन्द
प्रेम अधीनो छाक्यो डोलै, क्योंकी क्योंही वाणी बोलै।
जैसे गोपी भूली देहा, तैसो चाहे जासों नेहा॥
मनहरन छन्द
नीर बिनु मीन दुखी, क्षीर बिनु शिशु जैसे,
पीरकी ओषधि बिनु, कैसे रह्यो जात है।
चातक ज्यों स्वातिबूँद, चन्दको चकोर जैसे,
चन्दनकी चाह करि, सर्प अकुलात है॥
निर्धन ज्यों धन चाहे, कामिनीको कन्त चाहे,
ऐसी जाके चाह ताहि, कछु न सुहात है।
प्रेमको प्रवाह ऐसो, प्रेम तहाँ नेम कैसो,
सुन्दर कहत यह प्रेमहीकी बात है॥
छप्पय छन्द
कबहुँक हँसि उठि नृत्य करै, रोवन फिर लागे।
कबहुँक गद्गद कण्ठ, शब्द निकसे नहिं आगे॥
कबहुँक हृदय उमंग, बहुत उँचे स्वर गावे।
कबहुँक ह्वै मुख मौन, गगन ऐसे रहि जावे॥
चित्त-वित्त हरिसों लग्यो, सावधान कैसे रहे।
यह प्रेमलक्षणा भक्ति है, शिष्य सुनहु सुन्दर कहै॥ १२॥
सगुण भगवान् के अन्तर्धान हो जानेपर जीवात्मा शुद्ध सच्चिदानन्दघन सर्वव्यापी परब्रह्म परमात्माके स्वरूपमें मग्न हुआ कहता है—
अहो! आनन्द! आनन्द! अति आनन्द! सर्वत्र एक वासुदेव-ही-वासुदेव व्याप्त है*। अहो सर्वत्र एक आनन्द-ही-आनन्द परिपूर्ण है।
* बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७। १९)
‘[जो] बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है, इस प्रकार मेरेको भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है।’
कहाँ काम, कहाँ क्रोध, कहाँ लोभ, कहाँ मोह, कहाँ मद, कहाँ मत्सरता, कहाँ मान, कहाँ क्षोभ, कहाँ माया, कहाँ मन, कहाँ बुद्धि, कहाँ इन्द्रियाँ, सर्वत्र एक सच्चिदानन्द-ही-सच्चिदानन्द व्याप्त है। अहो! अहो! सर्वत्र एक सत्यरूप, चेतनरूप, आनन्दरूप, घनरूप, पूर्णरूप, ज्ञानस्वरूप, कूटस्थ, अक्षर, अव्यक्त, अचिन्त्य, सनातन, परब्रह्म, परम अक्षर, परिपूर्ण, अनिर्देश्य, नित्य सर्वगत, अचल, ध्रुव, अगोचर, मायातीत, अग्राह्य, आनन्द, परमानन्द, महानन्द, आनन्द-ही-आनन्द, आनन्द-ही-आनन्द परिपूर्ण है, आनन्दसे भिन्न कुछ भी नहीं है॥ १३॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: