॥ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
श्रीप्रेमभक्तिप्रकाश
परमात्माकी शरणमें प्राप्त हुए पुरुषका मन परमात्मासे प्रार्थना करता है—
हे प्रभो! हे विश्वम्भर! हे दीनदयालो! हे कृपासिन्धो! हे अन्तर्यामिन्! हे पतितपावन! हे सर्वशक्तिमान्! हे दीनबन्धो! हे नारायण! हे हरे! दया कीजिये, दया कीजिये। हे अन्तर्यामिन्! आपका नाम संसारमें दयासिन्धु और सर्वशक्तिमान् विख्यात है, इसीलिये दया करना आपका काम है।
हे प्रभो! यदि आपका नाम पतितपावन है तो एक बार आकर दर्शन दीजिये। मैं आपको बारम्बार प्रणाम करके विनय करता हूँ, हे प्रभो! दर्शन देकर कृतार्थ कीजिये। हे प्रभो! आपके बिना इस संसारमें मेरा और कोई भी नहीं है। एक बार दर्शन दीजिये, दर्शन दीजिये, विशेष न तरसाइये! आपका नाम विश्वम्भर है, फिर मेरी आशाको क्यों नहीं पूर्ण करते हैं। हे करुणामय! हे दयासागर! दया कीजिये। आप दयाके समुद्र हैं, इसलिये किंचित् दया करनेसे आप दयासागरमें कुछ दयाकी त्रुटि नहीं हो जायगी। आपकी किंचित् दयासे सम्पूर्ण संसारका उद्धार हो सकता है, फिर एक तुच्छ जीवका उद्धार करना आपके लिये कौन बड़ी बात है। हे प्रभो! यदि आप मेरे कर्तव्यको देखें तब तो इस संसारसे मेरा निस्तार होनेका कोई उपाय ही नहीं है। इसलिये आप अपने पतितपावन नामकी ओर देखकर इस तुच्छ जीवको दर्शन दीजिये। मैं न तो कुछ भक्ति जानता हूँ, न योग जानता हूँ तथा न कोई क्रिया ही जानता हूँ जो कि मेरे कर्तव्यसे आपका दर्शन हो सके। आप अन्तर्यामी होकर यदि दयासिन्धु नहीं होते तो आपको संसारमें कोई दयासिन्धु नहीं कहता, यदि आप दयासागर होकर भी अन्तरकी पीड़ाको न पहचानते तो आपको कोई अन्तर्यामी नहीं कहता। दोनों गुणोंसे युक्त होकर भी यदि आप सामर्थ्यवान् न होते तो आपको कोई सर्वशक्तिमान् और सर्वसामर्थ्यवान् नहीं कहता। यदि आप केवल भक्तवत्सल ही होते तो आपको कोई पतितपावन नहीं कहता। हे प्रभो! हे दयासिन्धो! एक बार दया करके दर्शन दीजिये॥ १॥
जीवात्मा अपने मनसे कहता है
रे दुष्ट मन! कपटभरी प्रार्थना करनेसे क्या अन्तर्यामी भगवान् प्रसन्न हो सकते हैं? क्या वे नहीं जानते कि ये सब तेरी प्रार्थनाएँ निष्काम नहीं हैं? एवं तेरे हृदयमें श्रद्धा, विश्वास और प्रेम कुछ भी नहीं है? यदि तुझको यह विश्वास है कि भगवान् अन्तर्यामी हैं तो फिर किसलिये प्रार्थना करता है? बिना प्रेमके मिथ्या प्रार्थना करनेसे भगवान् कभी नहीं सुनते और यदि प्रेम है तो फिर कहनेसे प्रयोजन ही क्या है? क्योंकि भगवान् ने तो स्वयं ही श्रीगीताजीमें कहा है कि—
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
(४। ११)
‘जो मेरेको जैसे भजते हैं मैं भी उनको वैसे ही भजता हूँ।’ तथा—
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥
(९। २९)
‘जो (भक्त) मेरेको भक्तिसे भजते हैं, वे मेरेमें हैं और मैं भी उनमें (प्रत्यक्ष प्रकट) हूँ।’*
* ‘यदॄच्छालाभसंतुष्ट: (गीता अध्याय ४ श्लोक २२), संतुष्टो येन केनचित्’ (गीता अध्याय १२ श्लोक १९)।
रे मन! हरि दयासिन्धु होकर भी यदि दया न करें तो भी कुछ चिन्ता नहीं, अपनेको तो अपना कर्तव्यकार्य करते ही रहना चाहिये। हरि प्रेमी हैं, वे प्रेमको पहचानते हैं। प्रेमके विषयको प्रेमी ही जानता है, वे अन्तर्यामी भगवान् क्या तेरे शुष्क प्रेमसे दर्शन दे सकते हैं? जब विशुद्ध प्रेम और श्रद्धा-विश्वासरूपी डोरी तैयार हो जायगी तो उस डोरीद्वारा बँधे हुए हरि आप-ही-आप चले आवेंगे। रे मूर्ख मन! क्या मिथ्या प्रार्थनासे काम चल सकता है? क्योंकि हरि अन्तर्यामी हैं। रे मन! तुझको नमस्कार है, तेरा काम संसारमें चक्कर लगानेका है, सो जहाँ तेरी इच्छा हो वहाँ जा। तेरे ही संगके कारण मैं इस असार संसारमें अनेक दिन फिरता रहा, अब हरिके चरणकमलोंका आश्रय ग्रहण करनेसे तेरा सम्पूर्ण कपट जान गया, तू मेरे लिये कपटभाव और अति दीन वचनोंसे भगवान् से प्रार्थना करता है। परंतु तू नहीं जानता कि हरि अन्तर्यामी हैं। श्रीयोगवासिष्ठमें ठीक ही लिखा है कि मनके अमन हुए बिना अर्थात् मनका नाश हुए बिना भगवान् की प्राप्ति नहीं होती। वासनाका क्षय, मनका नाश और परमेश्वरकी प्राप्ति—ये तीनों एक ही कालमें होते हैं। इसलिये तुझसे विनय करता हूँ कि तू यहाँसे अपने माजनेसहित चला जा, अब यह पक्षी तेरी मायारूपी फाँसीमें नहीं फँस सकता; क्योंकि इसने हरिके चरणोंका आश्रय लिया है। क्या तू अपनी दुर्दशा कराके ही जायगा? अहो! कहाँ वह माया? कहाँ काम-क्रोधादि शत्रुगण? अब तो तेरी सम्पूर्ण सेनाका क्षय होता जाता है, इसलिये अपना प्रभाव पड़नेकी आशाको त्यागकर जहाँ इच्छा हो चला जा॥ २॥
मन फिर परमात्मासे प्रार्थना करता है
प्रभो! प्रभो! दया करिये, हे नाथ! मैं आपके शरण हूँ। हे शरणागत-प्रतिपालक! शरण आयेकी लज्जा रखिये। हे प्रभो! रक्षा करिये, रक्षा करिये, एक बार आकर दर्शन दीजिये। आपके बिना इस संसारमें मेरे लिये कोई भी आधार नहीं है, अतएव आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, विलम्ब न करिये, शीघ्र आकर दर्शन दीजिये। हे प्रभो! हे दयासिन्धो! एक बार आकर दासकी सुध लीजिये। आपके न आनेसे प्राणोंका आधार कोई भी नहीं दीखता। हे प्रभो! दया करिये, दया करिये, मैं आपके शरण हूँ, एक बार मेरी ओर दयादृष्टिसे देखिये। हे प्रभो! हे दीनबन्धो! हे दीनदयालो! विशेष न तरसाइये; दया करिये। मेरी दुष्टताकी ओर न देखकर अपने पतितपावन स्वभावका प्रकाश करिये॥ ३॥
जीवात्मा अपने मनसे फिर कहता है
रे मन! सावधान! सावधान! किसलिये व्यर्थ प्रलाप करता है। वे श्रीसच्चिदानन्दघन हरि झूठी विनती नहीं चाहते। अब तेरा कपट यहाँ नहीं चलेगा, तू मेरे लिये क्यों हरिसे कपटभरी प्रार्थना करता है? ऐसी प्रार्थना मैं नहीं चाहता, तेरी जहाँ इच्छा हो वहाँ चला जा।
यदि हरि अन्तर्यामी हैं तो प्रार्थना करनेकी क्या आवश्यकता है? यदि वे प्रेमी हैं तो बुलानेकी क्या आवश्यकता है? यदि वे विश्वम्भर हैं तो माँगनेकी क्या आवश्यकता है? तेरेको नमस्कार है, तू यहाँसे चला जा; चला जा॥ ४॥
जीवात्मा अपनी बुद्धि और इन्द्रियोंसे कहता है
हे इन्द्रियो! तुमको नमस्कार है, तुम भी जाओ, जहाँ वासना होती है वहाँ तुम्हारा टिकाव होता है। मैंने हरिके चरणकमलोंका आश्रय लिया है, इसलिये अब तुम्हारा दाव नहीं पड़ेगा। हे बुद्धे! तुझको भी नमस्कार है, पहले तेरा ज्ञान कहाँ गया था जब कि तू मुझको संसारमें डूबनेके लिये शिक्षा दिया करती थी? क्या वह शिक्षा अब लग सकती है॥ ५॥
जीवात्मा परमात्मासे कहता है
हे प्रभो! आप अन्तर्यामी हैं, इसलिये मैं नहीं कहता कि आप आकर दर्शन दीजिये, क्योंकि यदि मेरा पूर्ण प्रेम होता तो क्या आप ठहर सकते? क्या वैकुण्ठमें लक्ष्मी भी आपको अटका सकतीं? यदि मेरी आपमें पूर्ण श्रद्धा होती तो क्या आप विलम्ब करते? क्या वह प्रेम और विश्वास आपको छोड़ सकता? अहो, मैं व्यर्थ ही संसारमें निष्कामी और निर्वासनिक बना हुआ हूँ और व्यर्थ ही अपनेको आपके शरणागत मानता हूँ। परंतु कोई चिन्ता नहीं, जो कुछ आकर प्राप्त हो उसीमें मुझे प्रसन्न रहना चाहिये। क्योंकि ऐसे ही आपने श्रीगीताजीमें कहा है*।
* ‘यदॄच्छालाभसंतुष्ट: (गीता अध्याय ४ श्लोक २२), संतुष्टो येन केनचित्’ (गीता अध्याय १२ श्लोक १९)।
इसलिये आपके चरणकमलोंकी प्रेम-भक्तिमें मग्न रहते हुए यदि मुझको नरक भी प्राप्त हो तो वह भी स्वर्गसे बढ़कर है। ऐसी दशामें मुझको क्या चिन्ता है? जब मेरा आपमें प्रेम होगा तो क्या आपका नहीं होगा? जब मैं आपके दर्शन बिना नहीं ठहर सकूँगा, उस समय क्या आप ठहर सकेंगे? आपने तो स्वयं श्रीगीताजीमें कहा है—
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
(४। ११)
‘जो मुझको जैसे भजते हैं मैं भी उनको वैसे ही भजता हूँ।’ अतएव मैं नहीं कहता कि आप आकर दर्शन दीजिये। और आपको भी क्या परवा है, परंतु कोई चिन्ता नहीं, आप जैसा उचित समझें वैसा ही करें। आप जो कुछ करें उसीमें मुझको आनन्द मानना चाहिये॥ ६॥
जीवात्मा ज्ञाननेत्रोंद्वारा परमेश्वरका ध्यान करता हुआ आनन्दमें विह्वल होकर कहता है
अहो! अहो! आनन्द! आनन्द! प्रभो! प्रभो! क्या आप पधारे? धन्य भाग्य! धन्य भाग्य! आज मैं पतित भी आपके चरणकमलोंके प्रभावसे कृतार्थ हुआ। क्यों न हो, आपने स्वयं श्रीगीताजीमें कहा है—
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(९। ३०-३१)
‘यदि (कोई) अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त हुआ मेरेको (निरन्तर) भजता है, वह साधु ही माननेयोग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है।’
‘इसलिये वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता’॥ ७॥
जीवात्मा परमात्माके आश्चर्यमय सगुणरूपको ध्यानमें देखता हुआ अपने मन-ही-मनमें उनकी शोभाका वर्णन करता है—
अहो! कैसे सुन्दर भगवान् के चरणारविन्द हैं कि जो नीलमणिके ढेरकी भाँति चमकते हुए अनन्त सूर्योंके सदृश प्रकाशित हो रहे हैं। चमकीले नखोंसे युक्त कोमल-कोमल अँगुलियाँ जिनपर रत्नजटित सुवर्णके नूपुर शोभायमान हैं। जैसे भगवान् के चरणकमल हैं, वैसे ही जानु और जंघादि अंग भी नीलमणिके ढेरकी भाँति पीताम्बरके भीतरसे चमक रहे हैं। अहो! सुन्दर चार भुजाएँ कैसी शोभायमान हैं। ऊपरकी दोनों भुजाओंमें तो शंख और चक्र एवं नीचेकी दोनों भुजाओंमें गदा और पद्म विराजमान हैं। चारों भुजाओंमें केयूर और कड़े आदि सुन्दर-सुन्दर आभूषण शोभित हैं। अहो! भगवान् का वक्ष:स्थल कैसा सुन्दर है, जिसके मध्यमें श्रीलक्ष्मीजीका और भृगुलताका चिह्न विराजमान है तथा नीलकमलके सदृश वर्णवाली भगवान् की ग्रीवा भी कैसी सुन्दर है। जिसमें रत्नजटित हार और कौस्तुभमणि विराजमान हैं एवं मोतियोंकी और वैजयन्ती तथा सुवर्णकी और भाँति-भाँतिके पुष्पोंकी मालाएँ सुशोभित हैं। सुन्दर ठोड़ी, लाल ओष्ठ और भगवान् की अतिशय सुन्दर नासिका है, जिसके अग्रभागमें मोती विराजमान है। भगवान् के दोनों नेत्र कमलपत्रके समान विशाल और नीलकमलके पुष्पकी भाँति खिले हुए हैं। कानोंमें रत्नजटित सुन्दर मकराकृत कुण्डल और ललाटपर श्रीधारी तिलक एवं शीशपर रत्नजटित किरीट (मुकुट) शोभायमान है। अहो! भगवान् का मुखारविन्द पूर्णिमाके चन्द्रमाकी भाँति गोल-गोल कैसा मनोहर है। जिसके चारों ओर सूर्यके सदृश किरणें देदीप्यमान हैं। जिनके प्रकाशसे मुकुटादि सम्पूर्ण भूषणोंके रत्न चमक रहे हैं। अहो! आज मैं धन्य हूँ, धन्य हूँ कि जो मन्द-मन्द हँसते हुए आनन्दमूर्ति हरिभगवान् का दर्शन कर रहा हूँ॥ ८॥
इस प्रकार आनन्दमें विह्वल हुआ जीवात्मा ध्यानमें अपने सम्मुख सवा हाथकी दूरीपर बारह वर्षकी सुकुमार अवस्थाके रूपमें भूमिसे सवा हाथ ऊँचे आकाशमें विराजमान परमेश्वरको देखता हुआ उनकी मानसिक पूजा करता है।