अच्युत, अनन्त और गोविन्द-नामकी महिमाका वर्णन
(१)
भगवान् धन्वन्तरिजीके वचन हैं—
अच्युतानन्तगोविन्दनामोच्चारणभेषजात्।
नश्यन्ति सकला रोगा: सत्यं सत्यं वदाम्यहम्॥
‘अच्युत, अनन्त, गोविन्द— इन नामोंके उच्चारणरूप औषधसे सब रोग नष्ट हो जाते हैं। यह मैं सत्य-सत्य कह रहा हूँ।’
(२)
श्रीमहादेवजीने पार्वतीजीके अनुनयपर उन्हें भगवान् के मत्स्यकूर्मादि अवतारोंका वृत्तान्त विस्तारपूर्वक सुनाया। इसी प्रसंगमें उन्होंने पार्वतीको समुद्रमन्थनकी कथा सुनाते हुए भगवान् विष्णुकी नाम-महिमाका प्रकाशन इस प्रकार किया—शुक्ल एकादशी तिथिको समुद्रका मन्थन आरम्भ हुआ। उस समय लक्ष्मीके प्रादुर्भावकी अभिलाषा रखते हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों और मुनिवरोंने भगवान् लक्ष्मीनारायणका ध्यान और पूजन किया। उस मुहूर्तमें सबसे पहले कालकूट नामक महाभयंकर विष प्रकट हुआ, जो बहुत बड़े पिण्डके रूपमें था। वह प्रलयकालीन अग्निके समान अत्यन्त भयंकर जान पड़ता था। उसे देखते ही सम्पूर्ण देवता और दानव भयसे पीड़ित हो भागने लगे। यह देख मैंने उन सबको रोककर कहा— ‘देवताओ! इस विषसे भय न करो। इस कालकूट नामक महान् विषको मैं अभी अपना आहार बना लूँगा।’ मेरी बात सुनकर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता मेरे चरणोंमें पड़ गये और साधु-साधु कहकर मेरी स्तुति करने लगे। उधर मेघके समान काले रंगवाले उस महाभयानक विषको प्रकट हुआ देख, मैंने एकाग्रचित्तसे अपने हृदयमें सर्वदु:खहारी भगवान् नारायणका ध्यान किया और उनके तीन नामरूपी महामन्त्रका भक्तिपूर्वक जप करते हुए उस भयंकर विषको पी लिया। सर्वव्यापी श्रीविष्णुके तीन नामोंके प्रभावसे उस लोकसंहारक विषको मैंने अनायास ही पचा लिया। उन्होंने आगे कहा—
अच्युतानन्तगोविन्द इति नामत्रयं हरे:।
यो जपेत् प्रयतो भक्त्या प्रणवाद्यं नमोऽन्तकम्॥
तस्य मृत्युभयं नास्ति विषरोगाग्निजं महत्।
नामत्रयमहामन्त्रं जपेद् य: प्रयतात्मवान्॥
कालमृत्युभयं चापि तस्य नास्ति किमन्यत:।
(पद्मपुराण, उत्तर० २३२। १९—२१ कलकत्ता और संस्करण)
‘अच्युत, अनन्त और गोविन्द’—ये हरिके तीन नाम हैं। जो एकाग्रचित्त हो इनके आदिमें ‘प्रणव’ और अन्तमें ‘नम:’ ‘ॐ अच्युताय नम:’,‘ॐ अनन्ताय नम:’, ‘ॐ गोविन्दाय नम:’ इस रूपमें भक्तिपूर्वक जप करता है, उसे विष, रोग और अग्निसे होनेवाली मृत्युका भय नहीं प्राप्त होता। जो इस तीन नामरूपी महामन्त्रका एकाग्रतापूर्वक जप करता है, उसे काल और मृत्युसे भी भय नहीं होता, फिर दूसरोंसे भय होनेकी बात ही क्या है।’