भगवन्नाम सर्वोपरि तीर्थ
भक्त प्रह्लाद कहते हैं—
कृष्ण कृष्णेति कृष्णेति कलौ वक्ष्यति प्रत्यहम्।
नित्यं यज्ञायुतं पुण्यं तीर्थकोटिसमुद्भवम्॥
(स्कन्द०, द्वारकामा० ३८। ४५)
कलियुगमें जो प्रतिदिन ‘कृष्ण’, ‘कृष्ण’, ‘कृष्ण’ उच्चारण करेगा, उसे नित्य दस हजार यज्ञ तथा करोड़ों तीर्थोंका फल प्राप्त होगा।
यावन्ति भुवि तीर्थानि जम्बूद्वीपे तु सर्वदा।
तानि तीर्थानि तत्रैव विष्णोर्नामसहस्रकम्॥
तत्रैव गंगा यमुना च वेणी
गोदावरी तत्र सरस्वती च।
सर्वाणि तीर्थानि वसन्ति तत्र
यत्र स्थितं नामसहस्रकं तत्॥
(पद्म०, उत्तर० ७२। ९-१०)
जहाँ विष्णुभगवान् के सहस्रनामका पाठ होता है, वहीं पृथ्वीपर जम्बूद्वीपके जितने तीर्थ हैं, वे सब सदा निवास करते हैं। जहाँ भगवान् का सहस्रनाम विराजित है, वहीं गंगा, यमुना, कृष्णवेणी, गोदावरी, सरस्वती और समस्त तीर्थ निवास करते हैं।
तत्र पुत्र गया काशी पुष्करं कुरुजाङ्गलम्।
प्रत्यहं मन्दिरे यस्य कृष्ण कृष्णेति कीर्तनम्॥
(स्कन्द०, वै० मार्ग० मा० १५। ५०)
भगवान् (ब्रह्माजीसे) कहते हैं—वत्स! जिसके घरमें प्रतिदिन ‘कृष्ण’, ‘कृष्ण’ का कीर्तन होता है, वहीं गया, काशी, पुष्कर तथा कुरुजांगल (तीर्थ) रहते हैं।
सकृन्नारायणेत्युक्त्वा पुमान् कल्पशतत्रयम्।
गङ्गादिसर्वतीर्थेषु स्नातो भवति निश्चितम्॥
(ब्रह्मवैवर्त०)
जो पुरुष एक बार ‘नारायण’ नामका उच्चारण कर लेता है, वह निश्चित ही तीन सौ कल्पोंतक गंगादि समस्त तीर्थोंमें स्नान कर चुकता है।
सर्वेषामेव यज्ञानां लक्षाणि च व्रतानि च।
तीर्थस्नानानि सर्वाणि तपांस्यनशनानि च॥
वेदपाठसहस्राणि प्रादक्षिण्यं भुव: शतम्।
कृष्णनामजपस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥
(ब्रह्मवैवर्त०)
समस्त यज्ञ, लाखों व्रत, सम्पूर्ण तीर्थोंका स्नान, सब प्रकारके तप, अनशनादि व्रत, सहस्रों वेदपाठ, पृथ्वीकी सौ परिक्रमाएँ—ये सब श्रीकृष्ण-नाम-जपकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हैं।
राम रामेति रामेति रामेति च पुनर्जपन्।
स चाण्डालोऽपि पूतात्मा जायते नात्र संशय:॥
कुरुक्षेत्रं तथा काशी गया वै द्वारका तथा।
सर्वं तीर्थं कृतं तेन नामोच्चारणमात्रत:॥
(पद्मपुराण, उत्तर० ७१। २०-२१)
‘राम’, ‘राम’, ‘राम’, ‘राम’—इस प्रकार बार-बार जप करनेवाला चाण्डाल हो तो भी वह पवित्रात्मा हो जाता है—इसमें कोई संदेह नहीं है। उसने केवल नामका उच्चारण करते ही कुरुक्षेत्र, काशी, गया और द्वारका आदि सम्पूर्ण तीर्थोंका सेवन कर लिया।
किं वै तीर्थे ते तात पृथिव्यामटने कृते।
यस्य वै नाममहिमा श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात्॥
तन्मुखं तु महत्तीर्थं तन्मुखं क्षेत्रमेव च।
यन्मुखे राम रामेति तन्मुखं सार्वकामिकम्॥
(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड ७१।३३-३४)
देवर्षि नारदजी कहते हैं— जिनके नामका ऐसा माहात्म्य है कि उसके सुननेमात्रसे मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है, उनका आश्रय छोड़कर तीर्थसेवनके लिये पृथ्वीपर भटकनेकी क्या आवश्यकता है। जिस मुखमें ‘राम’-‘राम’ का जप होता रहता है, वह मुख ही महान् तीर्थ है, वही प्रधान क्षेत्र है तथा वही समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है।
तन्मुखं परमं तीर्थं यत्रावर्तं वितन्वती।
नमो नारायणायेति भाति प्राची सरस्वती॥
(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड ७१। १७)
जहाँ ‘नमो नारायणाय’ रूपसे आवर्तका विस्तार करती हुई (इन शब्दोंको दुहराती हुई) प्राचीसरस्वती (वाणीरूप नदी) बहती है, वह मुख ही परम तीर्थ है।
अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान्
यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम्।
तेपुस्तपस्ते जुहुवु: सस्नुरार्या
ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते॥
(श्रीमद्भागवत ३। ३३। ७)
देवहूतिजी कहती हैं—अहो! वह चाण्डाल भी सर्वश्रेष्ठ है, जिसकी जिह्वाके अग्रभागपर आपका नाम विराज रहा है। जो आपका नाम उच्चारण करते हैं, उन्होंने तप, हवन, तीर्थ-स्नान,सदाचारका पालन और वेदाध्ययन— सब कुछ कर लिया।
कुरुक्षेत्रेण किं तस्य किं काश्या विरजेन वा।
जिह्वाग्रे वर्तते यस्य हरिरित्यक्षरद्वयम्॥
(नारदमहापुराण, उत्तर० ७। ४)
ब्रह्माजी कहते हैं—जिसकी जिह्वाके अग्रभागपर ‘हरि’ ये दो अक्षर विराजमान हैं, उसे कुरुक्षेत्र, काशी और विरज-तीर्थके सेवनकी क्या आवश्यकता है।
इस प्रकार तीर्थोंकी तुलनामें भगवन्नामका माहात्म्य सर्वत्र गाया गया है। ऊपर उसमेंसे कुछ ही श्लोक उद्धृत किये गये हैं। नामकी महिमा अतुलनीय है। विशेषतया कलियुगके प्राणियोंके लिये तो भगवन्नाम ही एकमात्र परम साध्य और परम साधन है। जिसने नामका आश्रय ले लिया, उसका जीवन निश्चय ही सफल हो चुका। यहाँ नीचे कुछ नाम-महिमाके महान् वाक्योंका अनुवाद दिया जाता है। उनसे यदि पाठकोंका ध्यान नाम-जप-कीर्तनकी ओर आकर्षित हुआ और वे भगवन्नाम-जप-कीर्तनमें लग गये तो उनका और जगत् का महान् कल्याण होगा। भगवान् के पवित्र नामोंके जप-कीर्तनमें वर्णाश्रमका कोई नियम नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अन्त्यज, स्त्री—सभी भगवन्नामके अधिकारी हैं, सभी भगवान् का नामकीर्तन करके पापोंसे मुक्त हो सनातन पदको प्राप्त कर सकते हैं—
ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या: स्त्रिय: शूद्रान्त्यजातय:।
यत्र तत्रानुकुर्वन्ति विष्णोर्नामानुकीर्तनम्।
सर्वपापविनिर्मुक्तास्तेऽपि यान्ति सनातनम्॥
न भगवन्नाममें देशकालका नियम है, न शुद्धि-अशुद्धिका और न अपवित्र-पवित्र अवस्थाका नियम है। चाहे जहाँ, चाहे जब, चाहे जैसी स्थितिमें—चलते-फिरते, खाते-पीते, सोते—सभी समय भगवान् के नामका कीर्तन करके मनुष्य बाहर-भीतरसे पवित्र हो परमात्माको प्राप्त कर लेता है।
भगवान् विष्णुके पार्षद यमदूतोंसे कहते हैं—
बड़े-बड़े महात्मा पुरुष यह जानते हैं कि संकेतमें, (किसी दूसरे अभिप्रायसे) परिहासमें, तान अलापनेमें अथवा किसीकी अवहेलना करनेमें भी यदि कोई भगवान् के नामोंका उच्चारण करता है तो उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य गिरते समय, पैर फिसलते समय, अंग-भंग होते समय और साँपके द्वारा डँसे जाते समय, आगमें जलते तथा चोट लगते समय भी विवशतासे (अभ्यासवश, बिना किसी प्रयत्नके) ‘हरि-हरि’ कहकर भगवान् के नामका उच्चारण कर लेता है, वह यमयातनाका पात्र नहीं रह जाता।*
* सांकेत्यं पारिहास्यं वा स्तोभं हेलनमेव वा।
वैकुण्ठनामग्रहणमशेषाघहरं विदु:॥
पतित: स्खलितो भग्न: संदष्टस्तप्त आहत:।
हरिरित्यवशेनाह पुमान् नार्हति यातनाम्॥
(श्रीमद्भागवत ६। २। १४-१५)
यमदूतो! जान या अनजानमें भगवान् के नामोंका संकीर्तन करनेसे मनुष्यके सारे पाप भस्म हो जाते हैं। जैसे कोई परमशक्तिशाली अमृतको उसका गुण न जानकर अनजानमें पी ले, तो भी वह अवश्य ही पीनेवालेको अमर बना देता है, वैसे ही अनजानमें उच्चारित करनेपर भी भगवान् का नाम अपना फल देकर ही रहता है। (वस्तुशक्ति श्रद्धाकी अपेक्षा नहीं करती।)
भगवान् शंकर देवी पार्वतीसे कहते हैं—
‘राम’—यह दो अक्षरोंका मन्त्र जपे जानेपर समस्त पापोंका नाश करता है। चलते, बैठते, सोते (जब कभी भी) जो मनुष्य राम-नामका कीर्तन करता है, वह यहाँ कृतकार्य होकर जाता है और अन्तमें भगवान् हरिका पार्षद बनता है*।
* रामेति द्वॺक्षरजप: सर्वपापापनोदक:।
गच्छंस्तिष्ठन् शयानो वा मनुजो रामकीर्तनात्॥
इह निर्वर्तितो याति चान्ते हरिगणो भवेत्।
(स्कन्दपुराण, नागरखण्ड)
‘राम’ यह मन्त्रराज है, यह भय एवं व्याधिका विनाशक है। उच्चारित होनेपर यह द्वॺक्षर मन्त्रराज पृथ्वीमें समस्त कार्योंको सफल करता है। गुणोंकी खान इस राम-नामका देवतागण भी भलीभाँति गान करते हैं। अतएव हे देवेश्वरि! तुम भी सदा राम-नाम कहा करो। जो राम-नामका जप करता है, वह सारे पापोंसे (मोहजनित समस्त सूक्ष्म और स्थूल पापोंसे) छूट जाता है।
मुनि आरण्यक भगवान् श्रीरामभद्रसे कहते हैं—
श्रीराघवेन्द्र! ब्रह्महत्याके समान पाप भी तभीतक गर्जते हैं, जबतक आपके नामोंका स्पष्टरूपसे उच्चारण नहीं किया जाता। आपके नामोंकी गर्जना सुनकर महापातकरूपी मतवाले हाथी कहीं छिपनेके लिये जगह ढूँढ़ते हुए भाग खड़े होते हैं। महान् पाप करनेके कारण कातर हृदयवाले मनुष्योंको तभीतक पापका भय रहता है, जबतक वे अपनी जीभसे परम मनोहर राम-नामका उच्चारण नहीं करते*।
* तावत् पापभय: पुंसां कातराणां सुपापिनाम्।
यावन्न वदते वाचा रामनाम मनोहरम्॥
भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ब्रह्माजीसे कहते हैं—
जो कृष्ण! कृष्ण!! कृष्ण!!! यों कहकर मेरा प्रतिदिन स्मरण करता है, उसे—जिस प्रकार कमल जलको भेदकर ऊपर निकल आता है, उसी प्रकार—मैं नरकसे उबार लेता हूँ।१ जो विनोदसे, पाखण्डसे, मूर्खतासे, लोभसे अथवा छलसे भी मेरा भजन करता है, वह मेरा भक्त कभी कष्टमें नहीं पड़ता। मृत्युकाल उपस्थित होनेपर जो कृष्णनामकी रट लगाते हैं, वे यदि पापी हों तो भी कभी यमराजका दर्शन नहीं करते। पूर्व-अवस्थामें किसीने सम्पूर्ण पाप किये हों, तथापि यदि वह अन्तकालमें श्रीकृष्ण-नामका स्मरण कर लेता है तो निश्चय ही मुझे प्राप्त होता है। मृत्यु-काल उपस्थित होनेपर यदि कोई ‘परमात्मा श्रीकृष्णको नमस्कार है’ इस प्रकार विवश होकर भी कहे तो वह अविनाशी पदको प्राप्त होता है। जो श्रीकृष्णका उच्चारण करके प्राण-त्याग करता है, उसे प्रेतराज यम दूरसे ही खड़े होकर भगवद्धाममें जाते देखते हैं। यदि ‘कृष्ण-कृष्ण’ रटता हुआ कोई श्मशानमें अथवा रास्तेमें भी मर जाता है तो वह भी मुझे ही प्राप्त होता है—इसमें संशय नहीं है। जो मेरे भक्तोंका दर्शन करके कहीं मृत्युको प्राप्त होता है, वह मनुष्य मेरा स्मरण किये बिना भी मोक्ष प्राप्त कर लेता है।२ बेटा! पापरूपी प्रज्वलित अग्निसे भय न करो, श्रीकृष्णके नामरूपी मेघोंके जलकी बूँदोंसे उसे सींचकर बुझा दिया जा सकता है। तीखी दाढ़ोंवाले कलिकालरूपी सर्पका क्या भय है? श्रीकृष्णके नामरूपी ईंधनसे उत्पन्न आगके द्वारा वह जलकर नष्ट हो जाता है।३ पापरूपी अग्निसे दग्ध होकर जो सत्कर्मकी चेष्टासे शून्य हो गये हैं, ऐसे मनुष्योंके लिये श्रीकृष्णके नाम-स्मरणके सिवा दूसरा कोई औषध नहीं है। संसार-समुद्रमें डूबकर जो महान् पापोंकी लहरोंमें गिर गये हैं, ऐसे मनुष्योंके लिये श्रीकृष्ण-स्मरणके सिवा दूसरी कोई गति नहीं है। जो पापी हैं, किंतु जो मरना नहीं चाहते, ऐसे मनुष्योंके लिये मृत्युकालमें श्रीकृष्ण-चिन्तनके सिवा परलोक-यात्राके उपयुक्त दूसरा कोई पाथेय (राहखर्च) नहीं है। उसीका जन्म और जीवन सफल है तथा उसीका मुख सार्थक है, जिसकी जिह्वा सदा कृष्ण-कृष्णकी रट लगाये रहती है। समस्त पापोंको भस्म कर डालनेके लिये मुझ भगवान् के नाममें जितनी शक्ति है, उतना पातक कोई पातकी मनुष्य कर ही नहीं सकता।४ कृष्ण-कृष्णके कीर्तनसे मनुष्यके शरीर और मन कभी श्रान्त नहीं होते, उसे पाप नहीं लगता और विकलता भी नहीं होती। जो श्रीकृष्ण-नामोच्चारण-रूपी पथ्यका कलियुगमें त्याग नहीं करता, उसके चित्तमें पापरूपी रोग नहीं पैदा होते। श्रीकृष्ण-नामका कीर्तन करते हुए मनुष्यकी आवाज सुनकर दक्षिण दिशाके अधिपति यमराज उसके सौ जन्मोंके पापोंका परिमार्जन कर देते हैं। सैकड़ों चान्द्रायण और सहस्रों पराक-व्रतसे जो पाप नष्ट नहीं होता, वह ‘कृष्ण-कृष्ण’ ध्वनिसे चला जाता है। कोटि-कोटि चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणमें स्नान करनेसे जो फल बतलाया गया है, उसे मनुष्य ‘कृष्ण-कृष्णके कीर्तनमात्रसे पा लेता है।’ जो जिह्वा कलिकालमें श्रीकृष्णके गुणोंका कीर्तन नहीं करती, वह दुष्टा मुँहमें न रहे, रसातलको चली जाय। जो कलियुगमें श्रीकृष्णके गुणोंका प्रयत्नपूर्वक कीर्तन करती है, वह जिह्वा अपने मुखमें हो या दूसरेके मुखमें, वन्दना करनेयोग्य है। जो दिन-रात श्रीकृष्णके गुणोंका कीर्तन नहीं करती, वह जिह्वा नहीं—मुखमें कोई पापमयी लता है, जिसे जिह्वाके नामसे पुकारा जाता है। जो ‘श्रीकृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, श्रीकृष्ण’ इस प्रकार श्रीकृष्णनामका कीर्तन नहीं करती, वह रोगरूपिणी जिह्वा सौ टुकड़े होकर गिर जाय।५
१-कृष्ण कृष्णेति कृष्णेति यो मां स्मरति नित्यश:।
जलं भित्त्वा यथा पद्मं नरकादुद्धराम्यहम्॥
(स्कन्द, वैष्णव० मार्ग० १५। ३६)
२-दर्शनान्मम भक्तानां मृत्युमाप्नोति य: क्वचित्।
विना मत्स्मरणात् पुत्र मुक्तिमेति स मानव:॥
(१५।४३)
३-पापानलस्य दीप्तस्य भयं मा कुरु पुत्रक।
श्रीकृष्णनाममेघोत्थै: सिच्यते नीरविन्दुभि:॥
कलिकालभुजंगस्य तीक्ष्णदंष्ट्रस्य किं भयम्।
श्रीकृष्णनामदारूत्थवह्निदग्ध: स नश्यति॥
(१५।४४-४५)
४-जीवितं जन्म सफलं मुखं तस्यैव सार्थकम्।
सततं रसना यस्य कृष्ण कृष्णेति जल्पति॥
नाम्नोऽस्य यावतीशक्ति: पापनिर्दहने मम।
तावत् कर्तुं न शक्नोति पातकं पातकी जन:॥
(१५।५१—५३)
५-मुखे भवतु मा जिह्वासती यातु रसातलम्।
न सा चेत् कलिकाले या श्रीकृष्णगुणवादिनी॥
स्ववक्त्रे परवक्त्रे च वन्द्या जिह्वा प्रयत्नत:।
कुरुते या कलौ पुत्र श्रीकृष्णगुणकीर्तनम्॥
पापवल्ली मुखे तस्य जिह्वारूपेण कीर्त्यते।
या न वक्ति दिवारात्रौ श्रीकृष्णगुणकीर्तनम्॥
पततां शतखण्डा तु सा जिह्वा रोगरूपिणी।
श्रीकृष्ण कृष्ण कृष्णेति श्रीकृष्णेति न जल्पति॥
(१५। ६३—६६)
योगेश्वर सनकजी श्रीनारदजीसे कहते हैं—
सत्ययुगमें ध्यान, त्रेतामें यज्ञोंद्वारा यजन और द्वापरमें भगवान् का पूजन करके मनुष्य जिस फलको पाता है, उसे ही कलियुगमें केवल भगवान् केशवका कीर्तन करके पा लेता है।
जो मानव निष्काम अथवा सकामभावसे ‘नमो नारायणाय’ का कीर्तन करते हैं, उनको कलियुग बाधा नहीं देता।
जो लोग प्रतिदिन ‘हरे! केशव! गोविन्द! जगन्मय! वासुदेव!’ इस प्रकार कीर्तन करते हैं, उन्हें कलियुग बाधा नहीं पहुँचाता अथवा जो शिव, शंकर, रुद्र, ईश, नीलकण्ठ, त्रिलोचन इत्यादि महादेवजीके नामोंका उच्चारण करते हैं, उन्हें भी कलियुग बाधा नहीं देता। नारदजी! ‘महादेव! विरूपाक्ष! गंगाधर! मृड्! और अव्यय।’ इस प्रकार जो शिव-नामोंका कीर्तन करते हैं, वे कृतार्थ हो जाते हैं अथवा जो ‘जनार्दन! जगन्नाथ! पीताम्बरधर! अच्युत!’ इत्यादि विष्णु-नामोंका उच्चारण करते हैं, उन्हें इस संसारमें कलियुगसे भय नहीं है।
‘भगवन्नाममें अनुरक्त चित्तवाले पुरुषोंका अहोभाग्य है, अहोभाग्य है! वे देवताओंके लिये भी पूज्य हैं। इसके अतिरिक्त अन्य अधिक बातें कहनेसे क्या लाभ! अत: मैं सम्पूर्ण लोकोंके हितकी बात कहता हूँ कि भगवन्नामपरायण मनुष्योंको कलियुग कभी बाधा नहीं दे सकता! भगवान् विष्णुका नाम ही, नाम ही, नाम ही मेरा जीवन है! कलियुगमें दूसरी कोई गति नहीं है, नहीं है, नहीं है।’
अहो भाग्यमहो भाग्यं हरिनामरतात्मनाम्।
त्रिदशैरपि ते पूज्या: किमन्यैर्बहुभाषितै:॥
हरेर्नामैव नामैव नामैव मम जीवनम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
(नारदमहापुराण, पूर्व० ४१।११३, ११५)
श्रीश्रुतदेव कहते हैं—
हँसीमें, भयसे, क्रोधसे, द्वेषसे, कामसे अथवा स्नेहसे, पापी-से-पापी मनुष्य भी यदि एक बार श्रीहरिका पापहारी नाम उच्चारण कर लेते हैं तो वे भी भगवान् विष्णुके निरामय धाममें जा पहुँचते हैं।
हास्याद् भयात्तथा क्रोधाद् द्वेषात् कामादथापि वा।
स्नेहाद् वा सकृदुच्चार्य विष्णोर्नामाघहारि च॥
पापिष्ठा अपि गच्छन्ति विष्णोर्धाम निरामयम्।
(स्कन्द०, वैष्णवखण्ड, वैशाखमाहात्म्य २१। ३६-३७)
भक्त प्रह्लाद कहते हैं—
जो मनुष्य नित्य ‘कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण’ का जप करता है, कलियुगमें श्रीकृष्णपर उसका निरन्तर प्रेम बढ़ता है।
जो मनुष्य जागते-सोते समय प्रतिदिन ‘कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण’ कीर्तन करता है, वह श्रीकृष्णस्वरूप हो जाता है।
कलियुगमें श्रीकृष्णका कीर्तन करनेसे मनुष्य अपनी बीती हुई सात पीढ़ियों और आनेवाली चौदह पीढ़ियोंके सब लोगोंका उद्धार कर देता है।
अतीतान् सप्तपुरुषान् भविष्यांश्च चतुर्दश।
नरस्तारयते सर्वान् कलौ कृष्णेति कीर्तनात्॥
(स्कन्द०, प्रभासखण्ड, द्वारकामाहात्म्य)
यमराज अपने दूतोंको आदेश देते हैं—‘जहाँ भगवान् विष्णु तथा भगवान् शिवके नामोंका उच्चारण होता है, वहाँ मत जाया करो।’ इसपर उन्होंने हरि-हरकी १०८ नामोंकी नामावलि कही है—‘जो धर्मराजरचित सारे पापोंका बीज-नाश करनेवाली सुललित हरि-हर-नामावलिका नित्य जप करेगा, उसका पुनर्जन्म नहीं होगा।
नामावलि नीचे दी जाती है—
गोविन्द माधव मुकुन्द हरे मुरारे
शम्भो शिवेश शशिशेखर शूलपाणे।
दामोदराच्युत जनार्दन वासुदेव
त्याज्या भटा य इति संततमामनन्ति॥
गंगाधरान्तकरिपो हर नीलकण्ठ
वैकुण्ठ कैटभरिपो कमठाब्जपाणे।
भूतेश खण्डपरशो मृड चण्डिकेश
त्याज्या भटा य इति संततमामनन्ति॥
विष्णो नृसिंह मधुसूदन चक्रपाणे
गौरीपते गिरिश शंकर चन्द्रचूड।
नारायणासुरनिबर्हण शार्ङ्गपाणे
त्याज्या भटा य इति संततमामनन्ति॥
मृत्युंजयोऽग्र विषमेक्षण कामशत्रो
श्रीकान्त पीतवसनाम्बुदनील शौरे।
ईशान कृत्तिवसन त्रिदशैकनाथ
त्याज्या भटा य इति संततमामनन्ति॥
लक्ष्मीपते मधुरिपो पुरुषोत्तमाद्य
श्रीकण्ठ दिग्वसन शान्त पिनाकपाणे।
आनन्दकन्द धरणीधर पद्मनाभ
त्याज्या भटा य इति संततमामनन्ति॥
सर्वेश्वर त्रिपुरसूदन देवदेव
ब्रह्मण्यदेव गरुडध्वज शंखपाणे।
त्र्यक्षोरगाभरण बालमृगांकमौले
त्याज्या भटा य इति संततमामनन्ति॥
श्रीराम राघव रमेश्वर रावणारे
भूतेश मन्मथरिपो प्रमथाधिनाथ।
चाणूरमर्दन हृषीकपते मुरारे
त्याज्या भटा य इति संततमामनन्ति॥
शूलिन् गिरीश रजनीशकलावतंस
कंसप्रणाशन सनातन केशिनाश।
भर्ग त्रिनेत्र भव भूतपते पुरारे
त्याज्या भटा य इति संततमामनन्ति॥
गोपीपते यदुपते वसुदेवसूनो
कर्पूरगौर वृषभध्वज भालनेत्र।
गोवर्धनोद्धरण धर्मधुरीण गोप
त्याज्या भटा य इति संततमामनन्ति॥
स्थाणो त्रिलोचन पिनाकधर स्मरारे
कृष्णानिरुद्ध कमलाकर कल्मषारे।
विश्वेश्वर त्रिपथगार्द्रजटाकलाप
त्याज्या भटा य इति संततमामनन्ति॥
अष्टोत्तराधिकशतेन सुचारुनाम्नां
संदर्भितां ललितरत्नकदम्बकेन।
सन्नामकां दृढगुणां द्विजकण्ठगां य:
कुर्यादिमां स्रजमहो स यमं न पश्येत्।
अगस्तिरुवाच
यो धर्मराजरचितां ललितप्रबन्धां
नामावलीं सकलकल्मषबीजहन्त्रीम्।
धीरोऽत्र कौस्तुभभृत: शशिभूषणस्य
नित्यं जपेत् स्तनरसं स पिबेन्न मातु:॥
(स्कन्द०, काशी० पूर्वार्द्ध० अध्याय ८)