भगवान् श्रीकृष्णके सार्वभौम
कल्याणकारी वचनामृत
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च।
नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नम:॥
नम: पंकजनाभाय नम: पंकजमालिने।
नम: पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजाङ्घ्रये॥
श्रीकृष्ण स्वयं भगवान् हैं, श्रीकृष्ण सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, सर्वमय-सर्वातीत, सर्वगुणमय-सर्वगुणातीत, महान् अणु, अचिन्त्यानन्त, परस्परविरोधीगुणधर्माश्रय, सर्वशक्तिमान्, सर्वलोक-महेश्वर, सर्वान्तर्यामी साक्षात् भगवान् हैं। श्रीकृष्ण अजन्मा, अविनाशी, हानोपादानरहित, देह-देही-भेदशून्य, नित्य-सत्य, सच्चिदानन्दघन, दिव्य विग्रह हैं और षोडशकलासम्पूर्ण अवतार हैं। यह सब होते हुए भी वे ऐतिहासिक आदर्श महापुरुष हैं। महाभारत आदि इतिहासोंमें उनकी सच्ची जीवनघटनाओंको लेकर सर्वत्र उन्हींका गुणगान विविध प्रकारोंसे किया गया है। भगवान् श्रीकृष्ण सभी आदर्श गुणोंके आकर तथा मूल उद्गम हैं और जीवनके सभी क्षेत्रोंमें उनकी परम आदर्श लीला और नित्य-सत्य उपदेशवाणी विद्यमान हैं, जो अनन्त कालतक सभी क्षेत्रोंके नर-नारियोंको उनके संघर्षमय जीवनमें निश्चित विजयदायिनी सफलता प्रदान करनेमें सहायता करती रहेगी। नित्य उज्ज्वल प्रकाश दिखाकर मार्गदर्शन करती रहेगी। संसारमें रहकर संसारसे पृथक् रहने, निरन्तर कर्मसंलग्न रहकर नैष्कर्म्य सिद्धि प्राप्त करने, सब कुछ करते हुए भी कुछ न करने, अपने प्रत्येक कर्मके द्वारा मानव-सेवा करने और प्रत्येक क्रियाको भगवत्पूजन बनानेकी सिद्ध कला-कौशलकी शिक्षा देती रहेगी। वस्तुत: अखिल विश्वके अखिल प्राणियोंके लिये उनकी अपनी-अपनी विभिन्न समस्याओंको सुलझाकर यथार्थ मार्गपर अग्रसर होनेके सुअवसर और सौभाग्य प्रदान करनेमें भगवान् श्रीकृष्णकी आदर्श लीला और अमृतमयी वाणी ही एकमात्र परम अमोघ साधन है।
भगवान् श्रीकृष्णके दिव्य वचनोंसे हमारे पुराण-इतिहास भरे पड़े हैं। जो लोग श्रीमद्भागवत और महाभारतके श्रीकृष्णको दो मानते हैं, वे सर्वथा भ्रममें हैं। महाभारतमें ही ऐसे विभिन्न प्रसंग मिलते हैं, जिनसे दोनोंका सर्वथा एक होना सिद्ध है। उदाहरणके लिये यहाँ दो-एक उद्धरण दिये जा रहे हैं। महाभारतके द्रोणपर्वमें धृतराष्ट्र संजयसे कह रहे हैं—
शृणु दिव्यानि कर्माणि वासुदेवस्य संजय।
कृतवान् यानि गोविन्दो यथा नान्य: पुमान् क्वचित्॥
संवर्धता गोपकुले बालेनैव महात्मना।
विख्यापितं बलं बाह्वोस्त्रिषु लोकेषु संजय॥
उच्चै:श्रवस्तुल्यबलं वायुवेगसमं जवे।
जघान हयराजं तं यमुनावनवासिनम्॥
दानवं घोरकर्माणं गवां मृत्युमिवोत्थितम्।
वृषरूपधरं बाल्ये भुजाभ्यां निजघान ह॥
संजय! वसुदेवकुमार भगवान् श्रीकृष्णके दिव्य कर्मोंका वर्णन सुनो। भगवान् गोविन्दने जो-जो कार्य किये हैं, वैसे दूसरा कोई पुरुष कभी नहीं कर सकता। संजय! बाल्यावस्थामें जब कि वे गोकुलमें पल रहे थे, उन महात्मा श्रीकृष्णने अपनी भुजाओंके बल-पराक्रमको तीनों लोकोंमें विख्यात कर दिया था। यमुनाके तटवर्ती वनमें उच्चै:श्रवाके तुल्य बलवान् और वायुके समान वेगवान् अश्वराज केशी रहता था। उसे श्रीकृष्णने मार दिया था। इसी प्रकार एक घोर कर्म करनेवाला दानव वहाँ बैलका रूप धारण करके रहता था, जो गौओंके लिये मृत्यु बनकर ही प्रकट हुआ था। उसे भी श्रीकृष्णने बाल्यावस्थामें अपने हाथोंसे ही मार डाला था।
द्रौपदीने चीर-हरणके समय अत्यन्त व्याकुल अवस्थामें भी श्रीकृष्णको ‘गोपीजनप्रिय’, ‘व्रजनाथ’ और ‘गोविन्द’ आदि नामोंसे पुकारा है।
इसी प्रकार श्रीमद्भागवतमें भी पाण्डवोंका प्रसंग बार-बार आया है और श्रीकृष्णको बार-बार ‘देवकीपुत्र’ कहा गया है। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि महाभारतकी बड़ी गम्भीर और श्रीमद्भागवतकी नटखट लीला करनेवाले श्रीकृष्ण दो नहीं, एक ही थे।
पाश्चात्य विद्वान् प्रो० विण्टरनीजने कहा था कि ‘पाण्डवसखा श्रीकृष्ण, विष्णुके अवतार श्रीकृष्ण, हरिवंशके श्रीकृष्ण—तीनों रूप एक व्यक्तिके नहीं हो सकते।’ इसी भ्रान्त मतका दुर्भाग्यवश हमारे कुछ भारतीय विद्वान् भी समर्थन करने लगे। यह पाश्चात्य अन्धानुकरणका ही परिणाम है।
इसी प्रकार श्रीकृष्ण काव्य-कल्पित या बहुत इधरके व्यक्ति हों, सो बात भी नहीं है, वे ऐतिहासिक व्यक्ति हैं और अबसे पाँच हजारसे अधिक वर्ष पूर्व यहाँ विद्यमान थे। भारतीय इतिहासका सूक्ष्म अनुसंधान करनेवाले राव बहादुर श्रीचिन्तामण विनायक वैद्यने सिद्ध किया था कि श्रीकृष्णका प्राकट्य चन्द्रगुप्तसे २८२० वर्ष अर्थात् ईस्वी सन् से ३१४० वर्ष पूर्व हुआ था।
भारतीय आस्तिक जनताके लिये तथा भक्तोंके लिये तो इन बातोंका कोई भी मूल्य नहीं है। उनके लिये तो श्रीकृष्ण उनकी नित्य-प्रत्यक्ष-अनुभूति तथा परम दृढ़ सहज विश्वासके आधारपर साक्षात् भगवान् हैं और उनकी महाभारत, श्रीमद्भागवत आदि ग्रन्थोंमें वर्णित लीलाएँ सभी परम दिव्य और सत्य हैं। ऐसे सर्वेश्वर, योगेश्वर, सर्वजनमान्य भगवान् श्रीकृष्णने अपने जीवन-लीलाप्रसंगोंमें जिन महत्त्वपूर्ण वचनामृतोंकी धारा बहायी है, वह सर्वतोमुखी है और सार्वभौम है। उनकी दिव्य वाणी श्रीमद्भगवद्गीता तो सार्वभौम ग्रन्थ माना ही जाता है। उनकी अन्यान्य महती वचनसुधा भी अपने-अपने क्षेत्रमें सबके लिये परम उपादेय और सर्वजन कल्याणकारिणी है। बड़े आनन्दका विषय है कि भगवान् श्रीकृष्णकी परम श्रेष्ठ वचन-सुधासे पूर्ण कल्याणका श्रीकृष्ण वचनामृतांक ‘विशेषांक’ प्रकाशित किया गया, जिससे नमूनेके तौरपर भगवान् की कुछ वचनावली नीचे दी जाती है। इसका अध्ययन कितना अधिक ज्ञानदायक, पथ-प्रदर्शक और उपयोगी होगा और जिन मूल ग्रन्थोंसे इन वचनोंका संक्षिप्त संकलन किया गया है, वे तथा वैसे ही अन्यान्य श्रीकृष्णवचनसुधासम्पन्न ग्रन्थोंका पठन-पाठन कितना कल्याणकारी होगा। अब भगवान् के कुछ वचनामृतोंकी बानगी देखिये और इनसे लाभ उठाइये।
पण्डित (ज्ञानी) अनिवार्य व्यवहार-भेदवाले प्राणियोंमें भी समदर्शी होते हैं
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ५। १८)
वे ज्ञानीजन विद्या-विनयसम्पन्न ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डालमें भी समदर्शी ही होते हैं। (इनमें समान व्यवहार असम्भव है,पर वे सबमें एक परमात्माको समभावसे देखते हैं।)
ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येऽर्के स्फुलिंगके।
अक्रूरे क्रूरके चैव समदृक् पण्डितो मत:॥
नरेष्वभीक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात्।
स्पर्धासूयातिरस्कारा: साहंकारा वियन्ति हि॥
विसृज्य स्मयमानान् स्वान् दृशं व्रीडां च दैहिकीम्।
प्रणमेद् दण्डवद् भूमावाश्वचाण्डालगोखरम्॥
(श्रीमद्भागवत ११। २९। १४—१६)
जो ब्राह्मण, चाण्डाल, चोर, ब्राह्मणभक्त, सूर्य, चिनगारी तथा कृपालु और क्रूरमें समदृष्टि रखता है, उसीको सच्चा पण्डित (ज्ञानी) समझना चाहिये। जब सभी नर-नारियोंमें निरन्तर मेरी (भगवान् की) ही भावना की जाती है, तब थोड़े ही समयमें उस पुरुषके चित्तमें स्पर्धा, ईर्ष्या, (दूसरेके प्रति) तिरस्कार और (अपनेमें) अहंकार आदि दोष दूर हो जाते हैं। अपने ही लोग यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी परवा न करे। ‘मैं अच्छा हूँ, वह बुरा है’ ऐसी देह-दृष्टिको और लोक-लज्जाको छोड़ दे तथा कुत्ते, चाण्डाल, गौ और गधेको भी पृथ्वीपर गिरकर साष्टांग दण्डवत् -प्रणाम करे।
पण्डित (ज्ञानी) कौन है?
यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिता:।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ४। १९)
जिसके सम्पूर्ण (शास्त्रसम्मत) कर्म बिना कामना और संकल्पके होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्निके द्वारा दग्ध हो गये हैं, उसको ज्ञानीजन पण्डित कहते हैं।
समदर्शी महात्माका व्यवहार
यस्य स्युर्वीतसंकल्पा: प्राणेन्द्रियमनोधियाम्।
वृत्तय: स विनिर्मुक्तो देहस्थोऽपि हि तद्गुणै:॥
यस्यात्मा हिंस्यते हिंस्रैर्येन किंचिद् यदृच्छया।
अर्च्यते वा क्वचित्तत्र न व्यतिक्रियते बुध:॥
न स्तुवीत न निन्देत कुर्वत: साध्वसाधु वा।
वदतो गुणदोषाभ्यां वर्जित: समदृङ्मुनि:॥
(श्रीमद्भागवत ११। ११।१४—१६)
जिनके प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धिकी समस्त चेष्टाएँ बिना संकल्पके होती हैं, वे देहमें स्थित रहकर भी उसके गुणोंसे मुक्त हैं। उन तत्त्वज्ञ मुक्त पुरुषोंके शरीरको चाहे हिंसकलोग पीड़ा पहुँचायें और चाहे कभी कोई दैवयोगसे पूजा करने लगें—वे न तो किसीके सतानेसे दु:खी होते हैं और न पूजा करनेसे सुखी। जो समदर्शी महात्मा गुण और दोषकी भेददृष्टिसे ऊपर उठ गये हैं, वे न तो अच्छे काम करनेवालेकी स्तुति करते हैं और न बुरे काम करनेवालेकी निन्दा, न वे किसीकी अच्छी बात सुनकर उसकी सराहना करते हैं और न बुरी बात सुनकर किसीको झिड़कते ही हैं।
ब्रह्मज्ञानी न हर्षित होता है, न उद्विग्न
न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य नोद्विजेत् प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ५। २०)
जो पुरुष प्रियको प्राप्त होकर हर्षित नहीं होता और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न नहीं होता, वह स्थिरबुद्धि, मोहरहित ब्रह्मवेत्ता पुरुष परब्रह्म (परमात्मा)-में स्थित है।
आत्मा और भगवान् को सर्वत्र देखनेवाला योगी श्रेष्ठ है
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ६। २९—३२)
सर्वव्यापी अनन्त चेतनमें ऐक्यभावसे स्थितिरूप योगसे युक्त आत्मावाला तथा सबमें समभावसे देखनेवाला योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें देखता है। जो पुरुष सर्वत्र मुझ भगवान् वासुदेवको ही देखता है और सबको मुझ वासुदेवमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता। जो पुरुष मुझमें ऐक्यभावमें स्थित होकर सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मरूपसे स्थित मुझे भजता है, वह योगी सब प्रकारसे बर्तता हुआ भी मुझमें ही बर्तता है। अर्जुन! जो योगी अपने सदृश सम्पूर्ण भूतोंमें सम देखता है और सुख अथवा दु:खको भी सबमें (अपने सदृश ही) सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।
ज्ञानी पुरुषकी अनुभूति
यदि स्म पश्यत्यसदिन्द्रियार्थं
नानानुमानेन विरुद्धमन्यत्।
न मन्यते वस्तुतया मनीषी
स्वाप्नं यथोत्थाय तिरोदधानम्॥
(श्रीमद्भागवत ११। २८। ३२)
यदि ज्ञानी पुरुषकी दृष्टिमें इन्द्रियोंके विविध बाह्य विषय जो कि असत् हैं, आते भी हैं तो वह उन्हें अपने आत्मासे भिन्न नहीं मानता, क्योंकि ये युक्तियों, प्रमाणों और स्वानुभूतिसे सिद्ध नहीं होते। जैसे नींद टूट जानेपर स्वप्नमें देखे हुए और जागनेपर तिरोहित हुए पदार्थोंको कोई सत्य नहीं मानता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष भी अपनेसे भिन्न प्रतीयमान पदार्थोंको सत्य नहीं मानते।
एष स्वयंज्योतिरजोऽप्रमेयो
महानुभूति: सकलानुभूति:।
एकोऽद्वितीयो वचसां विरामे
येनेषिता वागसवश्चरन्ति॥
(श्रीमद्भागवत ११। २८। ३५)
उद्धवजी! आत्मा नित्य अपरोक्ष है, उसकी प्राप्ति नहीं करनी पड़ती। वह स्वयंप्रकाश है। उसमें अज्ञान आदि किसी प्रकारके विकार नहीं हैं। वह जन्मरहित है अर्थात् कभी किसी प्रकार भी वृत्तिमें आरूढ़ नहीं होता, इसलिये अप्रमेय है। ज्ञान आदिके द्वारा उसका संस्कार भी नहीं किया जा सकता। आत्मामें देश, काल और वस्तुकृत परिच्छेद न होनेके कारण अस्तित्व, वृद्धि, परिवर्तन, ह्रास और विनाश—उसका स्पर्श भी नहीं कर सकते। सबकी ओर सब प्रकारकी अनुभूतियाँ आत्मस्वरूप ही हैं। जब मन और वाणी आत्माको अपना अविषय समझकर निवृत्त हो जाते हैं तब वही सजातीय, विजातीय और स्वगतभेदसे शून्य एक अद्वितीय रह जाता है। व्यवहारदृष्टिसे उसके स्वरूपका वाणी और प्राण आदिके प्रवर्तकके रूपमें निरूपण किया जाता है।
ज्ञानाग्निसे सब कर्म भस्म हो जाते हैं
अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि॥
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ४। ३६-३७)
यदि तू सब पापियोंसे भी अधिक पाप करनेवाला है; तो भी तू ज्ञानरूप नौकाके द्वारा निश्चय ही समस्त पापोंसे भलीभाँति तर जायगा। अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनोंको भस्ममय कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको भस्ममय कर देती है।
भोगियोंकी रात्रि—मुनियोंके दिन
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता २। ६९)
समस्त प्राणियोंके लिये जो रात्रिके समान है, उसमें नित्यज्ञानस्वरूप परमानन्दको प्राप्त वह संयमी (स्थितप्रज्ञ) जागता है और जिस नाशवान् संसारके प्रपंचमें सब प्राणी जागते हैं, परमात्माके तत्त्वको जाननेवाले मुनिके लिये वह रात्रिके समान है।
उत्तम योगी कौन है?
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ६। ४७)
सब योगियोंमें जो श्रद्धावान् योगी मुझ (भगवान्)-में लगे अन्तरात्मासे मुझ (भगवान्)-को निरन्तर भजता है, वह मुझको अति उत्तम योगी मान्य है।
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १२।२)
मुझमें मनको एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन-ध्यानमें लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धासे युक्त होकर मुझ दिव्य साकार— सगुणस्वरूप परमेश्वरको भजते हैं, वे मुझको योगियोंमें अति उत्तम योगी मान्य हैं।
महात्मा ही निरपेक्ष सुखको जानते हैं
जानन्ति सन्त: समदर्शिनो ये
दान्ता महान्त: किल नैरपेक्षा:।
ते नैरपेक्ष्यं परमं सुखं मे
ज्ञानेन्द्रियादीनि यथा रसादीन्॥
(गर्गसंहिता, वृन्दावन० २२।२४)
जो समदर्शी, इन्द्रियविजयी, अपेक्षारहित महात्मा संत हैं, वे ही मेरे निरपेक्ष परम सुखको जानते हैं, जैसे रसादिका ज्ञान ज्ञानेन्द्रियोंको ही होता है।
शान्तिको कौन प्राप्त होता है?
विहाय कामान् य: सर्वान् पुमांश्चरति नि:स्पृह:।
निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति॥
(श्रीमद्भगवद्गीता २।७१)
जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंको त्यागकर, स्पृहारहित, ममतारहित और अहंकाररहित होकर विचरता है, वही शान्तिको प्राप्त होता है।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ५। २९)
मैं (भगवान्) सब यज्ञ-तपोंका भोक्ता हूँ, सम्पूर्ण लोकोंका महान् ईश्वर हूँ और वही मैं समस्त भूत-प्राणियोंका सुहृद् हूँ।
इस प्रकार तत्त्वसे मुझको जान लेनेपर मनुष्य शान्तिको प्राप्त होता है।
कृतकृत्य कौन है?
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ३।१७)
अवश्य ही जो मनुष्य आत्मामें ही रमण करनेवाला और आत्मामें ही तृप्त तथा आत्मामें ही संतुष्ट हो, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।
सुखपूर्वक बन्धनसे मुक्त कौन होता है?
ज्ञेय: स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात् प्रमुच्यते॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ५।३)
महाबाहु अर्जुन! जो पुरुष न किसीसे द्वेष करता है और न आकांक्षा करता है, उसे सदा संन्यासी ही समझना चाहिये, क्योंकि राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।
स्थितप्रज्ञ सम रहता है
दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥
(श्रीमद्भगवद्गीता २।५६)
दु:खोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता, सुखोंके लिये जो सर्वथा नि:स्पृह रहता है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नहीं रहते हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है।
कर्म करते हुए भी किसको बन्धन नहीं होता?
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर:।
सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ४।२२)
जो बिना इच्छाके अपने-आप प्राप्त हुई परिस्थितिमें सदा संतुष्ट रहता है, जिसमें मत्सरताका सर्वथा अभाव हो गया है, जो हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वोंसे सर्वथा अतीत हो गया है—सिद्धि और असिद्धिमें सम रहनेवाला ऐसा पुरुष कर्म करते हुए भी बँधता नहीं।
कर्म करते हुए ही निष्पाप कौन रहता है?
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति य:।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ५। १०)
जो पुरुष सब कर्मोंको ब्रह्ममें अर्पण करके और आसक्तिको त्यागकर कर्म करता है, वह जलसे कमलके पत्तेकी भाँति पापसे लिप्त नहीं होता।
आत्माकी अमरता
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:॥
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन:॥
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥
(श्रीमद्भगवद्गीता २। २३—२५)
इस आत्माको शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता; क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह अदाह्य, अक्लेद्य और नि:संदेह अशोष्य है और यह नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहनेवाला तथा सनातन है। यह आत्मा अव्यक्त है, अचिन्त्य है और विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्माको उपर्युक्त प्रकारसे जानकर तू शोक करनेके योग्य नहीं है (तुझे शोक करना उचित नहीं है)।
कैसे भक्त भगवान् को प्रिय हैं?
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी॥
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥
अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ:।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान् य: स मे प्रिय:॥
सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो:।
शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: संगविवर्जित:॥
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी संतुष्टो येन केनचित्।
अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान् मे प्रियो नर:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १२। १३—१९)
जो पुरुष सब भूतोंमें द्वेषभावसे रहित, सबका ही स्वार्थरहित मित्र और हेतुरहित दयालु, ममता और अहंकारसे रहित, दु:ख-सुखोंकी प्राप्तिमें सम, क्षमाशील (अपराध करनेवालोंका भी कल्याण करनेवाला), योगी, निरन्तर संतुष्ट, मन-इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें रखनेवाला और मुझमें दृढ़ निश्चयवाला है, वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है। जिससे किसी जीवको उद्वेग नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीवके द्वारा उद्वेगको प्राप्त नहीं होता, जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादिसे रहित है, वह भक्त मुझको प्रिय है। जो पुरुष आकांक्षासे रहित, बाहर-भीतरसे शुद्ध, दक्ष, उदासीन—पक्षपातसे रहित और व्यथाओंसे मुक्त है, वह (अपने लिये) सारे आरम्भोंका त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है। जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है और न आकांक्षा करता है तथा जो शुभ-अशुभ (दोनों प्रकारके) सम्पूर्ण कर्मोंका त्यागी है, वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है। जो शत्रु-मित्रमें और मान-अपमानमें सम है, सर्दी-गरमी और सुख-दु:खादि द्वन्द्वोंमें सम है, आसक्तिसे रहित है, निन्दा-स्तुतिको समान समझनेवाला है, मौन (मननशील) है, जिस किसी प्रकारसे भी शरीरका निर्वाह होनेमें सदा संतुष्ट है और घरमें (रहनेके स्थानमें) ममता और आसक्तिरहित है, वह स्थिर-बुद्धि भक्तिमान् पुरुष मुझको प्रिय है।
चार प्रकारके भक्त
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:॥
उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ७।१६—१९)
अर्जुन! सुकृती, अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी—ऐसे चार प्रकारके भक्तजन मुझको भजते हैं। इन (चारों)-में मुझ भगवान् के साथ सदा संयुक्त और विशुद्ध अहैतुक अनन्य प्रेमसम्पन्न ज्ञानी भक्त विशेषरूपसे अति उत्तम है। एकमात्र मुझ भगवान् को ही (परम श्रेयस्वरूप परम श्रेष्ठ और परम प्रेयस्वरूप परम प्रेष्ठ) जाननेवाला वह तत्त्वज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है। यह ज्ञानी भक्त ज्ञानकी परानिष्ठा रूप पराभक्ति अथवा विशुद्ध प्रेमके द्वारा समग्र भगवान् का भजन करके ब्रह्मकी भी प्रतिष्ठारूप भगवान् के पुरुषोत्तमस्वरूपको जान लेता है। भोगविमुख तथा भगवद्विमुख होकर भगवान् के लिये ही अपने-अपने भावानुसार भगवान् का भजन करनेवाले होनेके कारण ये सभी उदार हैं, परंतु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा आत्मा ही है— ऐसा मेरा मत है, क्योंकि वह मद्गत मन-बुद्धिवाला ज्ञानी भक्त परमोत्तम गतिस्वरूप मुझ भगवान् में ही अच्छी प्रकार स्थित है। बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें (पराभक्ति-परायण ज्ञानकी परानिष्ठाको प्राप्त) ज्ञानी भक्त मुझ भगवान् को इस प्रकार भजता है कि सब कुछ वासुदेव ही है। (इनमें परम श्रेयकी भावनावालेको विश्वरूप सर्वत्र व्यापक वासुदेव—ब्रह्मका अनुभव होता है और परम प्रेमभाववाले ज्ञानी भक्तको जहाँ उसके नेत्र जाते हैं, वहीं अपने परम प्रेष्ठ भगवान् वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण दिखायी देते हैं। ऐसे महात्मा जगत् का अभाव नहीं देखते—जगत् को सर्वत्र सर्वथा एकमात्र भगवान् से ही परिपूर्ण देखते हैं—सर्वत्र भगवान् को ही अभिव्यक्त पाते हैं।) ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।
भक्तका स्वरूप, महत्त्व और उसके प्रति भगवान् का प्रेम
अकिंचनस्य दान्तस्य शान्तस्य समचेतस:
मया संतुष्टमनस: सर्वा: सुखमया दिश:॥
न पारमेष्ठॺं न महेन्द्रधिष्ण्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा
मय्यर्पितात्मेच्छति मद् विनान्यत्॥
न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शंकर:।
न च संकर्षणो न श्रीर्नैवात्मा च यथा भवान्॥
निष्किंचना मय्यनुरक्तचेतस:
शान्ता महान्तोऽखिलजीववत्सला:।
कामैरनालब्धधियो जुषन्ति यत्
तन्नैरपेक्ष्यं न विदु: सुखं मम॥
(श्रीमद्भागवत ११। १४। १३—१५,१७)
जिसने अपनी मानकर किसी भी वस्तुको नहीं रखा है और जो सब प्रकारके संग्रह-परिग्रहसे रहित—अकिंचन है, जो अपनी इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके शान्त और समदर्शी हो गया है, जो मेरी प्राप्तिसे ही मेरे सान्निध्यका अनुभव करके ही सदा-सर्वदा पूर्ण संतोषका अनुभव करता है, उसके लिये आकाशका एक-एक कोना आनन्दसे भरा हुआ है।
जिसने अपनेको मुझे सौंप दिया है, वह मुझे छोड़कर न तो ब्रह्माका पद चाहता है और न देवराज इन्द्रका। उसके मनमें न तो सार्वभौम सम्राट् बननेकी इच्छा होती है और न वह स्वर्गसे भी श्रेष्ठ रसातलका ही स्वामी होना चाहता है। वह योगकी बड़ी-बड़ी सिद्धियों और मोक्षतककी अभिलाषा नहीं करता। उद्धव! मुझे तुम्हारे-जैसे प्रेमी भक्त जितने प्रियतम हैं, उतने प्रिय मेरे पुत्र ब्रह्मा, आत्मा शंकर, सगे भाई बलरामजी, स्वयं अर्धांगिनी लक्ष्मीजी और मेरा अपना आत्मा भी नहीं है। ऐसा मेरा भक्त किसीकी अपेक्षा नहीं देखता, जगत् के चिन्तनसे सर्वथा उपरत होकर मेरे ही मनन-चिन्तनमें तल्लीन रहता है और राग-द्वेष न रखकर सबके प्रति समान दृष्टि रखता है, जो सब प्रकारके संग्रह-परिग्रहसे रहित हैं—यहाँतक कि शरीर आदिमें भी अहंता-ममता नहीं रखते, जिनका चित्त मेरे ही प्रेमके रंगमें रँग गया है, जो संसारकी वासनाओंसे शान्त—उपरत हो चुके हैं और जो अपनी महत्ता-उदारताके कारण स्वभावसे ही समस्त प्राणियोंके प्रति दया और प्रेमका भाव रखते हैं, किसी प्रकारकी कामना जिनकी बुद्धिका स्पर्श नहीं कर पाती, उन्हें मेरे जिस परमानन्द-स्वरूपका अनुभव होता है, उसे और कोई नहीं जान सकता, क्योंकि वह परमानन्द तो केवल निरपेक्षतासे ही प्राप्त होता है।
न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता॥
भक्त्याहमेकया ग्राह्य: श्रद्धयाऽऽत्मा प्रिय: सताम्।
भक्ति: पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात्॥
धर्म: सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता।
मद्भक्त्यापेतमात्मानं न सम्यक् प्रपुनाति हि॥
(श्रीमद्भा० ११। १४। २०—२२)
उद्धव! योग-साधन, ज्ञान-विज्ञान, धर्मानुष्ठान, जप-पाठ और तप-त्याग मुझे प्राप्त करानेमें उतने समर्थ नहीं हैं, जितनी दिनोंदिन बढ़नेवाली मेरी अनन्य प्रेममयी भक्ति। मैं संतोंका प्रियतम आत्मा हूँ, मैं अनन्य श्रद्धा और अनन्य भक्तिसे ही पकड़में आता हूँ। मुझे प्राप्त करनेका यह एक ही उपाय है। मेरी अनन्य भक्ति उन लोगोंको भी पवित्र जातिदोषसे मुक्त कर देती है, जो जन्मसे ही चाण्डाल हैं। इसके विपरीत जो मेरी भक्तिसे वंचित हैं, उनके चित्तको सत्य और दयासे युक्त धर्म और तपस्यासे युक्त विद्या भी भलीभाँति पवित्र करनेमें असमर्थ है।
भगवान् भक्तके पीछे-पीछे घूमा करते हैं
निरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्।
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभि:॥
(श्रीमद्भागवत ११। १४। १६)
भक्तके पीछे-पीछे मैं निरन्तर यह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसके चरणोंकी धूल उड़कर मेरे ऊपर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ।
भक्त त्रिभुवनको पवित्र करता है
वाग् गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति॥
(श्रीमद्भागवत ११। १४। २४)
जिसकी वाणी प्रेमसे गद्गद हो रही है, चित्त पिघलकर एक ओर बहता रहता है, एक क्षणके लिये भी रोनेका ताँता नहीं टूटता, परंतु जो कभी-कभी खिलखिलाकर हँसने भी लगता है। कहीं लाज छोड़कर ऊँचे स्वरसे गाने लगता है तो कहीं नाचने लगता है। भैया उद्धव! मेरा वह भक्त न केवल अपनेको बल्कि सारे संसारको पवित्र कर देता है।
भगवान् के गुण-श्रवणका फल
यथा यथाऽऽत्मा परिमृज्यतेऽसौ
मत्पुण्यगाथाश्रवणाभिधानै:।
तथा तथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मं
चक्षुर्यथैवांजनसम्प्रयुक्तम्॥
(श्रीमद्भागवत ११। १४। २६)
उद्धवजी! मेरी परम पावन लीला-कथाके श्रवण-कीर्तनसे ज्यों-ज्यों चित्तका मैल धुलता जाता है, त्यों-त्यों उसे सूक्ष्म वस्तुके—वास्तविक तत्त्वके दर्शन होने लगते हैं— जैसे अंजनके द्वारा नेत्रोंका दोष मिटनेपर उसमें सूक्ष्म वस्तुओंको देखनेकी शक्ति आने लगती है।
भगवान् के कीर्तनका महत्त्व
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद॥
मद्भक्तसदृशो लोके पिता माता गुरुर्न हि।
न बन्धुर्नापरे चैव इति वेदविदो विदु:॥
ये मत्कीर्तौ जनं सक्तं पृथक् कुर्वन्ति मानवा:।
तथा मद्द्वेषिणो नित्यं पतन्ति नरकेऽशुचौ॥
शृणोमि स्वयशोगानं प्रेम्णा भक्तैरुदाहृतम्।
कृतं गोपैश्च गोपीभिर्गानं त्यक्त्वा च कौतुकम्॥
(आदिपुराण १९। ३५, ३७—३९)
मैं न तो वैकुण्ठमें वास करता हूँ और न योगियोंके हृदयमें ही रहता हूँ। नारद! मेरे भक्त जहाँ मेरा गुण-कीर्तन या स्मरण करते हैं, मैं वहीं रहता हूँ। मेरे भक्तके समान संसारमें माता, पिता, गुरु या बन्धु कोई भी हितकर नहीं है—ऐसा वेदवादियोंका कथन है। जो मनुष्य मेरे कीर्तनमें लगे हुए व्यक्तिको कीर्तनसे अलग कर देते हैं, वे मेरे द्वेषी हैं और अपवित्र नरकमें गिरते हैं। मैं स्वयं अपने भक्त गोप-गोपियोंके द्वारा गाये गये गुणगानको बड़े चावसे सुनता हूँ।
भगवान् किसके द्वारा खरीदे गये?
गीत्वा च मम नामानि नर्त्तयेन्मम संनिधौ।
इदं ब्रवीमि ते सत्यं क्रीतोऽहं तेन चार्जुन॥
(आदिपुराण, बंगला संस्करण)
जो मेरे नामोंका गान करता हुआ मेरे श्रीविग्रहके सामने अथवा मुझे अपने समीप मानकर नाचता है, मैं यह तुमसे सत्य कहता हूँ, अर्जुन! मैं उसके द्वारा खरीद लिया गया हूँ।
भगवत्प्रेमसे आनन्द
कर्मेन्द्रियाणीह यथा रसादीं-
स्तथा सकामा मुनय: सुखं यत्।
मनाङ् न जानन्ति हि नैरपेक्ष्यं
गूढं परं निर्गुणलक्षणं तत्॥
ये राधिकायां त्वयि केशवे मयि
भेदं न कुर्वन्ति हि दुग्धशौक्ल्यवत्।
त एव मे ब्रह्मपदं प्रयान्ति
तद्धेतुकस्फूर्जितभक्तिलक्षणा:॥
(गर्गसंहिता, मथुरा० ४।२०, २४)
मेरी प्रीतिसे जो आनन्द होता है, वह निर्गुण, निरपेक्ष, अचिन्त्य एवं परम उत्तम है। उस सुखको सकामी मुनि नहीं जान सकते, ठीक उसी प्रकार जैसे रस आदि गुणको कर्मेन्द्रियाँ नहीं जानतीं। जिस प्रकार दूध तथा शुक्लवर्णमें अभेद-सम्बन्ध है, वैसे ही तुम राधिका और मैं केशव—इन दोनोंमें जो किसी तरहका अन्तर नहीं समझते वे ही परमधामके अधिकारी होते हैं; क्योंकि उनके हृदयमें अहैतुक प्रेमके भाव उठते रहते हैं।
चाण्डाल भक्तकी भी महत्ता
मद्भक्तान् शूद्रसामान्यादवमन्यन्ति ये नरा:।
नरकेष्वेव तिष्ठन्ति वर्षकोटिं नराधमा:॥
चाण्डालमपि मद्भक्तं नावमन्येत बुद्धिमान्।
अवमानात् पतन्त्येव नरके रौरवे नरा:॥
मम भक्तस्य भक्तेषु प्रीतिरभ्यधिका मम।
तस्मान्मद्भक्तभक्ताश्च पूजनीया विशेषत:॥
(महाभारत, आश्व० दाक्षिणात्यपाठ)
जो मनुष्य मेरे भक्तोंका शूद्रजातिमें जन्म होनेके कारण अपमान करते हैं, वे नराधम करोड़ों वर्षोंतक नरकोंमें निवास करते हैं। अत: चाण्डाल भी यदि मेरा भक्त हो तो बुद्धिमान् पुरुषको उसका अपमान नहीं करना चाहिये। अपमान करनेसे मनुष्यको रौरव नरकमें गिरना पड़ता है। जो मनुष्य मेरे भक्तोंके भक्त होते हैं, उनपर मेरा विशेष प्रेम होता है। इसलिये मेरे भक्तके भक्तोंका विशेष सत्कार करना चाहिये।
शूद्रका भक्तिपूर्वक दिया हुआ पदार्थ भगवान् सिर चढ़ाते हैं
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतं मूर्ध्ना गृह्णामि शूद्रत:॥
(महाभारत, आश्व० दाक्षिणात्यपाठ)
शूद्र भी यदि भक्तिपूर्वक मुझे पत्र, पुष्प, फल अथवा जल अर्पण करता है, तो मैं उसके भक्तिपूर्वक दिये हुए उपहारको सदा सिर चढ़ाता हूँ।
भगवान् भक्तमें, भक्त भगवान् में
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ९।२९)
मैं सब भूतोंमें सम हूँ। न कोई मेरा द्वेषका पात्र है और न प्रिय है, परंतु जो भक्त मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ।
पाप करनेवाला भी अनन्य भजन करनेपर शाश्वत शान्ति पाता है
अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग् व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ९।३०-३१)
यदि कोई अतिशय दुराचारी भी मेरा अनन्य भक्त होकर मुझको भजता है, तो वह साधु ही माननेयोग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परमशान्तिको प्राप्त होता है। कुन्तीपुत्र अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता (उसका अपनी स्थितिसे कभी पतन नहीं होता)।
भक्तिसे शीघ्र कर्मक्षय
नाभुक्तं क्षीयते कर्म जन्मान्तरशतैरपि।
मद्भक्त्या तद् बहु स्वल्पं विपरीतमभक्तित:॥
(आदिपुराण २०। ६९)
बिना भोगके सौ जन्मोंतक भी कर्मोंका नाश नहीं होता है। परंतु मेरी भक्तिसे महान् कर्म-राशि भी शीघ्र समाप्त हो जाती है और मेरी भक्तिके बिना थोड़े कर्म भी जल्दी नहीं क्षीण होते।
भगवान् को छोड़कर दूसरी ओर दौड़नेवाला मूर्ख है
मामेव य: परित्यज्य वस्तुनोऽर्थेऽभिधावति।
विवेकरहितो मूर्खो दु:खमेवाभिपद्यते॥
तस्य त्रैकालिकी हानिर्भवत्येवान्यथा न हि।
(आदिपुराण २८।१२-१३)
जो मुझे छोड़कर किसी दूसरी वस्तुके लिये दौड़ता है, वह विवेकरहित और मूर्ख है। उसे केवल दु:ख ही हाथ लगता है। उसे तीनों कालमें ही हानि होती है, सुख नहीं मिलता।
भक्तिपूर्वक अर्पित पदार्थ भगवान् खाते हैं
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ९।२६)
जो कोई भी भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं स्वयं प्रीतिसहित खाता हूँ।
सब भगवान् के अर्पण करनेवाला कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मदर्पणम्॥
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै:।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ९। २७-२८)
अर्जुन! तू जो कुछ करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर। (इस प्रकार जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान् के अर्पण होते हैं) ऐसे संन्यास-(समर्पण-) योगसे युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा।
भगवत्स्मरणकी महिमा
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजय:।
येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दन:॥
विष्णुर्माता पिता विष्णुर्विष्णु: स्वजनबान्धव:।
येषामेव स्थिरा बुद्धिर्न तेषां दुर्गतिर्भवेत्॥
मंगलं भगवान् विष्णुर्मंगलं गरुडध्वज:।
मंगलं पुण्डरीकाक्षो मंगलायतनं हरि:॥
(गरुडपुराण, उत्तर० ३५। ४५—४७)
जिनके हृदयमें कमल-दलके समान श्यामल भगवान् जनार्दन विराजते हैं, उन्हें निरन्तर लाभ एवं विजय है, उनकी पराजय (उन्हें दु:ख) कैसी? भगवान् विष्णु ही माता, पिता, स्वजन तथा बान्धव हैं— इस प्रकार जिनकी निश्चयात्मिका बुद्धि हो गयी है, उनकी दुर्गति नहीं होती। भगवान् विष्णु कल्याणस्वरूप हैं, भगवान् गरुडध्वज मंगलमय हैं, कमलके तुल्य नेत्रोंवाले भगवान् पुण्डरीकाक्ष शुभरूप हैं। भगवान् श्रीहरि समस्त मंगलोंके आवास हैं।
अनन्य चिन्तन करनेवालेके योगक्षेम भगवान् वहन करते हैं
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ९। २२)
जो अनन्य प्रेमी भक्तजन निरन्तर चिन्तन करते हुए मुझे निष्कामभावसे भजते हैं, उन नित्ययुक्त (नित्य-निरन्तर मेरे भजनपरायण रहनेवाले) पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ (उनके लिये अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तके संरक्षणका सारा भार मैं ही वहन करता हूँ)।
अपने कर्मसे भगवान् की पूजा
यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १८।४६)
जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंके द्वारा पूजा करके मनुष्य (भगवत्प्राप्तिरूप) सिद्धिको प्राप्त हो जाता है।
ध्यानका साधन
संकल्पप्रभवान् कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषत:।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्तत:॥
शनै: शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्॥
यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ६। २४—२६)
संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओंको नि:शेषरूपसे त्यागकर और मनके द्वारा इन्द्रियोंके समुदायको सभी ओरसे भलीभाँति रोककर, क्रम-क्रमसे अभ्यास करता हुआ उपरतिको प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा मनको परमात्मामें स्थित करके परमात्माके सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे। यह स्थिर न रहनेवाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषयके निमित्तसे संसारमें विचरता है, उस-उस विषयसे हटाकर इसे बार-बार परमात्मामें ही निरुद्ध करे।
भगवान् संसार-सागरसे तुरंत किसको तार देते हैं?
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा:।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात् पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १२। ६-७)
जो भक्त सम्पूर्ण कर्मोंका मुझमें संन्यास (पूर्ण समर्पण) करके, मेरे परायण (मुझको ही अनन्यगति, अनन्य प्रियतम, अनन्य साध्य और अनन्य साधन माननेवाले) होकर, अनन्य भक्तियोगके द्वारा निरन्तर मेरा चिन्तन करते हुए मुझको ही भजते हैं। अर्जुन! उन मुझमें आविष्टचित्त प्रेमी भक्तोंका मृत्युरूप संसार-सागरसे मैं शीघ्र ही समुद्धार (भलीभाँति पार) करनेवाला होता हूँ। (उन्हें अपने साधन-बलपर प्रयास करके— तैरकर संसार-समुद्र पार नहीं करना पड़ता। मैं अखिल-सौन्दर्य-माधुर्य-निधि स्वयं अपने साथ उन्हें सुखमय सुदृढ़ कृपापोतपर चढ़ाकर तुरंत ही पार उतार देता हूँ।)
सर्वगुह्यतम परम साधन—शरणागति
सर्वगुह्यतमं भूय: शृणु मे परमं वच:।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १८। ६४—६६)
(अब) तू सर्वगुह्यतम (सम्पूर्ण गोपनीयोंसे अति गोपनीय) मेरे परम श्रेष्ठ वचनको फिर भी सुन। तू मेरा दृढ़ इष्ट—अतिशय प्रिय है, अतएव तेरे ही (अथवा तेरे ही-जैसे प्रेमी भक्तोंके) हितके लिये मैं तुझसे यहपरम वचन कह रहा हूँ। अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करनेसे तू मुझको ही प्राप्त होगा—यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है। सब धर्मोंको त्यागकर तू केवल एक मुझ परम पुरुषोत्तम परमेश्वर श्रीकृष्णकी ही शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा! तू शोक मत कर।
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥
किं पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ९। ३२-३३)
अर्जुन! मेरे शरण होनेपर स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि (चाण्डालादि) कोई भी हों, वे सब परम गतिको ही प्राप्त होते हैं। फिर जो पुण्यशील ब्राह्मण तथा राजर्षि भक्त हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है। इसलिये तू इस सुखरहित और क्षणभंगुर मनुष्य-शरीरको प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर।
शरणागतके लिये शोककी वस्तु नहीं रह जाती
मां प्रपन्नो जन: कश्चिन्न भूयोऽर्हति शोचितुम्॥
(श्रीमद्भागवत १०। ५१। ४४)
जो पुरुष मेरी शरणमें आ जाता है, उसके लिये फिर ऐसी कोई वस्तु नहीं रह जाती, जिसके लिये वह शोक करे।
असम्मूढ़ कौन है?
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असंमूढ: स मर्त्येषु सर्वपापै: प्रमुच्यते॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १०। ३)
जो मुझ (श्रीकृष्ण)-को अजन्मा, अनादि और लोकोंका महान् ईश्वर तत्त्वसे जानता है, वह मनुष्योंमें असम्मूढ़ पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १५। १९)
भारत! जो असम्मूढ़ पुरुष मुझको इस प्रकार ‘पुरुषोत्तम’ जानता है वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे निरन्तर मुझको ही भजता है।
मूढ़ कौन है?
न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ७। १५)
जिनका ज्ञान मायाके द्वारा हरा गया है, जो आसुरीभावका आश्रय किये हैं तथा जो मनुष्योंमें अधम एवं दूषित कर्म करनेवाले हैं, वे मूढ़लोग मुझको (भगवान् को) नहीं भजते।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ९। ११)
समस्त भूत-प्राणियोंके महान् ईश्वररूप मेरे (भगवान् के)परम भावको न जाननेवाले मूढ़लोग मानव-शरीरधारी मुझ परमात्माको तुच्छ समझते हैं।
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १६। २०)
(आसुरी सम्पदावाले) मूढ़लोग मुझको (भगवान् को) न प्राप्त होकर जन्म-जन्ममें आसुरी योनिको प्राप्त होकर फिर उससे भी नीच गति (घोर नरक आदि)-को प्राप्त होते हैं।
गोपियोंका स्वरूप
ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिका:।
मामेव दयितं प्रेष्ठमात्मानं मनसा गता:।
ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान् बिभर्म्यहम्॥
(श्रीमद्भागवत १०। ४६। ४)
उन (गोपियों)-के प्राण, उनका जीवन, उनका सर्वस्व मैं ही हूँ। मेरे लिये उन्होंने अपने पति-पुत्र आदि सभी सगे-सम्बन्धियोंको छोड़ दिया है। उन्होंने बुद्धिसे भी मुझको ही अपना प्यारा, अपना प्रियतम—नहीं, नहीं, अपना आत्मा मान रखा है। मेरा यह व्रत है कि जो लोग मेरे लिये लौकिक और पारलौकिक धर्मोंको छोड़ देते हैं, उनका भरण-पोषण मैं स्वयं करता हूँ।
गोपी-महिमा
यथाहं च तथा यूयं नाहं भेद: श्रुतौ श्रुत:।
प्राणोऽहं चैव युष्माकं यूयं प्राणा मम प्रभो॥
व्रतं वो लोकरक्षार्थं न हि स्वार्थमिदं प्रिया:।
सहागताश्च गोलोकाद् गमनं च मया सह॥
गच्छत स्वालयं शीघ्रं वोऽहं जन्मनि जन्मनि।
प्राणेभ्योऽपि गरीयस्यो यूयं मे नात्र संशय:॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्म० २७। २३८—२४०)
जैसा मैं हूँ, वैसी ही तुम हो। हममें-तुममें भेद नहीं है। मैं तुम्हारे प्राण हूँ और तुम भी मेरे लिये प्राणस्वरूपा हो। प्यारी गोपियो! तुमलोगोंका यह व्रत लोकरक्षाके लिये है, स्वार्थ-सिद्धिके लिये नहीं; क्योंकि तुमलोग गोलोकसे मेरे साथ आयी हो और फिर मेरे साथ ही तुम्हें वहाँ चलना है (तुम मेरी नित्यसिद्धा प्रेयसी हो। तुमने साधन करके मुझे पाया है, ऐसी बात नहीं है)। अब शीघ्र अपने घर जाओ। मैं जन्म-जन्ममें तुम्हारा ही हूँ। तुम मेरे लिये प्राणोंसे भी बढ़कर हो, इसमें संशय नहीं है।
निजांगमपि या गोप्यो ममेति समुपासते।
ताभ्य: परं न मे पार्थ निगूढप्रेमभाजनम्॥
सहायागुरव: शिष्या भुजिष्या बान्धवा: स्त्रिय:।
सत्यं वदामि ते पार्थ गोप्य: किं मे भवन्ति न॥
मन्माहात्म्यं मत्सपर्यां मच्छ्रद्धां मन्मनोगतम्।
जानन्ति गोपिका: पार्थ नान्ये जानन्ति तत्त्वत:॥
(आदिपुराण)
अर्जुन! गोपियाँ अपने अंगोंको मेरी सेवाके लिये ही सुरक्षित रखती हैं, उन गोपियोंके अतिरिक्त मेरा निगूढ़ प्रेमपात्र और कोई नहीं है। वे मेरी सहायिका हैं, गुरु हैं, शिष्या हैं, बन्धु हैं तथा प्रेयसी हैं। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ—अर्जुन! गोपियाँ मेरी क्या नहीं होती हैं— वे सब कुछ हैं। पार्थ! मेरी यथार्थ महिमा, मेरी पूजा (सेवा), मेरी श्रद्धा और मेरे मनकी बातको तत्त्वसे केवल गोपियाँ ही जानती हैं, अन्य कोई नहीं जानता।
भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मकी प्रतिष्ठा हैं
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १४। २७)
उस अविनाशी परब्रह्मका, अमृतका, नित्य धर्मका और अखण्ड एकरस आनन्दका आश्रय मैं (पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ही) हूँ।
सारे यज्ञोंके भोक्ता और स्वामी भगवान् ही हैं
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ९। २४)
सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ, परंतु वे मुझ परमेश्वरको तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे उनका पतन होता है (वे पुनर्जन्मको प्राप्त होते हैं)।
भगवान् के सिवा और कुछ भी नहीं है
मत्त: परतरं नान्यत् किंचिदस्ति धनंजय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ७। ७)
धनंजय! मुझसे भिन्न अन्य कुछ भी नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्रमें (सूत्रके) मणियोंके सदृश मुझमें गुँथा हुआ है।
भगवान् में सत्य और धर्म
न ब्रवीम्युत्तरे मिथ्या सत्यमेतद् भविष्यति।
एष संजीवयाम्येनं पश्यतां सर्वदेहिनाम्॥
नोक्तपूर्वं मया मिथ्या स्वैरेष्वपि कदाचन।
न च युद्धात् परावृत्तस्तथा संजीवतामयम्॥
यथा मे दयितो धर्मो ब्राह्मणस्य विशेषत:।
अभिमन्यो: सुतो जातो मृतो जीवत्वयं तथा॥
यथाहं नाभिजानामि विजये तु कदाचन।
विरोधं तेन सत्येन मृतो जीवत्वयं शिशु:॥
यथा सत्यं च धर्मश्च मयि नित्यं प्रतिष्ठितौ।
तथा मृत: शिशुरयं जीवतादभिमन्युज:॥
यथा कंसश्च केशी च धर्मेण निहतौ मया।
तेन सत्येन बालोऽयं पुन: संजीवतामयम्॥
(महाभारत, आश्वमेधिक० ६९।१८—२३)
बेटी उत्तरा! मैं झूठ नहीं बोलता। मैंने जो प्रतिज्ञा की है, वह सत्य होकर ही रहेगी। देखो, मैं समस्त देहधारियोंके देखते-देखते अभी इस बालकको जिलाये देता हूँ। मैंने खेल-कूदमें भी कभी मिथ्या-भाषण नहीं किया है और युद्धमें कभी पीठ नहीं दिखायी है। इस शक्तिके प्रभावसे अभिमन्युका यह बालक जीवित हो जाय। यदि धर्म और ब्राह्मण मुझे विशेष प्रिय हों, तो अभिमन्युका यह पुत्र, जो पैदा होते ही मर गया था, फिर जीवित हो जाय। मैंने कभी अर्जुनसे विरोध किया हो, इसका स्मरण नहीं है, इस सत्यके प्रभावसे यह मरा हुआ बालक अभी जीवित हो जाय। यदि मुझमें सत्य और धर्मकी निरन्तर स्थिति बनी रहती हो तो अभिमन्युका यह मरा हुआ बालक जी उठे। यदि मैंने कंस और केशीका धर्मके अनुसार वध किया है, तो इस सत्यके प्रभावसे यह बालक फिर जीवित हो जाय।
सबमें भगवान् का तेज है
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १५। १२)
जो सूर्यमें स्थित तेज समस्त जगत् को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमामें है और जो अग्निमें है, उसको तू मेरा ही तेज जान।
भगवान् का अवतार कब और क्यों होता है?
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ४। ६—८)
अर्जुन! मैं अजन्मा, अविनाशीस्वरूप तथा समस्त प्राणियोंका ईश्वर रहते हुए ही अपनी प्रकृतिमें अधिष्ठित रहकर अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ। भारत! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपनेको उपर्युक्त रूपमें प्रकट करता हूँ। साधु पुरुषोंका परित्राण करनेके लिये, पाप-कर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी अच्छी तरहसे स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ।
भगवान् के जन्म-कर्मको जाननेके फल
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ४। ९)
अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य (अप्राकृत-अलौकिक) हैं, इस प्रकार जो तत्त्वसे जान लेता है, वह शरीरको त्यागकर फिर जन्मको प्राप्त नहीं होता, वह मुझे ही प्राप्त होता है।
भगवान् को जो जैसे भजता है, वैसे ही भगवान् उसे भजते हैं
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ४। ११)
जो मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ। अर्जुन! सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं।
श्रीकृष्णका मारनेवालेके साथ भी आदर्श व्यवहार
मा भैर्जरे त्वमुत्तिष्ठ काम एष कृतो हि मे।
याहि त्वं मदनुज्ञात: स्वर्गं सुकृतिनां पदम्॥
(श्रीमद्भा० ११। ३०। ३९)
व्याधके द्वारा पैरमें बाण मारनेपर उस व्याधसे भगवान् श्रीकृष्णने कहा—हे जरे! तू डर मत, उठ-उठ। यह तो तूने मेरे मनका काम किया है! जा, मेरी आज्ञासे तू उस स्वर्गमें निवास कर, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े पुण्यवानोंको होती है।
सत्संग तथा भक्तियोग
प्रायेण भक्तियोगेन सत्संगेन विनोद्धव।
नोपायो विद्यते सध्रॺङ् प्रायणं हि सतामहम्॥
(श्रीमद्भा० ११। ११। ४८)
प्यारे उद्धव! मेरा ऐसा निश्चय है कि सत्संग और भक्तियोग— इन दो साधनोंका एक साथ ही अनुष्ठान करते रहना चाहिये। प्राय: इन दोनोंके अतिरिक्त संसारसागरसे पार होनेका और कोई उपाय नहीं है, क्योंकि संतपुरुष मुझे अपना आश्रय मानते हैं और मैं सदा-सर्वदा उनके पास बना रहता हूँ।
सत्संगकी महिमा
न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म एव च।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा॥
व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमा:।
यथावरुन्धे सत्संग: सर्वसंगापहो हि माम्॥
(श्रीमद्भा० ११। १२। १-२)
जगत् में जितनी आसक्तियाँ हैं, उन्हें सत्संग नष्ट कर देता है। यही कारण है कि सत्संग जिस प्रकार मुझे वशमें कर लेता है, वैसा साधन न योग है, न सांख्य, न धर्मपालन और न स्वाध्याय। तपस्या, त्याग, इष्टापूर्त और दक्षिणासे भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता। कहाँतक कहूँ— व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ और यम-नियम भी सत्संगके समान मुझे वशमें करनेमें समर्थ नहीं हैं।
साधूनां समचित्तानां सुतरां मत्कृतात्मनाम्।
दर्शनान्नो भवेद् बन्ध: पुंसोऽक्ष्णो: सवितुर्यथा॥
(श्रीमद्भा० १०। १०। ४१)
जिनकी बुद्धि समदर्शिनी है और हृदय पूर्णरूपसे मेरे प्रति समर्पित है, उन साधु पुरुषोंके दर्शनसे बन्धन होना ठीक वैसे ही सम्भव नहीं है, जैसे सूर्योदय होनेपर मनुष्यके नेत्रोंके सामने अन्धकार होना।
मदर्थे धर्मकामार्थानाचरन् मदपाश्रय:।
लभते निश्चलां भक्तिं मय्युद्धव सनातने॥
सत्संगलब्धया भक्त्या मयि मां स उपासिता।
स वै मे दर्शितं सद्भिरंजसा विन्दते पदम्॥
(श्रीमद्भा० ११। ११। २४-२५)
प्रिय उद्धव! जो मेरा आश्रय लेकर मेरे ही लिये धर्म, काम और अर्थका सेवन करता है, उसे मुझ अविनाशी पुरुषके प्रति अनन्य प्रेममयी निश्चला भक्ति प्राप्त हो जाती है। भक्तिकी प्राप्ति सत्संगसे होती है, जिसे भक्ति प्राप्त हो जाती है, वह मेरी उपासना करता है, मेरे सांनिध्यका अनुभव करता है। इस प्रकार जब उसका अन्त:करण शुद्ध हो जाता है, तब वह संतोंके उपदेशोंके अनुसार उनके द्वारा बताये हुए मेरे परमपदको—वास्तविक स्वरूपको सहजहीमें प्राप्त हो जाता है।
संत ही महान् तीर्थ हैं
न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामया:।
ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधव:॥
नाग्निर्न सूर्यो न च चन्द्रतारका
न भूर्जलं खं श्वसनोऽथ वाङ्मन:।
उपासिता भेदकृतो हरन्त्यघं
विपश्चितो घ्नन्ति मुहूर्तसेवया॥
(श्रीमद्भा० १०। ८४। ११-१२)
केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते और केवल मिट्टी या पत्थरकी प्रतिमाएँ ही देवता नहीं होतीं; संत पुरुष ही वास्तवमें तीर्थ और देवता हैं। उन सबका बहुत समयतक सेवन किया जाय, तब वे पवित्र करते हैं, परंतु संत पुरुष तो दर्शनमात्रसे ही कृतार्थ कर देते हैं। अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, वाणी और मनके अधिष्ठातृदेवता उपासना करनेपर भी पापका पूरा-पूरा नाश नहीं कर सकते; क्योंकि उनकी उपासनासे भेद-बुद्धिका नाश नहीं होता, वह और भी बढ़ती है। परंतु यदि घड़ी-दो-घड़ी भी ज्ञानी महापुरुषोंकी सेवा की जाय तो वे सारे पाप-ताप मिटा देते हैं, क्योंकि वे भेद-बुद्धिके विनाशक हैं।
अमूल्य मानवशरीरके द्वारा भगवान् की प्राप्ति करनी चाहिये
न ह्यंगोपक्रमे ध्वंसो मद्धर्मस्योद्धवाण्वपि।
एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम्।
यत् सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम्॥
(श्रीमद्भा० ११। २९। २०, २२)
उद्धव! यह मेरा भागवत-धर्म है, इसको एक बार आरम्भ कर देनेके बाद फिर किसी भी विघ्न-बाधासे इसमें रत्तीभर भी अन्तर नहीं पड़ता। विवेकियोंके विवेक और चतुरोंकी चतुराईकी पराकाष्ठा इसीमें है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीरके द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्त्वको प्राप्त कर लें।
अहंकार महान् विष है
अहन्त्वविषचूर्णेन येषां कायो न मारित:।
कुर्वन्तोऽपि हरन्तोऽपि न च ते निर्विषूचिका:॥
(योगवासिष्ठ ६। २। ५३। १०)
जिनका शरीर अहंकाररूपी विषसे नष्ट नहीं हुआ, वे सब प्रकारके कार्योंको करते तथा उनका फल भोगते हुए भी सभी राग-रोगादि दोषोंसे मुक्त तथा स्वस्थ हैं।
ममतासे हानि और ममता-त्यागसे परम लाभ
द्वॺक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम्।
ममेति च भवेन्मृत्युर्न ममेति च शाश्वतम्॥
ब्रह्ममृत्यू ततो राजन्नात्मन्येव व्यवस्थितौ।
अदृश्यमानौ भूतानि योधयेतामसंशयम्॥
अविनाशोऽस्य सत्त्वस्य नियतो यदि भारत।
भित्त्वा शरीरं भूतानामहिंसां प्रतिपद्यते॥
लब्ध्वा हि पृथ्वीं कृत्स्नां सहस्थावरजंगमाम्।
ममत्वं यस्य नैव स्यात् किं तया स करिष्यति॥
अथवा वसत: पार्थ वने वन्येन जीवत:।
ममता यस्य द्रव्येषु मृत्योरास्ये स वर्तते॥
(महाभारत, आश्वमेधिक० १३।४—७)
‘मम’ (मेरा) ये दो अक्षर ही मृत्युरूप हैं और ‘न मम’ (मेरा नहीं है) यह तीन अक्षरोंका पद सनातन ब्रह्मकी प्राप्तिका कारण है। ममता मृत्यु है और उसका त्याग सनातन अमृतत्व है। राजन्! इस प्रकार मृत्यु और अमृत—दोनों अपने भीतर ही स्थित हैं। ये दोनों अदृश्य रहकर प्राणियोंको लड़ाते हैं अर्थात् किसीको अपना मानना और किसीको अपना न मानना यह भाव ही युद्धका कारण है, इसमें संशय नहीं। भरतनन्दन! यदि इस जगत् की सत्ताका विनाश न होना ही निश्चित हो, तब तो प्राणियोंके शरीरका भेदन करके भी मनुष्य अहिंसाका ही फल प्राप्त करेगा। चराचर प्राणियोंसहित समूची पृथ्वीको पाकर भी जिसकी उसमें ममता नहीं होती, वह उसको लेकर क्या करेगा अर्थात् उस सम्पत्तिसे उसका कोई अनर्थ नहीं हो सकता। किंतु कुन्तीनन्दन! जो वनमें रहकर जंगली फल-फूलोंसे ही जीवन-निर्वाह करता है, उसकी भी यदि द्रव्योंमें ममता है तो वह मौतके मुखमें ही विद्यमान है।
ममतारूपी मलके परित्यागमें ही कल्याण है
न क्वचिद् राजते कायो ममतामेध्यदूषित:।
प्राज्ञोऽप्यतिबहुज्ञोऽपि दु:शील इव मानुष:॥
(योगवासिष्ठ ६। २। ५३। ११)
जैसे अत्यन्त बुद्धिमान् तथा विशेषज्ञ व्यक्ति भी दुष्टस्वभावका होनेसे शोभा नहीं पाता, उसी प्रकार ममतारूपी मलमें लिपटा हुआ प्राणी भी कहीं शोभा नहीं पाता।
कामनाओंका निग्रह ही धर्म और मोक्षका मूल है
कामात्मानं न प्रशंसन्ति लोके
नेहाकामा काचिदस्ति प्रवृत्ति:।
सर्वे कामा मनसोऽङ्गप्रभूता
यान् पण्डित: संहरते विचिन्त्य॥
भूयो भूयो जन्मनोऽभ्यासयोगाद्
योगी योगं सारमार्गं विचिन्त्य।
दानं च वेदाध्ययनं तपश्च
काम्यानि कर्माणि च वैदिकानि॥
व्रतं यज्ञान् नियमान् ध्यानयोगान्
कामेन यो नारभते विदित्वा।
यद्यच्चायं कामयते स धर्मो
न यो धर्मो नियमस्तस्य मूलम्॥
(महाभारत, आश्वमेधिक० १३। ९—११)
जिसका मन कामनाओंमें आसक्त है, उसकी संसारके लोग प्रशंसा नहीं करते हैं। कोई भी प्रवृत्ति बिना कामनाके नहीं होती और समस्त कामनाएँ मनसे ही प्रकट होती हैं। विद्वान् पुरुष कामनाओंको दु:खका कारण मानकर उनका परित्याग कर देते हैं। योगी पुरुष अनेक जन्मोंके अभ्याससे योगको ही मोक्षका मार्ग निश्चित करके कामनाओंका नाश कर डालता है। जो इस बातको जानता है—वह दान, वेदाध्ययन, तप, वेदोक्त कर्म, व्रत, यज्ञ, नियम और ध्यान-योगादिका कामनापूर्वक अनुष्ठान नहीं करता तथा जिस कर्मसे वह कुछ कामना रखता है, वह धर्म नहीं है। वास्तवमें कामनाओंका निग्रह ही धर्म है और वही मोक्षका मूल है।
शम-तितिक्षा आदिके यथार्थ अर्थ
शमो मन्निष्ठता बुद्धेर्दम इन्द्रियसंयम:।
तितिक्षा दु:खसंमर्षो जिह्वोपस्थजयो धृति:॥
दण्डन्यास: परं दानं कामत्यागस्तप: स्मृतम्।
स्वभावविजय: शौर्यं सत्यं च समदर्शनम्॥
ऋतं च सूनृता वाणी कविभि: परिकीर्तिता।
कर्मस्वसंगम: शौचं त्याग: संन्यास उच्यते॥
धर्म इष्टं धनं नॄणां यज्ञोऽहं भगवत्तम:।
दक्षिणा ज्ञानसंदेश: प्राणायाम: परं बलम्॥
भगो म ऐश्वरो भावो लाभो मद्भक्तिरुत्तम:।
विद्याऽऽत्मनि भिदाबाधो जुगुप्सा ह्रीरकर्मसु॥
श्रीर्गुणा नैरपेक्ष्याद्या: सुखं दु:खसुखात्यय:।
दु:खं कामसुखापेक्षा पण्डितो बन्धमोक्षवित्॥
मूर्खो देहाद्यहंबुद्धि: पन्था मन्निगम: स्मृत:।
उत्पथश्चित्तविक्षेप: स्वर्ग: सत्त्वगुणोदय:॥
नरकस्तमउन्नाहो बन्धुर्गुरुरहं सखे।
गृहं शरीरं मानुष्यं गुणाढॺो ह्याढॺ उच्यते॥
(श्रीमद्भा० ११। १९। ३६—४३)
बुद्धिका मुझमें लग जाना ही ‘शम’ है। इन्द्रियोंके संयमका नाम ‘दम’ है। न्यायसे प्राप्त दु:खके सहनेका नाम ‘तितिक्षा’ है। जिह्वा और जननेन्द्रियपर विजय प्राप्त करना ‘धैर्य’ है। किसीसे द्रोह न करना, सबको अभय देना ‘दान’ है। कामनाओंका त्याग करना ही ‘तप’ है। अपनी वासनाओंपर विजय प्राप्त करना ही ‘शूरता’ है। सर्वत्र समस्वरूप, सत्यस्वरूप परमात्माका दर्शन ही ‘सत्य’ है। इसी प्रकार सत्य और मधुर भाषणको ही महात्माओंने ‘ऋत’ कहा है। कर्मोंमें आसक्त न होना ही ‘शौच’ है। कामनाओंका त्याग ही सच्चा ‘संन्यास’ है। धर्म ही मनुष्योंका अभीष्ट ‘धन’ है। मैं परमेश्वर ही ‘यज्ञ’ हूँ। ज्ञानका उपदेश देना ही ‘दक्षिणा’ है। प्राणायाम ही श्रेष्ठ ‘बल’ है। मेरा ऐश्वर्य ही ‘भग’ है। मेरी श्रेष्ठ भक्ति ही उत्तम ‘लाभ’ है। सच्ची ‘विद्या’ वही है, जिससे ब्रह्म और आत्माका भेद मिट जाता है। पाप करनेसे घृणा होनेका नाम ही ‘लज्जा’ है। निरपेक्षता आदि गुण ही शरीरका सच्चा सौन्दर्य—‘श्री’ है। दु:ख और सुख दोनोंकी भावनाका सदाके लिये नष्ट हो जाना ही ‘सुख’ है। विषयभोगोंकी कामना ही ‘दु:ख’ है। जो बन्धन और मोक्षका तत्त्व जानता है, वही ‘पण्डित’ है। शरीर आदिमें जिसका ‘मैं’ पन है, वही ‘मूर्ख’ है। जो संसारकी ओरसे निवृत्त करके मुझे प्राप्त करा देता है, वही सच्चा ‘सुमार्ग’ है। चित्तकी बहिर्मुखता ही ‘कुमार्ग’ है। सत्त्वगुणकी वृद्धि ही ‘स्वर्ग’ और सखे! तमोगुणकी वृद्धि ही ‘नरक’ है। गुरु ही सच्चा ‘भाई-बन्धु’ है और वह ‘गुरु’ मैं ही हूँ। यह मनुष्य-शरीर ही सच्चा ‘घर’ है तथा सच्चा ‘धनी’ वह है, जो गुणोंसे सम्पन्न है, जिसके पास गुणोंका खजाना है।
अहिंसा परम धर्म है
अहिंसा सर्वभूतानामेतत् कृत्यतमं मतम्॥
एतत् पदमनुद्विग्नं वरिष्ठं धर्मलक्षणम्।
(महाभारत, आश्वमेधिक०, अनु० ५०।२-३)
सब प्राणियोंकी अहिंसा ही सर्वोत्तम कर्तव्य है—ऐसा माना गया है। यह साधन उद्वेगरहित, सर्वश्रेष्ठ और धर्मको लक्षित करानेवाला है।
हिंसापराश्च ये केचिद् ये च नास्तिकवृत्तय:।
लोभमोहसमायुक्तास्ते वै निरयगामिन:॥
(महाभारत, आश्वमेधिक०, अनु० ५०। ४)
जो लोग प्राणियोंकी हिंसा करते हैं, नास्तिक वृत्तिका आश्रय लेते हैं और लोभ तथा मोहमें फँसे हुए हैं, उन्हें नरकमें गिरना पड़ता है।
सत्कर्मरहित दिन व्यर्थ जाता है
स्नानं दानं जपो होम: स्वाध्यायो देवतार्चनम्।
यस्मिन् दिने न सेव्यन्ते वृथा स दिवसो नृणाम्॥
यत् प्रात: संस्कृतं चान्नं सायं तच्च विनश्यति।
तदीयरससम्पुष्टे काये का नाम नित्यता॥
(गरुडपुराण, उत्तर० १३।१३, १५)
जिस दिन स्नान, दान, होम, स्वाध्याय (वेद-पुराण-पाठ, स्तोत्रमन्त्र-जप) देवपूजन—ये सब कर्म नहीं होते, मनुष्यका वह दिन व्यर्थ है। जो प्रात:काल अन्न तैयार होता है, वह संध्यातक नष्ट हो जाता है। फिर उसीके रससे पुष्ट इस शरीरकी नित्यता कैसी?
श्रद्धाकी महिमा
धनेन धार्यते धर्म: श्रद्धायुक्तेन चेतसा।
श्रद्धाविहीनो धर्मस्तु नेहामुत्र च वृद्धिभाक्॥
धर्मात् संजायते ह्यर्थो धर्मात् कामोऽभिजायते।
धर्म एवापवर्गाय तस्माद् धर्मं समाचरेत्॥
श्रद्धया धार्यते धर्मो बहुभिर्नार्थराशिभि:।
अकिंचना हि मुनय: श्रद्धावन्तो दिवंगता:॥
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पक्षिन् प्रेत्य नेह न तत्फलम्॥
(गरुडपुराण, उत्तर० २। २९—३२)
गरुड़! अत्यन्त श्रद्धायुक्त चित्तसे उपयोग करनेपर ही धनद्वारा धर्मकी प्राप्ति होती है। बिना श्रद्धाके किया गया धर्म इस लोक या परलोकमें कहीं भी फलीभूत नहीं होता। धर्मसे ही अर्थ एवं सुख-भोग प्राप्त होता है तथा धर्म ही मोक्षका कारण है, अत: धर्मका आचरण करना चाहिये। श्रद्धासे ही धर्म धारण किया जा सकता है, बहुत-सी धन-राशिसे नहीं। जिनके पास कुछ न था—ऐसे ऋषिगण भी श्रद्धासम्पन्न होनेके कारण स्वर्गको प्राप्त हो गये। बिना श्रद्धाके किये गये हवन, दान, तप तथा अन्य भी सभी कर्म असत् कहे जाते हैं और गरुड़! उनका फल न यहाँ मिलता है, न परलोकमें।
अश्रद्धासे कोई फल नहीं
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत् प्रेत्य नो इह॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १७।२८)
अर्जुन! अश्रद्धासे किया हुआ हवन, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म होता है, वह सब ‘असत् ’—इस प्रकार कहा जाता है। वह न तो मरनेके बाद ही और न इस लोकमें ही लाभदायक होता है।
सांख्ययोग और कर्मयोग फलरूपमें एक ही हैं
सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥
यत् सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ५। ४-५)
संन्यास और कर्मयोगको बाल-बुद्धिके लोग भी पृथक्-पृथक् (फल देनेवाले) बतलाते हैं, न कि विज्ञजन; क्योंकि इनमेंसे एकमें भी सम्यक् प्रकारसे स्थित पुरुष दोनोंके फल (रूप परमात्मा)-को प्राप्त होता है। ज्ञानयोगियोंके द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, वही कर्मयोगियोंके द्वारा भी प्राप्त किया जाता है। इसलिये जो पुरुष सांख्य और कर्मयोगको (फलरूपमें) एक देखता है, वही (यथार्थ) देखता है।
संन्यासी कौन है?
अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ६। १)
जो कर्मके फलको न चाहकर करनेयोग्य कर्म करता है, वही संन्यासी और योगी है और केवल अग्निका त्याग करनेवाला संन्यासी नहीं है तथा न केवल क्रियाओंका त्याग करनेवाला योगी ही है।
निष्कामकर्मयोग
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
योगस्थ: कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
(श्रीमद्भगवद्गीता २। ४७-४८)
तेरा कर्मोंमें ही अधिकार है, उनके फलोंमें कभी नहीं। इसलिये तू कर्मोंके फलकी वासनावाला मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो। धनंजय! तू आसक्तिको त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धिमें समबुद्धि होकर योगमें स्थित हुआ कर्तव्य-कर्मोंको कर। यह ‘समत्व’ ही योग कहलाता है।
स्वधर्ममें मरना भी श्रेष्ठ है
श्रेयान् स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ३। ३५)
अच्छी प्रकार आचरणमें लाये हुए पराये धर्मसे गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्ममें मरना भी श्रेष्ठ है, परंतु पराया धर्म भयकारक है।
ब्राह्मण, गौ, देश आदिके लिये प्राण-त्याग करनेवाला स्वर्गको जाता है
ब्राह्मणार्थे च गुर्वर्थे स्त्रीणां बालवधेषु च।
प्राणत्यागपरो यस्तु स वै मोक्षमवाप्नुयात्॥
गवार्थे देशविध्वंसे देवतीर्थविपत्सु च।
आत्मानं सम्परित्यज्य स्वर्गवासं लभन्ति ते॥
(गरुडपुराण, उत्तर० २८। १२,१४)
जो ब्राह्मण, गुरु, स्त्री तथा बालकोंकी रक्षामें अपना प्राण छोड़ देता है, वह सभी बन्धनोंसे मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। गोरक्षा, देश-विध्वंस, देवता तथा तीर्थोंके ऊपर आपत्ति पड़नेपर प्राणत्याग करनेवाला प्राणी स्वर्गमें वास करता है।
धारणाद् धर्ममित्याहुर्धर्मो धारयते प्रजा:।
यत् स्याद् धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चय:॥
(महाभारत, कर्ण० ६९। ५८)
धर्म ही प्रजाको धारण करता है और धारण करनेके कारण ही उसे ‘धर्म’ कहते हैं। इसलिये जो धारण—प्राणरक्षासे युक्त हो—जिसमें किसी भी जीवकी हिंसा न की जाती हो, वही धर्म है। ऐसा ही धर्मशास्त्रोंका सिद्धान्त है।
वर्णाश्रमधर्मका पालन आवश्यक है
मयोदितेष्ववहित: स्वधर्मेषु मदाश्रय:।
वर्णाश्रमकुलाचारमकामात्मा समाचरेत्॥
(श्रीमद्भा० ११। १०। १)
प्यारे उद्धव! साधकको चाहिये कि सब प्रकारसे मेरी शरणमें रहकर (गीता, पांचरात्र आदिमें) मेरे द्वारा उपदिष्ट अपने धर्मोंका सावधानीसे पालन करे।
भगवान् धर्मके पक्षमें हैं
यदि ह्येनं नाहनिष्यत् कर्ण: शक्त्या महामृधे॥
मया वध्योऽभविष्यत् स भैमसेनिर्घटोत्कच:।
मया न निहत: पूर्वमेष युष्मत्प्रियेप्सया॥
एष हि ब्राह्मणद्वेषी यज्ञद्वेषी च राक्षस:।
धर्मस्य लोप्ता पापात्मा तस्मादेष निपातित:॥
(महाभारत, द्रोण० १८१। २५—२७)
यदि महासमरमें कर्ण अपनी शक्तिद्वारा भीमसेनपुत्र घटोत्कचको नहीं मारता तो एक दिन मुझे उसका वध करना पड़ता। (भीमसेनका पुत्र होनेपर भी वह पापात्मा था। मेरी प्रीति वास्तवमें धर्मसे ही है) तुमलोगोंका प्रिय करनेकी इच्छासे ही मैंने इसे पहले नहीं मारा था। यह ब्राह्मण और यज्ञोंसे द्वेष रखनेवाला तथा धर्मका लोप करनेवाला पापात्मा राक्षस था, इसीलिये इसे मरवा दिया है।
धर्मसंस्थापनार्थं हि प्रतिज्ञैषा ममाप्यया।
ब्रह्म सत्यं दम: शौचं धर्मो ह्री: श्रीर्धृति: क्षमा॥
यत्र यत्र रमे नित्यमहं सत्येन ते शपे।
(महाभारत, द्रोण० १८१। २९-३०)
धर्मकी स्थापनाके लिये ही मैंने यह अटल प्रतिज्ञा कर रखी है। मैं तुमसे सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ कि जहाँ वेद, सत्य, दम, शौच, धर्म, लज्जा, श्री, धृति और क्षमाका निवास है, वहीं मैं सदा सुखपूर्वक रहता हूँ।
साधारण धर्म
अहिंसा सत्यमस्तेयमकामक्रोधलोभता।
भूतप्रियहितेहा च धर्मोऽयं सार्ववर्णिक:॥
(श्रीमद्भा० ११। १७। २१)
उद्धवजी! चारों वर्णों और चारों आश्रमोंके लिये साधारण धर्म यह है कि मन, वाणी और शरीरसे किसीकी हिंसा न करें, सत्यपर दृढ़ रहें, चोरी न करें, काम, क्रोध तथा लोभसे बचें और जिन कामोंके करनेसे समस्त प्राणियोंकी प्रसन्नता और उनका भला हो, वे ही करें।
ब्राह्मणकी महिमा
ये द्रुह्यन्ति द्विजान् मूढा: सन्ति ते मम शत्रव:॥
ये पूजयन्ति विप्रांश्च मम भावेन भूजना:।
ते भूञ्जन्ति सुखं चात्र ह्यन्ते यास्यन्ति मत्पदम्॥
(गर्गसंहिता, अश्वमेध० ५५। ५२-५३)
जो अविवेकीजन ब्राह्मणोंसे द्वेष रखते हैं, वे मेरे शत्रु हैं। जो मनुष्य मेरी भावनासे ब्राह्मणोंकी पूजा करते हैं, उन्हें संसारमें सुखकी उपलब्धि होती है और अन्तमें वे मेरे धामके अधिकारी होते हैं।
गोदानकी महत्ता
तैस्तैर्गुणै: कामदुघा च भूत्वा
नरं प्रदातारमुपैति सा गौ:।
स्वकर्मभिश्चाप्यनुवध्यमानं
तीव्रान्धकारे नरके पतन्तम्।
महार्णवे नौरिव वायुनीता
दत्ता हि गौस्तारयते मनुष्यम्॥
यथौषधं मन्त्रकृतं नरस्य
प्रयुक्तमात्रं विनिहन्ति रोगान्।
तथैव दत्ता कपिला सुपात्रे
पापं नरस्याशु निहन्ति सर्वम्॥
(महाभारत, आश्वमेधिक०, दाक्षिणात्यपाठ)
दानमें दी हुई गौ अपने विभिन्न गुणोंद्वारा कामधेनु बनकर परलोकमें दाताके पास पहुँचती है। वह अपने कर्मोंसे बँधकर घोर अन्धकारपूर्ण नरकमें गिरते हुए मनुष्यका उसी प्रकार उद्धार कर देती है, जैसे वायुके सहारेसे चलती हुई नाव मनुष्यको महासागरमें डूबनेसे बचाती है। जैसे मन्त्रके साथ दी हुई ओषधि प्रयोग करते ही मनुष्यके रोगोंका नाश कर देती है, उसी प्रकार सुपात्रको दी हुई कपिला गौ मनुष्यके सब पापोंको तत्काल नष्ट कर डालती है।
गौको घास देना महापुण्य है
तीर्थस्थानेषु यत्पुण्यं यत्पुण्यं विप्रभोजने।
सर्वव्रतोपवासेषु सर्वेष्वेव तप:सु च॥
यत्पुण्यं च महादाने यत्पुण्यं हरिसेवने।
भुव: पर्यटने यत्तु सर्ववाक्येषु यद् भवेत् ॥
यत्पुण्यं सर्वयज्ञेषु दीक्षायां च लभेन्नर:।
तत्पुण्यं लभते प्राज्ञो गोभ्यो दत्त्वा तृणानि च॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्म० २१। ८७—८९)
तीर्थ-स्थानोंमें जाकर स्नान-दानसे जो पुण्य प्राप्त होता है, ब्राह्मणोंको भोजन करानेसे जिस पुण्यकी प्राप्ति होती है, सम्पूर्ण व्रत-उपवास, सब तपस्या, महादान तथा श्रीहरिकी आराधना करनेपर जो पुण्य सुलभ होता है, सम्पूर्ण पृथ्वीकी परिक्रमा, सम्पूर्ण वेद-वाक्योंके स्वाध्याय तथा समस्त यज्ञोंकी दीक्षा ग्रहण करनेपर मनुष्य जिस पुण्यको पाता है, वही पुण्य बुद्धिमान् मानव गौओंको घास देकर पा लेता है।
गौको घास चरनेसे रोकना और गौ-ब्राह्मणको मारना महापाप है
भुक्तवन्तीं तृणं यश्च गां वारयति कामत:।
ब्रह्महत्या भवेत् तस्य प्रायश्चित्ताद् विशुध्यति॥
सर्वे देवा गवामंगे तीर्थानि तत्पदेषु च।
तद्गुह्येषु स्वयं लक्ष्मीस्तिष्ठत्येव सदा पित:॥
गोष्पदाक्तमृदा यो हि तिलकं कुरुते नर:।
तीर्थस्नातो भवेत् सद्यो जयस्तस्य पदे पदे॥
गावस्तिष्ठन्ति यत्रैव तत्तीर्थं परिकीर्तितम्।
प्राणांस्त्यक्त्वा नरस्तत्र सद्यो मुक्तो भवेद् ध्रुवम्॥
ब्राह्मणानां गवामंगं यो हन्ति मानवाधम:।
ब्रह्महत्यासमं पापं भवेत् तस्य न संशय:॥
नारायणांशान् विप्रांश्च गाश्च ये घ्नन्ति मानवा:।
कालसूत्रं च ते यान्ति यावच्चन्द्रदिवाकरौ॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्म० २१। ९०—९५)
जो घास चरती हुई गायको स्वेच्छापूर्वक चरनेसे रोकता है, उसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है तथा यह प्रायश्चित्त करनेपर ही शुद्ध होता है। पिताजी! सब देवता गौओंके अंगोंमें, सम्पूर्ण तीर्थ गौओंके पैरोंमें तथा स्वयं लक्ष्मी उनके गुह्य स्थानों (मल-मूत्रके स्थानों)-में सदा वास करती हैं। जो मनुष्य गायके पद-चिह्नसे युक्त मिट्टीद्वारा तिलक करता है, उसे तत्काल तीर्थ-स्नानका फल मिलता है और पग-पगपर उसकी विजय होती है। गौएँ जहाँ भी रहती हैं, उस स्थानको तीर्थ कहा गया है। वहाँ प्राणोंका त्याग करके मनुष्य तत्काल मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है। जो नराधम ब्राह्मणों तथा गौओंके शरीरपर प्रहार करता है, नि:संदेह उसे ब्रह्महत्याके समान पाप लगता है। जो नारायणके अंशभूत ब्राह्मणों तथा गौओंका वध करते हैं, वे मनुष्य जबतक चन्द्रमा और सूर्यकी सत्ता है, तबतकके लिये ‘कालसूत्र’ नामक नरकमें जाते हैं।
माता-पिताकी सेवाका महत्त्व
सर्वार्थसम्भवो देहो जनित: पोषितो यत:।
न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मर्त्य: शतायुषा॥
यस्तयोरात्मज: कल्प आत्मना च धनेन च।
वृत्तिं न दद्यात् तं प्रेत्य स्वमांसं खादयन्ति हि॥
मातरं पितरं वृद्धं भार्यां साध्वीं सुतं शिशुम्।
गुरुं विप्रं प्रपन्नं च कल्पोऽबिभ्रच्छ्वसन् मृत:॥
(श्रीमद्भा० १०। ४५। ६-७)
यदि कोई मनुष्य सौ वर्षतक जीकर माता और पिताकी सेवा करता रहे, तब भी वह उनके उपकारसे उऋण नहीं हो सकता। जो पुत्र सामर्थ्य रहते भी अपने माँ-बापकी शरीर और धनसे सेवा नहीं करता, उसके मरनेपर यमदूत उसे उसके अपने शरीरका मांस खिलाते हैं। जो पुरुष समर्थ होकर भी बूढ़े माता-पिता, सती पत्नी, बालक-संतान, गुरु, ब्राह्मण और शरणागतका भरण-पोषण नहीं करता, वह जीता हुआ भी मुर्देके समान ही है।
पितृमातृसमं लोके नास्त्यन्यद् दैवतं परम्।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन पूजयेत् पितरौ सदा॥
हितानामुपदेष्टा हि प्रत्यक्षं दैवतं पिता।
अन्या या देवता लोके न देहप्रभवा हि ता:॥
शरीरमेव जन्तूनां स्वर्गमोक्षैकसाधनम्।
शरीरं सम्पदो दारा: सुता लोकसनातना:॥
यस्य प्रसादात् प्राप्यन्ते कोऽन्य: पूज्यतमस्तत:।
(गरुडपुराण, उत्तर० ११। ३४—३७)
वस्तुत: माता-पिताके समान इस संसारमें कोई श्रेष्ठ देवता नहीं है। अतएव सब प्रकारसे उनकी पूजा करनी चाहिये। पिता हितका उपदेश करनेवाला प्रत्यक्ष देवता है। संसारमें जो दूसरे देवी-देवता हैं, वे शरीरके प्रदान करनेवाले नहीं हैं। शरीर ही जीवके स्वर्ग तथा मोक्षका एकमात्र साधन है। जिनकी कृपासे शरीर, धन, स्त्री, पुत्र और सनातन लोक—सभी मिले हैं, उनसे बढ़कर पूज्यतम भला और कौन हो सकता है?
माता-पिता-गुरुकी महिमा
पितरं मातरं विद्यामन्त्रदं गुरुमेव च।
यो न पुष्णाति पुरुषो यावज्जीवं च सोऽशुचि:॥
सर्वेषामपि पूज्यानां पिता वन्द्यो महान् गुरु:।
पितु: शतगुणा माता गर्भधारणपोषणात्॥
माता च पृथिवीरूपा सर्वेभ्यश्च हितैषिणी।
नास्ति मातु: परो बन्धु: सर्वेषां जगतीतले॥
विद्यामन्त्रप्रद: सत्यं मातु: परतरो गुरु:।
न हि तस्मात्पर: कोऽपि वन्द्य: पूज्यश्च वेदत:॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्म० ७२। १०९—११२)
जो पुरुष पिता और माताका तथा विद्यादाता एवं मन्त्रदाता गुरुका पोषण नहीं करता, वह जीवनभर पापसे शुद्ध नहीं होता। समस्त पूजनीयोंमें पिता वन्दनीय महान् गुरु है, परंतु माता गर्भमें धारण एवं पोषण करती है, इसलिये पितासे भी सौगुनी श्रेष्ठ है। माता पृथ्वीके समान क्षमाशीला और सबका समानरूपसे हित चाहनेवाली है, अत: भूतलपर सबके लिये मातासे बढ़कर बन्धु दूसरा कोई नहीं है। साथ ही यह भी सत्य है कि विद्यादाता और मन्त्रदाता गुरु मातासे भी बहुत बढ़-चढ़कर आदरके योग्य हैं। वेदके अनुसार गुरुसे बढ़कर वन्दनीय और पूजनीय दूसरा कोई नहीं है।
जैसा चिन्तन, वैसा ही परिणाम
विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते।
मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते॥
तस्मादसदभिध्यानं यथा स्वप्नमनोरथम्।
हित्वा मयि समाधत्स्व मनो मद्भावभावितम्॥
(श्रीमद्भा० ११। १४। २७-२८)
जो पुरुष निरन्तर विषय-चिन्तन किया करता है उसका चित्त विषयोंमें फँस जाता है और जो मेरा स्मरण करता है,उसका चित्त मुझमें तल्लीन हो जाता है। इसलिये तुम दूसरे साधनों और फलोंका चिन्तन छोड़ दो। अरे भाई! मेरे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, जो कुछ जान पड़ता है, वह ठीक वैसा ही है जैसे स्वप्न अथवा मनोरथका राज्य। इसलिये मेरे चिन्तनसे तुम अपना चित्त शुद्ध कर लो और उसे पूरी तरहसे—एकाग्रतासे मुझमें ही लगा दो।
विषय-चिन्तन ही सर्वनाशमें कारण है
ध्यायतो विषयान् पुंस: संगस्तेषूपजायते।
संगात् संजायते काम: कामात् क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद् भवति सम्मोह: सम्मोहात् स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति॥
(श्रीमद्भगवद्गीता २। ६२-६३)
विषयोंका चिन्तन करनेवाले पुरुषकी उन विषयोंमें आसक्ति हो जाती है, आसक्तिसे उन विषयोंकी कामना उत्पन्न होती है और कामनामें विघ्न पड़नेसे क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोधसे अत्यन्त मूढभाव उत्पन्न हो जाता है, मूढभावसे स्मृतिमें भ्रम हो जाता है, स्मृतिमें भ्रम हो जानेसे बुद्धिका नाश हो जाता है और बुद्धिका नाश हो जानेपर यह पुरुष अपनी स्थितिसे गिर जाता है—उसका सर्वनाश हो जाता है।
दूसरोंकी निन्दा-स्तुति करनेवाले साधनसे गिर जाते हैं
परस्वभावकर्माणि न प्रशंसेन्न गर्हयेत्।
विश्वमेकात्मकं पश्यन् प्रकृत्या पुरुषेण च॥
परस्वभावकर्माणि य: प्रशंसति निन्दति।
स आशु भ्रश्यते स्वार्थादसत्यभिनिवेशत:॥
(श्रीमद्भा० ११। २८। १-२)
उद्धवजी! यद्यपि व्यवहारमें पुरुष और प्रकृति—द्रष्टा और दृश्यके भेदसे दो प्रकारका जगत् जान पड़ता है, तथापि परमार्थ-दृष्टिसे देखनेपर यह सब एक अधिष्ठानस्वरूप ही है, इसलिये किसीके शान्त, घोर और मूढ स्वभाव तथा उनके अनुसार कर्मोंकी न स्तुति करनी चाहिये और न निन्दा। सर्वदा अद्वैत-दृष्टि रखनी चाहिये। जो पुरुष दूसरोंके स्वभाव और उनके कर्मोंकी प्रशंसा अथवा निन्दा करते हैं, वे शीघ्र ही अपने यथार्थ परमार्थसाधनसे च्युत हो जाते हैं, क्योंकि साधन तो द्वैतके अभिनिवेशका—उसके प्रति सत्यत्वबुद्धिका निषेध करता है और प्रशंसा तथा निन्दा उसकी सत्यताके भ्रमको और भी दृढ़ करती है।
मित्रका धर्म
व्यसने क्लिश्यमानं हि यो मित्रं नाभिपद्यते।
अनुनीय यथाशक्ति तं नृशंसं विदुर्बुधा:॥
आकेशग्रहणान्मित्रमकार्यात् संनिवर्तयन्।
अवाच्य: कस्यचिद् भवति कृतयत्नो यथाबलम्॥
(महाभारत, उद्योग० ९३। १०-११)
जो किसी व्यसन या विपत्तिमें पड़कर क्लेश उठाते हुए मित्रको यथाशक्ति समझा-बुझाकर उसका उद्धार नहीं करता है; उसे विद्वान् पुरुष निर्दय एवं क्रूर मानते हैं। जो अपने मित्रको उसकी चोटी पकड़कर भी बुरे कार्यसे हटानेके लिये यथाशक्ति प्रयत्न करता है, वह किसीकी निन्दाका पात्र नहीं होता है।
यो मित्रतां निष्कपटं करोति
निष्कारणो धन्यतम: स एव।
विधाय मैत्रीं कपटं विदध्यात्
तं लम्पटं हेतुपटं नटं धिक्॥
(गर्गसंहिता, मथुरा० ४। १९)
जो किसी बातकी कामना नहीं रखता और शुद्धान्त:करण हो मित्रता स्थापित करता है, वही अनेकश: धन्यवादका पात्र है। जो मैत्री करके हृदयमें कपट रखता है, वह तो महाधूर्त है। उसने तो कार्यवश स्वाँग रच लिया है—ऐसे नट (मित्र)-को धिक्कार है।
पाण्डवबन्धु श्रीकृष्ण
यस्तान् द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्ताननु स मामनु।
ऐकात्म्यं मां गतं विद्धि पाण्डवैर्धर्मचारिभि:॥
कामक्रोधानुवर्ती हि यो मोहाद् विरुरुत्सति।
गुणवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहु: पुरुषाधमम्॥
(महाभारत, उद्योग० ९१। २८-२९)
जो पाण्डवोंसे द्वेष करता है, वह मुझसे भी द्वेष करता है और जो उनके अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। तुम मुझे धर्मात्मा पाण्डवोंके साथ एकरूप हुआ ही समझो। जो काम और क्रोधके वशीभूत होकर मोहवश किसी गुणवान् पुरुषके साथ विरोध करना चाहता है; उसे पुरुषोंमें अधम कहा गया है।
ममैव त्वं तवैवाहं ये मदीयास्तवैव ते।
यस्त्वां द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्त्वामनु स मामनु॥
(महाभारत, वन० १२। ४५)
पार्थ! तुम मेरे ही हो, मैं तुम्हारा ही हूँ। जो मेरे हैं, वे तुम्हारे ही हैं। जो तुमसे द्वेष रखता है, वह मुझसे भी द्वेष रखता है, जो तुम्हारे अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है।
असंतोषी ही दरिद्र है
दरिद्रो यस्त्वसंतुष्ट: कृपणो योऽजितेन्द्रिय:।
गुणेष्वसक्तधीरीशो गुणसंगो विपर्यय:॥
(श्रीमद्भा० ११। १९।४४)
जिसके चित्तमें असंतोष है, अभावका बोध है, वही ‘दरिद्र’ है। जो जितेन्द्रिय नहीं है, वही ‘कृपण’ है। समर्थ, स्वतन्त्र और ‘ईश्वर’ वह है, जिसकी चित्तवृत्ति विषयोंमें आसक्त नहीं है। इसके विपरीत जो विषयोंमें आसक्त है, वही सर्वथा ‘असमर्थ’ है।
संतोषके बिना सुख नहीं
असंतुष्टोऽसकृल्लोकानाप्नोत्यपि सुरेश्वर:।
अकिंचनोऽपि संतुष्ट: शेते सर्वांगविज्वर:॥
(श्रीमद्भा० १०। ५२। ३२)
यदि इन्द्रका पद पाकर भी किसीको संतोष न हो तो उसे सुखके लिये एक लोकसे दूसरे लोकमें बार-बार भटकना पड़ेगा, वह कहीं भी शान्तिसे बैठ नहीं सकेगा। परंतु जिसके पास तनिक भी संग्रह-परिग्रह नहीं है और जो उसी अवस्थामें संतुष्ट है, वह सब प्रकारसे संतापरहित होकर सुखकी नींद सोता है।
तृष्णा
इच्छति शती सहस्रं सहस्री लक्षमीहते।
कर्तुं लक्षाधिपती राज्यं राज्येऽपि सकलचक्रवर्तित्वम्॥
चक्रधरोऽपि सुरत्वं सुरत्वलाभे सकलसुरपतित्वम्।
भवितुं सुरपतिरूर्ध्वगतित्वं तथापि न निवर्तते तृष्णा॥
(गरुडपुराण, उत्तर० २। १४-१५)
गरुड़जी! तृष्णाकी बात ही निराली है। शताधिपति सहस्राधिपति बनना चाहता है और सहस्राधीश लक्षाधीश। लक्षाधीशको राज्यकी कामना होती है और राज्य मिल जानेपर उसमें सम्पूर्ण विश्वके चक्रवर्ती साम्राज्यकी अभिलाषा उदय होती है। चक्रवर्ती साम्राज्य हो जानेपर वह देवता बनना चाहता है और देवत्व लाभ होनेपर इन्द्र। इन्द्र बन जानेपर भी उससे ऊँचे पदोंकी लालसा बनी ही रहती है। कहाँतक कहा जाय, यह तृष्णा कभी निवृत्त नहीं होती। वास्तवमें जो इस तृष्णासे मुक्त हैं, वे ही सच्चे मुक्त हैं।
किन कर्मोंसे बन्धन होता है?
यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंग: समाचर॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ३। ९)
यज्ञके (भगवत्सेवा या भगवान् के) लिये किये जानेवाले कर्मोंसे अतिरिक्त दूसरे कर्मोंमें लगा हुआ यह मनुष्य-समुदाय कर्म-बन्धनसे बँध जाता है। इसलिये अर्जुन! तू आसक्तिरहित होकर उस यज्ञके लिये ही कर्मका भलीभाँति आचरण कर।
विषयासक्तिकी निवृत्ति कब होती है?
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥
(श्रीमद्भगवद्गीता २। ५९)
निराहारी (इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेवाले) पुरुषके भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परंतु उनमें रहनेवाला रस (विषयासक्ति) निवृत्त नहीं होता। परमात्माका साक्षात्कार करनेपर पुरुषकी विषयासक्ति भी निवृत्त हो जाती है।
स्त्री-संगसे बड़ी हानि
स्त्रीणां स्त्रीसंगिनां संगं त्यक्त्वा दूरत आत्मवान्।
क्षेमे विविक्त आसीनश्चिन्तयेन्मामतन्द्रित:॥
न तथास्य भवेत् क्लेशो बन्धश्चान्यप्रसंगत:।
योषित्संगाद् यथा पुंसो यथा तत्संगिसंगत:॥
(श्रीमद्भा० ११। १४। २९-३०)
संयमी पुरुष स्त्रियों और उनके प्रेमियोंका संग दूरसे ही छोड़कर, पवित्र एकान्त स्थानमें बैठकर बड़ी सावधानीसे मेरा ही चिन्तन करे। प्यारे उद्धव! स्त्रियोंके संगसे और स्त्री-संगियोंके—लम्पटोंके संगसे पुरुषको जैसे क्लेश और बन्धनमें पड़ना पड़ता है, वैसा क्लेश और बन्धन और किसीके भी संगसे नहीं होता।
स्त्री-महिमा
जामयो यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते विनङ्क्ष्यत्याशु तद् गृहम्॥
जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिता:।
तानि कृत्याहतानीव सद्यो यान्ति पराभवम्॥
अमृतस्येव कुण्डानि सुखानामिव राशय:।
रतेरिव निधानानि योषित: तेन निर्मिता:॥
(भविष्यपुराण १७१। २—४)
जहाँ स्त्रियोंकी पूजा होती है, वहाँ देवतागण रमण करते हैं और जहाँ इनकी पूजा नहीं होती, वह घर शीघ्र ही चौपट हो जाता है। स्त्रियाँ तिरस्कृत होकर जिन घरोंको शाप देती हैं, वे कृत्या राक्षसीके द्वारा हत होनेकी तरह दुर्दशाग्रस्त हो जाते हैं। स्त्रियाँ मानो अमृतके कुण्ड अथवा सुखकी राशि ही हैं। ब्रह्माने इन्हें सम्पूर्ण आनन्दके निधानके रूपमें ही रचा है।
सती-महिमा
नारी भर्तारमासाद्य कुणपं दहते यदि।
अग्निर्दहति गात्राणि ह्यात्मानं नैव पीडयेत्॥
दह्यते धम्यमानानां धातूनां हि यथा मलम्।
तथा नारी दहेद् देहो हुताशे ह्यमृतोपमे॥
(गरुडपुराण, उत्तर० १६।४८-४९)
पतिव्रता स्त्री यदि अपने पतिके साथ अपने शरीरको जला डालती है, तो धर्मके प्रभावसे अग्नि यद्यपि उसके शरीरको जलाता हुआ-सा दीखता है तथापि उसे कोई पीड़ा नहीं होती। (उसके लिये वह आग अमृतके समान सुखद तथा शीतल हो जाती है।) जिस प्रकार धातुको अग्निमें डाल देनेसे केवल उसका मल जल जाता है, उसी प्रकार पतिव्रता स्त्री अमृतोपम अग्निमें अपने मलवत् शरीरका ही दाह करती है।
नरकके तीन द्वार—काम, क्रोध, लोभ
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत्॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १६।२१)
काम, क्रोध और लोभ—ये तीन प्रकारके नरकके द्वार आत्माका नाश करनेवाले हैं, इसलिये इन तीनोंका त्याग करना चाहिये।
काम-क्रोध ही पापमें कारण हैं
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ३। ३७)
रजोगुण (विषयासक्तिरूप रज—राग)-से उत्पन्न यह काम ही (प्रतिहत होनेपर) क्रोध बनता है, यह काम (विषयोंकी कामना) बहुत खानेवाला (भोगोंसे कभी न अघानेवाला) और बड़ा पापी है, इसीको तू इस विषयमें वैरी जान।
काम-क्रोधसे नरकप्राप्ति
कुकर्मविहितो घोरे कामक्रोधार्जितेऽशुभे।
नरके पतितो भूयो यस्योत्तारो न विद्यते॥
(गरुडपुराण, उत्तर० ३४। ३५)
काम-क्रोधयुक्त अशुभ कर्मोंके (अर्जन) करनेपर मनुष्य ऐसे घोर नरकमें गिरता है, जहाँसे उद्धारकी सम्भावना ही नहीं होती।
क्षत्रियधर्म
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥
(श्रीमद्भगवद्गीता २। ३१-३२)
अर्जुन! अपने (क्षत्रिय-) धर्मको देखकर भी तुझे युद्धसे काँप जाना नहीं चाहिये, क्योंकि क्षत्रियके लिये धर्मरूप युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है। पार्थ! अपने-आप प्राप्त यह (स्वधर्मरूप युद्ध) स्वर्गके खुले हुए द्वाररूप हैं। इस प्रकारके युद्धको भाग्यवान् क्षत्रिय ही पाते हैं।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता २। ३७)
यदि तू युद्धमें मारा गया तो स्वर्गको प्राप्त होगा अथवा संग्राममें जीतकर पृथ्वीका राज्य भोगेगा। इस कारण कुन्तीपुत्र अर्जुन! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा।
स्वर्गं ह्येव समास्थाय रणयज्ञेषु दीक्षिता:।
जयन्ति क्षत्रिया लोकांस्तद् विद्धि मनुजर्षभ॥
स्वर्गयोनिर्महद् ब्रह्म स्वर्गयोनिर्महद्यश:।
स्वर्गयोनिस्तपो युद्धे मृत्यु: सोऽव्यभिचारवान्॥
एष ह्यैन्द्रो वैजयन्तो गुणैर्नित्यं समाहित:।
(महाभारत, सभा० २२। १७—१९)
नरश्रेष्ठ! स्वर्गप्राप्तिका ही उद्देश्य रखकर रणयज्ञकी दीक्षा लेनेवाले क्षत्रिय अपने अभीष्ट लोकोंपर विजय पाते हैं। यह बात तुम्हें भलीभाँति जाननी चाहिये। वेदाध्ययन स्वर्गप्राप्तिका कारण है, परोपकाररूप महान् यश भी स्वर्गका हेतु है, तपस्याको भी स्वर्गलोकका साधन बताया गया है, परंतु क्षत्रियके लिये इन तीनोंकी अपेक्षा युद्धमें मृत्युका वरण करना ही स्वर्गप्राप्तिका अमोघ साधन है। क्षत्रियका यह युद्धमें मरण इन्द्रका वैजयन्त नामक प्रासाद (राजमहल) है। यह सदा सभी गुणोंसे परिपूर्ण है।
जयो वधो वा संग्रामे धात्राऽऽदिष्ट: सनातन:।
स्वधर्म: क्षत्रियस्यैष कार्पण्यं न प्रशस्यते॥
(महाभारत, उद्योग० ७३। ४)
क्षत्रियके लिये विधाताने यही सनातन कर्तव्य बताया है कि वह संग्राममें विजय प्राप्त करे अथवा वहीं प्राण दे दे। यही क्षत्रियका स्वधर्म है। दीनता अथवा कायरता उसके लिये प्रशंसाकी वस्तु नहीं है।
सुभद्राके प्रति क्षात्रधर्मकी महत्ताका कथन
वीरसूर्वीरपत्नी त्वं वीरजा वीरबान्धवा।
मा शुच स्तनयं भद्रे गत: स परमां गतिम्॥
(महाभारत, द्रोण० ७७। १७)
सुभद्रे! तुम वीरमाता, वीरपत्नी, वीरकन्या और वीर भाइयोंकी बहिन हो। तुम पुत्रके लिये शोक न करो। वह उत्तम गतिको प्राप्त हुआ है।
क्षत्रधर्मं पुरस्कृत्य गत: शूर: सतां गतिम्।
यां गतिं प्राप्नुयामेह ये चान्ये शस्त्रजीविन:॥
व्यूढोरस्को महाबाहुरनिवर्ती रथप्रणुत्।
गतस्तव वरारोहे पुत्र: स्वर्गं ज्वरं जहि॥
अनुयातश्च पितरं मातृपक्षं च वीर्यवान्।
सहस्रशो रिपून् हत्वा हत: शूरो महारथ:॥
(महाभारत, द्रोण० ७७। २१—२३)
शूरवीर अभिमन्युने क्षत्रिय-धर्मको आगे रखकर सत्पुरुषोंकी गति पायी है, जिसे हमलोग और इस संसारके दूसरे शस्त्रधारी क्षत्रिय भी पाना चाहते हैं। सुन्दरी! चौड़ी छाती और विशाल भुजाओंसे सुशोभित, युद्धसे पीछे न हटनेवाला तथा शत्रुपक्षके रथियोंपर विजय पानेवाला तुम्हारा पुत्र स्वर्गलोकमें गया है। तुम चिन्ता छोड़ो। बलवान्, शूरवीर और महारथी अभिमन्यु पितृकुल तथा मातृकुलकी मर्यादाका अनुसरण करते हुए सहस्रों शत्रुओंको मारकर मरा है।
सुभद्रे मा शुच: पुत्रं पांचाल्याश्वासयोत्तराम्।
गतोऽभिमन्यु: प्रथितां गतिं क्षत्रियपुंगव:॥
ये चान्येऽपि कुले सन्ति पुरुषा नो वरानने।
सर्वे ते तां गतिं यान्तु ह्यभिमन्योर्यशस्विन:॥
कुर्याम तद् वयं कर्म क्रियासु सुहृदश्च न:।
कृतवान् यादृगद्यैकस्तव पुत्रो महारथ:॥
(महाभारत, द्रोण० ७८। ४०—४२)
सुभद्रे! तुम पुत्रके लिये शोक न करो। द्रुपदकुमारी! तुम उत्तराको धीरज बँधाओ। वह क्षत्रिय-शिरोमणि सर्वश्रेष्ठ गतिको प्राप्त हुआ है। सुमुखि! हमारी इच्छा तो यह है कि हमारे कुलमें और भी जितने पुरुष हैं, वे सभी यशस्वी अभिमन्युकी ही गति प्राप्त करें। तुम्हारे महारथी पुत्रने अकेले ही आज जैसा पराक्रम किया है, उसे हम और हमारे सुहृद् भी कार्यरूपमें परिणत करें।
शत्रुके घरमें प्रवेश कैसे करें?
अद्वारेण रिपोर्गेहं द्वारेण सुहृदो गृहान्।
प्रविशन्ति नरा धीरा द्वाराण्येतानि धर्मत:॥
(महाभारत, सभा० २१। ५३)
धीर मनुष्य शत्रुके घरमें बिना दरवाजेके और मित्रके घरमें दरवाजेसे जाते हैं। शत्रु और मित्रके लिये ये धर्मत: द्वार बतलाये गये हैं।
प्रबल और सुसंगठित शत्रुको जीतनेका उपाय
ते वयं नयमास्थाय शत्रुदेहसमीपगा:।
कथमन्तं न गच्छेम वृक्षस्येव नदीरया:॥
पररन्ध्रे पराक्रान्ता: स्वरन्ध्रावरणे स्थिता:।
व्यूढानीकैरतिबलैर्न युद्ध्येदरिभि: सह।
इति बुद्धिमतां नीतिस्तन्ममापीह रोचते॥
अनवद्या ह्यसम्बुद्धा: प्रविष्टा: शत्रुसद्म तत्।
शत्रुदेहमुपाक्रम्य तं कामं प्राप्नुयामहे॥
(महाभारत, सभा० १७। ६—८)
जब हमलोग नीतिका आश्रय लेकर शत्रुके शरीरके निकटतम पहुँच जायँगे, तब जैसे नदीका वेग किनारेके वृक्षको नष्ट कर देता है, उसी प्रकार हम शत्रुका अन्त क्यों न कर डालेंगे। हम अपने छिद्रोंको छिपाये रखकर शत्रुके छिद्र देखते और अवसर मिलते ही उसपर बलपूर्वक आक्रमण कर देंगे। जिनकी सेनाएँ मोर्चे बाँधकर खड़ी हों और जो अत्यन्त बलवान् हों, ऐसे शत्रुओंके साथ (सम्मुख होकर) युद्ध नहीं करना चाहिये, यह बुद्धिमानोंकी नीति है; यही नीति मुझे भी अच्छी लगती है! यदि हम छिपे-छिपे शत्रुके घरमें पहुँच जायँ तो यह हमारे लिये कोई निन्दाकी बात नहीं होगी। फिर हम शत्रुके अंगपर आक्रमण करके अपना काम (सहज ही) बना लेंगे।
किसको मारना धर्म है?
निकृत्योपचरन् वध्य एष धर्म: सनातन:।
(महाभारत, वन० १२। ७)
जो दूसरेके साथ छल-कपट अथवा धोखा करके सुख भोग रहा हो, उसे मार डालना चाहिये। यह सनातन धर्म है।
लुटेरोंसे रक्षाके लिये असत्य बोलना भी उचित है
येऽन्यायेन जिहीर्षन्तो धर्ममिच्छन्ति कर्हिचित्।
अकूजनेन मोक्षं वा नानुकूजेत् कथंचन॥
अवश्यं कूजितव्ये वा शंकरेन्नप्यकूजत:।
श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं तत् सत्यमविचारितम्॥
(महाभारत, कर्ण० ६९। ५९-६०)
जो लोग अन्यायपूर्वक दूसरोंके धन आदिका अपहरण कर लेना चाहते हैं, वे कभी अपने स्वार्थकी सिद्धिके लिये दूसरोंसे सत्यभाषणरूप धर्मका पालन कराना चाहते हों तो वहाँ उनके समक्ष मौन रहकर उनसे पिण्ड छुड़ानेकी चेष्टा करे, किसी तरह कुछ बोले ही नहीं, किंतु यदि बोलना अनिवार्य हो जाय अथवा न बोलनेसे लुटेरोंको संदेह होने लगे, तो वहाँ असत्यको ही बिना विचारे सत्य समझे।
कैसे सभासद् नष्ट हो जाते हैं?
यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च।
हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासद:॥
विद्धो धर्मो ह्यधर्मेण सभां यत्र प्रपद्यते।
न चास्य शल्यं कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासद:॥
धर्म एतानारुजति यथा नद्यनुकूलजान्।
(महाभारत, उद्योग० ९५। ४८—५०)
जहाँ सभासदोंके देखते-देखते अधर्मके द्वारा धर्मका और मिथ्याके द्वारा सत्यका गला घोंटा जाता हो, वहाँ वे सभासद् नष्ट हुए माने जाते हैं। जिस सभामें अधर्मसे विद्ध हुआ धर्म प्रवेश करता है और सभासद्गण उस अधर्मरूपी काँटेको काटकर निकाल नहीं देते हैं, वहाँ उस काँटेसे सभासद् ही बिंधे जाते हैं (अर्थात् उन्हें ही अधर्मसे लिप्त होना पड़ता है)। जैसे नदी अपने तटपर उगे हुए वृक्षोंको गिराकर नष्ट कर देती है, उसी प्रकार वह अधर्मविद्ध धर्म ही उन सभासदोंका नाश कर डालता है।
किसीके घर भोजन किस कारण किया जाता है?
सम्प्रीतिभोज्यान्यन्नानि आपद्भोज्यानि वा पुन:।
न च सम्प्रीयसे राजन् न चैवापद्गता वयम्॥
(महाभारत, उद्योग० ९१। २५)
दुर्योधन! किसीके घरका अन्न या तो प्रेमके कारण भोजन किया जाता है या आपत्तिमें पड़नेपर (भूखों मरनेपर)। नरेश्वर! प्रेम तो तुम नहीं रखते और किसी आपत्तिमें हम पड़े नहीं हैं।
गृहस्थाश्रमकी महिमा
न गार्हस्थ्यात्परो धर्मो नास्ति दानं गृहात् परम्।
नानृतादधिकं पापं न पूज्यो ब्राह्मणात् पर:॥
न गृहेण विना धर्मो नार्थकामौ सुखं न च।
न लोकपङ्क्तिर्न यश: प्राप्यते त्रिदशैरपि॥
(भविष्यपुराण, उत्तर० १६८। ३, ६)
गृहस्थाश्रमसे बढ़कर कोई धर्म नहीं है। गृहदानसे बढ़कर कोई दान नहीं है। झूठसे बढ़कर कोई पाप नहीं है और ब्राह्मणसे बढ़कर कोई पूज्य नहीं है। घरके बिना धर्म, अर्थ, काम, सुख, यश और दूसरे प्रकारकी भी कोई लौकिक सफलता मनुष्यको तो क्या देवताओंको भी नहीं प्राप्त हो सकती।
स्नानकी आवश्यकता
नैर्मल्यं भावशुद्धिश्च विना स्नानं न युज्यते।
तस्मात् कायविशुद्ध्यर्थं स्नानमादौ विधीयते॥
अनुद्धतैरुद्धतैर्वा जलै: स्नानं समाचरेत्।
तीर्थंप्रकल्पयेद् विद्वान् मूलमन्त्रेण मन्त्रवित्॥
नमो नारायणायेति मूलमन्त्र उदाहृत:॥
(भविष्यपुराण, उत्तर० १२३। १—३)
स्नानके बिना चित्तकी निर्मलता और भावशुद्धि नहीं आती। अतएव शरीरकी शुद्धिके लिये सर्वप्रथम स्नानका ही विधान है। नदी आदिमें जलमें प्रवेशकर और कूप आदिपर जलको बाहर निकालकर स्नान करना चाहिये। मन्त्रज्ञ विद्वान् को मूलमन्त्रसे तीर्थकी कल्पना करनी चाहिये। तीर्थ-निर्माणका मूलमन्त्र ‘ॐ नमो नारायणाय’ कहा गया है।
समझ-बूझकर कर्म करनेवाले सफल होते हैं
ज्ञात्वाज्ञात्वा च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति।
विदुष: कर्मसिद्धि: स्यात् तथा नाविदुषो भवेत्॥
(श्रीमद्भा० १०। २४। ६)
यह संसारी मनुष्य समझे-बे-समझे अनेकों प्रकारके कर्मोंका अनुष्ठान करता है। उनमेंसे समझ-बूझकर करनेवाले पुरुषोंके कर्म जैसे सफल होते हैं, वैसे बेसमझके नहीं।
कर्मानुसार ही फलकी प्राप्ति
कर्मणा जायते जन्तु: कर्मणैव विलीयते।
सुखं दु:खं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते॥
(श्रीमद्भा० १०। २४। १३)
पिताजी! प्राणी अपने कर्मके अनुसार ही पैदा होता और कर्मसे ही मर जाता है। उसे उसके कर्मके अनुसार ही सुख-दु:ख, भय और मंगलके निमित्तोंकी प्राप्ति होती है।
कुश्ती समान बलवानोंमें होती है
भवेन्नियुद्धं माधर्म: स्पृशेन्मल्ल सभासद:॥
(श्रीमद्भा० १०। ४३। ३८)
कुश्ती समान बलवालोंके साथ ही होनी चाहिये, जिससे देखनेवाले सभासदोंको अन्यायके समर्थक होनेका पाप न लगे।
श्रेष्ठ पुरुषोंकी लोग नकल करते हैं
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ३।२१)
श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, दूसरे लोग भी उसीका अनुकरण करके वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह (अपने आचरणद्वारा) जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्यसमुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है।
पाँच प्रकारकी शुद्धि
मनश्शौचं कर्मशौचं कुलशौचं च भारत।
शरीरशौचं वाक्छौचं शौचं पंचविधं स्मृतम्॥
पंचस्वेतेषु शौचेषु हृदि शौचं विशिष्यते।
हृदयस्य च शौचेन स्वर्गं गच्छन्ति मानवा:॥
(महाभारत, आश्वमेधिक० दाक्षिणात्यपाठ)
मन:शुद्धि, क्रियाशुद्धि, कुलशुद्धि, शरीरशुद्धि और वाक् शुद्धि—इस तरह पाँच प्रकारकी शुद्धि बतायी गयी है। इन पाँचों शुद्धियोंमें हृदयकी शुद्धि सबसे बढ़कर है। हृदयकी ही शुद्धिसे मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं।
जीते-जी अपना कल्याण-कार्य कर लेना चाहिये
तावत् स बन्धु: स पिता यावज्जीवति भारत।
मृतो मृत इति ज्ञात्वा क्षणात् स्नेहो निवर्तते॥
तस्मात् स्वयं प्रदातव्यं शय्याभोज्यजलादिकम्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरिति संचिन्त्य चेतसि॥
आत्मैष यो हि नात्मानं दानभोगै: समर्चयेत्।
कोऽन्यो हिततरस्तस्मात् क: पश्चात् पूरयिष्यति॥
(भविष्यपुराण, उत्तर० १८४। ३—५)
तभीतक मनुष्य अपने परिवारवालोंका भाई-बन्धु और पिता बना रहता है। जबतक वह जीवित बना रहता है। मरनेपर उसे मृत समझकर सभी तत्काल अपना स्नेह खींच लेते हैं। इसलिये मनुष्यको स्वयं ही अपने लिये अन्न, जल और शय्या आदिका दान करना चाहिये। मनुष्य स्वयं ही अपना बन्धु है, इसे हृदयमें स्मरण रखना चाहिये। जो दान, धर्म और भोग आदिके द्वारा स्वयं अपना कल्याण नहीं करता तो फिर उसके मरनेके बाद उसके लिये दूसरा कोई क्या व्यवस्था कर सकता है?
जीव अकेला ही आता-जाता है
एक: प्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते।
एकोऽनुभुङ्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम्॥
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं क्षितौ।
विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति॥
(गरुडपुराण, उत्तर० २। २२-२३)
जीव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है एवं वह अपने पाप-पुण्य भी अकेला ही भोगता है। उसके मृत शरीरको मिट्टी और काष्ठके समान छोड़कर उसके सभी बान्धव वापस लौट आते हैं, केवल धर्म ही उसके साथ जाता है।
बड़ोंका अपमान ही उनका वध करना है
त्वमित्यत्र भवन्तं हि ब्रूहि पार्थ युधिष्ठिरम्।
त्वमित्युक्तो हि निहतो गुरुर्भवति भारत॥
(महाभारत, कर्ण० ६९। ८३)
पार्थ! तुम युधिष्ठिरको सदा ‘आप’ कहते आये हो, आज उन्हें ‘तू’ कह दो। भारत! यदि किसी गुरुजनको ‘तू’ कह दिया जाय, तो यह साधु पुरुषोंकी दृष्टिमें उसका वध ही हो जाता है।
अपने मुँह अपना गुणगान करना ही आत्महत्या है
युधिष्ठिरका तिरस्कार करनेपर, आत्मग्लानि होनेपर अर्जुन आत्महत्याके लिये तैयार हो गये। तब भगवान् श्रीकृष्णने कहा—
ब्रवीहि वाचाद्य गुणानिहात्मन-
स्तथा हतात्मा भवितासि पार्थ।
(महाभारत, कर्ण० ७०। २८ )
पार्थ! अब तुम यहाँ अपनी ही वाणीद्वारा अपने गुणोंका वर्णन करो। ऐसा करनेपर यह मान लिया जायगा कि तुमने अपने ही हाथों अपने आत्माकी हत्या कर ली।
तीन दान श्रेष्ठ हैं
त्रीण्याहुरतिदानानि गाव: पृथ्वी सरस्वती।
आसप्तमं पुनन्त्येते दोहवाहनवेदनै:॥
(भविष्यपुराण १५१। १८)
दानोंमें तीन दान अत्यन्त श्रेष्ठ हैं—गोदान, पृथ्वीदान और विद्यादान। ये दूहने, जोतने और जाननेसे सात कुलतक पवित्र कर देते हैं।
धनका सदुपयोग दानमें ही है
यस्य त्रिवर्गशून्यानि दिनान्यायान्ति यान्ति च।
स लोहकारभस्त्रेव श्वसन्नपि न जीवति॥
आयासशतलब्धस्य प्राणेभ्योऽपि गरीयस:।
गतिरेकैव वित्तस्य दानमन्या विपत्तय:॥
नोपभोगै: क्षयं यान्ति न प्रदानै: समृद्धय:।
पूर्वार्जितानामन्यत्र सुकृतानां परिक्षयात्॥
(भविष्यपुराण १५१। ८,११,१२)
जिस पुरुषके सभी दिन धर्म, अर्थ और काम—इस त्रिवर्गसे रहित होकर आते और चले जाते हैं, वह मनुष्य लोहारकी भाथीके समान श्वास लेता हुआ भी जीवित नहीं है। सैकड़ों प्रकारके प्रयत्न एवं श्रमसे कमाये हुए तथा प्राणोंसे भी प्यारे धनका दान ही उसकी एकमात्र गति है। इस धनका अन्य प्रयोग तो विपत्तियाँ हैं। जबतक पहलेका पुण्य रहता है तबतक भोग और दान करनेसे भी धन समाप्त नहीं होता। किंतु पुण्योंके क्षय होनेपर वह बिना दान-भोग किये हुए भी नष्ट हो जाता है।
दान न करनेवाला दरिद्र तथा पापी होता है
अदत्तदानाच्च भवेद् दरिद्री
दरिद्रभावाच्च करोति पापम्।
पापप्रभावान्नरकं प्रयाति
पुनर्दरिद्र: पुनरेव पापी॥
(गरुडपुराण, उत्तर० १४। १९)
जो दान नहीं देता, वह दरिद्र होता है और दरिद्र होकर उसे विवश होकर पाप करना पड़ता है। पापोंके प्रभावसे वह नरकमें जाता है और नरकसे निकलनेपर फिर दरिद्र तथा पापी ही होता है। इस तरह वह भारी कुचक्रमें फँस जाता है।
विद्यार्थियोंकी सहायताका महत्त्व
छात्राणां भोजनाभ्यंगं वस्त्रभिक्षामथापि वा।
दत्त्वा प्राप्नोति पुरुष: सर्वकामान् न संशय:॥
विवेको जीवितं दीर्घं धर्मकामार्थसम्पद:।
सर्वं तेन भवेद् दत्तं छात्राणां पोषणे कृते॥
(भविष्यपुराण १७४। १८-१९)
जो मनुष्य छात्रोंके भोजन, अभ्यंग (तेल), वस्त्र और भिक्षा आदिकी व्यवस्था करता है, उसकी सारी कामनाएँ पूरी हो जाती हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। छात्रोंके पोषण करनेपर विवेक (ज्ञान), दीर्घायु, धर्म, काम और सभी सम्पत्तियोंके देनेका फल मिल जाता है।
देहकी अन्तिम शोचनीय अवस्थाएँ
त्रिधावस्थास्य देहस्य कृमिविड्भस्मरूपत:।
को गर्व: क्रियते तार्क्ष्य क्षणविध्वंसिभिर्नरै:॥
(गरुडपुराण, उत्तर० ५।२४)
गरुडजी! इस शरीरकी बस, तीन प्रकारकी ही अवस्थाएँ हैं—कृमि, विष्ठा और भस्म। पृथ्वीमें गाड़ दिये जानेपर इसमें कीड़े पड़ जाते हैं, यह कृमिरूप हो जाता है। बाहर या जलमें फेंके जानेपर मगर, घड़ियाल, कौवे, कुत्ते, सियार, गीध आदि जीव इसे खाकर विष्ठा कर डालते हैं तथा आगमें जला डालनेपर यह भस्म हो जाता है। ऐसे क्षणभंगुर शरीरपर मनुष्यके गर्वका क्या अर्थ है?
तीर्थका फल और उसका अधिकारी
यस्य हस्तौ च पादौ च वाङ्मनस्तु सुसंयते।
विद्या तपश्च कीर्तिश्च स तीर्थफलमश्नुते॥
अश्रद्दधान: पापात्मा नास्तिकोऽच्छिन्नसंशय:।
हेतुनिष्ठाश्च पंचैते न तीर्थफलभागिन:॥
(भविष्यपुराण, उत्तर० १२२।७-८)
जिसके हाथ, पैर, मन और वाणी सुसंयत हैं तथा जिसकी विद्या, कीर्ति और तपस्या पूरी है, उसे ही तीर्थका फल मिलता है। श्रद्धारहित, पापी, संशयग्रस्त, नास्तिक और तार्किक—इन पाँच प्रकारके मनुष्योंको तीर्थका फल नहीं मिलता।
पाँच पदार्थ कभी हेय नहीं होते
विप्रा मन्त्रा: कुशा वह्निस्तुलसी न खगेश्वर।
नैते निर्माल्यतां यान्ति योज्यमाना: पुन: पुन:॥
(गरुडपुराण, उत्तर० १९। २०)
ब्राह्मण, मन्त्र, कुशा, अग्नि तथा तुलसी—ये सब बार-बार प्रयुक्त किये जानेपर भी निर्माल्यताको नहीं प्राप्त होते—उच्छिष्ट अथवा हेय नहीं होते।
असार-संसारके छ: सार पदार्थ
विष्णुरेकादशी गंगा तुलसीविप्रधेनव:।
असारे दुर्गसंसारे षट्पदी मुक्तिदायिनी॥
(गरुडपुराण, उत्तर० १९। २३)
भगवान् विष्णु, एकादशी-व्रत, गंगानदी, तुलसी, ब्राह्मण और गौएँ—ये छ: इस दुर्गम असार-संसारमें मुक्ति देनेवाली वस्तुएँ हैं।
भगवान् को प्रणाम करनेवाले निर्भय होते हैं
अतसीपुष्पसंकाशं पीतवाससमच्युतम्।
ये नमस्यन्ति गोविन्दं न तेषां विद्यते भयम्॥
(गरुडपुराण, उत्तर० ४। ५१)
अतसी (तीसी)-के पुष्पके समान कान्तिवाले, पीताम्बरधारी, गौओंके स्वामी भगवान् अच्युतको जो प्रणाम करते हैं, उन्हें कोई भी भय नहीं होता।