तीर्थोंकी महिमा, तीर्थ-सेवन-विधि, तीर्थ-सेवनका फल और विभिन्न तीर्थ
तीर्थोंकी अनन्त महिमा है, वे अपनी स्वाभाविक शक्तिसे ही सबका पाप नाश करके उन्हें मनोवांछित फल प्रदान करते हैं और मोक्षतक दे देते हैं। हिंदूशास्त्रोंमें तीर्थोंके नाम, रूप, लक्षण और महत्त्वका बड़ा विशद वर्णन है। महाभारत, रामायण आदिके साथ ही प्राय: सभी पुराणोंमें तीर्थोंकी महिमा गायी गयी है। पद्मपुराण और स्कन्दपुराण तो तीर्थ-महिमासे परिपूर्ण हैं। तीर्थोंमें किनको, कब, कैसे, क्या-क्या लाभ हुए तथा किस तीर्थका कैसे प्रादुर्भाव हुआ—इसका बड़े सुन्दर ढंगसे अति विशद वर्णन उनमें किया गया है। भारतवर्षमें ऐसे करोड़ों तीर्थ हैं। इसी भाँति अन्यान्य देशोंमें भी बहुत तीर्थ हैं। तीर्थोंकी इतनी महिमा इसीलिये है कि वहाँ महान् पवित्रात्मा भगवत्प्राप्त महापुरुषों और संतोंने निवास किया है या श्रीभगवान् ने किसी भी रूपमें कभी प्रकट होकर, उन्हें अपना लीलाक्षेत्र बनाकर महान् मंगलमय कर दिया है।
संत-महात्मा तीर्थरूप हैं
भगवान् के स्वरूपका साक्षात्कार किये हुए भगवत्प्रेमी महात्मा स्वयं ‘तीर्थरूप’ होते हैं, उनके हृदयमें भगवान् सदा प्रकट रहते हैं, इसलिये वे जिस स्थानमें जाते हैं, वही तीर्थ बन जाता है। वे तीर्थोंको ‘महातीर्थ’ बना देते हैं। धर्मराज युधिष्ठिरने महात्मा श्रीविदुरजीसे यही कहा था—
भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्त:स्थेन गदाभृता॥
(श्रीमद्भागवत १। १३। १०)
भगवती श्रीगंगाजीने भगीरथसे कहा—‘तुम मुझे पृथ्वीपर ले जाना चाहते हो? अच्छा, मैं तुमसे एक बात पूछती हूँ। देखो, मुझमें स्नान करनेवाले लोग तो अपने पापोंको मुझमें बहा देंगे, पर मैं उनके पापोंको कहाँ धोने जाऊँगी?’ भगीरथजीने कहा—
साधवो न्यासिन: शान्ता ब्रह्मिष्ठा लोकपावना:।
हरन्त्यघं तेऽङ्गसंगात् तेष्वास्ते ह्यघभिद्धरि:॥
(श्रीमद्भागवत ९। ९। ६)
‘इस लोक और परलोककी समस्त भोग-वासनाओंका सर्वथा परित्याग किये हुए शान्तचित्त ब्रह्मनिष्ठ साधुजन, जो स्वभावसे ही लोगोंको पवित्र करते रहते हैं, अपने अंग-संगसे आपके पापोंको हर लेंगे; क्योंकि उनके हृदयमें समस्त पापोंको समूल हर लेनेवाले श्रीहरि नित्य निवास करते हैं।’
तीन प्रकारके तीर्थ
इसीसे तीर्थ तीन प्रकारके माने गये हैं—१-जंगम, २-मानस और ३-स्थावर। १-स्वधर्मपर आरूढ़ आदर्श ब्राह्मण और संत-महात्मा ‘जंगम-तीर्थ’ हैं। इनकी सेवासे सारी कामनाएँ सफल होती हैं और भगवत्तत्त्वका साक्षात्कार होता है।
२-‘मानस-तीर्थ’ हैं— सत्य, क्षमा, इन्द्रियनिग्रह, प्राणिमात्रपर दया, ऋजुता, दान, मनोनिग्रह, संतोष, ब्रह्मचर्य, प्रियभाषण, विवेक, धृति और तपस्या। इन सारे तीर्थोंसे भी मनकी परम विशुद्धि ही सबसे श्रेष्ठ तीर्थ है। इन तीर्थोंमें भलीभाँति स्नान करनेसे परम गतिकी प्राप्ति होती है—
येषु सम्यङ् नर: स्नात्वा प्रयाति परमां गतिम्।
तीर्थयात्राका उद्देश्य ही है—अन्त:करणकी शुद्धि और उसके फलस्वरूप मानव-जीवनका चरम और परम ध्येय—भगवत्प्राप्ति। इसीलिये शास्त्रोंने अन्त:करणकी शुद्धि करनेवाले साधनोंपर विशेष जोर दिया है। यहाँतक कहा है कि ‘जो लोग इन्द्रियोंको वशमें नहीं रखते, जो लोभ, काम, क्रोध, दम्भ, निर्दयता और विषयासक्तिको लेकर उन्हींकी गुलामी करनेके लिये तीर्थस्नान करते हैं, उनको तीर्थस्नानका फल नहीं मिलता।’
३-‘स्थावर-तीर्थ’ हैं—पृथ्वीके असंख्य पवित्र स्थान और सागर, नद-नदियाँ, सरोवर, कूप और जलाशय आदि। इनमें तीर्थराज प्रयाग, पुष्कर, नैमिषारण्य, कुरुक्षेत्र, द्वारका, उज्जैन, अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, जगदीशपुरी, काशी, कांची, बदरिकाश्रम, श्रीशैल, सिन्धु-सागर-संगम, सेतुबन्ध, गंगा-सागर-संगम तथा गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, गोमती, नर्मदा, सरयू, कावेरी, मन्दाकिनी और कृष्णा आदि नदियाँ प्रधान हैं।
तीर्थयात्रा क्यों करनी चाहिये?
मनुष्य-जीवनका उद्देश्य है—भगवत्प्राप्ति या भगवत्प्रेमकी प्राप्ति। जगत् में भगवान् को छोड़कर सब कुछ नश्वर है, दु:खदायी है। इनसे मन हटकर श्रीभगवान् में लग जाय—मनुष्यको बस, यही करना है। यह होता है भगवत्प्रेमी महात्माओंके संगसे और ऐसे महात्मा रहा करते हैं पवित्र तीर्थोंमें। इसीलिये शास्त्रोंने तीर्थयात्राको इतना महत्त्व दिया है और तीर्थोंमें जाकर सत्संग करने तथा संतजनोंके द्वारा सेवित पवित्र स्थानोंके दर्शन, पवित्र जलाशयोंमें स्नान और पवित्र वातावरणमें विचरण करनेकी आज्ञा दी है—
तस्मात् तीर्थेषु गन्तव्यं नरै: संसारभीरुभि:।
‘इसीलिये संसारसे डरे हुए लोगोंको तीर्थोंमें जाना चाहिये।’ परंतु तीर्थसेवनका परम फल उन्हींको मिलता है, जो विधिपूर्वक वहाँ जाते हैं और तीर्थोंके नियमोंका सावधानी तथा श्रद्धाके साथ सुखपूर्वक पालन करते हैं। जो लोग ‘तीर्थकाक’ होते हैं—तीर्थोंमें जाकर भी कौवेकी तरह इधर-उधर गंदे विषयोंपर ही मन चलाते तथा उन्हींकी खोजमें भटकते रहते हैं, वे तो पूरा पाप कमाते हैं और इससे उन्हें दुस्तर नरकोंकी प्राप्ति होती है। यह याद रखना चाहिये कि ‘तीर्थोंमें किये हुए पाप वज्रलेप हो जाते हैं।’ वे सहजमें नहीं मिटते। पवित्र होकर दीर्घकालतक तीर्थ-सेवनसे या भगवान् के निष्काम भजनसे ही उनका नाश होता है।
तीर्थयात्राकी विधि
तीर्थयात्राकी विधि यह है कि सबसे पहले तीर्थमें श्रद्धा करे, तीर्थोंके माहात्म्यमें विश्वास करे, उसको अर्थवाद न समझकर सर्वथा सत्य समझे, घरमें ही पहले मन-इन्द्रियोंके संयमका अभ्यास करे और उपवास करे। श्रीगणेशजीकी, देवता, ब्राह्मण और साधुओंकी पूजा करे, पितृ-श्राद्ध करे और पारण करे। इसके बाद भगवान् के नामका उच्चारण करते हुए यात्रा आरम्भ करे। कुछ दूर जाकर तीर्थादिमें स्नान करके क्षौर-कर्म कराये। तदनन्तर लोभ, द्वेष और दम्भादिका त्याग करके मनसे भगवान् का चिन्तन और मुँहसे भगवान् का नाम-कीर्तन करते हुए तीर्थके नियमोंको धारण करके यात्रा करे।
तीर्थयात्राके लिये पैदल जानेकी ही प्राचीन विधि है। उस कालमें तीर्थप्रेमी नर-नारी वापस लौटने, न लौटनेकी चिन्ता छोड़कर परम श्रद्धाके साथ संघ बनाकर तीर्थयात्राके लिये निकलते थे। उन दिनों न तो रेल या मोटर आदि सवारियाँ थीं और न दूसरी सुविधाएँ थीं। तीर्थयात्रीसंघ घाम-वर्षा सहता हुआ बड़े कष्टसे यात्रा करता था। परंतु श्रद्धा इतनी होती थी कि वह उस कष्टको उत्साहके रूपमें परिणत कर देती थी। आजकलकी तीर्थयात्रा तो सैर-सपाटेकी चीज हो गयी है। जो लोग छुट्टियाँ मनाने और भाँति-भाँतिसे मौज-शौक या प्रमोद करनेके लिये तीर्थोंमें जाते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कुछ कहना नहीं है। जो श्रद्धापूर्वक तीर्थसेवनके लिये जाते हैं, उनके लिये भी आजकल बड़ी आसानी हो गयी है। ऐसी अवस्थामें कुछ नियम अवश्य बना लेने चाहिये, जिससे जीवन संयममें रहे, प्रमाद न हो और तीर्थयात्रा सफल हो।
तीर्थ-सेवनके नियम
तीर्थमें कैसे रहना चाहिये और तीर्थका परम फल किसे प्राप्त होता है, इस सम्बन्धमें शास्त्रके वचन हैं—
‘जिसके हाथ, पैर, मन भलीभाँति संयमित हैं, जो विद्या, तप तथा कीर्तिसे सम्पन्न है, जो प्रतिग्रहका त्यागी, यथालाभ-संतुष्ट तथा अहंकारसे छूटा हुआ है, जो दम्भरहित, आरम्भरहित, लघु-आहारी, जितेन्द्रिय तथा सर्वसंगोंसे मुक्त है, जो क्रोधरहित, निर्मलमति, सत्यवादी तथा दृढ़व्रती है और समस्त प्राणियोंको अपने आत्माके समान देखता है, वह तीर्थका फल प्राप्त करता है।’ इनका विस्तारसे विचार करें—
१-हाथोंका संयम—हाथोंसे किसीको पीड़ा न पहुँचाये, किसीकी वस्तु न चुराये, किसी भी स्त्रीका, स्त्री किसी पुरुषका अंग-स्पर्श न करे, किसी भी गंदी चीजको न छूए और सदा भगवान् की, संतोंकी, गुरुजनोंकी, दीन-दु:खियोंकी तथा अपने साथी यात्रियोंकी यथायोग्य सेवा करता रहे।
२-पैरोंका संयम—पैरोंसे हड़बड़ाकर न चले, देख-देखकर पैर रखे, जिससे कहीं काँटा-कंकड़ न गड़ जाय, कोई जीव पैरके नीचे न दब जाय, पैरोंसे बुरे स्थानोंमें न जाय, असाधुओंके पास न जाय, नाच-तमाशे आदिमें न जाय, बूचड़खाने, शराबखाने, द्यूतगृह, वेश्याके घर, विषयी पुरुषोंके यहाँ और नास्तिकोंकी संगतिमें न जाय।
साधुसंग, तीर्थस्नान, देवदर्शन और सेवाके लिये सदा उत्साहसे जाय और इसमें कभी थकावटका अनुभव न करे।
३-मनका संयम—मनके द्वारा विषयोंका चिन्तन न हो। मनमें काम, लोभ, ईर्ष्या, डाह, द्वेष, वैर, घमंड, कपट, अभिमान, कठोरता, क्रूरता, विषाद, शोक और व्यर्थ-चिन्तन आदि दोष न आने पायें, दूसरोंके दोषोंका चिन्तन-मनन न हो, स्त्रियोंके अंगों, चरितों और उनकी चेष्टाओंका जरा भी चिन्तन न हो। इसी प्रकार स्त्रियोंके द्वारा पुरुषोंका चिन्तन न हो, असम्भव विषयोंका तथा व्यर्थका चिन्तन न हो। मनके द्वारा भोगोंके दोषों तथा दु:खोंका, अपनी भूलोंका और अपराधोंका, दूसरोंके सच्चे गुणों एवं महत्त्वका तथा महापुरुषोंके चरित्र, गुण और स्वरूपका चिन्तन होता रहे। मन सदा-सर्वदा परम श्रद्धा तथा अनन्य प्रेमके साथ श्रीभगवान् के स्वरूपका उनके दिव्य नाम, गुण एवं लीला-चरित्रोंका, उनके प्रभाव, महत्त्व, तत्त्व और गुरुत्वका चिन्तन करे। भगवान् की मोहिनी मूर्तिके निरन्तर दर्शन करता रहे और उन्हें देख-देखकर सदा शान्त, प्रसन्न, प्रफुल्ल और आनन्द-मुग्ध बना रहे।
४-विद्या—श्रीभगवान् को जाननेके लिये मन्त्रजाप, उपासना, साधन-चतुष्टय, विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति, मुमुक्षुत्व या गीतोक्त बीस ज्ञानसाधनोंका (१३। ७—११) आश्रय लेना। भगवान् का रहस्य खोलनेवाली विद्या ही यथार्थ विद्या है—‘अध्यात्मविद्या विद्यानाम्’ (गीता १०। ३२)।
५-तपस्या—प्रात:काल सूर्योदयसे पहले उठना, शौचस्नानादिसे निवृत्त होकर नियमित संध्योपासन-हवन-बलिवैश्वदेव आदि करना, गुरुजनोंको नित्य प्रणाम करना, खान-पानमें संयम-नियम रखना, अपने वर्णाश्रमके धर्मका पालन करना, सादगीसे रहना, सहनशील होना, व्रत-उपवासादि करना, शरीर, वाणी और मनसे प्रमाद न करना, मौन रहना, स्वाध्याय करना, हित-मित-मधुर भाषण करना, किसी भी प्राणीकी हिंसा न करना, न कराना, सरल व्यवहार करना, मन-वाणी-शरीरसे पवित्र रहना, निर्दोष सेवा करना, कष्टसाध्य आचारोंके और स्वधर्मके पालनमें सदा तत्पर रहना।
६-कीर्ति—भगवान् तथा महात्माओंके यश गाना और सुनना, श्रीभगवान् के कैंकर्यसे यशस्वी होना, भगवान् की दासतारूपी कीर्तिसे सम्पन्न होना।
७-प्रतिग्रहका त्याग—किसीसे दान न लेना, किसीकी भेंट या उपहार स्वीकार न करना, जहाँतक बने, शरीर-निर्वाहके सभी कार्योंमें स्वावलम्बी रहना, खाने-पीने, जाने-आने तथा सोने-बैठनेके लिये सभी साधनोंकी व्यवस्था यथासाध्य अपने ही बलबूतेपर तथा अपने ही खर्चसे करना। दूसरोंके स्थानमें या धर्मशाला आदिमें ठहरना पड़े तो उसके निमित्त कुछ दे देना, मकान या जमीनके मालिक न लें तो किसी गरीबको दे देना तथा किसीसे भी शारीरिक और आर्थिक सेवा न कराना।
८-यथालाभसंतोष—भगवान् की प्रेरणा और विधानसे जैसा कुछ स्थान, खान-पानके पदार्थ, सुविधा-असुविधा मिल जाय, उसीमें संतुष्ट रहना। तीर्थमें मनमाना आराम और भोग खोजनेकी प्रवृत्ति होनेसे मनुष्य तीर्थयात्राके उद्देश्यको भूल जाता है और उसका तन-मन विषय-सेवनमें ही लग जाता है। मनचाहा आराम न मिलनेपर वह विषादग्रस्त होकर लौट आता है तथा लोगोंमें तीर्थ-निन्दा करके तीर्थोंमें अश्रद्धा उत्पन्न कराकर पाप-तापका भागी होता है।
९-अहंकारका अभाव—वर्ण, जाति, धन, बल, विद्या, रूप, पद, अधिकार, प्रतिष्ठा, साधना, सद्गुण, शील आदि किसी भी निमित्तसे अहंकार नहीं करना चाहिये। यह भी नहीं सोचना चाहिये कि मेरे पुरुषार्थसे ही सब कुछ हो रहा है। अहंकार होनेपर तीर्थके महत्त्व, तीर्थवासी साधु-महात्मा तथा संतोंके आदर्श साधन और उनके सद्गुणोंसे लाभ नहीं उठाया जा सकता। अहंकार उनके संगसे विमुख कर देता है। कहीं प्रसंगवश संग हो भी जाता है तो अहंकारके कारण मनुष्य उससे कोई शुभ भाव ग्रहण नहीं कर सकता। उनमें उपेक्षा और दोष-बुद्धि करके छूँछा ही लौट आता है। इसके अतिरिक्त जहाँतक सम्भव हो, पांचभौतिक शरीरमें भी अहंकार नहीं करना चाहिये।
१०-दम्भका अभाव—अपनेमें सद्गुण या सामर्थ्य होनेपर भी लोगोंसे मान-प्रतिष्ठा, पूजा-सत्कार, धन-जमीन, भोग-ऐश्वर्य आदि प्राप्त करनेके लिये उन्हें अपनेमें दिखाना दम्भ है। दम्भी लोग दूसरोंको ठगने जाकर वास्तवमें स्वयं ही ठगाते हैं। उन्हें तीर्थसेवनका यथार्थ फल नहीं प्राप्त होता।
११-आरम्भशून्यता—तीर्थमें जाकर परमार्थ-साधनके सिवा किसी भी प्रापंचिक कार्यका आरम्भ नहीं करना चाहिये। प्रपंचमें पड़ते ही तीर्थसेवनका उद्देश्य चित्तसे चला जाता है। तीर्थोंमें जो प्रपंचका आरम्भ अथवा अहंकार एवं कामना-आसक्तिको लेकर आरम्भ किया जाता है, उसीसे लड़ाई-झगड़े, कलह, अशान्ति आदि बढ़कर तीर्थसेवनका उलटा फल होता है।
१२-लघु-आहार—शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्यकी रक्षाके लिये आहारमें संयम तो सदा ही करना चाहिये। फिर यात्रामें तो जगह-जगहका जल पीना पड़ता है, सोने-उठनेमें भी कुछ अनियमितता होती है, तरह-तरहके नर-नारियोंसे भेंट होती है, खान-पानकी नयी-नयी वस्तुएँ मिलती हैं, वहाँ यदि संयम न रहे और ठूँस-ठूँसकर जहाँ-तहाँ जो कुछ भी खाया जाय तो शरीर और मन दोनों ही अस्वस्थ हो जायँगे। ऐसा होनेपर तीर्थयात्राका उद्देश्य तो नष्ट होगा ही, रोगकी पीड़ासे स्वयं दु:खी होना पड़ेगा और इस कारण साथियोंको भी तीर्थसेवनमें विघ्न हो जायगा। अतएव अपनी प्रकृतिके अनुकूल शुद्ध सात्त्विक आहार बहुत थोड़ी मात्रामें करना चाहिये। बीच-बीचमें उपवास भी करना चाहिये, अधिक मसाले, अचार, बाजारकी बनी मिठाइयाँ, अखाद्य वस्तुएँ, नशीली चीजें, सोडा, लेमन, जूठी चीजें आदि, अपवित्र जल, प्याज-लहसुन तथा अन्यान्य अशुद्ध वस्तुओंका सेवन कदापि नहीं करना चाहिये।
१३-जितेन्द्रियता—इन्द्रियाँ दस हैं। आँख, कान, नासिका, रसना और त्वचा—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इनके द्वारा देखना, सुनना, सूँघना, चखना और स्पर्श करना—ये पाँच कार्य होते हैं। हाथ, पैर, जीभ, गुदा और उपस्थ—ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। इनके द्वारा लेना-देना, आना-जाना, बोलना, मलत्याग और मूत्र-वीर्यका त्याग—ये पाँच कार्य होते हैं। इनमें ज्ञानेन्द्रियाँ ही प्रधान हैं। उनको जीतकर अपने वशमें रखना तथा भगवत्सेवाके भावसे सदा सद्विषयोंमें ही लगाये रखना चाहिये। किस इन्द्रियसे क्या न करना और क्या करना चाहिये, इसपर कुछ विचार कीजिये।
(क) आँखोंसे किसी भी गंदी वस्तुको, स्त्रियोंके रूपको, स्त्रियोंके किसी भी अंगको, स्त्रीके चित्रको (इसी प्रकार स्त्रीके लिये पुरुषके रूप, अंग या चित्रको) और मनमें काम-क्रोध-लोभादिके विकार पैदा करनेवाले सिनेमा, नाच तथा अन्यान्य दृश्योंको कभी नहीं देखना चाहिये। सदाचारी अजामिल थोड़ी ही देरके लिये एक गंदे दृश्यको देखकर उसीके प्रभावसे पवित्र ब्राह्मणत्वसे भ्रष्ट होकर महापापी बन गये थे।
आँखोंसे भगवान् के विष्णु, राम, कृष्ण, शंकर, दुर्गा, सूर्य आदि किसी भी मंगलविग्रहको, उनकी पूजा-आरतीको, पवित्र तीर्थस्थानोंको, भगवान् की प्रकृतिकी दर्शनीय शोभाको, सुरुचि और सद्भाव उत्पन्न करनेवाले चित्रों तथा दृश्योंको, संत-महात्माओंके स्थानोंको और संत-महात्माओंको देखना चाहिये।
(ख) कानोंसे किसीकी भी निन्दा नहीं सुननी चाहिये, फिर भगवान् की, संत-महात्माओंकी, गुरुकी और शास्त्रोंकी निन्दा तो कभी किसी हालतमें भी नहीं सुननी चाहिये। अपनी प्रशंसा, दूसरोंके दोष, अश्लील और कुरुचि उत्पन्न करनेवाले गायन और भाषण, विकार पैदा करनेवाली बातें, नास्तिकोंके कुतर्क, गंदे हँसी-मजाक, भोग-बुद्धिको उत्तेजना देनेवाले, वैर-विरोध बढ़ानेवाले तथा हिंसा, मांसाहार, व्यभिचार आदि पाप-प्रवृत्तियोंको जगानेवाले शब्द और स्त्रियोंके शृंगार तथा रूप (स्त्रियोंके लिये पुरुषोंके) आदिके वर्णन नहीं सुनने चाहिये। इसके विपरीत भगवान् की लीलाकथाएँ, भगवान् के महत्त्व, तत्त्व, स्वरूप और प्रभावको जनानेवाले तथा उनकी प्राप्तिके साधन—ज्ञान, भक्ति, कर्म, उपासना आदिका निर्देश करनेवाले शास्त्र, भाषण, प्रवचन, सदुक्तियाँ, वैराग्य, सद्भाव, सदाचार, समता और सच्चे सुखको प्राप्त करानेवाली युक्तियाँ, भक्तों, संतों और महापुरुषोंकी जीवनगाथाएँ, अपने दोष और दूसरोंके सच्चे गुणोंकी बातें, भगवान् का नाम-गुण-कीर्तन, उपनिषद्, स्मृतिशास्त्र और देशी-विदेशी महात्माओंके दिव्य उपदेश सुनने चाहिये।
(ग) नाकसे मानसिक तथा शारीरिक रोग उत्पन्न करनेवाली गन्ध न सूँघकर सुन्दर सात्त्विक भगवत्-प्रसादी सुगन्ध ही सूँघनी चाहिये।
(घ) रसनासे मनमें काम, क्रोध, लोभादि तथा शरीरमें उत्तेजना, पीड़ा, रोग आदि उत्पन्न करनेवाले पदार्थोंका रस नहीं लेना चाहिये। मांस, शराब आदि अपवित्र वस्तुएँ कभी नहीं चखनी चाहिये। वस्तुत: स्वादकी दृष्टिसे तो किसी भी वस्तुको नहीं ग्रहण करना चाहिये। शुद्ध सात्त्विक भावोंको उत्पन्न करनेवाले सत्त्वगुण-प्रधान पदार्थोंका परिमित मात्रामें भगवत्सेवाकी दृष्टिसे सेवन करना चाहिये। जीभके स्वादमें फँसना बहुत ही हानिकारक है। भगवान् के चरणामृतका स्वाद अवश्य लेना चाहिये।
(ङ) त्वचासे शरीरको विशेष आरामतलब और जीवनको विलासी, आलसी तथा प्रमादी बनानेवाले पदार्थोंका तथा स्त्रियोंके (स्त्रियोंके लिये पुरुषोंके) अंगोंका स्पर्श नहीं करना चाहिये। भगवान् की मूर्तियोंके श्रीचरणोंका, संतचरणोंका, महापुरुषोंकी चरण-रजका, माता-पिताकी तथा (स्त्रीके लिये) पतिकी चरणधूलिका, सद्वस्तुओंका और सदाचार बढ़ानेवाले पदार्थोंका ही स्पर्श करना चाहिये।
कर्मेन्द्रियोंमें हाथ-पैरके संयमकी बात आ ही चुकी है। उपस्थका भी यथायोग्य संयम अवश्य रखना चाहिये।
खास बात है वाणीके संयमकी। जो मनुष्य वाणीका संयम नहीं रख सकता, वह परमार्थ-साधनसे तो वंचित रहता ही है, साथ ही लौकिक लाभों और सुखोंसे भी उसे हाथ धोना पड़ता है।
(च) वाणीसे कभी किसीकी निन्दा, चुगली, तिरस्कार, अपमान नहीं करना चाहिये। किसीको गाली या शाप न दे, किसीका जी न दुखाये, जिससे किसीका अहित होता हो, ऐसी बात न कहे, कड़वी वाणी न बोले, मिथ्या-भाषण न करे, स्त्रियोंके रूप, शृंगार तथा अंगोंकी चर्चा न करे (स्त्री पुरुषोंकी न करे), अपनी बड़ाई तथा अभिमान और घमंडकी बात न करे, किसीको लोक-परलोकके प्रलोभन न दिखाये। भगवान्, शास्त्र, गुरु और संतों-भक्तोंकी निन्दा भूलकर भी न करे। जिससे ब्राह्मण, गौ, अतिथि, अनाथ, रोगपीड़ित, विधवा स्त्री आदिका जरा भी अहित हो, ऐसी कोई बात कभी न कहे। व्यर्थ कभी न बोले। हँसी-मजाक न करे और अश्लील शब्द मुँहसे कभी न निकाले।
वाणीसे भगवान् के गुण, नाम तथा लीलाओंका कथन, कीर्तन या गायन करे। भगवान् के स्वरूप, महत्त्व, तत्त्व और प्रभावकी चर्चा करे। अधिक लोग साथ हों तो मिलकर, नहीं तो अकेले ही भगवान् के नामका नित्य कीर्तन करे। भगवान् के नाम या मन्त्रका जप करे। वेद-उपनिषद्, रामायण-महाभारत, भागवत एवं अन्य पुराण तथा संतों और भक्तोंके चरित्रोंका यथाधिकार यथारुचि पारायण करे। अधिक आदमी हों तो इनमेंसे एक सज्जन प्रतिदिन नियमित रूपसे भगवान् की कथा कहें और सब लोग सुनें। अपने सच्चे दोषोंको बिना हिचक आवश्यकतानुसार प्रकट करे और दूसरोंके गुणोंका हर्षके साथ बखान करे। (सर्वोत्तम तो यह है कि दूसरोंके गुण-दोष—किसीका भी वर्णन तो क्या, चिन्तन भी न करे, दिन-रात भगवान् के रूप-गुणोंके चिन्तन एवं कथनमें ही लगा रहे।) परमार्थ, सदाचार, भगवद्भक्ति, सर्वभूतहित तथा ज्ञान-वैराग्यकी चर्चा करे। जिनसे लोगोंमें भगवत्प्रेम, अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, आनन्द, शान्ति आदिका विस्तार हो, ऐसे सत्-साधनोंकी बातें करे।
१४-संगका अभाव—भगवान् को छोड़कर अन्य किसी भी वस्तुमें मनकी आसक्ति न रहे, कहीं भी किसी भी भोग-पदार्थमें मन न फँसने पाये। संसारके प्राणिपदार्थोंका अथवा भोगप्रेमीजनोंका संग न करे।
१५-क्रोधका अभाव—अपनी निन्दा या अपकार करनेवालेपर भी क्रोध न हो, क्रोधवश मुँहसे कठोर शब्द न निकलें, मनमें भी जलन न हो, सदा क्षमाभाव रहे। दण्ड देनेकी शक्ति होनेपर भी क्रोधवश हिंसापूर्ण प्रतीकार न करना ही क्षमा है। प्रेम और सुहृदतापूर्ण प्रतीकार, अपकारीका कल्याण चाहते हुए, शान्त-चित्तसे उसे सन्मार्गपर लानेकी नीयतसे करना बुरा नहीं है। क्रोध सारे साधनोंको नष्ट कर देता है।
१६-निर्मल मति—बुद्धि ऐसी होनी चाहिये, जो बुरेको बुरा और भलेको भला बतला सके, जिसमें बुरेकी ओर जाते हुए मन-इन्द्रियोंको रोककर भले तथा सात्त्विक भावकी ओर चलानेकी शक्ति हो। यह तभी होता है, जब सच्चे सत्संगके प्रभावसे बुद्धि भगवान् की ओर लगकर पूर्ण निश्चयात्मिका और सात्त्विकी हो जाती है। तामसी बुद्धि दोषयुक्त होती है, इसीसे उसका निर्णय सर्वथा विपरीत होता है। वह पापको पुण्य, असत् को सत् , बुरेको भला और अकर्तव्यको कर्तव्य बतलाती है। उसमें मन-इन्द्रियोंको सन्मार्गपर ले जानेकी तो शक्ति ही नहीं होती। ऐसा होता है कुसंगसे और निरन्तर विषय-सेवनमें लगे रहनेसे। अतएव बुद्धिको निर्मल करनेके लिये सदा सत्संग और सद्विषयोंको भगवदर्पण-भावसे सेवन करनेकी चेष्टा करनी चाहिये।
१७-सत्यवादिता—जैसा कुछ देखा, सुना या अनुभवमें आया हो, वैसा ही समझा देनेकी नीयतसे, बिना किसी छलके, परहितका ध्यान रखते हुए मीठी भाषामें कहना सत्य है। ऐसे सत्यका ही अवलम्बन करना चाहिये। मिथ्यावादीका तीर्थफल नष्ट हो जाता है।
१८-दृढ़व्रत—अपने निश्चयमें, अपने इष्ट तथा साधनमें और नियम-पालनमें पतिव्रता स्त्रीकी भाँति अडिग रहना चाहिये। किसी भी प्रलोभन, मोह या भयमें फँसकर व्रतका भंग न होने पाये।
१९-सब प्राणियोंमें आत्मोपम भाव—अपनेपर कोई दु:ख आये, अपनेको गाली, अपमान, रोग-पीड़ा, अभाव आदि सहने पड़ें तो जैसा कष्ट होता है, वैसा ही सबको होता है, हम जैसे अनुकूलतामें सुखी और प्रतिकूलतामें दु:खी होते हैं, वैसे ही सब होते हैं—इस प्रकार सत्ता और सुख-दु:खमें सबको अपने आत्माके समान ही जानकर सबके साथ आत्मभावसे ही बर्ताव करना चाहिये। अर्थात् हम जैसा भाव तथा बर्ताव अपने लिये चाहते हैं और करते हैं, वैसा ही सब प्राणियोंके लिये चाहना और करना चाहिये।
तीर्थसेवनका परम फल
तीर्थयात्रा या तीर्थसेवनका वास्तविक परम फल है—‘भगवत्प्राप्ति’ या ‘भगवत्प्रेमकी प्राप्ति’। उपर्युक्त उन्नीस गुणोंसे युक्त होकर जो नर-नारी श्रद्धा-विश्वासपूर्वक तीर्थसेवन करते हैं, उन्हें निश्चय ही यह परम फल प्राप्त होता है। इस परम फलकी प्राप्ति अन्यान्य साधनोंसे कठिन बतलायी गयी है—
अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैरिष्ट्वा विपुलदक्षिणै:।
न तत्फलमवाप्नोति तीर्थाभिगमनेन यत्॥
‘तीर्थयात्रासे जो फल मिलता है, वह बहुत बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले अग्निष्टोमादि यज्ञोंसे भी नहीं मिलता।’
अश्रद्धान: पापात्मा नास्तिकोऽच्छिन्नसंशय:।
हेतुनिष्ठश्च पञ्चैते न तीर्थफलभागिन:॥
‘जिनमें श्रद्धा नहीं है, जो पापके लिये ही तीर्थसेवन करते हैं, जो नास्तिक हैं, जिनके मनमें संदेह भरे हुए हैं तथा जो केवल सैर-सपाटे और मौज-शौकके लिये अथवा किसी खास स्वार्थसे तीर्थ-भ्रमण करते हैं—इन पाँचोंको तीर्थका उपर्युक्त भगवत्प्राप्ति या भगवत्प्रेम-प्राप्तिरूप परम फल नहीं मिल सकता।’
तीर्थोंमें और क्या-क्या करना चाहिये?
इसलिये श्रद्धा तथा संयमपूर्वक तीर्थसेवन करना चाहिये। तीर्थमें पितरोंके लिये श्राद्ध-तर्पण अवश्य करना चाहिये। इससे पितरोंको बड़ी तृप्ति होती है और उनका शुभाशीर्वाद प्राप्त होता है।
तीर्थोंमें वहाँके नियमोंका आदर करना चाहिये। प्रसाद आदिमें सत्कार बुद्धि रखनी चाहिये। श्रद्धा और सत्कार ही सत्फल उत्पन्न करते हैं। तीर्थोंमें कठोर ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करना चाहिये। मन, वाणी, शरीरसे किसी प्रकार भी पुरुषको स्त्रीका और स्त्रीको पुरुषका संग नहीं करना चाहिये। तीर्थमें सुयोग्य पात्रोंको (जिसको जब जिस वस्तुकी यथार्थमें आवश्यकता है, वही उस वस्तुका पात्र है।) अपनी शक्तिके अनुसार दान करना चाहिये। तीर्थमें किये हुए दानकी बड़ी महिमा है। तीर्थयात्रासे लौटकर यथासाध्य ब्राह्मणभोजन तथा पितृश्राद्ध करना चाहिये।
ऊपरके विवेचनसे यह नहीं समझना चाहिये कि उपर्युक्त प्रकारसे किये बिना तीर्थ-सेवनका कोई फल ही नहीं मिलता। जिस वस्तुमें जो स्वाभाविक गुण है, उसका प्रभाव तो होगा ही। अग्निको न जानकर चाहे उसे हम छू लें; उससे हाथ जलेगा ही, क्योंकि यह उसका सहज गुण है। इसी प्रकार तीर्थ-सेवनसे भी तीर्थ-विशेषकी शक्तिके तारतम्यके अनुसार किसी-न-किसी अंशमें पाप-नाश तो होगा ही। हाँ, पापोंका सर्वथा विनाश और परम फलकी प्राप्ति तो उपर्युक्त प्रकारसे तीर्थ-सेवन करनेपर ही होती है। अतएव तीर्थयात्रा सभीको करनी चाहिये। इसमें देशाटनका लाभ भी मिल जाता है और नयी-नयी बातें सीखने-समझनेको तो मिलती ही हैं। परंतु जहाँतक बने यात्रा करनी चाहिये श्रद्धा और संयमके पाथेयको साथ लेकर ही।
मातृतीर्थ, पितृतीर्थ, गुरुतीर्थ, भार्यातीर्थ और भर्तृतीर्थ
एक बात और है। ऐसे लोगोंको बहुत सोच-समझकर तीर्थयात्रा करनी चाहिये। जिनको कोई खास अड़चन हो, जिनके घरसे चले जानेपर बूढ़े माता-पिताको कष्ट होता हो या पत्नीके चले जानेपर श्रेष्ठ पतिको दु:ख पहुँचता हो, ऐसे लोग चाहें तो तीर्थयात्रा न करके अपने भावके अनुसार घरमें ही रहकर तीर्थयात्राका फल प्राप्त कर सकते हैं।
शास्त्रमें पुत्रके लिये माता-पिताको, शिष्यके लिये गुरुको, पतिके लिये पत्नीको और पत्नीके लिये पतिको तीर्थ माना गया है। पद्मपुराण-भूमिखण्डमें इसका इतिहासोंके सहित बड़ा ही विशद और सुन्दर वर्णन है। वहाँ कहा गया है—जो दुष्ट पुरुष वृद्ध माता-पिताका अपमान करता है, उन्हें उचित रीतिसे खाने-पीनेको नहीं देता, कड़वे वचन बोलता है और उनको असहाय छोड़कर चल देता है, वह बार-बार साँप, ग्राह, बाघ तथा रीछ आदि योनियोंको प्राप्त होता है और कुम्भीपाक आदि घोर नरकोंमें युगोंतक पड़ा सड़ा करता है। माता-पिताकी सेवासे, उनको आदरपूर्वक संतुष्ट करनेसे तीनों लोकोंकी तुष्टि होती है। जो पुरुष नित्य अपने माता-पिताके चरण चाँपता है, उसे घरपर ही भागीरथी-स्नानका पुण्य मिलता है। पुत्रोंके लिये माता-पिताके समान कोई तीर्थ नहीं है—
नास्ति मातृसमं तीर्थं पुत्राणां च पितु: समम्।
सूर्य दिनके, चन्द्रमा रात्रिके तथा दीपक घरके अन्धकारको हटाकर उनमें उजियाला करते हैं, परंतु गुरु तो शिष्यके अज्ञानान्धकारको सर्वथा हरकर उसके दिन, रात और घर—तीनोंमें ही उजियाला कर देते हैं—यह समझकर शिष्यको सदा गुरुकी पूजा करनी चाहिये। शिष्योंके लिये गुरु ही परमपुण्य, सनातन धर्म, परम ज्ञान और प्रत्यक्ष फलदायक परम ‘तीर्थ’ है—
शिष्याणां परमं पुण्यं धर्मरूपं सनातनम्।
परं तीर्थं परं ज्ञानं प्रत्यक्षफलदायकम्॥
जिस घरमें सदाचारयुक्त, धर्मतत्पर, पुण्यमयी सती पतिव्रता है, उस घरमें सारे देवता नित्य निवास करते हैं। गंगाजी आदि पवित्र नदियाँ, पवित्र समुद्र तथा सारे तीर्थ और पुण्य वहाँ रहते हैं। सत्यपरायणा पवित्र सतीके घरमें समस्त यज्ञ, गौ और ऋषिगण बसते हैं। ऐसी पवित्र भार्याको त्यागकर जो पुरुष धर्म-कार्य करता है, उसके वे सारे धर्म व्यर्थ होते हैं। भार्याके बिना धर्म पुरुषका मित्र नहीं होता। भार्याके समान पुरुषोंको सद्गति देनेवाला कोई दूसरा ‘तीर्थ’ नहीं है। यदि भार्या भक्ता हो—
तस्माद् भार्यां विना धर्म: पुरुषस्य न सिद्ध्यति।
नास्ति भार्यासमं तीर्थं पुंसां सुगतिदायकम्॥
स्त्रीके लिये पति ही परमेश्वर है, पति ही गुरु है, पति ही परम देवता है और पति ही परम तीर्थ है। जो स्त्री पतिको छोड़कर अकेली रहती है, वह पापयुक्त हो जाती है। स्त्रीको पतिके प्रसादसे ही सब कुछ प्राप्त होता है। स्त्रीका पातिव्रत्य ही समस्त पापोंका नाशक और मोक्षदायक है। जो स्त्री पतिपरायणा है, वही पुण्यमयी कहलाती है। स्त्रियोंके लिये पतिको छोड़कर पृथक् तीर्थ शोभा नहीं देता। पतिका दाहिना चरण उसके लिये प्रयाग है और बायाँ पुष्करराज है। पतिके चरणोदक-स्नानसे ही उसे इन सब तीर्थोंमें स्नान करनेका पुण्य मिल जाता है। पत्नीके लिये पति ही सर्वतीर्थमय और पुण्यमय है—
सर्वतीर्थमयो भर्ता सर्वपुण्यमय: पति:।
किंतु इसका यह तात्पर्य नहीं कि गृहस्थोंको स्थावर तीर्थोंकी यात्रा करनी ही नहीं चाहिये। बात इतनी ही है कि बूढ़े माता-पिता, गुरु, पति और भार्या आदिके पालन-पोषण तथा सेवारूप कर्तव्यसे मुँह मोड़कर इन्हें रोते-बिलखते तथा कष्ट पाते छोड़कर जो नर-नारी तीर्थोंमें जाकर अपना कल्याण चाहते हैं, वे एक बार अपनेको वैसी ही परिस्थितिमें ले जाकर सोच लें। तीर्थ-यात्राके समान ही फल तो उनको घरमें भी भाव होनेपर प्राप्त हो सकता है।
तीर्थयात्राके विभिन्न फल
जो लोग भगवान् में मन लगाकर भगवत्सेवाकी बुद्धिसे श्रद्धा तथा संयमपूर्वक तीर्थयात्रा करते हैं, उन्हें मोक्ष या भगवत्प्रेमकी प्राप्ति होती है। जो लोग ऐसी बुद्धि न रखकर किसी लौकिक अथवा पारलौकिक कामनासे ही श्रद्धा-संयमपूर्वक तीर्थयात्रा करते हैं, उनको अपने भाव तथा तीर्थकी शक्तिके अनुसार उनकी कामनाके अनुरूप उचित फल प्राप्त होता है। किसी भी प्रकार हो, तीर्थ-सेवन है निश्चय ही लाभदायक।
तीर्थोंकी वर्तमान बुरी स्थिति
अब अन्तमें एक अप्रिय प्रसंगपर कुछ लिखना आवश्यक जान पड़ता है। जैसे भगवत्परायण भजनानन्दी महापुरुषोंने अपने पुण्य-बलसे तीर्थोंको तीर्थ बनाया था, वैसे ही आजकल पापाचारी दाम्भिक लोगोंने उन्हें नष्ट-भ्रष्ट करना आरम्भ कर दिया है। आजकल प्रसिद्ध-प्रसिद्ध तीर्थोंपर जो पापकाण्ड होते हैं, वे बड़े ही भयानक और रोमांचकारी हैं। सच पूछा जाय तो इन्हीं दुराचारोंको देखकर अच्छे लोगोंकी भी श्रद्धा तीर्थोंसे हटती जा रही है। प्रत्येक तीर्थ-प्रेमीको इस ओर ध्यान देकर धर्मके नामपर होनेवाले इस भीषण पापाचारको रोकनेका प्रयत्न करना चाहिये। तीर्थोंका यह दुरुपयोग शीघ्र ही नष्ट हो जाना चाहिये। नहीं तो भारतके गौरव-स्थल ये तीर्थ लोगोंकी अश्रद्धाके भाजन हो जायँगे।