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॥ श्रीहरि:॥

धर्मके विविध रूप

जो सबका धारण करे और जिससे अभ्युदय तथा नि:श्रेयस् की सिद्धि हो वह धर्म है। सब लोग एक परिस्थितिमें नहीं रहते। एक ही व्यक्ति सदा एक-सी परिस्थितिमें नहीं रहता। पूरे समाज एवं देशमें भी परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं। मनुष्योंकी रुचि, अधिकार तथा मानसिक योग्यता भी एक-जैसी नहीं है। इसलिये कोई एक ही धर्मका निश्चित रूप, कोई एक ही साधन-सम्प्रदाय, कोई एक ही आचार-पद्धति सब देशों, सब लोगों और सब समयके लिये अभ्युदय-नि:श्रेयस् सिद्धिका कारण हो सके, यह सम्भव नहीं है। इसलिये धर्म नानारूपात्मक है। वह एक होकर भी अनेकरूप है। अनेकतामें एकत्वका दर्शन—यही सृष्टिके परम तत्त्वका दर्शन है।

जब एक साधन-प्रणाली, एक ही आचारसंहिता, एक ही जीवन-पद्धति अथवा उपासना-पद्धतिका आग्रह किया जाता है, तब वह बहुत शीघ्र विकृत होने लगती है। उसकी पद्धतियोंमें उसके अनुयायी छूट लेने लगते हैं और उसकी उपेक्षा करने लगते हैं। आज करोड़ों वर्ष व्यतीत होनेपर भी सनातन धर्म केवल जीवित ही नहीं है, समस्त विकृतियों तथा बाह्य आघातोंके निरन्तर थपेड़े सहनेपर भी उसमें अपने अधिकारानुरूप धर्मका आचरण करनेवालोंकी एक बड़ी संख्या है, जब कि विश्वमें एक ग्रन्थ, एक गुरु, एक उपासना-पद्धतिको ही धर्म माननेवाले अनेक सम्प्रदाय जनमे और नष्ट हो गये। जो आज जीवित हैं, उन अपनेको धर्म कहनेवाले सम्प्रदायोंमें उनके अनुयायियोंकी दृढ़तासे नियम पालन करनेवालोंका अनुपात सनातन धर्मकी अपेक्षा बहुत कम रह गया है।

धर्म सार्वभौम है, सबके लिये है तो उसका समयानुकूल तथा साधककी परिस्थिति एवं अधिकारके अनुरूप भिन्न-भिन्न रूप भी होगा। इसलिये प्रत्येक युगके विशेष-विशेष धर्म हैं। प्रत्येक वर्ण एवं आश्रमके भिन्न-भिन्न धर्म हैं। प्रत्येकके अधिकारके अनुसार भिन्न-भिन्न धर्म हैं। धर्मके इन विविध रूपोंका नामोल्लेख करनातक सम्भव नहीं है।

इन असंख्य विविधताओंके होते हुए भी बहुत-सी मौलिक एकताएँ होती हैं। जैसे मनुष्योंके रंग तथा आकृतियाँ, उनके कद, उनका वजन भिन्न-भिन्न होनेपर भी उनकी आकृतिमें समानता है, जिसके कारण सब मनुष्य कहलाते हैं। उसी प्रकार सभी मनुष्योंके पृथक्-पृथक् आचरणोंमें भी एक समानता होती है। सबके अभ्युदय-नि:श्रेयस् के साधनोंमें जो समत्व है, उसे दृष्टिमें रखकर सबके लिये धर्मके—कर्तव्य कर्मके जो मुख्य-मुख्य भेद हैं, उनकी ही चर्चा यहाँ की जा रही है।

नित्य-कर्म—यह सबसे मुख्य अंग है धर्मकृत्यका। कहा गया है कि नित्यकर्मके करनेसे कोई पुण्य नहीं होता, न करनेसे पाप होता है। जैसे स्नान करना है। सामान्य स्नान करनेसे शरीरको कोई नयी शक्ति मिलती ही है, यह कहा नहीं जा सकता, किंतु स्नान न करनेसे शरीर मलावृत रहता है और रोगकी ओर जाता है। इसी प्रकार नित्यकर्मका अर्थ है प्राकृतिक एवं शास्त्रीय रीतिसे दैनिक मानसिक स्वच्छताका कार्य।

प्रकृति स्वभावसे विकारोन्मुख है। कोई भी भवन बनाइये, बंद रखिये, किंतु उसमें थोड़ी-बहुत धूलि-गंदगी एकत्र होती ही है। दैनिक स्वच्छता भवनके लिये, तनके लिये जैसे अपेक्षित है, वैसे ही मनके लिये भी अपेक्षित है। मनको भी सूक्ष्म शरीरका अंग माना गया है। वह भी प्राकृतिक तत्त्व है। अत: मन कोई ऐसा कभी नहीं बनेगा कि उसकी स्वच्छताका प्रयास बंद कर दिया जाय तो वह स्वच्छ बना रहेगा। यह प्रयास तो करते ही रहना होगा।

केवल स्वच्छताका प्रयास ही नहीं, दैनिक रूपसे पोषण भी आवश्यक है। आप कार्य न करें, चुपचाप पड़े रहें तो भी हृदय काम करता है। रक्त दौड़ता है। अत: शरीरको अपनी शक्ति बनाये रखनेके लिये दैनिक भोजन आवश्यक होता है। इसी प्रकार मनको भी सशक्त रखनेके लिये शुद्ध आचार चाहिये प्रतिदिन! आप शुद्ध आहार नहीं देंगे तो वह मनमाना आहार ग्रहण कर लेगा और तब बीमार हो जायगा। उसमें मानसिक रोग जड़ पकड़ लेंगे।

स्नान, संध्या, तर्पण, बलिवैश्वदेव आदि कर्म नित्यकर्म हैं द्विजातिके लिये। इनमें भी संध्यादिकी पद्धति भिन्न-भिन्न है। प्रत्येक सम्प्रदायने अपने अनुयायियोंके लिये नित्यकर्म निश्चित किये हैं। प्रात:काल उठकर प्रार्थना करनेसे लेकर शयन करनेतकके लिये नित्यकर्म है। आप संध्या करते हैं या नमाज पढ़ते हैं, इसमें तात्पर्य नहीं है। तात्पर्य इसमें है कि आपके सम्प्रदायके अनुसार जो आपका नित्यकर्म है, उसका पालन आपको नियमपूर्वक करना चाहिये। यह मनकी स्वच्छता, स्वस्थता तथा सशक्तताके लिये आवश्यक है।

नैमित्तिक कर्म—मनुष्यके जीवनमें बहुत-से निमित्त आते हैं, जब उसे अपनी दैनिक चर्यामें परिवर्तन करना पड़ता है। उस समय उसे उस निमित्त-विशेषको दृष्टिमें रखकर कार्यक्रम बनाना पड़ता है। धार्मिक दृष्टिसे जब ऐसे विशेष निमित्त आते हैं, तब विशेष धार्मिक कर्म आवश्यक होते हैं।

घरमें संतान होती है, विवाह पड़ता है, कोई विशेष अतिथि आता है, कोई मरता है। ऐसे समय आप अपने कार्यालय, दूकान आदिके सामान्य काममें अन्तर करते हैं या नहीं? इन अवसरोंपर आपके चित्तमें विशेष उत्साह, शोक या चांचल्य होता है। अतएव चित्तके परिष्कारके लिये भी इन अवसरोंपर विशेष आचरण होना चाहिये।

निमित्त स्थानके कारण आते हैं—जैसे आप तीर्थयात्रा करें तो तीर्थ-स्थान विशेष निमित्त हैं। काल निमित्त बनता है—जैसे एकादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, शिवरात्रि आदि। जब प्रकृति विशेष अवस्थामें होती है, व्यक्ति अथवा घटनाएँ निमित्त बनती हैं। इन निमित्तोंके अनुसार हमारा जीवन, हमारा मन अभ्युदय एवं नि:श्रेयस् के पथपर ठीक स्थिर रहे, वेगसे बढ़े, इसके जो विधान हैं, वे नैमित्तिक कर्म हैं।

यात्रामें आँधी वेगकी हो और प्रतिकूल हो तो नौका घाटपर लाकर रोक देनी पड़ती है। वायुका वेग अनुकूल हो तो पाल चढ़ा देना पड़ता है। इसी प्रकार नैमित्तिक कर्मके विधान प्रतिकूल निमित्तकी बाधासे रक्षा तथा अनुकूल निमित्तकी शक्तिसे अधिकाधिक लाभ उठानेके लिये निश्चित हुए हैं।

सामान्य धर्म—सबके लिये साधारणरूपसे व्यवहार करनेके कुछ नियम होते हैं। जैसे भारतमें सामान्य नियम है कि मार्गपर अपने बायें हाथकी ओरसे सवारी चलायी जाय। इसी प्रकार सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, सेवा, संतोष, मन-इन्द्रियसंयम, ईश्वरमें श्रद्धा आदि सामान्य धर्म हैं। इनका आचरण सबको ही करना चाहिये। ये सबके लिये आचरणीय एवं नित्य मंगलमय हैं। श्रीमद्भागवतमें युधिष्ठिरजीको देवर्षि नारदने धर्मोपदेश करते हुए तीस लक्षणयुक्त सार्ववर्णिक, सार्वभौम मानवधर्म बताया है—

सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्॥
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्॥
अन्नाद्यादे: संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेष्वात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव॥
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्॥
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिंशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति॥
(श्रीमद्भा० ७।११।८—१२)

१-सत्य, २-दया, ३-तपस्या, ४-पवित्रता, ५-कष्टसहिष्णुता,६-उचित-अनुचितका विचार, ७-मनका संयम, ८-इन्द्रियोंका संयम, ९-अहिंसा, १०-ब्रह्मचर्य, ११-त्याग, १२-स्वाध्याय, १३-सरलता, १४-संतोष, १५-समदर्शिता, १६-सेवा, १७-धीरे-धीरे सांसारिक भोगवृत्तिका त्याग, १८-मनुष्यके लौकिक सुखप्राप्तिके प्रयत्न उलटा ही फल देते हैं—यह विचार, १९-मौन, २०-आत्मचिन्तन, २१-प्राणियोंमें अन्नादिका यथायोग्य विभाजन तथा उनमें, विशेषकर मनुष्योंमें अपने आराध्यको देखना, २२-महापुरुषोंकी परमगति भगवान् के रूप, गुण, लीला, माहात्म्यका श्रवण, २३-भगवन्नाम-गुण-लीलाका कीर्तन, २४-भगवान् का स्मरण, २५-२६-भगवत्सेवा तथा पूजा-यज्ञादि, २७-भगवान् को नमस्कार करना, २८-भगवान् के प्रति दास्यभाव, २९-सख्यभाव और ३०-भगवान् को आत्मसमर्पण—इन तीस लक्षणोंवाला धर्म सभी मनुष्योंके लिये कहा गया है। इसके पालनसे सर्वात्मा भगवान् संतुष्ट होते हैं।

विशेष धर्म—मनुष्य होनेके साथ प्रत्येक मनुष्यकी एक विशेष परिस्थिति भी समाजमें है और उस परिस्थितिके अनुसार उसके विशेष कर्तव्य भी होते हैं। आप देशके सामान्य नागरिक हैं, इसलिये नागरिकताके सामान्य कर्तव्यका पालन तो आपको करना ही है। इसके साथ ही आप किसीके पिता, किसीके पुत्र, किसीके पति, किसीके भाई भी हैं। समाजमें आपके दूसरे सैकड़ों सम्बन्ध हैं और उन सम्बन्धोंके अनुसार विभिन्न कर्तव्य, विभिन्न दायित्व आपके हैं। उनका निर्वाह भी आपको करना है।

यह नहीं भूलना चाहिये कि प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसीका आदर्श है। उसके पुत्र, मित्र, सेवक उसका अनुकरण करते हैं। इसलिये हमारा अपना आचरण केवल हमको ही प्रभावित नहीं करता। उसका हमारे समीपस्थों-आश्रितोंपर भी प्रभाव पड़ता है। हम अनेकों दूसरोंके अभ्युत्थान या पतनका भी निमित्त अपने आचरणसे बनते हैं। इसलिये हमें अपने कर्तव्य-निर्वाहके प्रति बहुत सतर्क रहनेकी आवश्यकता है।

मनुष्यकी जो समाज, परिवार, राष्ट्रमें विशेष-विशेष स्थिति है, उसके कारण उसके विशेष-विशेष धर्म बन जाते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रका धर्म अपने-अपने वर्णोंके अनुसार। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासीका धर्म अपने-अपने आश्रमके अनुसार। पुरुष, स्त्रीका धर्म अपने शरीरके अनुसार। बालक, युवा, वृद्धका धर्म शरीरकी अवस्थाके अनुसार। माता, पिता, पुत्र, भाई, बहिन, मित्र, गुरु, शिष्य आदिके धर्म अपने सम्बन्ध एवं स्थितिके अनुसार होते हैं।

सैनिकका धर्म एक और प्रशासकका दूसरा। न्यायाधीशका धर्म भिन्न और वकील या व्यापारीका भिन्न। इस प्रकार समाजमें आपकी जो परिस्थिति है, जहाँ, जिस समय, जिस रूपमें, जिस पदपर आप हैं, उसके अनुसार आपका विशेष धर्म निश्चित होता है। एक ही व्यक्तिका धर्म पत्नीके प्रति भिन्न है, पुत्रीके प्रति भिन्न और माताके प्रति भिन्न है।

काम्यकर्म या धर्म—जबतक हम कुछ नहीं चाहते, जीवन अपनी सामान्य गतिसे चलता रहता है। लेकिन जब हम कुछ पदार्थ-विशेष या परिस्थिति-विशेष प्राप्त करना चाहते हैं, हमको विशेष उद्योग करना पड़ता है और हमारी सफलता उद्योगके सर्वथा ठीक-ठीक होनेपर निर्भर करती है। उद्योगमें त्रुटि होनेपर उद्योग अपूर्ण सफल होगा, असफल होगा या विपरीत फल देगा—कुछ कहा नहीं जा सकता।

काम्यकर्म अनिवार्य नहीं हैं। उनके न करनेसे कोई दोष, कोई पाप नहीं होता। जैसे वार-व्रत हैं। सब वार-व्रत किसी-न-किसी कामनासे किये जाते हैं। अत: कोई रविवार, मंगल या किसी अन्य वारका व्रत नहीं करता, यह कोई दोष नहीं है। उस वार-व्रतका जो लाभ है, उस लाभको प्राप्त करनेकी इच्छा हो तो व्रत कीजिये। काम्यकर्म करनेसे अपना लाभ होता है।

इसमें यह स्मरण रखना चाहिये कि काम्यकर्ममें श्रद्धा तथा विधिका सम्यक् पालन आवश्यक है। ‘हम विधि नहीं जानते थे। अमुक भूल अनजानमें हो गयी।’ इसकी छूट काम्यकर्म—सकाम धर्मानुष्ठानमें नहीं है। जैसे रोग हुआ या मकान बनवाना है तो दवाकी ठीक जानकारी, ठीक उपयोग, मकानके बनानेका पूरा कौशल जानना अनिवार्य है। बिना जाने या प्रमादसे त्रुटि होगी तो वह अपना फल दिखायेगी। इसी प्रकार सकाम धर्मानुष्ठानमें विधि न जानने या भूल-प्रमादवश त्रुटि होगी तो भी आपका श्रम व्यर्थ जा सकता है या वह उलटा फल भी दिखा सकता है।

आपद्धर्म—मनुष्य सदा सामान्य परिस्थितिमें नहीं रहता। रोग, शोक, विपत्ति आदि आती ही रहती हैं। अत: शास्त्रने ऐसी परिस्थितिमें निर्वाहका विधान किया है। उस समय नित्य अथवा विशेष धर्ममें कुछ छूट दी गयी है, किंतु उतनी ही छूट, जिसके बिना जीवनधारण सम्भव न हो।

एक बार अकाल पड़ा। एक ऋषि भूखसे मरणासन्न थे। प्राणरक्षाके लिये उन्होंने शूद्रसे उसके उच्छिष्ट उबाले उड़द लिये। शूद्रने जल देना चाहा तो ऋषिने कहा—‘तुम्हारा उच्छिष्ट जल लेनेसे मैं धर्मभ्रष्ट हो जाऊँगा। जल मुझे अन्यत्र भी मिल सकता है। प्राणरक्षाके लिये मैंने उड़द लिये कि प्राण रखकर धर्म-पालन तथा आराधना करूँगा।’

यह दृष्टान्त आपद्धर्मकी मर्यादाको बहुत स्पष्ट करता है। किंतु यह स्मरण रखना चाहिये कि आपद्धर्म धर्म नहीं है। अत्यन्त विवशतामें केवल प्राणरक्षाके लिये धर्ममें किंचित् शिथिलताकी वह छूट है। उस समय वह शिथिलता स्वीकार करनेमें दोष नहीं है, किंतु आपद्धर्म न स्वीकार करके विपत्तिमें, प्राण-संकटमें भी धर्मपर पूर्णत: स्थिर रहना विशेष प्रशस्त—महान् पुण्यप्रद माना गया है।

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