श्रीभगवत्पूजन-पद्धतिका सामान्य परिचय
अष्ट-काल
निशान्त: प्रात: पूर्वाह्णो मध्याह्नश्चापराह्णक:।
सायं प्रदोषो नक्तं चेत्यष्टौ काला: प्रकीर्तिता:॥
निशान्त (सूर्योदयसे पूर्व दो घंटे चौबीस मिनटका काल), प्रात: (सूर्योदयके उपरान्त दो घंटे चौबीस मिनटतक), पूर्वाह्ण (तत्पश्चात् दो घंटे चौबीस मिनट), मध्याह्न (तत्पश्चात् चार घंटे अड़तालीस मिनट), अपराह्ण (तत्पश्चात् सूर्यास्ततक दो घंटे चौबीस मिनट), सायाह्न (सूर्यास्तके बाद दो घंटे चौबीस मिनट), प्रदोष (तत्पश्चात् दो घंटे चौबीस मिनट), निशा (उसके बाद चार घंटे अड़तालीस मिनट)—इन रात-दिनके आठ भागोंमें अष्टकालीन पूजा होती है। श्रीभगवत्पूजा प्रतिमामें, चित्रपटमें या मानसिक की जाती है। पूजा पूर्व या उत्तर मुँह बैठकर करनी चाहिये।
प्रात:-स्नान
सूर्योदयके पश्चात् प्राय: ढाई घंटेतक प्रात:कालका समय होता है। शौचादिसे निवृत्त होकर हस्त-पादादि-शुद्धिपूर्वक दन्तधावन करके आचमन कर प्रतिदिन यत्नपूर्वक प्रात:-स्नान करे। ‘श्रीहरि-भक्ति-विलास’ में लिखा है कि ब्राह्ममुहूर्तमें ‘कृष्ण, कृष्ण’ कीर्तन करते हुए उठे, फिर शौचादिसे निवृत्त हो हाथ-मुँह आदि धोकर दन्तधावन करे, पश्चात् आचमन करके कपड़े बदलकर प्रात:कालीन स्मरण, कीर्तन और ध्यान करके प्रभुको जगाकर, निर्माल्य आदि उतारकर, श्रीमुखप्रक्षालन कराके, मंगल-आरती आदिका कार्य सम्पादन करके अरुणोदयका समय व्यतीत होनेपर प्रात:-स्नानके लिये बाहर निकले तथा कृष्ण-नाम-कीर्तन करते हुए जलमय तीर्थमें या उसके अभावमें विशुद्ध जलाशयमें जाकर विधिपूर्वक स्नान करे।
पुष्प-चयन-विधि
रात्रिके वस्त्र परित्याग करके पवित्र वस्त्र धारण कर अथवा प्रात:स्नान करके पुष्प-चयन करे। मध्याह्नकालमें स्नान करके पुष्प-चयन करना वर्जित है।
तुलसी-चयन-विधि
बिना स्नान किये तुलसी-चयन न करे। चयन करनेका मन्त्र—
तुलस्यमृतजन्मासि सदा त्वं केशवप्रिया।
केशवार्थे चिनोमि त्वां वरदा भव शोभने॥
त्वदंगसम्भवै: पत्रै: पूजयामि यथा हरिम्।
तथा कुरु पवित्रांगि कलौ मलविनाशिनि॥
चयनोद्भवदु:खं ते यद्देवि हृदि वर्तते।
तत् क्षमस्व जगन्मातस्तुलसि त्वां नमाम्यहम्॥
यह मन्त्र उच्चारण करके श्रीतुलसीदेवीको नमस्कार कर दाहिने हाथसे धीरे-धीरे वृन्तके साथ एक-एक पत्र अथवा द्विदलके साथ मंजरी-चयन करके पवित्र पात्रमें रखे। कीड़ोंका खाया हुआ अथवा छिन्न पत्र ग्रहण न करे। अखण्डपत्र ही प्रशस्त होता है। ‘इस मन्त्रसे तुलसी-चयन करके श्रीकृष्ण-पूजा करनेसे लक्ष-कोटिगुना फल प्राप्त होता है’—
मन्त्रेणानेन य: कुर्याद् गृहीत्वा तुलसीदलम्।
पूजनं वासुदेवस्य लक्षकोटिफलं लभेत्॥
(श्रीहरि-भक्ति-विलास)
(श्रीशिव-पूजार्थ)
बिल्वपत्र-चयन-विधि
बिल्वकी बड़ी महिमा है। लिखा है कि सहस्रों कमलोंके द्वारा भगवान् शिवजीकी पूजा करनेसे जो फल होता है, वही बिल्वपत्रद्वारा करनेसे होता है। तुलसीपत्रकी भाँति ही बिल्वपत्र तोड़ते समय नीचे लिखे मन्त्रका उच्चारण करे—
पुण्यवृक्ष महाभाग मालूर श्रीफल प्रभो।
महेशपूजनार्थाय त्वत्पत्राणि चिनोम्यहम्॥
पत्र तोड़नेके पश्चात् नीचे लिखा मन्त्र बोलकर बिल्ववृक्षको प्रणाम करना चाहिये—
ॐ नमो बिल्वतरवे सदा शंकररूपिणे।
सफलानि ममांगानि कुरुष्व शिवहर्षद॥
बिल्वपत्र छ: महीनेतक बासी नहीं माना जाता। पूजामें इसको उलटा चढ़ाना चाहिये।
पूजाके उपकरण
आसनं स्वागतं पाद्यमर्घ्यमाचमनीयकम्।
मधुपर्काचमस्नानवसनाभरणानि च॥
गन्ध: सुमनसो धूपो दीपो नैवेद्यवन्दने।
प्रयोजयेदर्चनायामुपचारांस्तु षोडश॥
(तन्त्रसार, मत्स्यसूक्त)
‘आसन, स्वागत, पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, मधुपर्क, पुनराचमनीय, स्नान, वसन, भूषण, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और स्तुति-पाठ— ये पूजाके षोडशोपचार हैं।’
पाद्यमर्घ्यं तथाचामो मधुपर्काचमस्तथा।
गन्धादयो नैवेद्यान्ता उपचारा दश क्रमात्॥
‘पाद्य, अर्घ्य, आचमन, मधुपर्क, पुन: आचमन, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य—ये दशोपचार हैं।’
गन्धादिभिर्नैवेद्यान्तै: पूजा पंचोपचारिका।
सपर्यास्त्रिविधा: प्रोक्तास्तासामेकां समाचरेत्॥
‘गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य—ये पूजाके पंचोपचार हैं। यह तीन प्रकारकी पूजा कही गयी है। इनमेंसे एकका सम्यक् अनुष्ठान करना चाहिये।’
अष्टांग अर्घ्य
आप: क्षीरं कुशाग्राणि दध्यक्षततिलास्तथा।
यवा: सिद्धार्थकाश्चैवमर्घ्योऽष्टांग: प्रकीर्तित:॥
(भविष्यपुराण)
‘अर्घ्य-पात्रमें जल, दुग्ध, कुशाग्र, दधि, अक्षत, तिल, यव और श्वेत सर्षप—इन आठ द्रव्योंका निक्षेप करके व्यवहार करे।’
मधुपर्क
मधुपर्कके पात्रमें घृत, दधि और मधु—इन तीन द्रव्योंकी व्यवस्था करे। मधुके अभावमें गुड़ तथा दधिके अभावमें दुग्धका प्रयोग करे। मधुपर्कको कांस्य-पात्रसे ढकनेका विधान है। जैसे—
मधुपर्कं दधिमधुघृतमपिहितं कांस्येनेति।
(कात्यायनसूत्र)
पूजार्थ जल-ग्रहण
याज्ञवल्क्य-संहितामें लिखा है—
‘न नक्तोदकपुष्पाद्यैरर्चनं स्नानमर्हति।
‘रात्रिमें जो जल या पुष्पादि आहरण किया जाय, उससे श्रीहरिका स्नान-पूजन सम्पन्न न करे।’ विष्णुस्मृतिमें भी लिखा है—‘न नक्तं गृहीतोदकेन देवकर्म कुर्यात्।’ अर्थात् रात्रिकालमें संगृहीत जलसे देवकर्म न करे।
जल-शुद्धि
पवित्र गंगा, यमुना, राधा-कुण्ड आदि तीर्थोंके जलके सिवा अन्य जल हो तो—
गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् संनिधिं कुरु॥
—इस मन्त्रके द्वारा जलके ऊपर अंकुश-मुद्रा दिखाकर तीर्थोंका आवाहन करे।
पूजोपकरण-स्थापन-प्रणाली
(१) स्नानीय जल—श्रीभगवान् के सामने दक्षिणकी ओर स्थापित करे।
(२) स्नान-पात्र और आचमन-पात्र—उसके निकट रखे।
(३) शंख—अपने सामने वामभागमें आधारपर स्थापित करे।
(४) घण्टा—उसके समीप किसी आधारपर रखे।
(५) नैवेद्य और धूप—अपने वाम पार्श्वमें।
(६) तुलसी और गन्ध-पुष्पादिके पात्र—अपने दक्षिणपार्श्वमें।
(७) घृत-दीप—तुलसी आदिके समीप, परंतु तैल-दीप होनेपर अपने वामपार्श्वमें स्थापन करे।
(८) पूजाके अन्यान्य द्रव्यादि—अपने सामने जहाँ सुविधा हो, वहाँ रखे।
(९) हस्त-प्रक्षालन-पात्र—अपने पृष्ठ-देशमें रखे।
घण्टा-स्थापन-विधि
‘क्लीं’ बीजका उच्चारण करके अपने वामपार्श्वमें आधारके ऊपर घण्टा रखकर ‘ॐ जगद्ध्वनित भो मन्त्रमात: स्वाहा’—यह मन्त्र पढ़कर ‘एतत् पाद्यम्, इदमाचमनीयम्, एते गन्धपुष्पे, घण्टायै नम:’—मन्त्र पढ़कर पाद्य आदिके द्वारा घण्टाकी पूजा करे, पश्चात् वामहस्तद्वारा घण्टा बजाते हुए बोले—
सर्ववाद्यमयी घण्टा देवदेवस्य वल्लभा।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन घण्टानादं तु कारयेत्॥
देवताके आवाहन-कार्यमें तथा अर्घ्य, धूप, दीप, पुष्प और नैवेद्य अर्पण करते तथा स्नान कराते समय घण्टा-वादन अवश्य करना चाहिये।
दिग्बन्धन
ॐ शार्ङ्गाय सशराय हुँ फट् नम:—इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए पुष्प और धानका लावा (लाज) चारों ओर छींट करके दिग्बन्धन करना पड़ता है।
विघ्न-निवारण
अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि संस्थिता:।
ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया॥
—इस मन्त्रको पढ़कर, ‘अस्त्राय फट्’—इस अस्त्रमन्त्रका उच्चारण करते हुए तीन बार वामपादकी एड़ीसे भूमिपर आघात करके विघ्न दूर करे, फिर पूजा प्रारम्भ करे।
पूजाके लिये आसन
नारद-पांचरात्रमें लिखा है—
वंशादाहुर्दरिद्रत्वं पाषाणे व्याधिसम्भवम्।
धरण्यां दु:खसम्भूतिं दौर्भाग्यं दारुवासने॥
तृणासने यशोहानिं पल्लवे चित्तविभ्रमम्।
दर्भासने व्याधिनाशं कम्बले दु:खमोचनम्॥
‘बाँसके आसनपर बैठनेसे दरिद्रता, पाषाणपर रोगोत्पत्ति, पृथ्वीपर दु:ख, काष्ठके आसनपर दौर्भाग्य, तृणके आसनपर यशकी हानि, पल्लवपर चित्तका विभ्रम, कुशासनपर रोगनाश तथा कम्बलके आसनपर बैठनेपर दु:ख-मोचन होता है।’
आसन-शुद्धि
पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां नित्यं पवित्रं कुरु चासनम्॥
—इस मन्त्रसे जल-सिंचन करके आसन-शुद्धि करे।
उपवेशन-विधि
भक्तिमार्गमें आसनका कोई विशेष नियम नहीं है। परंतु स्वस्तिकासनसे बैठना ही सर्वापेक्षा सुखप्रद होता है। पिंडली और ऊरुदेश (जाँघ)-के मध्यमें दोनों पद-तलोंको स्थापित करके सीधे बैठनेका नाम स्वस्तिकासन है। दिनमें प्राय: पूर्वमुख और रात्रिमें उत्तरमुख होकर बैठना चाहिये। परंतु श्रीमूर्ति साक्षात् हो तो उसके सम्मुख होकर बैठना चाहिये।
यथा—
तत्र कृष्णार्चक: प्रायो दिवसे प्राङ्मुखो भवेत्।
उदङ्मुखो रजन्यां तु स्थिरमूर्तिश्च सम्मुख:॥
(श्रीहरि-भक्ति-विलास)
तिलक-धारण-विधि
श्रीराधाकुण्डकी रज या गोपीचन्दन आदि पवित्र मृत्तिकाद्वारा तिलक किया जाता है। ललाट आदिमें तिलक करते समय ‘ॐ केशवाय नम:’—मन्त्र बोलना चाहिये।
आचमन-विधि
हाथ-पैर धोकर आसनपर बैठे, तत्पश्चात् दाहिनी हथेलीमें तनिक जल लेकर—
ॐ विष्णु: ॐ विष्णु: ॐ विष्णु:। ॐ तद्विष्णो: परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयो दिवीव चक्षुराततम्॥—
यह मन्त्र पढ़कर तीन बार आचमन करे। यह जल इतना होना चाहिये कि जो ब्राह्मणके हृदयतक, क्षत्रियके कण्ठतक, वैश्यके तालुपर्यन्त तथा स्त्री और शूद्रके मुखमात्रका स्पर्श कर सके। तत्पश्चात् —
अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:॥
यह मन्त्र पढ़कर सिरपर जलका छींटा दे।
पाद्यादि-अर्पणके नियम
श्रीमूर्तौ तु शिरस्यर्घ्यं दद्यात् पाद्यं च पादयो:।
मुखे चाचमनीयं त्रिर्मधुपर्कं च तत्र हि॥
श्रीविग्रहके मस्तकपर अर्घ्य तथा दोनों चरणोंपर पाद्य अर्पण करना चाहिये। आचमनीय—तीन बार—और मधुपर्क श्रीमुखमें प्रदान करने चाहिये।
श्रीभगवत्स्नान-विधि
श्रीहरि-भक्ति-विलासमें लिखा है कि प्रभुके निकट ‘भगवन्! स्नानभूमिमलंकुरु’ यह प्रार्थना करके ‘पादुके निवेदयामि नम:’ कहकर प्रभुके सामने पादुका-युगल प्रदान करे, पश्चात् स्तोत्र और गीत-वाद्यादिके साथ उनको श्रीमन्दिरके अभ्यन्तर ईशान-कोणमें निर्मित स्नान-वेदीपर ले जाकर स्नानार्थ ताम्रपात्रमें स्थापित करे। तत्पश्चात् शंख-जलसे भगवान् को स्नान कराये।
स्नान-विधि
इस मन्त्रसे पहले शंखमें जल ले—
त्वं पुरा सागरोत्पन्नो विष्णुना विधृत: करे।
मानित: सर्वदेवैश्च पांचजन्य नमोऽस्तु ते॥
‘हे पांचजन्य! तुम प्राचीन कालमें समुद्रसे उत्पन्न हुए थे, विष्णु- भगवान् ने तुम्हें हाथमें धारण किया तथा तुम सब देवोंके मान्य हो, तुम्हें नमस्कार है।’
पंचामृतसे श्रीभगवदभिषेक
श्रीहरि-भक्ति-विलासमें लिखा है कि पंचामृतमें स्नान कराना हो तो दुग्ध, दधि, घृत, मधु और चीनी—एक-एकको क्रमश: शंखमें लेकर पृथक्-पृथक् स्नान कराये।
चन्दन घिसनेका नियम
श्वेत चन्दन ही श्रीभगवदर्चनामें व्यवहृत होता है। दोनों हाथसे चन्दनकी लकड़ी पकड़कर तर्जनी अंगुलिका स्पर्श न कराते हुए दक्षिण हाथकी ओरसे घुमाकर चन्दन-घर्षण करना चाहिये।
गन्ध-अर्पण-विधि
अँगूठे और कनिष्ठा अंगुलिके द्वारा चन्दन आदि गन्धद्रव्योंको अर्पण करे।
पुष्प-शुद्धि
पुष्पोंको लेकर—
ॐ पुष्पे महापुष्पे सुपुष्पे पुष्पसम्भवे।
पुष्पचयावकीर्णे च हुँ फट् स्वाहा॥
यह मन्त्र उच्चारण करते हुए उनके ऊपर जल-सिंचन करके उसमें चन्दन तथा अन्य गन्ध-द्रव्य निक्षेप करे।
पत्र-पुष्प आदिके अर्पणकी विधि
पुष्पं वा यदि वा पत्रं फलं नेष्टमधोमुखम्।
दु:खदं तत् समाख्यातं यथोत्पन्नं तथार्पणम्॥
‘पत्र-पुष्प अथवा फल कभी भगवान् को अधोमुख करके अर्पण नहीं करना चाहिये। यह भगवान् को प्रीतिकर नहीं होता, अपितु क्लेशदायक होता है। अतएव ये प्रकृतित: जैसे उत्पन्न होते हैं, उसी रूपमें अर्पण करे।’ विहित और सुसंस्कृत वृन्तसहित पुष्पको चन्दन-लिप्त करके अंगुष्ठ और मध्यमा अंगुलिके द्वारा वृन्तकी ओर धारण करके अर्पण करना चाहिये।
तुलसी-अर्पण-विधि
तुलसीदलको भलीभाँति धोकर जलशून्य करके चन्दन लगाकर अनामिका और अंगुष्ठसे धारण करके, उसके पृष्ठ-भागको नीचेकी ओर कर, श्रीपाद-पद्ममें एक-एक करके अर्पण करे। तुलसी-पत्र कम-से-कम तीन बार अर्पण करे। किसी-किसीके मतसे कम-से-कम आठ बार अर्पण करना चाहिये।
धूप-अर्पण-विधि
पीतल आदि धातुकी बनी हुई धूपदानीमें काष्ठका अंगार रखकर ‘एष धूपो नम:’ कहकर अंगारपर जल प्रक्षेप करते हुए गुग्गुल, अगुरु, चन्दन, घृत और मधुसे बना हुआ धूप उसपर छोड़ दे। पश्चात् —
वनस्पतिरसोत्पन्नो गन्धाढॺो गन्ध उत्तम:।
आघ्रेय: सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम्॥
—यह मन्त्र पढ़कर ‘इमं धूपं श्रीकृष्णाय निवेदयामि नम:’ कहकर वाम हस्तसे घण्टी बजाते हुए नाम-कीर्तनके साथ प्रभुके नाभिदेशपर्यन्त धूप-पात्र उठाकर धूपार्पण करे।
दीप-अर्पण-विधि
दीपाधारमें गौका घृत अथवा असमर्थ होनेपर उत्कृष्ट तैलके साथ रूईकी बत्तीमें अथवा केवल कपूरकी बत्तीमें दीप प्रज्वलित करके दीपाधारमें तुलसीके साथ ‘एष दीपो नम:’ कहकर जल प्रक्षेप करते हुए दीपोत्सर्ग करे। पश्चात् —
सुप्रकाशो महातेजा: सर्वतस्तिमिरापह:।
स बाह्याभ्यन्तरज्योतिदीपोऽयं प्रतिगृह्यताम्॥
—यह मन्त्रपाठ करके ‘इदं दीपं श्रीकृष्णाय निवेदयामि नम:’ बोलकर प्रभुके श्रीपाद-पद्मसे नयन-कमलपर्यन्त उज्ज्वल अलौकिक दीप घुमाकर दीपार्पण करे।
षोडशोपचार-पूजा-विधि
षोडशोपचार-पूजामें निम्नलिखित उपचार अर्पित करे—
आसन—
इदमासनं श्रीकृष्णाय निवेदयामि नम:। श्रीकृष्ण! प्रभो इदमासनं सुखमास्यताम्॥
—यह मन्त्र पढ़कर सुमनोहर आसन अथवा उसके अभावमें पुष्प अर्पण करे।
स्वागत—निम्नलिखित मन्त्रसे स्वागत करे—
यस्य दर्शनमिच्छन्ति देवा: सर्वार्थसिद्धये।
तस्य ते परमेश्वर सुस्वागतमिदं वपु:॥
पाद्य—‘एतत् पाद्यं श्रीकृष्णाय नम:’ कहकर श्रीचरणका लक्ष्य करके पाद्य अर्पण करे।
अर्घ्य—‘इदमर्घ्यं श्रीकृष्णाय निवेदयामि नम:’ कहकर श्रीमस्तकपर अर्घ्य प्रदान करे।
आचमनीय—‘इदमाचमनीयं श्रीकृष्णाय निवेदयामि नम:’ कहकर प्रभुके दक्षिण हाथको लक्ष्य करके आचमनार्थ किंचित् जल दे।
मधुपर्क—‘इमं मधुपर्कं श्रीकृष्णाय निवेदयामि नम:’ कहकर श्रीमुखमें मधुपर्क अर्पण करे।
पुनराचमनीय—‘इदं पुनराचमनीयं श्रीकृष्णाय निवेदयामि नम:’ कहकर श्रीमुखमें विशुद्ध सुगन्धित जल अर्पण करे।
स्नान—इसके बाद स्नान कराये। विधि पहले दी जा चुकी है।
वसन—‘इदं परिधेयवस्त्रम्, इदमुत्तरीयवासश्च श्रीकृष्णाय निवेदयामि नम:’ यह कहकर प्रभुको मनोरम सूक्ष्म वसन और उत्तरीय वस्त्र परिधान कराये।
भूषण—‘इमानि भूषणानि श्रीकृष्णाय निवेदयामि नम:’ कहकर प्रभुको स्वर्ण-रौप्यादिनिर्मित अलंकार धारण कराये।
गन्ध—‘इमं गन्धं श्रीकृष्णाय निवेदयामि नम:’ कहकर चन्दन-अगुरु-कपूर-मिश्रित गन्ध लेकर श्रीअंगमें धीरे-धीरे परम यत्नसे लेपन करे।
पुष्प—‘इमानि पुष्पाणि श्रीकृष्णाय निवेदयामि नम:’ यह कहकर श्रीचरणोंमें तीन बार पुष्पांजलि प्रदान करे।
धूप-दीप—अर्पण करनेकी विधि पहले दी जा चुकी है।
नैवेद्य—तत्पश्चात् बड़ी श्रद्धा-भक्तिसे घण्टा-नाद एवं जय-शब्दके साथ नैवेद्य अर्पण करना चाहिये। नैवेद्य स्वर्ण, रजत, ताम्र, कांस्य या मिट्टीके पात्रमें अथवा कमल या पलाश-पत्रमें अर्पण करना चाहिये। नैवेद्यार्पण करते समय चक्रमुद्रा दिखलानी चाहिये। श्रेष्ठ भक्ष्य, भोज्य, चोष्य, लेह्य पदार्थ नैवेद्यमें अर्पण करे। बीचमें जल अर्पण करना चाहिये। कोई अभक्ष्य पदार्थ नैवेद्यमें न रखे। नैवेद्यके अन्तमें आचमन कराना चाहिये।
तत्पश्चात् ताम्बूलादि मुखवास अर्पणकर छत्र आदि धारण कराकर नीराजन करना चाहिये।
नीराजन (आरती)—मूल-मन्त्रसे घण्टा, शंख, घड़ियाल आदि नाना वाद्यों एवं जय-शब्दसे महानीराजन करना चाहिये। कपूर, घी आदिकी बत्तीसे नीराजन करे। चार बार पदतल, दो बार नाभि, एक बार मुखमण्डल तथा सात बार सभी अंगोंमें नीराजन करनेकी विधि है। इसीके साथ सजल शंखसे भी आरती करनी चाहिये। उसे तीन बार भगवान् के मस्तकपर घुमाना चाहिये। तत्पश्चात् पुन: कपूर आदिसे आरती करे। तत्पश्चात् पुष्पांजलि, स्तुति, नृत्य-गीत, प्रणामादि करने चाहिये।
वन्दना—अन्तमें अपनी रुचिके अनुसार स्तुति-पाठ करके श्रीविग्रहको दण्डवत्-प्रणाम करे।