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धर्ममय भगवान् श्रीकृष्ण

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १४।२७)

भगवान् श्रीकृष्ण अविनाशी परब्रह्मकी, अमृतकी, शाश्वत-धर्मकी और ऐकान्तिक सुखकी प्रतिष्ठा हैं। वे स्वयं साक्षात् परब्रह्म हैं, दिव्य अमृत हैं, शाश्वत धर्म हैं और भूमा ऐकान्तिक आनन्द-स्वरूप हैं तथा इन सबके परम आश्रय भी हैं। श्रीमहाभारत, श्रीमद्भागवत एवं अन्यान्य सद्‍ग्रन्थोंमें इसके असंख्य प्रमाण हैं। वे स्वयं भगवान् हैं, इससे उनमें अनन्त-अचिन्त्य-अनिर्वचनीय परस्परविरोधी गुण-धर्मोंका युगपत् प्रकाश है। वे जहाँ पूर्ण भगवान् हैं, वहीं पूर्ण मानव हैं। पूर्ण भगवत्ता और पूर्ण मानवताके प्रत्यक्ष स्वरूप श्रीकृष्ण हैं। कंसके कारागारमें वे दिव्य आभाका विस्तार करते हुए आभूषण-आयुधादिसे सम्पन्न ऐश्वर्यमय चतुर्भुजरूपमें प्रकट होते हैं और तुरंत ही मधुर-मधुर छोटे-से शिशु बन जाते हैं।

व्रजमें जहाँ अपने अनुपम असमोर्ध्व रूप-माधुर्य, वेणु-माधुर्य, प्रेम-माधुर्य और लीला-माधुर्यके द्वारा व्रजवासी महाभाग नर-नारियोंको दिव्य स्वरूपरस-सुधाका पान कराते हैं और स्वयं उनके स्वसुखवांछाशून्य निर्मल सख्य, वात्सल्य और मधुर-रस-सुधाका नित्य लालायित चित्तसे पान करते रहते हैं, वहाँ दूसरी ओर अवतीर्ण होनेके छठे ही दिनसे पूतनावधके द्वारा अधर्मी असुरों-राक्षसोंका परिणाम-कल्याणकारी वध करके ऐश्वर्यमयी धर्मसंस्थापन-लीलाका शुभ आरम्भ कर देते हैं।

माधुर्यजगत् के सखा, माता-पिता और प्रेयसियोंको अपने सखा, सुख और प्रियतम श्यामसुन्दरके ऐश्वर्यका कहीं मान भी नहीं होता और उधर तृणावर्त, वत्सासुर, वकासुर, काकासुर, धेनुकासुर, सुदर्शन, शंखचूड, अरिष्टासुर आदिका उद्धार हो जाता है तथा साथ ही मुखमें यशोदा मैयाको विश्वरूपदर्शन, यमलार्जुनभंग, कुबेरपुत्रोंका उद्धार, कालियदमन, ब्रह्म-दर्प-दलन, गोवर्धनधारण, गोवर्धनरूपमें पूजाग्रहण, इन्द्रमोहभंग, वरुणलोकगमन, रासलीलाके समय असंख्य रूपोंमें प्रकट होना आदि ऐश्वर्यमयी लीलाएँ भी होती रहती हैं। यहाँ धर्मसंस्थापनका तथा धर्मरक्षणका कार्य व्रजमें भी लगातार चालू रहता है।

इसके बाद तो चाणूर-मुष्टिक तथा मामा कंससे लेकर राजरूपधारी अगणित असुरोंके उद्धारद्वारा धर्मसंस्थापनका कार्य चलता ही रहता है। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी सारी लीलाएँ निरन्तर प्रेम-धर्म तथा सनातन मानव-धर्मकी रक्षा एवं विस्तारके रूपमें ही सुसम्पन्न होती हैं। भगवान् का रूप-सौन्दर्य नित्य-नवायमान है। जो देखता है, वही मुग्ध हो जाता है। उनका रूपसौन्दर्य कैसा है—

शारदीय-पूर्णिमा-सुनिर्मल-
स्निग्ध-सुधावर्षी द्युतिमान।
ज्योत्स्ना-स्मित-समूह-विकसित शुचि
शीतल अगणित चन्द्र महान॥
जिनकी विश्व मोहिनी अंग-
द्युतिसे सब हो जाते म्लान।
परमोज्ज्वल नीलाभ-श्याम वे
अनुपम विमल-दीप्ति भगवान॥
परमहंस-ऋषि-मुनि-मन-मोहन,
गुरु-जन-मोहन मोहन रूप।
श्रुति-सुरांगना, स्वयं ब्रह्मविद्या
मनमोहन, परम अनूप॥
विश्वनारि-मन स्व-मन शत्रुमन
मोहन, सर्वरूप-आधार।
सौन्दर्यामृत-माधुर्यामृत-
सागर लहराता सुखसार॥

‘शरत्पूर्णिमाके सुनिर्मल स्निग्ध पवित्र शीतल अमृतकी वर्षा करनेवाले, ज्योत्स्नारूप मृदु-हास्य-राशिसे विकसित अगणित समस्त चन्द्रमा भी जिनकी विश्वमोहिनी अंगकान्तिके सामने फीके हो जाते हैं, ऐसे वे अनुपमेय विमल आभावाले परम उज्ज्वल नीलाभ श्यामसुन्दर भगवान् हैं। उनका परमश्रेष्ठ अनुपमेय मोहनरूप ऋषियोंके मनको, गुरुजनोंके मनको, श्रुतियोंके, देवांगनाओंके तथा स्वयं ब्रह्मविद्याके मनको एवं विश्वकी समस्त नारियोंके मनको, शत्रुओंके मनको और स्वयं उनके अपने मनको भी मोहित करनेवाला है। वह रूप सौन्दर्यामृत और माधुर्यामृतका लहराता हुआ समुद्र है, जो समस्त रूपोंका आधार तथा आत्यन्तिक सुखका सार है।’

कहाँ तो श्रीकृष्णका यह सौन्दर्य-माधुर्यसिन्धु विश्वमोहन रूप और कहाँ विकराल दाढ़ोंवाला अर्जुनको भी भयसे कँपा देनेवाला भयानक विराट् रूप! दोनों ही धर्मके संस्थापक रूप हैं। एकसे पवित्र प्रेम-धर्मकी प्रतिष्ठा होती है, दूसरेसे सनातन मानव-धर्मकी।

भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवोंके साथ क्यों रहे, क्यों कौरवोंके विपक्षमें भगवान् ने पाण्डवोंकी सहायता की? श्रीकृष्ण कौरव-पाण्डवोंको लड़ाकर पृथ्वीको क्षत्रिय-वीरोंसे शून्य नहीं बनाना चाहते थे, न वे पाण्डवोंका अनुचित पक्ष लेकर कौरवोंका नाश ही चाहते थे। वरं उन्होंने सच्चे हृदयसे संधिका प्रयत्न किया था। स्वयं दूत बनकर गये। धृतराष्ट्र और दुर्योधनको बहुत समझाया। युद्धको टालना चाहा। पर दुर्योधनने किसी तरह उनकी बात नहीं मानी। विदुरजीने जब श्रीकृष्णसे कहा कि ‘दुर्योधनके पास आपको नहीं आना चाहिये था’, तब श्रीकृष्णने विदुरसे कहा—‘आपका कथन ठीक है; पर मैं तो युद्धमें मर-मिटनेको उद्यत कौरव-पाण्डवोंमें सच्चे हृदयसे संधिका प्रयत्न करने आया हूँ। हाथियों, घोड़ों तथा रथोंसे युक्त यह पृथ्वी नष्ट होना चाहती है, इसे बचानेवालोंको निस्संदेह बड़ा पुण्य होगा। किसी व्यसन या विपत्तिमें पड़कर क्लेश उठाते हुए मित्रको यथासाध्य समझा-बुझाकर जो मनुष्य उसे बचानेका प्रयत्न नहीं करता, वह बड़ा निर्दय और क्रूर है। बुद्धिमान् पुरुष अपने मित्रको उसकी चोटी पकड़कर भी बुरे कार्यसे हटानेका प्रयत्न करता है। मेरे सत् -परामर्शको भी दुर्योधन नहीं मानेगा और मुझपर संदेह करेगा तो इससे मेरा क्या बिगड़ेगा? मैं अपने कर्तव्यसे तो उऋण हो जाऊँगा। मैं शान्तिके लिये विद्वानोंद्वारा अनुमोदित अर्थ तथा धर्मके अनुकूल हिंसारहित ही बात कहूँगा। दुर्योधनादि यदि मेरी बातपर ध्यान देंगे तो अवश्य मानेंगे तथा कौरव भी मुझे वास्तवमें शान्तिस्थापनके लिये आया हुआ समझकर मेरा आदर ही करेंगे।’

दुर्योधनने बात नहीं मानी, वह अधर्मपरायण रहा। इसीसे भगवान् ने धर्मयुद्धमें धर्मपरायण पाण्डवोंका साथ दिया। उनका अवश्य ही अर्जुनसे अतुलनीय प्रेम था, पर वे पाण्डवोंका साथ इसीलिये देते थे कि पाण्डवोंके पक्षमें धर्म था।

युद्धारम्भके समय जब धर्मराज युधिष्ठिरने गुरु द्रोणाचार्यके समीप जाकर उन्हें प्रणाम किया तथा युद्धके लिये आज्ञा माँगकर अपने लिये हितकी सलाह पूछी, तब गुरु द्रोणाचार्यने कहा—

ध्रुवस्ते विजयो राजन् यस्य मन्त्री हरिस्तव।
अहं त्वामभिजानामि रणे शत्रून् विमोक्ष्यसे॥
यतो धर्मस्तत: कृष्णो यत: कृष्णस्ततो जय:।
युद्‍ध्यस्व गच्छ कौन्तेय पृच्छ मां किं ब्रवीमि ते॥
(महाभारत, भीष्म० ४३।५९-६०)

‘राजन्! तुम्हारी विजय तो निश्चित है, क्योंकि साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे मन्त्री (तुम्हें सलाह देनेवाले) हैं। मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, तुम युद्धमें शत्रुओंको उनके प्राणोंसे विमुक्त कर दोगे। जहाँ धर्म है, वहीं श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है। जाओ! युद्ध करो, पूछो—मैं और क्या बताऊँ?’

इससे सिद्ध है कि भगवान् धर्मके साथ हैं और जहाँ भगवान् हैं, वहाँ धर्म रहता ही है। महाभारतका एक प्रसंग है। इन्द्रने अर्जुनका हित करनेकी इच्छासे महादानी कर्णसे कवच-कुण्डल माँगकर ले लिये और बदलेमें उनको एक अजेय अमोघ शक्ति देकर यह कह दिया कि ‘तुम केवल एक बार जिस-किसीपर भी इसका प्रयोग कर सकोगे। जिसपर प्रयोग करोगे, वह अवश्य मर जायगा।’ कर्णने वह शक्ति अर्जुनपर चलानेके लिये सुरक्षित रख छोड़ी थी, वे प्रतिदिन उसकी पूजा करते। महाभारत-युद्धमें एक रात्रिको भीमपुत्र राक्षस घटोत्कचने ऐसा भीषण युद्ध किया कि सारा कौरवदल जीवनसे निराश हो गया। सबने आकर कर्णसे कहा कि ‘तुरंत उस शक्तिका प्रयोग करके इस भयानक राक्षसका वध करो, नहीं तो इस रात्रि युद्धमें यह राक्षस हम सभी कौरव-वीरोंका आज ही नाश कर देगा। कोई बचेगा ही नहीं, तब फिर यह शक्ति किस काम आयेगी?’ कर्ण भी घबराये हुए थे। उन्होंने उस वैजयन्ती शक्तिको घटोत्कचपर छोड़ दिया। शक्तिके प्रहारसे घटोत्कचका हृदय विदीर्ण हो गया और वह वहीं मरकर गिर पड़ा। उसके मरते ही कौरव योद्धा बाजे बजाकर हर्षनाद करने लगे।

इधर पाण्डवदलमें शोक छा गया। सबके नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बह चली। परंतु श्रीकृष्ण आनन्दमग्न होकर नाच उठे और अर्जुनको गले लगाकर पीठ ठोंकने तथा बार-बार गर्जना करने लगे।

भगवान् को इतना प्रसन्न जान अर्जुन बोले—‘मधुसूदन! आज आपको शोकके अवसरपर इतनी प्रसन्नता क्यों हो रही है? घटोत्कचके मारे जानेसे हमारे लिये शोकका अवसर उपस्थित हुआ है। सारी सेना विमुख होकर भागी जा रही है। हमलोग भी बहुत घबरा गये हैं, तो भी आप प्रसन्न हैं। इसका कोई छोटा-मोटा कारण नहीं हो सकता। जनार्दन! बताइये, क्या कारण है इस प्रसन्नताका? यदि बहुत छिपानेकी बात न हो तो अवश्य बता दीजिये। मेरा धैर्य छूटा जा रहा है।’

भगवान् श्रीकृष्ण बोले—धनंजय! मेरे लिये इस समय सचमुच ही बड़े आनन्दका अवसर आया है। कारण सुनना चाहते हो? सुनो! तुम जानते हो कर्णने घटोत्कचको मारा है, पर मैं कहता हूँ कि इन्द्रकी दी हुई शक्तिको निष्फल करके (एक प्रकारसे) घटोत्कचने ही कर्णको मार डाला है। अब तुम कर्णको मरा हुआ ही समझो। संसारमें कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो कर्णके हाथमें इस ‘शक्ति’ के रहनेपर उसके सामने ठहर सकता और यदि उसके पास कवच तथा कुण्डल भी होते, तब तो वह देवताओंसहित तीनों लोकोंको भी जीत सकता था। उस अवस्थामें इन्द्र, कुबेर, वरुण अथवा यमराज भी युद्धमें उसका सामना नहीं कर सकते थे। हम और तुम सुदर्शन-चक्र और गाण्डीव लेकर भी उसे जीतनेमें असमर्थ हो जाते। तुम्हारा ही हित करनेके लिये इन्द्रने छलसे उसे कुण्डल और कवचसे हीन कर दिया था। उनके बदलेमें जबसे इन्द्रने उसे अमोघ शक्ति दे दी थी, तबसे वह तुमको सदा मरा हुआ ही मानता था। आज यद्यपि उसकी ये सारी चीजें नहीं रहीं तो भी तुम्हारे सिवा दूसरे किसीसे वह नहीं मारा जा सकता। कर्ण ब्राह्मणोंका भक्त, सत्यवादी, तपस्वी, व्रतधारी और शत्रुओंपर भी दया करनेवाला है, इसलिये वह वृष (धर्म) कहलाता है। सम्पूर्ण देवता चारों ओरसे कर्णपर बाणोंकी वर्षा करें और उसपर मांस और रक्त उछालें, तो भी वे उसे नहीं जीत सकते।

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‘यदि इस महासमरमें कर्ण अपनी शक्तिके द्वारा घटोत्कचको नहीं मार डालता तो स्वयं मुझे इसका वध करना पड़ता। इसके द्वारा तुमलोगोंका प्रिय कार्य करवाना था, इसलिये मैंने पहले ही इसका वध नहीं किया। घटोत्कच ब्राह्मणोंका द्वेषी और यज्ञोंका नाश करनेवाला था। यह पापात्मा धर्मका लोप कर रहा था; इसीसे इस प्रकार इसका वध करवाया है। जो धर्मका लोप करनेवाले हैं, वे सभी मेरे वध्य हैं। मैंने धर्म-स्थापनाके लिये प्रतिज्ञा कर ली है। जहाँ वेद, सत्य, दम, पवित्रता, धर्म, लज्जा, श्री, धैर्य और क्षमाका वास है, वहाँ मैं सदा ही क्रीडा किया करता हूँ— यह बात मैं सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ। (तुम पाण्डवोंमें धर्मके इन सब गुणोंका निवास है, इसीलिये मैं तुमलोगोंके साथ हूँ।)’

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भगवान् श्रीकृष्ण धर्मरक्षक तथा धर्मसंस्थापक हैं। इसीसे वे अधार्मिक घटोत्कचका स्वयं अपने हाथों वध करना चाहते थे, यद्यपि घटोत्कच पाण्डव भीमका पुत्र होनेके कारण श्रीकृष्णके कुटुम्बका ही एक सदस्य था। श्रीकृष्ण अपने स्वजनोंके, कुटुम्ब-परिवारोंके, सम्बन्धियोंके नित्य हितैषी और हित-साधक थे, परंतु धर्मविरोधी होनेपर वे किसीको स्वजन-कुटुम्बीके नाते क्षमा नहीं करते थे। धर्मरक्षण एवं धर्मके द्वारा लोकसंग्रह या लोकहितपर उनकी दृष्टि रहती थी। कंस सगे मामा थे, पर अधार्मिक होनेके कारण स्वयं श्रीकृष्णने उनका वध किया। शिशुपाल तो पाण्डवोंके सदृश ही श्रीकृष्णकी बूआका लड़का था, पर पापाचारी था, अतएव उन्होंने उसको दण्ड दिया। यहाँतक कि जब उन्होंने देखा कि उन्हींका आश्रित यादववंश सुरापान-परायण, धन-वैभवसे उन्मत्त और अभिमानमें चूर होकर अधार्मिक और उद्दण्ड हुआ जा रहा है, तब उसके भी विनाशकी व्यवस्था करा दी। उन्हें धर्म प्रिय है, अधार्मिक स्वजन नहीं।

महाभारत-युद्धके समय एक दिन अपने भाइयों तथा योद्धाओंको बुरी तरह पराजित हुए देखकर दुर्योधनने भीष्मपितामहसे पाण्डवोंकी विजयका कारण पूछा। उसके उत्तरमें भीष्मजीने कहा कि ‘पाण्डव धर्मात्मा हैं और पूर्णब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित हैं। इसीसे वे जीत रहे हैं और जीतेंगे।’ उसके बाद भीष्मजीने भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका विस्तारसे वर्णन किया और दुर्योधनसे कहा कि ‘मैं तो तुम्हें राक्षस समझता हूँ, क्योंकि तुम परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णसे और अर्जुनसे द्वेष करते हो। मैं तुमसे ठीक-ठीक कह रहा हूँ कि श्रीकृष्ण सनातन, अविनाशी, सर्वलोकमय, नित्य, जगदीश्वर, जगद्धर्ता और अविकारी हैं। ये ही युद्ध करनेवाले हैं, ये ही ‘जय’ हैं और ये ही जीतनेवाले हैं। जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं धर्म है और जहाँ धर्म है, वहीं जय है। श्रीकृष्ण पाण्डवोंकी रक्षा करते हैं, अतएव उन्हींकी विजय होगी।’*

* दुर्योधनके प्रति पितामह भीष्मने बड़े विस्तारसे भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका वर्णन किया है। उसे महाभारत, भीष्मपर्व, अध्याय ६५ से ६८ तक देखना चाहिये। इसी प्रकार शान्तिपर्व अध्याय ४७ से ५१ तक देखिये।
यत: कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जय:॥
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धृता: पाण्डुसुता राजन् जयश्चैषां भविष्यति॥
(महाभारत, भीष्म० ६६। ३५-३६)

तदनन्तर दुर्योधनके पूछनेपर भीष्मजीने कहा कि ‘ये श्रीकृष्ण ही सब प्राणियोंके आश्रय हैं, जो पुरुष पूर्णिमा और अमावास्याको इनका पूजन करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है। ये परम तेज:स्वरूप और समस्त लोकोंके पितामह हैं। ये सच्चे आचार्य, गुरु और पिता हैं। जिसपर ये प्रसन्न हैं, उसने मानो सभी अक्षय लोकोंपर विजय प्राप्त कर ली है। जो पुरुष इस स्तुतिका पाठ करता है, वह कुशलसे रहता है और सुख प्राप्त करता है। उसका मोह नष्ट हो जाता है। उन्हें इस प्रकार यथार्थरूपसे जानकर ही—समस्त जगत् के स्वामी और सम्पूर्ण योगोंके अधीश्वर जानकर ही युधिष्ठिरने इनकी शरण ली है।’ इसके पश्चात् भीष्मजीने दुर्योधनको श्रीकृष्णका ब्रह्मभूत स्तोत्र सुनाया।

श्रीकृष्णका ब्रह्मभूत स्तोत्र

भीष्म उवाच
शृणु चेदं महाराज ब्रह्मभूतं स्तवं मम।
ब्रह्मर्षिभिश्च देवैश्च य: पुरा कथितो भुवि॥ १॥
साध्यानामपि देवानां देवदेवेश्वर: प्रभु:।
लोकभावनभावज्ञ इति त्वां नारदोऽब्रवीत्॥ २॥
भूतं भव्यं भविष्यं च मार्कण्डेयोऽभ्युवाच ह।
यज्ञं त्वां चैव यज्ञानां तपश्च तपसामपि॥ ३॥
देवानामपि देवं च त्वामाह भगवान् भृगु:।
पुराणं चैव परमं विष्णो रूपं तवेति च॥ ४॥
वासुदेवो वसूनां त्वं शक्रं स्थापयिता तथा।
देव देवोऽसि देवानामिति द्वैपायनोऽब्रवीत्॥ ५॥
पूर्वे प्रजानिसर्गे च दक्षमाहु: प्रजापतिम्।
स्रष्टारं सर्वलोकानामंगिंरास्त्वां तथाब्रवीत्॥ ६॥
अव्यक्तं ते शरीरोत्थं व्यक्तं ते मनसि स्थितम्।
देवास्त्वत्सम्भवाश्चैव देवलस्त्वसितोऽब्रवीत्॥ ७॥
शिरसा ते दिवं व्याप्तं बाहुभ्यां पृथिवी तथा।
जठरं ते त्रयो लोका: पुरुषोऽसि सनातन:॥ ८॥
एवं त्वामभिजानन्ति तपसां भाविता नरा:।
आत्मदर्शनतृप्तानामृषीणां चासि सत्तम:॥ ९॥
राजर्षीणामुदाराणामाहवेष्वनिवर्तिनाम्।
सर्वधर्मप्रधानानां त्वं गतिर्मधुसूदन॥ १०॥
इति नित्यं योगविद्भिर्भगवान् पुरुषोत्तम:।
सनत्कुमारप्रमुखै: स्तूयतेऽभ्यर्च्यते हरि:॥ ११॥
एष ते विस्तरस्तात संक्षेपश्च प्रकीर्तित:।
केशवस्य यथातत्त्वं सुप्रीतो भज केशवम्॥ १२॥

‘राजन्! पूर्वकालमें ब्रह्मर्षि और देवताओंने इन श्रीकृष्णका जो ब्रह्ममय स्तोत्र कहा है, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ, सुनो—नारदजीने कहा है— ‘आप साध्यगण और देवताओंके भी देवाधिदेव हैं तथा सम्पूर्ण लोकोंका पालन करनेवाले और उनके अन्त:करणके साक्षी हैं।’ मार्कण्डेयजीने कहा है—‘आप ही भूत, भविष्यत् और वर्तमान हैं तथा आप यज्ञोंके यज्ञ और तपोंके तप हैं।’ भृगुजी कहते हैं—‘आप देवोंके देव हैं तथा भगवान् विष्णुका जो पुरातन परम रूप है, वह भी आप ही हैं।’ महर्षि द्वैपायनका कथन है—‘आप वसुओंमें वासुदेव, इन्द्रको भी स्थापित करनेवाले और देवताओंके परम देव हैं।’ अंगिराजी कहते हैं—‘आप पहले प्रजापतिसर्गमें दक्ष थे तथा आप ही समस्त लोकोंकी रचना करनेवाले हैं।’ देवल मुनि कहते हैं—‘अव्यक्त आपके शरीरसे हुआ है, व्यक्त आपके मनमें स्थित है तथा सब देवता भी आपके मनसे उत्पन्न हुए हैं।’ असित मुनिका कथन है—‘आपके सिरसे स्वर्गलोक व्याप्त है और भुजाओंसे पृथ्वी तथा आपके उदरमें तीनों लोक हैं। आप सनातन पुरुष हैं। तप:शुद्ध महात्मालोग आपको ऐसा समझते हैं तथा आत्मतृप्त ऋषियोंकी दृष्टिमें भी आप सर्वोत्कृष्ट सत्य हैं। मधुसूदन! जो सम्पूर्ण धर्मोंमें अग्रगण्य और संग्रामसे पीछे हटनेवाले नहीं हैं, उन उदारहृदय राजर्षियोंके परमाश्रय भी आप ही हैं।’ योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ सनत्कुमारादि इसी प्रकार श्रीपुरुषोत्तम भगवान् का सर्वदा पूजन और स्तवन करते हैं। राजन्! इस तरह मैंने विस्तार तथा संक्षेपसे तुम्हें श्रीकृष्णका स्वरूप सुना दिया। अब तुम प्रसन्नचित्तसे इनका भजन करो।’

भगवान् श्रीकृष्णने जब प्राग्ज्योतिषपुरके नरकासुरको मारकर उसके द्वारा हरण की हुई सोलह हजार राजकुमारियोंपर दया करके अकेले ही उनसे विवाह कर लिया और यह बात जब नारदजीने सुनी, तब उन्हें भगवान् की गृहचर्या देखनेकी बड़ी इच्छा हुई। नारदजी अत्यन्त उत्सुक होकर द्वारका आये, द्वारकामें श्रीकृष्णके अन्त:पुरमें सोलह हजारसे अधिक बड़े सुन्दर कलापूर्ण सुसज्जित महल थे। नारदजी एक महलमें गये। वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण रुक्मिणीजीके समीप बैठे थे। रुक्मिणीजी चँवरसे हवा कर रही थीं। नारदजीको देखते ही भगवान् पलंगसे उठे। नारदजीकी उन्होंने अभ्यर्थना-पूजा की, उनके चरण पखारकर चरणामृत सिर चढ़ाया और नम्र शब्दोंमें उनका गुणगान करके उनसे सेवा पूछी।

नारदजीने भगवान् का गुणगान तथा स्तवन करते हुए कहा—‘भगवन्! आपके श्रीचरण ही संसारकूपमें पड़े लोगोंके निकलनेके लिये अवलम्बन हैं। आप ऐसी कृपा कीजिये कि आपके चरणकमलोंकी स्मृति सदा बनी रहे और मैं जहाँ जैसे भी रहूँ, उन चरणोंके ध्यानमें ही लीन रहूँ।’

तदनन्तर नारदजी एक-एक करके सभी महलोंमें गये। भगवान् श्रीकृष्णने सर्वत्र उनका स्वागत-सत्कार किया। नारदजीने देखा—कहीं श्रीकृष्ण गृहस्थके कार्य सम्पादन कर रहे हैं, कहीं हवन कर रहे हैं, कहीं पंच-महायज्ञोंसे देवाराधन कर रहे हैं, कहीं ब्राह्मण-भोजन करा रहे हैं, कहीं यज्ञावशेष भोजन कर रहे हैं, कहीं संध्या, तो कहीं मौन होकर गायत्री-जप कर रहे हैं, कहीं श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित गौओंका दान कर रहे हैं। कहीं एकान्तमें बैठकर प्रकृतिसे अतीत पुराण-पुरुषका ध्यान कर रहे हैं, कहीं गुरुजनोंको अभीष्ट वस्तु देकर उनकी सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं, कहीं देवताओंका पूजन, तो कहीं इष्टापूर्तरूप धर्मका सम्पादन कर रहे हैं। इस प्रकार वे सर्वत्र वर्णाश्रमोचित तथा आध्यात्मिक धर्म-साधनमें लगे हुए हैं।’

नारदजीने कहा—‘योगेश्वर आत्मदेव! आपकी योगमाया ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े मायावियोंके लिये भी अगम्य है, पर आपके चरणोंकी सेवा करनेके कारण वह योगमाया हमारे सामने प्रकट हो गयी है, हम उसे जान गये हैं। देवताओंके भी आराध्य भगवन्! सारे भुवन आपके सुन्दर यशसे परिपूर्ण हो रहे हैं। अब मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आपकी त्रिभुवन-पावनी लीलाका गान करता हुआ उन लोकोंमें विचरता रहूँ।’

भगवान् श्रीकृष्ण बोले—

ब्रह्मन् धर्मस्य वक्ताहं कर्ता तदनुमोदिता।
तच्छिक्षयँल्लोकमिममास्थित: पुत्र मा खिद:॥
(श्रीमद्भागवत १०। ६९। ४०)

‘नारद! मैं ही धर्मका उपदेशक, उपदेशके अनुसार स्वयं उसका आचरण करनेवाला तथा उसका अनुष्ठान करनेवालोंका अनुमोदन करनेवाला हूँ। मेरे आचरणसे लोगोंको शिक्षा मिलेगी, इसलिये मैं स्वयं धर्मका आचरण करता हूँ। पुत्र नारद! तुम मेरी मायासे मोहित न होना—मैंने जो तुम्हारे चरण धोये, इससे खेद मत करना।’ कैसा सुन्दर आदर्श है धर्माचरणका!

भगवान् श्रीकृष्णका समस्त जीवन-लीला-चरित धर्ममय है। उनके आचरणमें तो केवल धर्म है ही, उनके उपदेश भी धर्मपूर्ण हैं। रणांगणमें अपने परम धर्ममय गीताका उपदेश मित्र अर्जुनको किया और अन्तमें सखा उद्धवको धर्मोपदेश किया। महाभारत भीष्मपर्व और श्रीमद्भागवत एकादश स्कन्धमें ये दोनों धर्ममय गीतोपदेश हैं।

भगवान् ने श्रीमद्भगवद्गीताको ‘धर्म्य संवाद’१ (धर्ममय संवाद) कहा है और इसमें भी भक्तिके स्वरूप-वर्णनको ‘धर्म्यामृत’२ (धर्ममय अमृत) बतलाया है।

१-अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो:।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट: स्यामिति मे मति:॥
(१८। ७०)
२-ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया:॥
(१२। २०)

श्रीकृष्ण जहाँ समस्त अवतारोंके मूल अवतारी, षडैश्वर्यसम्पन्न सच्चिदानन्द नित्य-विग्रह, सर्वेश्वरेश्वर, सर्व-लोक-महेश्वर, निर्गुण-निराकार (स्वरूपभूत गुणमय तथा पांचभौतिक आकाररहित) सर्वातीत, सर्वमय, सर्वात्मा परमात्मा पुरुषोत्तम स्वयं भगवान् हैं। वहीं वे नन्द-यशोदाके प्यारे दुलारे लाल, गोपबालकोंके सखा कन्हैया भैया, गोपांगनाओंके प्राणवल्लभ प्रेमास्पद, कौतुकप्रिय बालक, संगीत-वाद्य-नृत्य आदि विविध कलाओंके आचार्य, वसुदेव-देवकीके सुपुत्र, श्रीरुक्मिणी आदि सहस्रों पतिव्रताओंके आराध्य पति, दीन-दु:खी-गरीबोंके आश्रय, प्रेमियोंके प्रेमी, भक्तोंके भक्त, भक्तवत्सल, भक्तिप्रिय, भक्त-पराधीन, भक्तवांछाकल्पतरु, सतत प्रीतिवर्धक मित्र, विनोदप्रिय, विचित्र सारथि, महारथियोंके महारथी, दुर्धर्ष योद्धा, रणनीतिके आचार्य, सर्वशस्त्रास्त्रसम्पन्न, महान् बलवान्, मल्लविद्या-विशारद, राजनीतिविशारद, कूटनीतिके ज्ञाता, महान् बुद्धिमान्, परम चतुर, नीतिनिपुण, आदर्श निष्काम कर्मयोगी, महान् ज्ञानी, परम तपस्वी, परम योगी, योगीश्वरेश्वर, वेदज्ञ, वेदमय, सर्वशास्त्रज्ञ, सर्वथा अपरिजेय, दयामय-करुणामय, प्रेममय, पुण्यमय, न्यायशील, क्षमाशील, परमसुशील, निरपेक्ष, स्पष्टवादी, सत्यवादी, परम वाग्मी, परम उपदेशक, लोकनायक, लोकहितैषी, सर्वभूतहितैषी, ममतारहित, अहंकाररहित, कामनारहित, आसक्तिरहित, विशुद्ध-चरित्र, शिष्टपालक, दुष्टनाशक, असुरसंहारक, गोसेवक, पशु-पक्षियोंके तथा प्रकृतिके प्रेमी, प्रकृतिके स्वामी, प्रकृति-नटीके सूत्रधार, महामायावी, मायाके अधीश्वर और नियामक, भीषणोंके भीषण, परम सुन्दर, परम मधुर—असंख्य गुणगणसम्पन्न हैं और इन सभी गुणोंके द्वारा वे सदा ही धर्मका रक्षण तथा संस्थापन करते हैं।

धर्म मूल पावन परम बंदौं पद-अरबिंद।
बस्यौ जहाँ रस-पान रत मम मन मत्त मिलिंद॥

भगवान् श्रीकृष्णके पवित्र पावन चरणकमलोंमें बार-बार नमस्कार।

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