महाभारतमें श्रीकृष्ण-महिमा
भगवान् श्रीकृष्ण साक्षात् सच्चिदानन्दघन स्वयं भगवान् हैं। उनकी भगवत्ता और महत्ता उनकी लीलाओंसे ही प्रत्यक्ष प्रकट है एवं इस सत्य तत्त्वका प्रतिपादन करनेवाले वचन विविध ग्रन्थोंमें भरे पड़े हैं। श्रद्धालु, विश्वासी तथा शास्त्रोंपर आस्था रखनेवाले पुरुषोंके लिये तो इस विषयमें कुछ भी कहनेकी आवश्यकता नहीं है। पर जो लोग भगवान् श्रीकृष्णकी भगवत्तामें संदेह करते हैं और ऐसा मानते हैं कि श्रीमद्भागवत आदिकी तरह महाभारतमें श्रीकृष्णको साक्षात् भगवान् नहीं माना गया है, उनकी जानकारीके लिये महाभारतमेंसे ही कुछ वचनोंका अनुवाद यहाँ दिया जाता है। आशा है इसे पढ़नेसे कुतर्कियोंको छोड़कर बहुतोंकी न्यूनाधिक संदेह-निवृत्ति होगी और सभीको लाभ होगा।
जनमेजयके प्रति वैशम्पायनके वचन
उन्हीं दिनों विश्ववन्दित महायशस्वी भगवान् विष्णु जगत् के जीवोंपर अनुग्रह करनेके लिये वसुदेवजीके द्वारा देवकीके गर्भसे प्रकट हुए। वे भगवान् आदि-अन्तसे रहित, द्युतिमान्, सम्पूर्ण जगत् के कर्ता तथा प्रभु हैं। उन्हींको अव्यक्त, अक्षर (अविनाशी), ब्रह्म और त्रिगुणमय प्रधान कहते हैं। आत्मा, अव्यय, प्रकृति (उपादान), प्रभव (उत्पत्ति-कारण), प्रभु (अधिष्ठाता), पुरुष (अन्तर्यामी), विश्वकर्मा, सत्त्वगुणसे प्राप्त होने योग्य तथा प्रणवाक्षर भी वे ही हैं, उन्हींको अनन्त, अचल, देव, हंस, नारायण, प्रभु, धाता, अजन्मा, अव्यक्त, पर, अव्यय, कैवल्य, निर्गुण, विश्वरूप, अनादि, जन्मरहित और अधिकारी कहा गया है। वे सर्वव्यापी, परम पुरुष परमात्मा सबके कर्ता और सम्पूर्ण भूतोंके पितामह हैं। उन्होंने ही धर्मकी वृद्धिके लिये अन्धक और वृष्णिकुलमें बलराम और श्रीकृष्ण-रूपमें अवतार लिया था। वे दोनों भाई सम्पूर्ण अस्त्रशस्त्रोंके ज्ञाता, महान् पराक्रमी और समस्त शास्त्रोंके ज्ञानमें परम प्रवीण थे।
(आदिपर्व ६२।९९—१०४)
पाण्डवोंके राजसूय-यज्ञमें शिशुपालके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी अग्रपूजाका विरोध किये जानेपर भीष्मजी कहते हैं
भीष्मजीने कहा—भगवान् श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण जगत् में सबसे बढ़कर हैं। वे ही परम पूजनीय हैं। जो उनकी अग्रपूजा स्वीकार नहीं करता है, उसकी अनुनय-विनय नहीं करनी चाहिये। वह सान्त्वना देने या समझाने-बुझानेके योग्य भी नहीं है। जो योद्धाओंमें श्रेष्ठ क्षत्रिय जिसे युद्धमें जीतकर अपने वशमें करके छोड़ देता है, वह उस पराजित क्षत्रियके लिये गुरुतुल्य पूज्य हो जाता है। राजाओंके इस समुदायमें एक भी भूपाल ऐसा नहीं दिखायी देता, जो युद्धमें देवकीनन्दन श्रीकृष्णके तेजसे परास्त न हो चुका हो। महाबाहु श्रीकृष्ण केवल हमारे लिये ही परम पूजनीय हों, ऐसी बात नहीं है, ये तो तीनों लोकोंके पूजनीय हैं। श्रीकृष्णके द्वारा संग्राममें अनेक क्षत्रियशिरोमणि परास्त हुए हैं। यह सम्पूर्ण जगत् वृष्णिकुलभूषण भगवान् श्रीकृष्णमें ही पूर्ण रूपसे प्रतिष्ठित है। इसीलिये हम दूसरे वृद्ध पुरुषोंके होते हुए भी श्रीकृष्णकी ही पूजा करते हैं, दूसरोंकी नहीं। राजन्! तुम्हें श्रीकृष्णके प्रति वैसी बातें मुँहसे नहीं निकालनी चाहिये थीं। उनके प्रति तुम्हें ऐसी बुद्धि नहीं रखनी चाहिये। मैंने बहुत-से ज्ञान-वृद्ध महात्माओंका संग किया है। अपने यहाँ पधारे हुए उन संतोंके मुखसे अनन्त गुणशाली भगवान् श्रीकृष्णके असंख्य बहुसम्मत गुणोंका वर्णन सुना है। जन्मकालसे लेकर अबतक इन बुद्धिमान् श्रीकृष्णके जो-जो चरित्र बहुधा बहुतेरे मनुष्योंद्वारा कहे गये हैं, उन सबको मैंने बार-बार सुना है। चेदिराज! हमलोग किसी कामनासे अपना सम्बन्धी मानकर अथवा इन्होंने हमारा किसी प्रकारका उपकार किया है, इस दृष्टिसे श्रीकृष्णकी पूजा नहीं कर रहे हैं। हमारी दृष्टि तो यह है कि ये इस भूमण्डलके सभी प्राणियोंको सुख पहुँचानेवाले हैं और बड़े-बड़े संत-महात्माओंने इनकी पूजा की है। हम उनके यश, शौर्य और विजयको भलीभाँति जानकर उनकी पूजा कर रहे हैं। यहाँ बैठे हुए लोगोंमेंसे कोई छोटा-सा बालक भी ऐसा नहीं है, जिसके गुणोंकी हमलोगोंने पूर्णत: परीक्षा न की हो। श्रीकृष्णके गुणोंको ही दृष्टिमें रखते हुए हमने वयोवृद्ध पुरुषोंका उल्लंघन करके इनको ही परम पूजनीय माना है। ब्राह्मणोंमें वही पूजनीय समझा जाता है, जो ज्ञानमें बड़ा हो तथा क्षत्रियोंमें वही पूजाके योग्य है, जो बलमें सबसे अधिक हो; वैश्योंमें वही सर्वमान्य है, जो धन-धान्यमें बढ़कर हो, केवल शूद्रोंमें ही जन्मकालको ध्यानमें रखकर जो अवस्थामें बड़ा हो, उसको पूजनीय माना जाता है। श्रीकृष्णके परम पूजनीय होनेमें दोनों ही कारण विद्यमान हैं। इनमें वेद-वेदांगोंका ज्ञान तो है ही, बल भी सबसे अधिक है। श्रीकृष्णके सिवा संसारके मनुष्योंमें दूसरा कौन सबसे बढ़कर है।
दान, दक्षता, शास्त्रज्ञान, शौर्य, लज्जा, कीर्ति, उत्तम बुद्धि, विनय, श्री, धृति, तुष्टि और पुष्टि—ये सभी सद्गुण भगवान् श्रीकृष्णमें नित्य विद्यमान हैं। जो अर्घ्य पानेके सर्वथा योग्य और पूजनीय हैं, उन सकल-गुणसम्पन्न, श्रेष्ठ, पिता और गुरु भगवान् श्रीकृष्णकी हमलोगोंने पूजा की है। अत: सब राजालोग इनके लिये हमें क्षमा करें। श्रीकृष्ण हमारे ऋत्विक्, गुरु, आचार्य, स्नातक, राजा और प्रिय मित्र सब कुछ हैं। इसीलिये हमने इनकी अग्रपूजा की है। भगवान् श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति और प्रलयके स्थान हैं। यह सारा चराचर विश्व इन्हींके लिये प्रकट हुआ है। ये ही अव्यक्त प्रकृति, सनातन कर्ता तथा सम्पूर्ण भूतोंसे परे हैं, अत: भगवान् अच्युत ही सबसे बढ़कर पूजनीय हैं। महत्तत्त्व, अहंकार, मनसहित ग्यारह इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी तथा जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज—ये चार प्रकारके प्राणी सभी भगवान् श्रीकृष्णमें ही प्रतिष्ठित हैं। सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, ग्रह, दिशा और विदिशा—सब इन्हींमें स्थित हैं। जैसे वेदोंमें अग्निहोत्र-कर्म, छन्दोंमें गायत्री, मनुष्योंमें राजा, नदियों (जलाशयों)-में समुद्र, नक्षत्रोंमें चन्द्रमा, तेजोमय पदार्थोंमें सूर्य, पर्वतोंमें मेरु और पक्षियोंमें गरुड श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार देवलोकसहित सम्पूर्ण लोकोंमें ऊपर-नीचे, दायें-बायें, जितने भी जगत् के आश्रय हैं, उन सबमें भगवान् श्रीकृष्ण ही श्रेष्ठ हैं।
(सभापर्व ३८। ६—२९)
धर्मराज युधिष्ठिरके प्रति महर्षि मार्कण्डेय कहते हैं
मार्कण्डेय बोले—नरश्रेष्ठ! पुरातन प्रलयके समय मुझे जिन कमलदललोचन देवता भगवान् बालमुकुन्दका दर्शन हुआ था, तुम्हारे सम्बन्धी ये भगवान् श्रीकृष्ण वे ही हैं। कुन्तीनन्दन! इन्हींके वरदानसे मुझे पूर्वजन्मकी स्मृति भूलती नहीं है। मेरी दीर्घकालीन आयु और स्वच्छन्द मृत्यु भी इन्हींकी कृपाका प्रसाद है। ये वृष्णिकुलभूषण महाबाहु श्रीकृष्ण ही वे सर्वव्यापी, अचिन्त्यस्वरूप, पुराण-पुरुष श्रीहरि हैं, जो पहले बालरूपमें मुझे दिखायी दिये थे। वे ही यहाँ अवतीर्ण हो भाँति-भाँतिकी लीलाएँ करते हुए-से दीख रहे हैं। श्रीवत्सचिह्न जिनके वक्ष:स्थलकी शोभा बढ़ाता है, वे भगवान् गोविन्द ही इस विश्वकी सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले, सनातन प्रभु और प्रजापतियोंके भी पति हैं। इन आदि देवस्वरूप, विजयशील, पीताम्बरधारी पुरुष, वृष्णि-कुल-भूषण श्रीकृष्णको देखकर मुझे इस पुरातन घटनाकी स्मृति हो आयी है। कुरुकुलश्रेष्ठ पाण्डवो! ये माधव ही समस्त प्राणियोंके पिता और माता हैं। ये ही सबको शरण देनेवाले हैं,अत: तुम सब लोग इन्हींकी शरणमें जाओ।
(वनपर्व १८९। ५३—५७)
जयद्रथके प्रति भगवान् शंकरके वचन
श्रीशंकरने कहा—राजन्! वे ही भगवान् विष्णु दुष्टोंका दमन और धर्मका संरक्षण करनेके लिये मनुष्योंके बीच यदुकुलमें अवतीर्ण हुए हैं। उन्हींको ‘श्रीकृष्ण कहते हैं। वे अनादि, अनन्त, अजन्मा, दिव्यस्वरूप, सर्वसमर्थ और विश्ववन्दित हैं। सिन्धुराज! विद्वान् पुरुष उन्हीं भगवान् की महिमा गाते और उन्हींके पावन चरित्रोंका वर्णन करते हैं। उन्हींको अपराजित शंख-चक्रगदाधारी, पीताम्बर-विभूषित श्रीवत्सधारी भगवान् श्रीकृष्ण कहा गया है। अस्त्रविद्याके विद्वानोंमें श्रेष्ठ अर्जुन उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित हैं। शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अतुलपराक्रमी श्रीमान् कमलनयन श्रीकृष्ण एक ही रथपर अर्जुनके समीप बैठकर उनकी सहायता करते हैं। इस कारण अर्जुनको कोई नहीं जीत सकता। उनका वेग सहन करना देवताओंके लिये भी कठिन है, फिर कौन ऐसा मनुष्य है, जो युद्धमें अर्जुनपर विजय पा सके?
(वनपर्व ३१। ७१—७६)
दुर्योधनके प्रति धृतराष्ट्रके वचन
धृतराष्ट्र बोले—वह कर्म ऐसा है, जिसकी साधु पुरुषोंने सदा निन्दा की है। वह अपयशकारक तो है ही, तू उसे कर नहीं सकता, परंतु तेरे-जैसा कुलांगार और मूर्ख मनुष्य उसे करनेकी चेष्टा करता है। सुनता हूँ, तू अपने पापी सहायकोंसे मिलकर इन दुर्धर्ष एवं दुर्जय वीर कमलनयन श्रीकृष्णको कैद करना चाहता है। ओ मूढ़! इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी जिन्हें बलपूर्वक अपने वशमें नहीं कर सकते, उन्हींको तू बंदी बनाना चाहता है। तेरी यह चेष्टा वैसी ही है, जैसे कोई बालक चन्द्रमाको पकड़ना चाहता हो। देवता, मनुष्य, गन्धर्व, असुर और नाग भी संग्राम-भूमिमें जिनका वेग नहीं सह सकते, उन भगवान् श्रीकृष्णको तू नहीं जानता। जैसे वायुको हाथसे पकड़ना दुष्कर है, चन्द्रमाको हाथसे छूना कठिन है और पृथ्वीको सिरपर धारण करना असम्भव है, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णको बलपूर्वक पकड़ना दुष्कर है।
(उद्योगपर्व १३०। ३५—३९)
दुर्योधनके प्रति विदुरके वचन
विदुर बोले—दुर्योधन! इस समय मेरी बातपर ध्यान दो। सौभद्वारमें द्विविद नामसे प्रसिद्ध एक वानरोंका राजा रहता था, जिसने एक दिन पत्थरोंकी बड़ी भारी वर्षा करके भगवान् श्रीकृष्णको आच्छादित कर दिया। वह पराक्रम करके सभी उपायोंसे श्रीकृष्णको पकड़ना चाहता था, परंतु उन्हें कभी पकड़ न सका। उन्हीं श्रीकृष्णको तुम बलपूर्वक अपने वशमें करना चाहते हो। पहलेकी बात है, प्राग्ज्योतिषपुरमें गये हुए श्रीकृष्णको दानवोंसहित नरकासुरने भी वहाँ बंदी बनानेकी चेष्टा की; परंतु वह भी वहाँ सफल न हो सका। उन्हींको तुम बलपूर्वक अपने वशमें करना चाहते हो। अनेक युगों तथा असंख्य वर्षोंकी आयुवाले नरकासुरको युद्धमें मारकर श्रीकृष्ण उसके यहाँसे सहस्रों राजकन्याओंको (उद्धार करके) ले गये और उन सबके साथ उन्होंने विधिपूर्वक विवाह किया। निर्मोचनमें छ: हजार बड़े-बड़े असुरोंको भगवान् ने पाशोंमें बाँध लिया। वे असुर भी जिन्हें बंदी न बना सके, उन्हींको तुम बलपूर्वक वशमें करना चाहते हो। भरतश्रेष्ठ! इन्होंने ही बाल्यावस्थामें बकी पूतनाका वध किया था और गौओंकी रक्षाके लिये अपने हाथपर गोवर्धन पर्वतको धारण किया था। अरिष्टासुर, धेनुक, महाबली चाणूर, अश्वराज केशी और कंस भी लोकहितके विरुद्ध आचरण करनेपर श्रीकृष्णके ही हाथसे मारे गये थे। जरासंध, दन्तवक्त्र, पराक्रमी शिशुपाल और बाणासुर भी इन्हींके हाथसे पराभूत हुए हैं तथा अन्य बहुत-से राजाओंका भी इन्होंने ही संहार किया है। अमित तेजस्वी श्रीकृष्णने राजा वरुणपर विजय पायी है। इन्होंने अग्निदेवको भी पराजित किया है और पारिजातहरण करते समय साक्षात् शचीपति इन्द्रको भी जीता है। इन्होंने एकार्णवके जलमें सोते समय मधु और कैटभ नामक दैत्योंको मारा था और दूसरा शरीर धारण करके हयग्रीव नामक राक्षसका भी इन्होंने ही वध किया था। ये ही सबके कर्ता हैं, इनका दूसरा कोई कर्ता नहीं है। सबके पुरुषार्थके कारण भी यही हैं। ये भगवान् श्रीकृष्ण जो-जो इच्छा करें, वह सब अनायास ही कर सकते हैं। अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले इन भगवान् गोविन्दका पराक्रम भयंकर है। तुम इन्हें अच्छी तरह नहीं जानते। ये क्रोधमें भरे हुए विषधर सर्पके समान भयानक हैं। ये सत्पुरुषोंद्वारा प्रशंसित एवं तेजकी राशि हैं। अनायास ही महान् पराक्रम करनेवाले महाबाहु भगवान् श्रीकृष्णका तिरस्कार करनेपर तुम अपने मन्त्रियोंसहित उसी प्रकार नष्ट हो जाओगे, जैसे पतंग आगमें पड़कर भस्म हो जाता है। (उद्योगपर्व १३०।४०—५३)
धृतराष्ट्रके प्रति संजयके वचन
संजयने कहा—राजन्! अर्जुन तथा भगवान् श्रीकृष्ण दोनों बड़े सम्मानित धनुर्धर हैं। वे (यद्यपि सदा साथ रहनेवाले नर और नारायण हैं, तथापि) लोककल्याणकी कामनासे पृथक्-पृथक् प्रकट हुए हैं और सब कुछ करनेमें समर्थ हैं। प्रभो! उदारचेता भगवान् वासुदेवका सुदर्शन नामक चक्र उनकी मायासे अलक्षित होकर उनके पास रहता है। उसके मध्यभागका विस्तार लगभग साढ़े तीन हाथका है। वह भगवान् के संकल्पके अनुसार (विशाल एवं तेजस्वी रूप धारण करके शत्रुसंहारके लिये) प्रयुक्त होता है। कौरवोंपर उसका प्रभाव प्रकट नहीं है। पाण्डवोंको वह अत्यन्त प्रिय है। वह सबसे सार-असारभूत बलको जाननेमें समर्थ और तेज:पुंजसे प्रकाशित होनेवाला है। महाबली भगवान् श्रीकृष्णने अत्यन्त भयंकर प्रतीत होनेवाले नरकासुर, शम्बरासुर, कंस तथा शिशुपालको भी खेल-ही-खेलमें जीत लिया। पूर्णत: स्वाधीन एवं श्रेष्ठस्वरूप पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण मनके संकल्पमात्रसे ही भूतल, अन्तरिक्ष तथा स्वर्गलोकको भी अपने अधीन कर सकते हैं। राजन्! आप जो बारम्बार पाण्डवोंके विषयमें उनके सार या असारभूत बलको जाननेके लिये मुझसे पूछते रहते हैं, वह सब आप मुझसे संक्षेपमें सुनिये। एक ओर सम्पूर्ण जगत् हो और दूसरी ओर अकेले भगवान् श्रीकृष्ण हों तो सारभूत बलकी दृष्टिसे वे भगवान् जनार्दन ही सम्पूर्ण जगत् से बढ़कर सिद्ध होंगे। श्रीकृष्ण अपने मानसिक संकल्पमात्रसे इस सम्पूर्ण जगत् को भस्म कर सकते हैं, परंतु उन्हें भस्म करनेमें यह सारा जगत् समर्थ नहीं हो सकता। जिस ओर सत्य, धर्म, लज्जा और सरलता है, उसी ओर भगवान् श्रीकृष्ण रहते हैं और जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है। समस्त प्राणियोंके आत्मा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण खेल-सा करते हुए ही पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा स्वर्गलोकका संचालन करते हैं। वे इस समय समस्त लोकको मोहित-सा करते हुए पाण्डवोंके मिससे आपके अधर्मपरायण मूढ़ पुत्रोंको भस्म करना चाहते हैं। ये भगवान् केशव ही अपनी योगशक्तिसे निरन्तर कालचक्र, संसारचक्र तथा युगचक्रको घुमाते रहते हैं। मैं आपसे यह सच कहता हूँ कि एकमात्र भगवान् श्रीकृष्ण ही काल, मृत्यु तथा चराचर जगत् के स्वामी एवं शासक हैं। महायोगी श्रीहरि सम्पूर्ण जगत् के स्वामी एवं ईश्वर होते हुए भी खेतीको बढ़ानेवाले किसानकी भाँति सदा नये-नये कर्मोंका आरम्भ करते रहते हैं। भगवान् केशव अपनी मायाके प्रभावसे सब लोगोंको मोहमें डाले रहते हैं, किंतु जो मनुष्य केवल उन्हींकी शरण ले लेते हैं, वे उनकी मायासे मोहित नहीं होते।
(उद्योगपर्व ६८। १—१५)
धृतराष्ट्र संजयसे कहते हैं
धृतराष्ट्र बोले—संजय! तुम भगवान् श्रीकृष्णके नाम और कर्मोंका अभिप्राय जानते हो, अत: मेरे प्रश्नके अनुसार एक बार पुन: कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णका वर्णन करो।
संजयने कहा—राजन्! मैंने वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके नामोंकी मंगलमयी व्युत्पत्ति सुन रखी है, उसमें जितना मुझे स्मरण है, उतना बता रहा हूँ। वास्तवमें तो भगवान् श्रीकृष्ण समस्त प्राणियोंकी पहुँचसे परे हैं। भगवान् समस्त प्राणियोंके निवासस्थान हैं तथा वे सब भूतोंमें वास करते हैं, इसलिये ‘वसु’ हैं एवं देवताओंकी उत्पत्तिके स्थान होनेसे और समस्त देवता उनमें वास करते हैं, इसलिये उन्हें ‘देव’ कहा जाता है। अतएव उनका नाम ‘वासुदेव’ है, ऐसा जानना चाहिये। बृहत् अर्थात् व्यापक होनेके कारण वे ही ‘विष्णु’ कहलाते हैं। भारत! मौन, ध्यान और योगसे उनका बोध अथवा साक्षात्कार होता है, इसलिये आप उन्हें ‘माधव’ समझें। मधु शब्दसे प्रतिपादित पृथ्वी आदि सम्पूर्ण तत्त्वोंके उपादान एवं अधिष्ठान होनेके कारण मधुसूदन श्रीकृष्णको ‘मधुहा’ कहा गया है। ‘कृष्’ धातु सत्ता अर्थका वाचक है और ‘ण’ शब्द आनन्द अर्थका बोध कराता है, इन दोनों भावोंसे युक्त होनेके कारण यदुकुलमें अवतीर्ण हुए नित्य आनन्दस्वरूप श्रीविष्णु ‘कृष्ण’ कहलाते हैं। नित्य, अक्षय, अविनाशी एवं परम भगवद्धामका नाम पुण्डरीक है। उसमें स्थित होकर जो अक्षतभावसे विराजते हैं, वे भगवान् ‘पुण्डरीकाक्ष’ कहलाते हैं। (अथवा पुण्डरीक—कमलके समान उनके अक्षि—नेत्र हैं, इसलिये उनका नाम पुण्डरीकाक्ष है।) दस्युजनोंको त्रास (अर्दन या पीडा) देनेके कारण उनको ‘जनार्दन’ कहते हैं। वे सत्यसे कभी च्युत नहीं होते और न तत्त्वसे अलग ही होते हैं, इसलिये सद्भावके सम्बन्धसे उनका नाम ‘सात्वत’ है। आर्ष कहते हैं वेदको, उससे भासित होनेके कारण भगवान् का एक नाम ‘आर्षभ’ है। आर्षभके योगसे ही वे ‘वृषभेक्षण’ कहलाते हैं। (वृषभका अर्थ है वेद, वही ईक्षण—नेत्रके समान उनका ज्ञापक है, इस व्युत्पत्तिके अनुसार ‘वृषभेक्षण’ नामकी सिद्धि होती है।) शत्रुसेनाओंपर विजय पानेवाले ये भगवान् श्रीकृष्ण किसी जन्मदाताके द्वारा जन्म ग्रहण नहीं करते हैं, इसलिये ‘अज’ कहलाते हैं। देवता स्वयं प्रकाशरूप होते हैं, अत: उत्कृष्ट रूपसे प्रकाशित होनेके कारण भगवान् श्रीकृष्णको ‘उदर’ कहा गया है और दम (इन्द्रियसंयम) नामक गुणसे सम्पन्न होनेके कारण उनका नाम ‘दाम’ है। इस प्रकार दाम और उदर इन दोनों शब्दोंके संयोगसे वे ‘दामोदर’ कहलाते हैं। वे हर्ष अर्थात् सुखसे युक्त होनेके कारण हृषीक हैं और सुख-ऐश्वर्यसे सम्पन्न होनेके कारण ‘ईश’ कहे गये हैं। इस प्रकार वे भगवान् ‘हृषीकेश’ नाम धारण करते हैं। अपनी दोनों बाहुओंद्वारा भगवान् इस पृथ्वी और आकाशको धारण करते हैं, इसलिये उनका नाम ‘महाबाहु’ है। श्रीकृष्ण कभी नीचे गिरकर क्षीण नहीं होते, अत: (‘अधो न क्षीयते जातु’ इस व्युत्पत्तिके अनुसार) ‘अधोक्षज’ कहलाते हैं। वे नरों (जीवात्माओं)-के अयन (आश्रय) हैं, इसलिये उन्हें ‘नारायण’ भी कहते हैं। वे सर्वत्र परिपूर्ण हैं तथा सबके निवासस्थान हैं, इसलिये ‘पुरुष’ हैं और सब पुरुषोंमें उत्तम होनेके कारण उनकी ‘पुरुषोत्तम’ संज्ञा है। वे सत् और असत् सबकी उत्पत्ति और लयके स्थान हैं तथा सर्वदा उन सबका ज्ञान रखते हैं, इसलिये उन्हें ‘सर्व’ कहते हैं। श्रीकृष्ण सत्यमें प्रतिष्ठित हैं और सत्य उनमें प्रतिष्ठित है। वे भगवान् गोविन्द सत्यसे भी उत्कृष्ट सत्य हैं, अत: उनका एक नाम ‘सत्य’ भी है। विक्रमण (वामनावतारमें तीनों लोकोंको आक्रान्त) करनेके कारण वे भगवान् ‘विष्णु’ कहलाते हैं। वे सबपर विजय पानेसे ‘जिष्णु’, शाश्वत (नित्य) होनेसे ‘अनन्त’ तथा गौओं (इन्द्रियों)-के ज्ञाता और प्रकाशक होनेके कारण (गां विन्दति) इस व्युत्पत्तिके अनुसार ‘गोविन्द’ कहलाते हैं। वे अपनी सत्ता-स्फूर्ति देकर असत्यको भी सत्य-सा कर देते हैं और इस प्रकार सारी प्रजाको मोहमें डाल देते हैं। निरन्तर धर्ममें तत्पर रहनेवाले उन भगवान् मधुसूदनका स्वरूप ऐसा ही है। अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले महाबाहु श्रीकृष्ण कौरवोंपर कृपा करनेके लिये यहाँ पधारनेवाले हैं।
(उद्योगपर्व ७०। १—१५)
धृतराष्ट्रके प्रति दुर्योधनके वचन
दुर्योधन बोला—पिताजी! अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले श्रीकृष्णके सम्बन्धमें विदुरजी जो कुछ कहते हैं, वह सब कुछ ठीक है। जनार्दन श्रीकृष्णका कुन्तीके पुत्रोंके प्रति अटूट अनुराग है, अत: उन्हें उनकी ओरसे फोड़ा नहीं जा सकता।
(उद्योगपर्व ८८। १)
दुर्योधनने जब सन्धिदूत बनकर कौरवसभामें गये हुए भगवान् श्रीकृष्णको कैद करनेका विचार किया,तब सात्यकिसे इस समाचारको सुनकर धृतराष्ट्रसे
विदुर कहते हैं—
विदुर बोले—परंतप नरेश! जान पड़ता है, आपके सभी पुत्र सर्वथा कालके अधीन हो गये हैं। इसीलिये वे यह अकीर्तिकारक और असम्भव कर्म करनेको उतारू हुए हैं। सुननेमें आया है कि वे सब संगठित होकर इन पुरुषसिंह कमलनयन श्रीकृष्णको तिरस्कृत करके हठपूर्वक कैद करना चाहते हैं। ये भगवान् कृष्ण इन्द्रके छोटे भाई और दुर्धर्ष वीर हैं। इन्हें कोई भी पकड़ नहीं सकता। इनके पास आकर सभी विरोधी जलती आगमें गिरनेवाले फतिंगोंके समान नष्ट हो जायँगे। जैसे क्रोधमें भरा हुआ सिंह हाथियोंको नष्ट कर देता है, उसी प्रकार क्रुद्ध होनेपर ये भगवान् श्रीकृष्ण यदि चाहें तो समस्त विपक्षी योद्धाओंको यमलोक पहुँचा सकते हैं। परंतु ये पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण किसी प्रकार भी निन्दित अथवा पापकर्म नहीं कर सकते और न कभी धर्मसे ही पीछे हट सकते हैं। (उद्योगपर्व १३०। १८—२२)
पितामह भीष्म दुर्योधनसे कहते हैं
भीष्म बोले—तात! एक समय शुद्ध अन्त:करणवाले महर्षियोंका समाज जुटा था। उनमें मैंने भगवान् वासुदेवकी महिमाकी बात सुनी है। इसके सिवा जमदग्निनन्दन परशुराम, बुद्धिमान् मार्कण्डेय, व्यास तथा नारदजीसे भी सुनी है। भरतकुलभूषण! इस विषयको सुन और समझकर मैं वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णको अविनाशी प्रभु परमात्मा लोकेश्वरेश्वर और सर्वशक्तिमान् नारायण जानता हूँ। सम्पूर्ण जगत् के पिता ब्रह्मा जिनके पुत्र हैं, वे भगवान् वासुदेव मनुष्योंके लिये आराधनीय तथा पूजनीय कैसे नहीं हैं? तात! वेदोंके पारंगत विद्वान् महर्षियोंने तथा मैंने तुमको मना किया था कि तुम धनुर्धर भगवान् वासुदेवके साथ विरोध न करो, पाण्डवोंके साथ लोहा न लो, परंतु मोहवश तुमने इन बातोंका कोई मूल्य नहीं समझा। मैं समझता हूँ, तुम कोई क्रूर राक्षस हो, क्योंकि राक्षसोंके ही समान तुम्हारी बुद्धि सदा तमोगुणसे आच्छन्न रहती है। तुम भगवान् गोविन्द तथा पाण्डुनन्दन धनंजयसे द्वेष करते हो। वे दोनों ही नर और नारायण देव हैं। तुम्हारे सिवा दूसरा कौन मनुष्य उनसे द्वेष कर सकता है? राजन्! इसलिये तुम्हें यह बता रहा हूँ कि ये भगवान् श्रीकृष्ण सनातन, अविनाशी, सर्वलोकस्वरूप, नित्य शासक, धरणीधर एवं अविचल हैं। वे चराचर-गुरु भगवान् श्रीहरि तीनों लोकोंको धारण करते हैं। ये ही योद्धा हैं, ये ही विजय हैं और ये ही विजयी हैं। सबके कारणभूत परमेश्वर भी ये ही हैं। राजन्! ये श्रीहरि सर्वस्वरूप और तम एवं रागसे रहित हैं। जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहाँ धर्म है और जहाँ धर्म है, वहीं विजय है। उनके माहात्म्य-योगसे तथा आत्मस्वरूप योगसे समस्त पाण्डव सुरक्षित हैं। राजन्! इसीलिये इनकी विजय होगी। वे पाण्डवोंको सदा कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करते हैं, युद्धमें बल देते हैं और भयसे नित्य उनकी रक्षा करते हैं। भारत! जिनके विषयमें तुम मुझसे पूछ रहे हो, वे सनातन देवता सर्वगुह्यमय कल्याणस्वरूप परमात्मा ही ‘वासुदेव’ नामसे जानने योग्य हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुभ लक्षणसम्पन्न शूद्र—ये सभी नित्य तत्पर होकर अपने कर्मोंद्वारा इन्हींकी सेवा-पूजा करते हैं। द्वापरयुगके अन्त और कलियुगके आदिमें संकर्षणने श्रीकृष्णोपासनाकी विधिका आश्रय ले इन्हींकी महिमाका गान किया है। ये ही श्रीकृष्णनामसे विख्यात होकर इस लोककी रक्षा करते हैं। ये भगवान् वासुदेव ही युग-युगमें देवलोक, मर्त्यलोक तथा समुद्रसे घिरी हुई द्वारका-नगरीका निर्माण करते हैं और ये ही बारम्बार मनुष्यलोकमें अवतार ग्रहण करते हैं।
(भीष्मपर्व ६६। २६—४१)
दुर्योधनके प्रति पितामह भीष्मके वचन
भीष्मजीने कहा—भरतश्रेष्ठ! वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण वास्तवमें महान् हैं। वे सम्पूर्ण देवताओंके भी देवता हैं। कमलनयन श्रीकृष्णसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। मार्कण्डेयजी भगवान् गोविन्दके विषयमें अत्यन्त अद्भुत बातें कहते हैं। वे भगवान् ही सर्वभूतमय हैं और वे ही सबके आत्मस्वरूप महात्मा पुरुषोत्तम हैं। सृष्टिके आरम्भमें इन्हीं परमात्माने जल, वायु और तेज—इन तीन भूतों तथा सम्पूर्ण प्राणियोंकी सृष्टि की थी। सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वर इन भगवान् श्रीहरिने पृथ्वीदेवीकी सृष्टि करके जलमें शयन किया। ये महात्मा पुरुषोत्तम सर्वतेजोमय देवता योगशक्तिसे उस जलमें सोये। इन अच्युतने अपने मुखसे अग्निकी, प्राणसे वायुकी तथा मनसे सरस्वतीदेवी और वेदोंकी रचना की। इन्होंने ही सर्गके आरम्भमें सम्पूर्ण लोकों तथा ऋषियोंसहित देवताओंकी रचना की थी। ये ही प्रलयके अधिष्ठान और मृत्युस्वरूप हैं। प्रजाकी उत्पत्ति और विनाश इन्हींसे होते हैं। ये धर्मज्ञ, वरदाता, सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाले तथा धर्मस्वरूप हैं। ये ही कर्ता, कार्य, आदिदेव तथा स्वयं सर्वसमर्थ हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंकी सृष्टि भी पूर्वकालमें इन्हींके द्वारा हुई है। इन जनार्दनने ही दोनों संध्याओं, दसों दिशाओं, आकाश तथा नियमोंकी रचना की है। महात्मा अविनाशी प्रभु गोविन्दने ही ऋषियोंकी तथा तपस्याकी रचना की है। जगत्स्रष्टा प्रजापतिको भी इन्होंने ही उत्पन्न किया है। इन पूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्णने पहले सम्पूर्ण भूतोंके अग्रज संकर्षणको प्रकट किया, उनसे सनातन देवाधिदेव नारायणका प्रादुर्भाव हुआ। नारायणकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ। सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्तिके स्थानभूत उस कमलसे पितामह ब्रह्माजी उत्पन्न हुए और ब्रह्माजीसे ये सारी प्रजाएँ उत्पन्न हुई हैं। जो सम्पूर्ण भूतोंको तथा पर्वतोंसहित इस पृथ्वीको धारण करते हैं, जिन्हें विश्वरूपी अनन्त देव तथा शेष कहा गया है, उन्हें भी इन परमात्माने ही उत्पन्न किया है। ब्राह्मणलोग ध्यानयोगके द्वारा इन्हीं परम तेजस्वी वासुदेवका ज्ञान प्राप्त करते हैं।
जलशायी नारायणके कानकी मैलसे महान् असुर मधुका प्राकटॺ हुआ था। वह मधु बड़ा ही उग्र स्वभावका तथा क्रूरकर्मा था। उसने अत्यन्त भयंकर बुद्धिका आश्रय लिया था। इसलिये ब्रह्माजीका समादर करते हुए भगवान् पुरुषोत्तमने मधुको मार डाला था। तात! मधुका वध करनेके कारण ही देवता, दानव, मनुष्य तथा ऋषिगण श्रीजनार्दनको ‘मधुसूदन’ कहते हैं। ये ही भगवान् समय-समयपर वाराह, नृसिंह और वामनके रूपमें प्रकट हुए हैं। ये श्रीहरि ही समस्त प्राणियोंके पिता और माता हैं। इन कमलनयन भगवान् से बढ़कर दूसरा कोई तत्त्व न हुआ है, न होगा। राजन्! इन्होंने अपने मुखसे ब्राह्मणों, दोनों भुजाओंसे क्षत्रियों, जंघासे वैश्यों और चरणोंसे शूद्रोंको उत्पन्न किया है। जो मनुष्य तपस्यामें तत्पर हो संयम-नियमका पालन करते हुए अमावास्या और पूर्णिमाको समस्त देहधारियोंके आश्रय ब्रह्म एवं योगस्वरूप भगवान् केशवकी आराधना करता है, वह परम पदको प्राप्त कर लेता है। नरेश्वर! सम्पूर्ण लोकोंके पितामह भगवान् श्रीकृष्ण परम तेज हैं। मुनिजन इन्हें ‘हृषीकेश’ कहते हैं। इस प्रकार इन भगवान् गोविन्दको तुम आचार्य, पिता और गुरु समझो। भगवान् श्रीकृष्ण जिनके ऊपर प्रसन्न हो जायँ, वह अक्षय लोकोंपर विजय पा जाता है। जो मनुष्य भयके समय इन भगवान् श्रीकृष्णकी शरण लेता है और सर्वथा इस स्तुतिका पाठ करता है, वह सुखी एवं कल्याणका भागी होता है। जो मानव भगवान् श्रीकृष्णकी शरण लेते हैं, वे कभी मोहमें नहीं पड़ते। भगवान् जनार्दन महान् भयमें निमग्न उन मनुष्योंकी सदा रक्षा करते हैं। भरतवंशी नरेश! इस बातको अच्छी तरह समझकर राजा युधिष्ठिरने सम्पूर्ण हृदयसे योगोंके स्वामी सर्वसमर्थ, जगदीश्वर एवं महात्मा भगवान् केशवकी शरण ली है।
(भीष्मपर्व ६८। २—२५)
संजयके प्रति धृतराष्ट्रके वचन
धृतराष्ट्र बोले—संजय! वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णके दिव्य कर्मोंका वर्णन सुनो। भगवान् गोविन्दने जो-जो कार्य किये हैं, वैसा दूसरा कोई पुरुष कदापि नहीं कर सकता। संजय! बाल्यावस्थामें ही जब कि वे गोपकुलमें पल रहे थे, महात्मा श्रीकृष्णने अपनी भुजाओंके बल और पराक्रमको तीनों लोकोंमें विख्यात कर दिया। यमुनाके तटवर्ती वनमें उच्चै:श्रवाके समान बलशाली और वायुके समान वेगवान् अश्वराज केशी रहता था। उसे श्रीकृष्णने मार डाला। इसी प्रकार एक भयंकर कर्म करनेवाला दानव वहाँ बैलका रूप धारण करके रहता था, जो गौओंके लिये मृत्युके समान प्रकट हुआ था। उसे भी श्रीकृष्णने बाल्यावस्थामें अपने हाथोंसे ही मार डाला। तत्पश्चात् कमलनयन श्रीकृष्णने प्रलम्ब, नरकासुर, जृम्भासुर, पीठ नामक महान् असुर और यमराजसदृश मुरका भी संहार किया। इसी प्रकार श्रीकृष्णने पराक्रम करके ही जरासंधके द्वारा सुरक्षित महातेजस्वी कंसको उसके गणोंसहित रणभूमिमें मार गिराया। शत्रुहन्ता श्रीकृष्णने बलरामजीके साथ जाकर युद्धमें पराक्रम दिखानेवाले बलवान्, वेगवान्, सम्पूर्ण अक्षौहिणी सेनाओंके अधिपति, भोजराज कंसके मझले भाई शूरसेन देशके राजा सुनामाको समरमें सेनासहित दग्ध कर डाला। पत्नीसहित श्रीकृष्णने परम क्रोधी ब्रह्मर्षि दुर्वासाकी आराधना की। अत: उन्होंने प्रसन्न होकर उन्हें बहुत-से वर दिये। कमलनयन वीर श्रीकृष्णने स्वयंवरमें गान्धारराजकी पुत्रीको प्राप्त करके समस्त राजाओंको जीतकर उसके साथ विवाह किया। उस समय अच्छी जातिके घोड़ोंकी भाँति श्रीकृष्णके वैवाहिक रथमें जुते हुए वे असहिष्णु राजालोग कोड़ोंकी मारसे घायल कर दिये गये थे।
जनार्दन श्रीकृष्णने समस्त अक्षौहिणी सेनाओंके अधिपति महाबाहु जरासंधको उपायपूर्वक दूसरे योद्धा (भीमसेन)-के द्वारा मरवा दिया। बलवान् श्रीकृष्णने राजाओंकी सेनाके अधिपति पराक्रमी चेदिराज शिशुपालको अग्र-पूजनके समय विवाद करनेके कारण पशुकी भाँति मार डाला। तत्पश्चात् माधवने आकाशमें स्थित रहनेवाले सौभ नामक दुर्धर्ष दैत्यनगरको, जो राजा शाल्वद्वारा सुरक्षित था, समुद्रके बीच पराक्रम करके मार गिराया। उन्होंने रणक्षेत्रमें अंग, वंग, कलिंग, मगध, काशि, कोसल, वत्सल, गर्ग, करूष तथा पौण्ड्र आदि देशोंपर विजय पायी थी। संजय! इसी प्रकार कमलनयन श्रीकृष्णने अवन्ती, दक्षिण प्रान्त, पर्वतीय देश, दशेरक, काश्मीर, औरसिक, पिशाच, मुद्गल, काम्बोज, वाटधान, चोल, पाण्डॺ, त्रिगर्त, मालव, अत्यन्त दुर्जय दरद आदि देशोंके योद्धाओंको तथा नाना दिशाओंसे आये हुए खशों, शकों और अनुयायियोंसहित कालयवनको भी जीत लिया। पूर्वकालमें श्रीकृष्णने जल-जन्तुओंसे भरे हुए समुद्रमें प्रवेश करके जलके भीतर निवास करनेवाले वरुण देवताको युद्धमें परास्त किया। इसी प्रकार हृषीकेशने पातालनिवासी पंचजन नामक दैत्यको युद्धमें मारकर दिव्य पांचजन्य शंख प्राप्त किया। खाण्डव वनमें अर्जुनके साथ अग्निदेवको संतुष्ट करके महाबली श्रीकृष्णने दुर्धर्ष आग्नेय-अस्त्र—चक्रको प्राप्त किया था। वीर श्रीकृष्ण गरुड़पर आरूढ़ हो अमरावतीपुरीमें जाकर वहाँके निवासियोंको भयभीत करके महेन्द्र-भवनसे पारिजात वृक्ष उठा ले आये। उनके पराक्रमको इन्द्र अच्छी तरह जानते थे, इसलिये उन्होंने वह सब चुपचाप सह लिया। राजाओंमेंसे किसीको भी मैंने ऐसा नहीं सुना है, जिसे श्रीकृष्णने जीत न लिया हो। संजय! उस दिन मेरी सभामें कमलनयन श्रीकृष्णने जो महान् आश्चर्य प्रकट किया था, उसे इस संसारमें उनके सिवा दूसरा कौन कर सकता है? मैंने प्रसन्न होकर भक्तिभावसे भगवान् श्रीकृष्णके उस ईश्वरीय रूपका जो दर्शन किया, वह सब मुझे आज भी अच्छी तरह स्मरण है। मैंने उन्हें प्रत्यक्षकी भाँति जान लिया था। संजय! बुद्धि और पराक्रमसे युक्त भगवान् हृषीकेशके कर्मोंका अन्त नहीं जाना जा सकता।
(द्रोणपर्व ११। १—२६)
ऋषि-मुनियोंके पूछनेपर उनके प्रति भगवान् महेश्वरके वचन
महेश्वरने कहा—मुनिवरो! भगवान् सनातन पुरुष श्रीकृष्ण ब्रह्माजीसे भी श्रेष्ठ हैं। वे श्रीहरि जाम्बूनद नामक सुवर्णके समान श्याम कान्तिसे युक्त हैं। बिना बादलके आकाशमें उदित सूर्यके समान तेजस्वी हैं। उनकी भुजाएँ दस हैं, वे महान् तेजस्वी हैं, देवद्रोहियोंका नाश करनेवाले श्रीवत्सभूषित भगवान् हृषीकेश सम्पूर्ण देवताओंद्वारा पूजित होते हैं। ब्रह्माजी उनके उदरसे और मैं उनके मस्तकसे प्रकट हुआ हूँ। उनके सिरके केशोंसे नक्षत्रों और ताराओंका प्रादुर्भाव हुआ है। रोमावलियोंसे देवता और असुर प्रकट हुए हैं। समस्त ऋषि और सनातन लोक उनके श्रीविग्रहसे उत्पन्न हुए हैं। वे श्रीहरि स्वयं ही सम्पूर्ण देवताओंके गृह और ब्रह्माजीके भी निवासस्थान हैं। इस सम्पूर्ण पृथ्वीके स्रष्टा और तीनों लोकोंके स्वामी भी वे ही हैं। वे ही चराचर प्राणियोंका संहार भी करते हैं। वे देवताओंमें श्रेष्ठ, देवताओंके रक्षक, शत्रुओंको संताप देनेवाले, सर्वज्ञ, सबमें ओत-प्रोत, सर्वव्यापक तथा सब ओर मुखवाले हैं। वे ही परमात्मा, इन्द्रियोंके प्रेरक और सर्वव्यापी महेश्वर हैं। तीनों लोकोंमें उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। वे ही सनातन, मधुसूदन और गोविन्द आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं। सज्जनोंको आदर देनेवाले वे भगवान् श्रीकृष्ण महाभारत-युद्धमें समस्त राजाओंका संहार करायेंगे। वे देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये पृथ्वीपर मानव-शरीर धारण करके प्रकट हुए हैं। उन भगवान् त्रिविक्रमकी शक्ति और सहायताके बिना सम्पूर्ण देवता भी कोई कार्य नहीं कर सकते। संसारमें नेताके बिना देवता अपना कोई भी कार्य करनेमें असमर्थ हैं और ये भगवान् श्रीकृष्ण सब प्राणियोंके नेता हैं। इसलिये समस्त देवता इनके चरणोंमें मस्तक झुकाते हैं। देवताओंकी रक्षा और उनके कार्यसाधनमें संलग्न रहनेवाले वे भगवान् वासुदेव ब्रह्मस्वरूप हैं। ये ही ब्रह्मर्षियोंको सदा शरण देते हैं। ब्रह्माजी इनके शरीरके भीतर अर्थात् इनके गर्भमें बड़े सुखके साथ रहते हैं। सदा सुखी रहनेवाला मैं (शिव) भी इनके श्रीविग्रहके भीतर सुखपूर्वक निवास करता हूँ। सम्पूर्ण देवता इनके श्रीविग्रहमें सुखपूर्वक निवास करते हैं। ये कमलनयन श्रीहरि अपने गर्भ (वक्ष:स्थल)-में लक्ष्मीको निवास देते हैं। लक्ष्मीके साथ ही ये रहते हैं। शार्ङ्गधनुष, सुदर्शनचक्र और नन्दक नामक खड्ग—इनके आयुध हैं। इनकी ध्वजामें सम्पूर्ण नागोंके शत्रु गरुड़का चिह्न सुशोभित है।
ये उत्तम शील, शम, दम, पराक्रम, वीर्य, सुन्दर शरीर, उत्तम दर्शन, सुडौल आकृति, धैर्य, सरलता, कोमलता, रूप और बल आदि सद्गुणोंसे सम्पन्न हैं। सब प्रकारके दिव्य और अद्भुत अस्त्र-शस्त्र इनके पास सदा मौजूद रहते हैं। ये योगमायासे सम्पन्न और हजारों नेत्रोंवाले हैं। इनका हृदय विशाल है। ये अविनाशी, वीर, मित्रजनोंके प्रशंसक, ज्ञाति एवं बन्धु-बान्धवोंके प्रति क्षमाशील, अहंकाररहित, ब्राह्मणभक्त, वेदोंका उद्धार करनेवाले, भयातुर पुरुषोंका भय दूर करनेवाले और मित्रोंका आनन्द बढ़ानेवाले हैं। ये समस्त प्राणियोंको शरण देनेवाले, दीन-दु:खियोंके पालनमें तत्पर, शास्त्रज्ञानसम्पन्न, धनवान्, सर्वभूतवन्दित, शरणमें आये हुए शत्रुओंको भी वर देनेवाले, धर्मज्ञ, नीतिज्ञ, नीतिमान्, ब्रह्मवादी और जितेन्द्रिय हैं। परम बुद्धिसे सम्पन्न भगवान् गोविन्द यहाँ देवताओंकी उन्नतिके लिये प्रजापतिके शुभमार्गपर स्थित हो मनुके धर्म-संस्कृत कुलमें अवतार लेंगे। महात्मा मनुके वंशमें मनुपुत्र अंग नामक राजा होंगे। उनसे अन्तर्धामा नामवाले पुत्रका जन्म होगा। अन्तर्धामासे अनिन्द्य प्रजापति हविर्धामाकी उत्पत्ति होगी। हविर्धामाके पुत्र महाराज प्राचीनबर्हि होंगे। प्राचीनबर्हिके प्रचेता आदि दस पुत्र होंगे। उन दसों प्रचेताओंसे इस जगत् में प्रजापति दक्षका प्रादुर्भाव होगा। दक्षकन्या अदितिसे आदित्य (सूर्य) उत्पन्न होंगे। सूर्यसे मनु उत्पन्न होंगे। मनुके वंशमें इला नामक कन्या होगी, जो आगे चलकर सुद्युम्न नामक पुत्रके रूपमें परिणत हो जायगी। कन्यावस्थामें बुधसे समागम होनेपर उससे पुरूरवाका जन्म होगा। पुरूरवासे आयु नामक पुत्रकी उत्पत्ति होगी। आयुके पुत्र नहुष और नहुषके ययाति होंगे। ययातिसे महान् बलशाली यदु होंगे। यदुसे क्रोष्टाका जन्म होगा। क्रोष्टासे महान् पुत्र वृजिनीवान् होंगे। वृजिनीवान् से वीर उषंगुका जन्म होगा। उषंगुका पुत्र शूरवीर चित्ररथ होगा। उसका छोटा पुत्र शूर नामसे विख्यात होगा। वे सभी यदुवंशी विख्यात पराक्रमी, सदाचार और सद्गुणसे सुशोभित, यज्ञशील और विशुद्ध आचार-विचारवाले होंगे। इनका कुल ब्राह्मणोंद्वारा सम्मानित होगा। उस कुलमें महापराक्रमी, महायशस्वी और दूसरोंको सम्मान देनेवाले क्षत्रियशिरोमणि शूर अपने वंशका विस्तार करनेवाले ‘वसुदेव’ नामक पुत्रको जन्म देंगे, जिसका दूसरा नाम आनकदुन्दुभि होगा। उन्हींके पुत्र चार भुजाधारी भगवान् वासुदेव होंगे। भगवान् वासुदेव दानी, ब्राह्मणोंका सत्कार करनेवाले, ब्रह्मभूत और ब्राह्मण-प्रिय होंगे। वे यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण मगधराज जरासंधकी कैदमें पड़े हुए राजाओंको बन्धनसे छुड़ायेंगे।
वे पराक्रमी श्रीहरि पर्वतकी कन्दरा (राजगृह)-में राजा जरासन्धको जीतकर समस्त राजाओंके द्वारा उपहृत रत्नोंसे सम्पन्न होंगे। वे इस भूमण्डलमें अपने बल-पराक्रमद्वारा अजेय होंगे। विक्रमसे सम्पन्न तथा समस्त राजाओंके भी राजा होंगे। नीतिवेत्ता भगवान् श्रीकृष्ण शूरसेन देश (मथुरामण्डल)-में अवतीर्ण होकर वहाँसे द्वारकापुरीमें जाकर रहेंगे और समस्त राजाओंको जीतकर सदा इस पृथ्वीदेवीका पालन करेंगे। आपलोग उन्हीं भगवान् की शरण लेकर अपनी वाङ्मयी मालाओं तथा श्रेष्ठ पूजनोपचारोंसे सनातन ब्रह्मकी भाँति उनका यथोचित पूजन करें। जो मेरा और पितामह ब्रह्माजीका दर्शन करना चाहता हो, उसे प्रतापी भगवान् वासुदेवका दर्शन करना चाहिये। तपोधनो! उनका दर्शन हो जानेपर मेरा ही दर्शन हो गया अथवा उनके दर्शनसे देवेश्वरब्रह्माजीका दर्शन हो गया ऐसे समझो, इस विषयमें मुझे कोई विचार नहीं करना है अर्थात् संदेह नहीं है। जिसपर कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न होंगे, उसके ऊपर ब्रह्मा आदि देवताओंका समुदाय प्रसन्न हो जायगा। मानवलोकमें जो भगवान् श्रीकृष्णकी शरण लेगा, उसे कीर्ति, विजय तथा उत्तम स्वर्गकी प्राप्ति होगी। इतना ही नहीं, वह धर्मोंका उपदेश देनेवाला साक्षात् धर्माचार्य एवं धर्मफलका भागी होगा। अत: धर्मात्मा पुरुषोंको चाहिये कि वे सदा उत्साहित रहकर देवेश्वर भगवान् वासुदेवको नमस्कार करें। उन सर्वव्यापी परमेश्वरकी पूजा करनेसे परम धर्मकी सिद्धि होगी। वे महान् तेजस्वी देवता हैं। उन पुरुषसिंह श्रीकृष्णने प्रजाका हित करनेकी इच्छासे धर्मका अनुष्ठान करनेके लिये करोड़ों ऋषियोंकी सृष्टि की है। भगवान् के उत्पन्न किये हुए वे सनत्कुमार आदि ऋषि गन्धमादन पर्वतपर सदा तपस्यामें संलग्न रहते हैं। अत: द्विजवरो! उन प्रवचनकुशल, धर्मज्ञ वासुदेवको सदा प्रणाम करना चाहिये। वे भगवान् नारायण हरि देवलोकमें सबसे श्रेष्ठ हैं। जो उनकी वन्दना करता है, उसकी वे भी वन्दना करते हैं। जो उनका आदर करता है, उसका वे भी आदर करते हैं। इसी प्रकार अर्चित होनेपर वे भी अर्चना करते और पूजित या प्रशंसित होनेपर वे भी पूजा या प्रशंसा करते हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मणो! जो प्रतिदिन उनका दर्शन करता है, उसकी ओर वे भी कृपादृष्टि करते हैं। जो उनका आश्रय लेता है, उसके हृदयमें वे भी आश्रय लेते हैं, तथा जो उनकी पूजा करता है, उसकी वे भी सदा पूजा करते हैं। उन प्रशंसनीय आदिदेवता भगवान् महाविष्णुका यह उत्तम व्रत है, जिसका साधुपुरुष सदा आचरण करते आये हैं। वे सनातन देवता हैं, अत: इस त्रिभुवनमें देवता भी सदा उन्हींकी पूजा करते हैं। जो उनके अनन्य भक्त हैं, वे अपने भजनके अनुरूप ही निर्भय पद प्राप्त करते हैं। सबको चाहिये कि मन, वाणी और कर्मसे सदा उन भगवान् को प्रणाम करें और यत्नपूर्वक उपासना करके उन देवकीनन्दनका दर्शन करें।
मुनिवरो! यह मैंने आपलोगोंको उत्तम मार्ग बता दिया है। उन भगवान् वासुदेवका सब प्रकारसे दर्शन कर लेनेपर सम्पूर्ण श्रेष्ठ देवताओंका दर्शन करना हो जायगा। मैं भी महावराहरूप धारण करनेवाले उन सर्वलोकपितामह जगदीश्वरको नित्य प्रणाम करता हूँ। हम सब देवता उनके श्रीविग्रहमें निवास करते हैं। अत: उनका दर्शन करनेसे तीनों देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु और शिव)-का दर्शन हो जाता है, इसमें संशय नहीं है। उनके बड़े भाई कैलासकी पर्वतमालाओंके समान श्वेत कान्तिसे प्रकाशित होनेवाले हलधर और बलरामके नामसे विख्यात होंगे। पृथ्वीको धारण करनेवाले शेषनाग ही बलरामके रूपमें अवतीर्ण होंगे। बलदेवजीके रथपर तीन शिखाओंसे युक्त दिव्य सुवर्णमय तालवृक्ष ध्वजके रूपमें सुशोभित होगा। सर्वलोकेश्वर महाबाहु बलरामजीका मस्तक बड़े-बड़े फनवाले विशालकाय सर्पोंसे घिरा हुआ होगा। उनके चिन्तन करते ही सम्पूर्ण दिव्य अस्त्र-शस्त्र उन्हें प्राप्त हो जायँगे। अविनाशी भगवान् श्रीहरि ही अनन्त शेषनाग कहे गये हैं। पूर्वकालमें देवताओंने गरुड़जीसे यह अनुरोध किया कि ‘आप हमें भगवान् शेषका अन्त दिखा दीजिये।’ तब कश्यपके बलवान् पुत्र गरुड़ अपनी सारी शक्ति लगाकर भी उन परमात्मदेव अनन्तका अन्त न देख सके। वे भगवान् शेष बड़े आनन्दके साथ सर्वत्र विचरते हैं और अपने विशाल शरीरसे पृथ्वीको आलिंगन-पाशमें बाँधकर पाताललोकमें निवास करते हैं। जो भगवान् विष्णु हैं, वे ही इस पृथ्वीको धारण करनेवाले भगवान् अनन्त हैं। जो बलराम हैं वे ही श्रीकृष्ण हैं, जो श्रीकृष्ण हैं वे ही भूमिधर बलराम हैं। वे दोनों दिव्य रूप और दिव्य पराक्रमसे सम्पन्न पुरुषसिंह बलराम और श्रीकृष्ण क्रमश: हल एवं चक्र धारण करनेवाले हैं। तुम्हें उन दोनोंका दर्शन एवं सम्मान करना चाहिये। तपोधनो! आपलोगोंपर अनुग्रह करके मैंने भगवान् का पवित्र माहात्म्य इसलिये बताया है कि आप प्रयत्नपूर्वक उन यदुकुलतिलक श्रीकृष्णकी पूजा करें।
(अनुशासनपर्व १४७।२—६२)
युधिष्ठिरके प्रति शर-शय्यापर पड़े हुए पितामह भीष्मके वचन
भीष्मजीने कहा—युधिष्ठिर! ये महान् व्रतधारी परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीकृष्ण ब्राह्मण-पूजासे होनेवाले लाभका प्रत्यक्ष अनुभव कर चुके हैं, अत: वही तुमसे इस विषयकी सारी बातें बतायेंगे। आज मेरा बल, मेरे कान, मेरी वाणी, मेरा मन और मेरे दोनों नेत्र तथा मेरा विशुद्ध ज्ञान भी सब एकत्रित हो गये हैं। अत: जान पड़ता है कि अब मेरा शरीर छूटनेमें अधिक विलम्ब नहीं है। आज सूर्यदेव अधिक तेजीसे नहीं चलते हैं। पार्थ! पुराणोंमें जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंके (अलग-अलग) धर्म बतलाये गये हैं तथा सब वर्णोंके लोग जिस-जिस धर्मकी उपासना करते हैं, वह सब मैंने तुम्हें सुना दिया है। अब जो कुछ बाकी रह गया हो उसकी भगवान् श्रीकृष्णसे शिक्षा लो। इन श्रीकृष्णका जो स्वरूप है और जो इनका पुरातन बल है, उसे ठीक-ठीक मैं जानता हूँ। कौरवराज! भगवान् श्रीकृष्ण अप्रमेय हैं, अत: तुम्हारे मनमें संदेह होनेपर यही तुम्हें धर्मका उपदेश करेंगे। श्रीकृष्णने ही इस पृथ्वी, आकाश और स्वर्गकी सृष्टि की है। इन्हींके शरीरसे पृथ्वीका प्रादुर्भाव हुआ है। यही भयंकर बलवाले वराहके रूपमें प्रकट हुए थे तथा इन्हीं पुराणपुरुषने पर्वतों और दिशाओंको उत्पन्न किया है। अन्तरिक्ष, स्वर्ग, चारों दिशाएँ तथा चारों कोण—ये सब भगवान् श्रीकृष्णसे नीचे हैं। इन्हींसे सृष्टिकी परम्परा प्रचलित हुई है तथा इन्होंने ही इस प्राचीन विश्वका निर्माण किया है। कुन्तीनन्दन! सृष्टिके आरम्भमें इनकी नाभिसे कमल उत्पन्न हुआ और उसीके भीतर अमित तेजस्वी ब्रह्माजी स्वत: प्रकट हुए। जिन्होंने उस घोर अन्धकारका नाश किया है, जो समुद्रको भी डाँट बताता हुआ सब ओर व्याप्त हो रहा था(अर्थात् जो अगाध और अपार था)। पार्थ! सत्ययुगमें श्रीकृष्ण सम्पूर्ण धर्मरूपसे विराजमान थे, त्रेतामें पूर्ण ज्ञान या विवेकरूपमें स्थित थे, द्वापरमें बलरूपमें स्थित हुए थे और कलियुगमें अधर्मरूपसे इस पृथ्वीपर आयेंगे (अर्थात् उस समय अधर्म ही बलवान् होगा)। इन्होंने ही प्राचीनकालमें दैत्योंका संहार किया और ये ही दैत्यसम्राट् बलिके रूपमें प्रकट हुए।
ये भूतभावन प्रभु ही सब कुछ हैं, भूत और भविष्य इनके ही स्वरूप हैं तथा ये ही इस सम्पूर्ण जगत् की रक्षा करनेवाले हैं। जब धर्मका ह्रास होने लगता है, तब ये शुद्ध अन्त:करणवाले श्रीकृष्ण देवताओं तथा मनुष्योंके कुलमें अवतार लेकर स्वयं धर्ममें स्थित हो उसका आचरण करते हुए उसकी स्थापना तथा पर और अपर लोकोंकी रक्षा करते हैं। कुन्तीनन्दन! ये त्याज्य वस्तुका त्याग करके असुरोंका वध करनेके लिये स्वयं कारण बनते हैं। कार्य, अकार्य और कारण सब इन्हींके स्वरूप हैं। ये नारायणदेव ही भूत, भविष्य और वर्तमान कालमें किये जानेवाले कर्मरूप हैं। तुम इन्हींको राहु, चन्द्रमा और इन्द्र समझो। ये श्रीकृष्ण ही विश्वकर्मा, विश्वरूप, विश्वभोक्ता, विश्व-विधाता और विश्वविजेता हैं। ये ही एक हाथमें त्रिशूल और दूसरे हाथमें रक्तसे भरा खप्पर लिये विकराल रूप धारण करते हैं। अपने नाना प्रकारके कर्मोंसे जगत् में विख्यात हुए श्रीकृष्णकी ही सब लोग स्तुति करते हैं। सैकड़ों गन्धर्व, अप्सराएँ तथा देवता सदा इनकी सेवामें उपस्थित रहते हैं। राक्षस भी इनसे सम्मति लिया करते हैं। एकमात्र ये ही धनके रक्षक और विजयके अभिलाषी हैं। यज्ञमें स्तोतालोग इन्हींकी स्तुति करते हैं। सामगान करनेवाले विद्वान् रथन्तर साममें इन्हींके गुण गाते हैं। वेदवेत्ता ब्राह्मण वेदके मन्त्रोंसे इन्हींका स्तवन करते हैं और यजुर्वेदी अध्वर्यु यज्ञमें इन्हींको हविष्यका भाग देते हैं। भारत! इन्होंने ही पूर्वकालमें ब्रह्मरूप पुरातन गुहामें प्रवेश करके इस पृथ्वीका जलमें प्रलय होना देखा है। इन सृष्टिकर्म करनेवाले श्रीकृष्णने दैत्यों, दानवों तथा नागोंको विक्षुब्ध करके इस पृथ्वीका रसातलसे उद्धार किया है। व्रजकी रक्षाके लिये गोवर्धन पर्वत उठानेके समय इन्द्र आदि देवताओंने इन्हींकी स्तुति की थी।
भरतनन्दन! ये एकमात्र श्रीकृष्ण ही समस्त पशुओं (जीवों)- के अधिपति हैं। इन्हींको नाना प्रकारके भोजन अर्पित किये जाते हैं। युद्धमें ये ही विजय दिलानेवाले माने जाते हैं। पृथ्वी, आकाश और स्वर्गलोक सभी इन सनातन पुरुष श्रीकृष्णके वशमें रहते हैं। इन्होंने कुम्भमें देवताओं (मित्र और वरुण)-का वीर्य स्थापित किया था, जिससे महर्षि वसिष्ठकी उत्पत्ति हुई बतायी जाती है। ये ही सर्वत्र विचरनेवाले वायु हैं, तीव्रगामी अश्व हैं, सर्वव्यापी हैं, अंशुमाली सूर्य और आदिदेवता हैं। इन्होंने ही समस्त असुरोंपर विजय पायी तथा इन्होंने ही अपने तीन पदोंसे तीनों लोकोंको नाप लिया था। ये श्रीकृष्ण सम्पूर्ण देवताओं, पितरों और मनुष्योंके आत्मा हैं। इन्हींको यज्ञवेत्ताओंका यज्ञ कहा गया है। ये ही दिन और रातका विभाग करते हुए सूर्यरूपमें उदित होते हैं। उत्तरायण और दक्षिणायन इन्हींके दो मार्ग हैं। इन्हींके ऊपर-नीचे तथा अगल-बगलमें पृथ्वीको प्रकाशित करनेवाली किरणें फैलती हैं। वेदवेत्ता ब्राह्मण इन्हींकी सेवा करते हैं और इन्हींके प्रकाशका सहारा लेकर सूर्यदेव प्रकाशित होते हैं।
ये यज्ञकर्ता श्रीकृष्ण प्रत्येक मासमें यज्ञ करते हैं। प्रत्येक यज्ञमें वेदज्ञ ब्राह्मण इन्हींके गुण गाते हैं। ये ही तीन नाभियों, तीनों धर्मों और सात अश्वोंसे युक्त इस संवत्सरचक्रको धारण करते हैं। वीर कुन्तीनन्दन! ये महातेजस्वी और सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले सर्वसिंह श्रीकृष्ण अकेले ही सम्पूर्ण जगत् को धारण करते हैं। तुम इन श्रीकृष्णको ही अन्धकारनाशक सूर्य और समस्त कार्योंका कर्ता समझो। इन्हीं महात्मा वासुदेवने एक बार अग्निस्वरूप होकर खाण्डव वनकी सूखी लकड़ियोंमें व्याप्त हो पूर्णत: तृप्तिका अनुभव किया था। ये सर्वव्यापी प्रभु ही राक्षसों और नागोंको जीतकर सबको अग्निमें ही होम देते हैं। इन्होंने ही अर्जुनको श्वेत अश्व प्रदान किया था। इन्होंने समस्त अश्वोंकी सृष्टि की थी। ये ही संसाररूपी रथको बाँधनेवाले बन्धन हैं। सत्त्व, रज और तम— ये तीन गुण ही इस रथके चक्र हैं, ऊर्ध्व, मध्य और अध:—जिसकी गति है, काल, अदृष्ट, इच्छा और संकल्प—ये चार जिसके घोड़े हैं, सफेद, काला और लाल रंगका त्रिविध कर्म ही जिसकी नाभि है, वह संसार-रथ इन श्रीकृष्णके ही अधिकारमें है। पाँचों भूतोंके आश्रयरूप श्रीकृष्णने ही आकाशकी सृष्टि की है। इन्होंने ही पृथ्वी, स्वर्गलोक और अन्तरिक्षकी रचना की है। अत्यन्त प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी इन हृषीकेशने ही वन और पर्वतोंको उत्पन्न किया है। इन्हीं वासुदेवने वज्रका प्रहार करनेके लिये उद्यत हुए इन्द्रको मार डालनेकी इच्छासे कितनी ही सरिताओंको लाँघा और उन्हें परास्त किया था। ये ही महेन्द्र-रूप हैं। ब्राह्मण बड़े-बड़े यज्ञोंमें सहस्रों ऋचाओंद्वारा एकमात्र इन्हींकी स्तुति करते हैं। राजन्! इन श्रीकृष्णके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है जो अपने घरमें महातेजस्वी दुर्वासाको ठहरा सके। इनको ही अद्वितीय पुरातन ऋषि कहते हैं। ये ही विश्वनिर्माता हैं और अपने स्वरूपसे ही अनेकों पदार्थोंकी सृष्टि करते रहते हैं। ये देवताओंके देवता होकर भी वेदोंका अध्ययन करते और प्राचीन विधियोंका आश्रय लेते हैं। लौकिक और वैदिक कर्मका जो फल है, वह सब श्रीकृष्ण ही हैं, ऐसा विश्वास करो। ये ही सम्पूर्ण लोकोंकी शुक्लज्योति हैं तथा तीनों लोक, तीनों लोकपाल, त्रिविध अग्नि, तीनों व्याहृतियाँ और सम्पूर्ण देवता भी देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ही हैं। संवत्सर, ऋतु, पक्ष, दिन-रात, कला, काष्ठा, मात्रा, मुहूर्त, लव और क्षण—इन सबको श्रीकृष्णका ही स्वरूप समझो।
पार्थ! चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, अमावास्या, पौर्णमासी, नक्षत्रयोग तथा ऋतु—इन सबकी उत्पत्ति श्रीकृष्णसे ही हुई है। रुद्र, आदित्य, वसु, अश्विनीकुमार, साध्य, विश्वेदेव, मरुद्गण, प्रजापति, देवमाता अदिति और सप्तर्षि—ये सब-के-सब श्रीकृष्णसे ही प्रकट हुए हैं। ये विश्वरूप श्रीकृष्ण ही वायुरूप धारण करके संसारको चेष्टा प्रदान करते हैं। अग्निरूप होकर सबको भस्म करते हैं, जलका रूप धारण करके जगत् को डुबाते हैं और ब्रह्मा होकर सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि करते हैं। ये स्वयं वेद्यस्वरूप होकर भी वेदवेद्य तत्त्वको जाननेका प्रयत्न करते हैं। विधिरूप होकर भी विहित कर्मोंका आश्रय लेते हैं। ये ही धर्म, वेद और बलमें स्थित हैं। तुम यह विश्वास करो कि सारा चराचर जगत् श्रीकृष्णका ही स्वरूप है। ये विश्वरूपधारी श्रीकृष्ण परम ज्योतिर्मय सूर्यका रूप धारण करके पूर्वदिशामें प्रकट होते हैं, जिनकी प्रभासे सारा जगत् प्रकाशित होता है। ये समस्त प्राणियोंकी उत्पत्तिके स्थान हैं। इन्होंने पूर्वकालमें पहले जलकी सृष्टि करके फिर सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न किया था। ऋतु, नाना प्रकारके उत्पात, अनेकानेक अद्भुत पदार्थ, मेघ, बिजली, ऐरावत और सम्पूर्ण चराचर जगत् की इन्हींसे उत्पत्ति हुई है। तुम इन्हींको समस्त विश्वका आत्मा—विष्णु समझो। ये विश्वके निवासस्थान और निर्गुण हैं। इन्हींको वासुदेव, जीवभूत संकर्षण, प्रद्युम्न और चौथा अनिरुद्ध कहते हैं। ये आत्मयोनि परमात्मा सबको अपनी आज्ञाके अधीन रखते हैं! कुन्तीकुमार! ये देवता, असुर, पितर और तिर्यग् रूपसे पाँच प्रकारके संसारकी सृष्टि करनेकी इच्छा रखकर पंचभूतोंसे युक्त जगत् के प्रेरक होकर सबको अपने अधीन रखते हैं। इन्होंने ही क्रमश: पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाशकी सृष्टि की है। इन्होंने जरायुज आदि चार प्रकारके प्राणियोंसे युक्त इस चराचर जगत् की सृष्टि करके चतुर्विध भूतसमुदाय और इन पाँचोंकी बीजरूपा भूमिका निर्माण किया। ये ही आकाशस्वरूप बनकर इस पृथ्वीपर प्रचुर जलकी वर्षा करते हैं।
राजन्! इन्होंने ही इस विश्वको उत्पन्न किया है और ये ही आत्मयोनि श्रीकृष्ण अपनी ही शक्तिसे सबको जीवन प्रदान करते हैं। देवता, असुर, मनुष्य, लोक, ऋषि, पितर, प्रजा और संक्षेपत: सम्पूर्ण प्राणियोंको इन्हींसे जीवन मिलता है। ये भगवान् भूतनाथ ही सदा विधिपूर्वक समस्त भूतोंकी सृष्टिकी इच्छा रखते हैं।
शुभ-अशुभ और स्थावर-जंगमरूप यह सारा जगत् श्रीकृष्णसे उत्पन्न हुआ है, इस बातपर विश्वास करो। भूत, भविष्य और वर्तमान सब श्रीकृष्णका ही स्वरूप है। यह तुम्हें अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि प्राणियोंका अन्तकाल आनेपर साक्षात् श्रीकृष्ण ही मृत्युरूप बन जाते हैं। ये धर्मके सनातन रक्षक हैं। तीनों लोकोंमें जो कुछ भी उत्तम, पवित्र तथा शुभ या अशुभ वस्तु है, वह सब अचिन्त्य भगवान् श्रीकृष्णका ही स्वरूप है, श्रीकृष्णसे भिन्न कोई वस्तु है, ऐसा सोचना अपनी विपरीत बुद्धिका ही परिचय देना है। भगवान् श्रीकृष्णकी ऐसी ही महिमा है। बल्कि ये इससे भी अधिक प्रभावशाली हैं। ये ही परम पुरुष अविनाशी नारायण हैं। ये ही स्थावर-जंगमरूप जगत् के आदि, मध्य और अन्त हैं तथा संसारमें जन्म लेनेकी इच्छावाले प्राणियोंकी उत्पत्तिके कारण भी ये ही हैं। इन्हींको अविकारी परमात्मा कहते हैं।
(अनुशासनपर्व १५८। ३—४६)