गीता गंगा
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‘कल्याण’ में भूत-प्रेत-चर्चा क्यों?—प्रेतयोनि कभी न मिले इसलिये!

एक सज्जन लिखते हैं—‘कल्याण’ तो परमार्थ-पथपर ले जानेवाला आध्यात्मिक पत्र है। इसमें भूत-प्रेतोंकी चर्चा नहीं होनी चाहिये और न प्रेतावेश या प्रेतोंके उपद्रव आदिकी घटनाएँ ही छपनी चाहिये। पत्र-लेखक महोदय ‘कल्याण’ के प्रेमी हैं और उन्होंने जिस दृष्टिकोणसे पत्र लिखा है, वह सर्वथा आदरणीय है। ‘कल्याण’ उनका तथा उन्हीं-जैसे प्रेमी बन्धुओंका नित्य कृतज्ञ है। वास्तवमें ‘कल्याण’ का उद्देश्य भगवान् की ओर प्रवृत्त करना ही है। प्रेत-चर्चा करना या प्रेतोंमें आस्था उत्पन्न करना ‘कल्याण’ का कदापि लक्ष्य नहीं है। न ‘कल्याण’ प्रेत-पूजाका प्रचार चाहता है। ‘कल्याण’ वर्ष ४३ के विशेषांकमें प्रेतोंके सम्बन्धमें आयी हुई घटनाओंमेंसे बहुत थोड़ी-सी ही दी गयी हैं। ये भी इसीलिये दी गयी हैं कि ‘प्रेतयोनि सत्य तथ्य है; कल्पना या बहममात्र नहीं है।’ यह सर्वथा सत्य है कि प्रेतावेशके नामपर ढोंग, ठगी, बदमाशी बहुत चलती है और उससे सावधान ही रहना चाहिये। कहीं जान-बूझकर धोखा नहीं भी दिया जाता तो वहाँ मानस-दुर्बलता या हिस्टीरिया आदिकी बीमारीको प्रेतबाधा मान लिया जाता है, तथापि तथ्य तो है ही और संसारके मनुष्य त्रिगुणमयी सृष्टिके हैं। उनमें तमोगुणी भी हैं ही। ऐसे कर्म भी प्राय: बहुत लोगोंसे हो जाते हैं, जिनके फलस्वरूप प्रेतयोनि भोगनी पड़ती है। प्रेतयोनि अत्यन्त यातनामयी है। इसमें मनुष्योंको न जाना पड़े और वे धर्ममार्गपर चलें तथा फलत: अध्यात्म-पथारूढ़ होकर भगवान् को प्राप्त करें, इसी उद्देश्यसे प्रेतचर्चा भी आवश्यक समझकर की जाती है। प्रेतयोनिके सम्बन्धमें संक्षेपमें नीचे लिखी बातें जाननेकी हैं—

प्रेतयोनि सत्य है

प्रेतयोनि होती है। वह वायुप्रधान शरीर होता है। प्रेत सभी एक-सी शक्ति, बुद्धिवाले नहीं होते। यहाँकी भाँति विभिन्न जातियोंके प्रेत, कम-ज्यादा शक्ति-सामर्थ्यवाले, अच्छे-बुरे स्वभाववाले, शान्त-अशान्त प्रकृतिवाले, तमोगुणप्रधान होनेपर भी सत्त्व, रज या तमकी न्यूनाधिकतावाले होते हैं और उसीके अनुसार उनके आचरण होते हैं। इस लोकके-जैसी ही उनकी आकृति-प्रकृति होती है। यहाँके अनुसार ही उनमें राग-द्वेष, अपना-पराया, समता-विषमता आदि होते हैं और वे तदनुसार ही शक्तिभर भला-बुरा करना चाहते हैं। शक्ति होती है तो शक्तिके अनुसार हित-अहित करते भी हैं। सत्-स्वभावके प्रेत भी होते हैं, परंतु अधिकांशमें वे पापात्मा, द्वेष-हिंसा-परायण ही होते हैं। वे प्राय: अनवरत अत्यन्त अशान्त तथा दु:खी रहते हैं। प्रेत नीचे लिखे कारणोंसे अधिकतर होते हैं।

प्रेतयोनि क्यों मिलती है?

१-संसारमें किसी प्राणी-पदार्थके प्रति प्रबल द्वेष या वैर होनेपर या अत्यन्त आसक्ति या ममता होनेपर प्रेतयोनि प्राप्त होती है। किसीसे द्वेष रखकर मरनेवालेको बड़ी पीड़ादायक प्रेतयोनि मिलती है। (अत: किसीसे द्वेष न रखे। किसीका अपराध हो गया हो तो मृत्युसे पहले उससे क्षमा माँग ले। अपने मनसे द्वेष निकाल दे।)

२-जिनका अन्त्येष्टि-संस्कार, शास्त्रोक्त पिण्डदान, तिलांजलि, श्राद्धादि शास्त्रविधिसे नहीं होते, उनको प्रेतत्वकी प्राप्ति होती या उनके प्रेतयोनिमें निवासकी अवधि बढ़ जाती है।

३-जो यहाँ भूत-प्रेतोंकी पूजा करते हैं, तामसी साधना करते हैं, तामस खान-पान तथा आचार-व्यवहार करते हैं, वे प्राय: प्रेत होते हैं।

४-शराबखोर, चोरी-डकैती करनेवाले, हत्याकारी, व्यभिचारी, शास्त्रविरुद्ध आचरण करनेवाले तथा अधर्मके प्रचारक प्रेत होते हैं।

५-जो आत्महत्या करते हैं, वे प्रेत होते हैं।

६-जिसकी किसीके द्वारा हत्या कर दी गयी हो, वह जीव भी मारनेवालेसे बदला लेनेकी प्रबल भावनासे प्रेत होता है।

इसके सिवा और भी कई कारण प्रेतत्व-प्राप्तिके होते हैं। इन सभी कारणोंसे बचना चाहिये तथा घरवालोंको बचानेकी चेष्टा करनी चाहिये। प्रेतत्वसे बचा देना या प्रेतयोनिसे छुड़ा देनेका प्रयत्न करना घरवालोंका, मित्र-बन्धुओंका कर्तव्य तो है ही, महान् पुण्यका कार्य भी है।

प्रेतयोनिसे छूटनेके उपाय

प्रेतत्व-निवारणके लिये तर्पण, श्राद्ध आदि विधि श्रद्धाके साथ अवश्य करने चाहिये। जो श्राद्धके अधिकारी हैं, वे ही सम्पत्तिके भी उत्तराधिकारी हैं। पुत्र इसलिये उत्तराधिकारी नहीं कि वह पुत्र है, इसलिये है कि वह पिण्डदान, श्राद्ध करके अपने पिता-पितामह आदिका उद्धार करता है।

प्रेतत्व-निवारणके लिये श्रीमद्भागवत-सप्ताह, विष्णुसहस्रनामके पाठ, गायत्री-पुरश्चरण, भगवन्नाम-कीर्तन, द्वादशाक्षर (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) मन्त्रका जप, गयाश्राद्ध, तीर्थश्राद्ध आदि परमावश्यक हैं। यथायोग्य इनका प्रयोग करना चाहिये।

कौन प्रेत नहीं होते?

प्रेतत्वसे बचनेके लिये सदाचारी, सत्कर्मपरायण, शास्त्रविधिको जाननेवाले, माता-पिता-गुरुजनोंके पूजक, प्राणिमात्रका हित चाहनेवाले तथा भगवान् का भजन करनेवाले बनना चाहिये। निरन्तर भगवान् के नाम-जप तथा भगवत्स्मरणका अभ्यास करना चाहिये। भक्त कभी प्रेत नहीं होता।

प्रेतका आवेश कब, कहाँ होता है? और उससे बचनेके उपाय

प्रेतोंका आवेश होता है—यह सत्य है, परंतु वे प्राय: उन्हींमें आविष्ट होते हैं या उन्हींको पीड़ा दे सकते हैं, जो अपवित्र, असदाचारी हों। नियमित संध्या, अग्निहोत्र तथा गायत्री-जप करनेवाले, पवित्र आचरण करने तथा पवित्र खान-पानवालोंको प्रेत पीड़ित नहीं कर सकते। प्रेतयोनिमें जीव अतृप्त वासनाओंसे जलता रहता है। अतएव—

१-अशुद्ध स्थानमें, खुली जगह मिठाई खाते समय, एकान्तके अन्धकारमें, स्त्रियोंके नग्न स्नान करनेकी स्थितिमें, तालाब आदिके किनारे, पीपल, बड़, ताड़-खजूर आदिके नीचे, सुनसान जगहमें, पेड़के नीचे, श्मशानभूमिमें, समाधि या कब्रके पास, कूएँ-बावड़ीके तटपर और चौराहेपर मल-मूत्रका त्याग करनेपर वहाँके निवासी प्रेतोंका आवेश हो सकता है। इनसे बचना चाहिये।

२-जो मकान, पुराने दुर्ग-किले—बहुत दिनोंसे निर्जन पड़े हैं, उनमें रात्रि या दिनको भी सहसा नहीं जाना चाहिये और न उनमें रात्रि-निवास करना चाहिये। उनमें रहना हो तो पहले हवन-पूजन, श्रीमद्भागवत-सप्ताह, रामायण-सुन्दरकाण्ड-पाठ कराकर तब रहना चाहिये।

३-जिन स्थानोंमें जानेको मना किया गया है, उन स्थानोंपर जाना ही पड़े तो भगवन्नामका जप करते हुए, गायत्री-मन्त्रका जप करते हुए अथवा जोर-जोरसे भगवन्नामका कीर्तन करते या कोई भगवान् की स्तुतिको बोलते हुए जाना चाहिये।

४-कभी कोई अद्भुत आकृति दीख ही जाय या मनुष्यके रूपमें ही कोई दीखे और उसके प्रेत होनेकी सम्भावना हो तो भगवन्नाम या गायत्री-मन्त्रका जप करने लगना चाहिये। उससे स्वयं नहीं बोलना चाहिये। वह बोले तो नम्रतासे उचित उत्तर देना चाहिये। अपने पास कोई वस्तु हो और वह माँगे तो उसे दे देनी चाहिये।

५-किसी भी दशामें डरना नहीं चाहिये। डर लगता ही हो तो उच्चस्वरसे भगवन्नाम लीजिये। उन समस्त भयहारी सर्वसमर्थ प्रभुको पुकारिये। भय स्वयं भाग जायगा, लेकन घबराकर भागिये मत।

६-कोई प्रेत, देवता आदि आपसे कुछ अनुचित करनेको कहे, कोई अपवित्र वस्तु दे या माँगे, कोई ऐसा धन या पदार्थ दे जो आपका नहीं है तो नम्रतापूर्वक, किंतु दृढ़तासे अस्वीकार कर दीजिये। उसकी बात स्वीकार करनेमें हानि होनेकी सम्भावना है। वह धमकावे तो भी अस्वीकार करनेमें ही हित है।

७-जो प्रेत-पूजक, तन्त्र-मन्त्र, टोना-टोटका करनेवाले लोग हैं, किसी बाधाके निवारणके लिये इनकी सहायता लेनी आवश्यक हो तो लेनी चाहिये, किंतु चमत्कार देखनेके कुतूहलवश अथवा कुछ सीखने, कुछ लाभ उठानेकी आशासे इनसे परिचय मत बढ़ाइये। इनसे अपरिचितोंकी अपेक्षा प्राय: परिचितोंकी हानि अधिक हुआ करती है।

८-अशुद्धावस्थामें, खाकर, दूध पीकर या मिठाई खाकर बिना कुल्ला किये कहीं मत जाइये। अपने शरीर तथा वस्त्रको, अपने रहनेके स्थानको शुद्ध रखिये।

९-प्रेतसिद्ध करके उससे कुछ भी काम लेनेकी कभी भी न इच्छा कीजिये, न वैसी क्रिया ही कीजिये।

१०-जो भगवान् की शरण ले लेता है, भगवान् का भजन करता है, उसे किसीका भय नहीं है। देवता भी उसका अपकार नहीं कर सकते। अत: भगवान् की शरण लेकर, उनका स्मरण, उनका नाम-जप-कीर्तन करनेमें लगे रहना सर्वदा-सर्वत्र-सर्वथा मनुष्यको निर्भय कर देता है।

किसीको प्रेतबाधा हो, प्रेतावेश होता हो तो आवेशके समय पहले उससे नम्रताके साथ पूछिये कि ‘वे कौन हैं, क्या चाहते हैं?’ वे बता दें तो उनकी उचित माँग पूरी कर दीजिये। अन्न, वस्त्र, जलदान तो बिना माँगे ही मृतात्माओंके लिये करना चाहिये, माँगनेपर तो तुरंत कर देना चाहिये। अनुचित पापकी माँग हो तो न मानिये। प्रेतबाधा-निवारणके लिये नीचे लिखे उपाय करने चाहिये, इनसे लाभ होता देखा गया है।

जिस कमरे या मकानमें वह व्यक्ति रहता हो, जिसको प्रेत-बाधा हो, उस कमरे या मकानमें अखण्ड भगवन्नाम-कीर्तन किया जाय।

गायत्री-मन्त्रसे अभिमन्त्रित जल (मँजे हुए शुद्ध बर्तनमें शुद्ध कूपजल या गंगाजल डालकर ११ बार गायत्री-मन्त्र बोलते हुए उसमें दाहिने हाथकी तर्जनी अँगुली फिराकर) उस मकानमें या कमरेमें सर्वत्र छिड़क दें। थोड़ा-थोड़ा प्रात:-संध्या दोनों समय उस व्यक्तिको पिला दें और उसके बिछौनोंपर छिड़क दें। उसके कानमें गायत्री-मन्त्र सुनावें। गायत्री-मन्त्रसे अभिमन्त्रित गंगाजल नहाते समय उसके मस्तकपर थोड़ा-सा डाल दें।

श्रीमद्भगवद्गीताका यह श्लोक उसको बार-बार सुनावें और कई प्लेटोंपर लिखकर दीवालपर टाँग दें—

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या
जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघा:॥
(११। ३६)

इसके द्वारा (उपर्युक्त रीतिसे) अभिमन्त्रित जल भी रोगीको पिलाना चाहिये। नीचे लिखा यन्त्र मंगलवारके दिन भोजपत्रपर लाल चन्दनसे लिखकर और उसके नीचे उपर्युक्त गीताका श्लोक लिखकर रोगीके (पुरुष हो तो दाहिने, स्त्री हो तो बायें) हाथमें ताँबेके ताबीजमें डालकर, धूप देकर बाँध दें और प्रतिदिन गायत्री-मन्त्रसे अभिमन्त्रित जल उसपर छिड़कते और उसे पिलाते रहें।

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ऐसे और भी बहुत-से मन्त्र-यन्त्र भी हैं, जो प्रेतपीड़ा-निवारणके सफल साधन हैं। परंतु इनके जानकार बहुत कम मिलते हैं और आजकल तो अधिकांश स्थानोंपर ठगी चलती है। कुछ वर्ष पहले हमारे एक मित्र प्रेतबाधासे पीड़ित थे। वे इन मन्त्र-तन्त्रवालोंसे बुरी तरह ठगे गये थे। अतएव मन्त्र-यन्त्रका प्रयोग वे ही लोग कर सकते हैं, जो इस विषयमें पूरा ज्ञान रखते हों तथा जो सर्वथा नि:स्पृह हों। व्यवसायियों तथा विज्ञापनबाजोंसे सावधान रहना चाहिये।

आयुर्वेदमें भी प्रेतबाधाकी चिकित्सा बतलायी गयी है। उसमें ऐसे विशेष धूपों तथा अर्घ्योंका उल्लेख है, जिनसे प्रेतपीड़ा मिट जाती है। उनका उपयोग हानिकर नहीं है, परंतु उसमें भी जानकारीकी जरूरत तो है ही। ऐसे कई ‘देवस्थान’ भी माने जाते हैं, जहाँ जानेपर प्रेतबाधा दूर होती है, पर इनमें भी ठगी न चलती हो सो बात नहीं है। अत: कौन-सा स्थान, कितने अंशमें ठीक है, यह कहना बहुत कठिन है।

महामृत्युंजयके जाप, श्रीहनुमानचालीसा तथा बजरंगबाणके पाठसे भी प्रेतबाधा दूर होती है।

प्रेतोपासना या प्रेतसेवा कभी न करे। प्रेतोंसे लाभ उठानेका कभी प्रयत्न न करे। यह सब तामसी है। इनका फल परमार्थपथसे च्युति और प्रेतत्वकी या नरकोंकी प्राप्ति ही है।

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