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मधुर

जैसे शरणागतिके क्षेत्रमें सच्चे निष्कपट दैन्य और भगवान् में होनेवाले विश्वासपर रीझकर सर्वशक्तिमान् अनन्तैश्वर्य भगवान्—कोई भी, कैसा भी पापी, तापी उनकी शरणमें आता है और कहता है ‘मैं तुम्हारा हूँ’ उसपर सहज ही अपनी कृपासुधा उँडेल देते हैं और सब प्रकारसे उसे शरणदान देकर उसके लोक-परलोकका सारा भार स्वयं लेकर उसे सर्वत्र सदाके लिये निर्भय कर देते हैं। वैसे ही प्रेमके पवित्र क्षेत्रमें केवल ‘अनन्य प्रेम’ पर रीझकर अनन्त महिमामय भगवान् अपने समस्त प्रेमको उसपर न्योछावर करके उसके अपने बन जाते हैं।

भगवान् श्यामसुन्दरकी अभिन्नस्वरूपा उन्हींकी नित्य ह्लादिनीशक्ति, दिव्य प्रेमकी महान् महिमामयी मूर्ति श्रीराधारानी सदा ही श्रीकृष्णमयी ही हैं। वहाँ एक ही परम तत्त्व दो रूपोंमें लीलायित हैं; परंतु प्रेमियोंके परम आदर्शरूपमें उनकी लीलामाधुरीका दिव्यातिदिव्य परम पावन रसप्रवाह भी परस्पर प्रेमरसास्वादनके लिये सदा चलता ही रहता है। वे श्रीश्यामसुन्दरसे अनन्य प्रेम करती हैं और उनसे किस प्रकार उनका मिलन होता है—इसका संक्षेपमें दिग्दर्शन कराती हुई वे उन्हीं अपने परम प्रियतमसे कहती हैं—

तुम अनन्त सौन्दर्य-सुधा-निधि,
तुममें सब माधुर्य अनन्त।
तुम अनन्त ऐश्वर्य-महोदधि,
तुममें सब शुचि शौर्य अनन्त॥
सकल दिव्य सद्गुण-सागर तुम
लहराते सब ओर अनन्त।
सकल दिव्य रस-निधि तुम अनुपम,
पूर्ण रसिक, रसरूप अनन्त॥

मेरे श्याम! तुम अनन्त सौन्दर्य-सुधाके समुद्र हो, तुम्हारे अंदर सम्पूर्ण माधुर्य अनन्तरूपसे भरा है। तुम अनन्त ऐश्वर्यके महान् सागर हो, तुम्हारे अंदर सभी प्रकारका पवित्र शौर्य अनन्तरूपमें पूर्ण है। तुम सभी अनन्त दिव्य सद्गुणोंके समुद्र सभी ओरसे लहरा रहे हो और तुम समस्त अनुपम अनन्त दिव्यरसोंके भण्डार, स्वयं पूर्ण रसिक और रसरूप हो।

इस प्रकार जो सभी गुणोंमें,
रसमें अमित असीम अपार।
नहीं किसी गुण-रसकी उसे
अपेक्षा कुछ भी किसी प्रकार॥
फिर मैं तो गुणरहित सर्वथा,
कुत्सित-गति, सब भाँति गवाँर।
सुन्दरता-मधुरता, रहित कर्कश
कुरूप अति दोषागार॥

इस प्रकार तुम्हारे समस्त गुणोंका, समस्त रसोंका न कोई परिणाम है, न उनकी कहीं सीमा है और न उनका पार ही है। ऐसे तुम अनन्त गुणरसमयको किसी प्रकार भी किस गुण-रसकी आकांक्षा हो सकती है? समस्त गुण-रसमें पूर्ण अनन्तके कौन-सी ऐसी वस्तु है, जिसका अभाव हो? फिर मैं (राधा) तो गुणसे सर्वथा हीन हूँ, मेरी बुरी चाल है (इसीसे लोग मुझमें दोषारोपण करते हैं) और मैं सब तरहसे मूर्ख-गँवार हूँ। मुझमें न सौन्दर्य है, न माधुर्य ही है। मैं अनन्त कर्कश स्वभावकी कुरूपा हूँ और दोषोंकी तो भण्डार ही हूँ।

नहीं वस्तु कुछ भी ऐसी,
जिससे तुमको मैं दूँ रस-दान।
जिससे तुम्हें रिझाऊँ,
जिससे करूँ तुम्हारा पूजन-मान॥
एक वस्तु मुझमें अनन्य
आत्यन्तिक है विरहित उपमान।
मुझे सदा प्रिय लगते तुम—
यह तुच्छ किंतु अत्यन्त महान॥

मेरे पास कोई भी कुछ भी ऐसी वस्तु ही नहीं, जिससे मैं तुमको रसदान दे सकूँ, जिससे तुम्हें रिझा सकूँ अथवा जिससे तुम्हारा तनिक भी पूजन-सम्मान कर सकूँ। (एक ओर तो तुम अनन्त सद्गुण दिव्यरसके असीम समुद्र, दूसरी ओर मैं केवल गुणरहित ही नहीं समस्त दोषोंकी अगाध सागर। मैं अपना कुछ भी देने जाऊँ तो वह तुम्हारा तिरस्कार और अपमान ही होगा।) हाँ, मेरे पास एक वस्तु है, जिसकी कहीं भी मेरे लिये उपमा नहीं। वह वस्तु तुच्छ होनेपर भी (तुम्हारी दृष्टिमें) महान् है। वह है— तुम्हारे प्रति मेरी अनन्य, आत्यन्तिक प्रीति—एकमात्र तुम ही मुझको नित्य-निरन्तर अनन्य तथा आत्यन्तिकरूपमें प्रिय लगते हो। यह प्रियता—

रीझ गये तुम इसी एक पर,
किया मुझे तुमने स्वीकार।
दिया स्वयं आकर अपनेको,
किया न कुछ भी सोच-बिचार॥
भूल उच्चता, भगवत्ता सब, सत्ताका सारा अधिकार।
मुझ नगण्यसे मिले तुच्छ बन, स्वयं छोड़ संकोच सँभार॥

‘मेरे प्रियतम श्यामसुन्दर! इसी एक (प्रियता)-पर तुम रीझ गये और तुमने मुझको स्वीकार कर लिया। (मैं तो तुम्हारी सेवामें पहुँची ही नहीं, क्या लेकर जाती, पर) तुमने स्वयं आकर अपने-आपको मुझे दे दिया। जरा भी सोच-विचार नहीं किया। अपनी सारी उच्चताको (महान् तपस्वी मुनि, देवता तुम्हारी सेवामें रहना चाहते हैं, पर तुम्हारी इतनी उच्चता है कि वे ध्यानमें भी तुम्हें नहीं पा सकते।) सारी भगवत्ताको (स्वयं षडैश्वर्योंसे पूर्ण सर्वलोकमहेश्वर, अनन्त दिव्य गुणसमुद्र भागवती शक्तिके परमाश्रय-स्वरूपको) सम्पूर्ण सदाके पूर्णाधिकारको (असंख्य लोकपाल, सृष्टिके नियामक-शासक देवगण जिस सत्तासे सत्ता प्राप्त करते हैं, जिसके पूर्णाधिकारमें रहते हैं, उस सत्ताको) भूलकर मुझ नगण्यसे मिले—(अनन्त शक्ति सत्ता-गुण-समुद्रके रूपमें नहीं,)—तुच्छ बनकर (अत्यन्त छोटे बनकर), स्वयं सारे संकोचको, उच्चताके सारे भारको छोड़कर।*

* इतने बड़े होकर—अज, अविनाशी, पूर्णकाम, नित्यकाम, सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र, अखिलानन्त, ब्रह्माण्ड-नायक, जिनके एक-एक रोमविवरमें अनन्त ब्रह्माण्ड भरे हैं, ऐसे महिमामय होकर भी इतने छोटे बन गये। जरा भी संकोच नहीं किया। किसी प्रकारकी उच्चताका बोझ रखा ही नहीं। वस्तुत: सर्वविध अनन्त भगवान् में ही सर्वविरोधी गुणधर्म एक साथ एक समय रह सकते हैं। वे महान् होकर भी अत्यन्त तुच्छ हो रहते हैं और वे जब अपने किसी प्रेमीसे मिलते हैं, तब अपनी महिमाको लेकर नहीं मिलते, अपनी अनन्तताको लेकर नहीं मिलते। वह अनन्तता तो दिव्य मधुर रसास्वादनका सारा रस ही भंग कर देती है। भगवान् विष्णु या मथुरा-द्वारकाके शौर्यवीर्यमय ऐश्वर्यमय स्वरूपको देखकर तो सरलहृदय गोपांगनाएँ और गोपबालसखा डर जाते हैं। इसीसे जब अनन्त महिमामय भगवान् किसी प्रेमीके प्रेमास्पद-रूपमें उससे मिलते हैं, तब अत्यन्त तुच्छ होकर, सचमुच उससे मिलनेके लिये आतुर होकर, उसके रसपानकी तीव्र और अदम्य पिपासाको लेकर, उसके अपने होकर, उसके लिये व्याकुल होकर ही मिलते हैं।
‘मानो अति आतुर मिलनेको, मानो हो अत्यन्त अधीर।
तत्त्वरूपता भूल सभी नेत्रोंसे लगे बहाने नीर॥
हो व्याकुल, भर रस अगाध, आकर शुचि रस-सरिताके तीर।
करने लगे परम अवगाहन, तोड़ सभी मर्यादा धीर’॥

‘केवल लज्जा-बड़प्पन भूलकर, लज्जा-संकोच छोड़कर ही नहीं आये, परंतु मुझको प्रेमास्पदा मानकर तथा स्वयं प्रेमी बनकर ऐसे आये मानो मिलनेके लिये आतुर हो रहे हो। मानो अत्यन्त अधीर हो रहे हो। तुम अपनी सारी तत्त्वरूपता (सर्वमय-सर्वातीत, सविशेष-निर्विशेष, सर्वगुणाधार, सर्वगुणातीत, सर्वरहित, सर्वाधाररूप तत्त्व)-को भूलकर नेत्रोंसे आँसूकी धारा बहाते हुए व्याकुल होकर आये। अपनी अगाध रस भर दिया मेरी एकान्त प्रियतामें और उस पवित्र अनन्य प्रियतारूप रस-सरिताके तटपर आकर पहले रसपान किया और फिर महान् धीर होनेपर भी अधीर होकर, सारी मर्यादाको तोड़कर अंदर प्रवेश करके डुबकी लगाने लगे।’

‘बढ़ी अमित, उमड़ी रस-सरिता पावन, छायी चारों ओर।
डूबे सभी भेद उसमें, फिर रहा कहीं भी ओर न छोर॥
प्रेमी, प्रेम, परम प्रेमास्पद—नहीं ज्ञान कुछ, हुए बिभोर।
राधा प्यारी हूँ मैं, या हो केवल तुम प्रिय नन्दकिशोर॥’

‘फिर तो वह पवित्र तथा पवित्र करनेवाली रससरिता उमड़कर अपरिमित रूपमें बढ़ गयी। उसमें इतनी बाढ़ आ गयी कि वह चारों ओर—सभी दिशाओंमें फैल गयी। सारी भेद-भिन्नता उसमें डूबकर बह गयी, कहीं ओर-छोर रहा ही नहीं, इतनी विभोरता—तन्मयता हो गयी कि कुछ भी बोध नहीं रहा। यह भी पता नहीं रहा कि मैं तुम्हारी प्रिया राधा हूँ या केवल मेरे प्रियतम तुम श्यामसुन्दर नन्दकिशोर हो।’

यह है प्रेमीका प्रेमसमर्पण और प्रेमास्पद प्रभुका उनपर न्योछावर होकर उसका रूप ही बन जाना। कितना पवित्र, कितना मधुर!

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