Hindu text bookगीता गंगा
होम > सुखी बननेके उपाय > परमार्थकी पगडंडियाँ

परमार्थकी पगडंडियाँ

‘भगवान् सब मंगल करते हैं और सदा मंगल करेंगे’— यह विश्वास रखना। संग अच्छा नहीं रहनेपर उसका भी मनपर असर होता ही है और मनके दोष भी अभी सारे दूर नहीं हुए हैं। पर तुम जरा भी निराश न होकर ऐसा निश्चय करो कि—‘मैं अपनेको भगवान् के अर्पण कर चुका हूँ। मैं ‘मेरा’ नहीं, भगवान् का हूँ। मेरे मन-बुद्धिपर भगवान् का अधिकार है। अतएव मेरे मनमें बुरे भाव—विषय-वासना, भोग-कामना, राग-द्वेषके भाव आ ही नहीं सकते। आयेंगे तो ठहर नहीं सकेंगे—या तो तुरंत नष्ट हो जायँगे या भाग जायँगे।’

भगवान् की कृपापर दृढ़ विश्वास करना, यह अनुभव करना कि ‘उनकी अनन्त कृपा है।’ भगवान् जब जो परिस्थिति देते हैं, उसीसे हमको लाभ उठाना चाहिये। किसी भी प्रतिकूल परिस्थितिको अपने विचारके द्वारा अनुकूल बनाया जा सकता है। विश्वाससे अनुकूलता हो सकती है और प्रेममें तो अनुकूलता-प्रतिकूलताका प्रश्न ही नहीं रह जाता, वहाँ तो केवल प्रेमास्पद भगवान् का सुख ही एकमात्र उद्देश्य होता है। अत: किसी भी अवस्थामें असंतोष होता ही नहीं।

****

भगवान् को सर्वसमर्पण कर देनेके बाद निश्चय ही वह वस्तु भगवान् की हो जाती है। फिर भगवान् उसे अपने अधिकारपूर्वक, इच्छानुसार बरतते हैं और इस प्रकार जो भगवान् की वस्तु बन जाती है एवं भगवान् जिसे इच्छानुसार नि:संकोच बरतते हैं, उसीका जीवन धन्य है। फिर न तो उसे कुछ पानेकी चिन्ता रहती है, न सोचनेकी ही कोई बात उसके लिये रह जाती है। उसके लिये सोचना, करना-कराना—सब प्रभु अपने जिम्मे ले लेते हैं। वह तो सर्वथा निश्चिन्त और योगक्षेमकी कल्पनाको छोड़कर नित्य-निरन्तर प्रभुके मधुर चिन्तनमें लगा रहता है।

****

भगवान् का स्वभाव है कि ‘जो उनका हो जाता है, उसे सदाके लिये अपनाकर वे स्वयं उसके बन जाते हैं। भूलना, त्याग करना, हृदयमें न बसना, न बसाना—यह सब तब रहता ही नहीं।’

भगवान् ने दुर्वासासे कहा है कि ‘ऐसे प्रेमी भक्त मेरा हृदय होते हैं, मैं उनका हृदय होता हूँ। वे मेरे सिवा किसीको नहीं जानते, मैं उनके सिवा और किसीको नहीं जानता।’ जब वे स्वयं ही हृदय हो जाते हैं और प्रेमी भक्तको अपना हृदय बना लेते हैं तब त्यागकी तो कल्पना ही नहीं। वे उस प्रेमीके पराधीन हो जाते हैं—उसके मनमें अपने मनका प्रवेश कराकर एक मन, एक प्राण हो जाते हैं। यही परम आदर्श है।

भगवान् इसमें कोई विलक्षण बात नहीं करते। उनका स्वभाव ही ऐसा विलक्षण है। वे जिसको अपने हृदयमें बसा लेते हैं, वह चाहनेपर भी फिर उनसे अलग नहीं हो सकता। उसे तो वहाँ सदाके लिये बँधे रहना पड़ता है। यों प्रेमी भक्त और प्रेमास्पद भगवान् एक-दूसरेके द्वारा बाँधे जाते हैं और एक-दूसरेको बाँध लेते हैं। यह अनन्त मायाके बन्धनोंसे मुक्त स्थितिमें होनेवाला बन्धन बड़ा ही विलक्षण, दिव्य, मधुर होता है। अतएव इससे मुक्ति न भगवान् चाहते हैं, न प्रेमी चाहता है।

****

सच्ची इच्छाको भगवान् अवश्य पूरा करते हैं। तुम ऐसा मानते ही क्यों हो कि ‘भगवान् ने कुछ बाकी रखा है।’ तुम बस, विश्वास करके यह मान लो कि ‘भगवान् मेरे हैं और मैं उनका हूँ।’ उनकी कृपा तो अपार है ही और वह भी अहैतुकी है। पर प्रेममें तो कृपाकी भी कोई महत्ता नहीं रहती। प्रेमीके प्रेम-रसास्वादनके लिये भगवान् स्वयं लालायित रहते हैं। हम ऐसे भगवान् के सुखमें सुखी रहनेवाले बन जायँ कि बस, भगवान् को ही हमारी सदा चाह बनी रहे, वे हमें अपने पास रखनेमें और हमारे पास रहनेमें सुखका अनुभव करें।

****

यह निश्चित विश्वास रखो कि तुमपर श्रीकृष्णका परम अनुग्रह है। सारी चिन्ताओंको छोड़कर एकमात्र श्रीकृष्णका ही चिन्तन करो। फिर जहाँ, जब जो कुछ करना-कराना होगा, वे अपने-आप ही करें-करायेंगे। अब भी वे ही करते-कराते हैं। पर तुम अपनी चिन्ता आप करने लगते हो, इससे उनके करनेका अनुभव नहीं कर पाते हो। इस गंदे शरीरकी तो बात ही क्यों सोचते हो? तुम तो यह शरीर नहीं हो। तुम जो हो, सदा उनके पास ही हो, वे सदा ही तुम्हारे पास हैं। वे तुमको कभी छोड़ना ही नहीं चाहते, तुम चिन्ता क्यों करते हो? निरन्तर उनकी संनिधिका अनुभव करके मुग्ध होते रहो। परमानन्द मानो, परमानन्द मनाओ।

जब भगवान् ने तुमको अपना लिया और तुम भगवान् के हो गये, तब तुम्हें क्यों दु:ख सहना होगा, दु:ख ही क्यों होगा? और यदि कहीं होगा, तो उसे भगवान् ही भोगेंगे, तुम क्यों भोगोगे? जिसके पास मन है, वही मनके सुख-दु:ख भी भोगेगा। किसीने मुझे अपना मकान दे दिया। मैं उसे लेकर उसमें नित्य रहने लगा। फिर उस मकानकी सर्दी-गरमी, गंदगी-सफाई मैं ही तो भोगूँगा, देनेवाला क्यों भोगेगा? अतएव भगवान् के होकर तुमको तो सदा-सदा परम सुखी ही रहना चाहिये।

सुख-दु:ख भोगना हो तो वे अपने-आप भोगें और वे ही भोगते भी हैं। तुम उनके हृदयकी भीतरी कोठरीमें घुसकर देखो तो तुम्हें पता लगे। सर्वथा निर्लेप रहते हुए भी हमारे सुख-दु:खके एकमात्र भोक्ता वे ही हैं; निस्संदेह—

भोग रहे हैं सुख-दुख सारा सदा हमारे प्रिय भगवान।
बैठे अंदर काल-कोठरीमें उसको निज मन्दिर मान॥
कभी नहीं वे जरा ऊबते, नहीं जताते कुछ अहसान।
व्यर्थ छेड़ते रहते हैं हम मूढ़-बुद्धिकी मिथ्या तान॥
****

संसारमें सर्वत्र भगवान् भरे हैं—इस बातको न देखकर हम अपनेमनकी अनुकूलता खोजते रहते हैं। इसीसे दु:ख बना रहता है। सदा-सर्वत्र भगवान् को देखें, उनका अनुभव करें। वे हमारे हैं, हम उनके ही हैं—यह सदा अनुभव करते रहें। फिर संसारकी कामना-वासना कहाँ रह सकेंगी? कैसे रह सकेंगी?

****

‘भगवान् नित्य तुम्हारे पास हैं’—इस बातका पक्का विश्वास रखो। अनुभव कम होता है तो कोई बात नहीं। सत्यका अनुभव होते क्या देर लगती है? जब होगा, तब प्रत्यक्ष ही हो जायगा सदाके लिये। मनमें यह विश्वास रखना चाहिये।

****

शरीर कहीं भी रहे, उनको तो नित्य-निरन्तर साथ रहना ही पड़ेगा। एक क्षण भी अलग रहें या रहने दें—यह उनका स्वभाव ही नहीं है। हम चाहे उन्हें न देख पायें—पर वे तो सदा हमें देखते—मुसकराते रहते हैं और बीच-बीचमें विचित्र भाव-भंगिमाओंके द्वारा अपना अनुभव भी कराते रहते हैं। उनका दृढ़तम सम्बन्ध ऐसा विचित्र है कि वह कभी भंग तो हो ही नहीं सकता, क्षणभरके लिये भी पृथक् नहीं रहने देता—

प्रभुसे प्यारा है न्यारा है जैसा जो कुछ भी सम्बन्ध।
काट दिये हैं उसने मेरे, यहाँ-वहाँके सारे बन्ध॥
रहते मेरे साथ निरन्तर, प्रभु क्षण दूर नहीं होते।
अनुभव सदा कराते अपना हर स्थितिमें जगते-सोते॥
रहूँ कहीं भी, कैसे भी, वे रहते नित्य पास मेरे।
रहते नित भीतर-बाहरसे चारों ओर मुझे घेरे॥
वे मेरे कैसे अपने हैं, इसे बताऊँ मैं कैसे।
अनुभव होता है, पर नहीं बता सकता गूँगा जैसे॥

‘मूकास्वादनवत्।’ उनकी अनुभूतिका वर्णन नहीं किया जा सकता। पर निश्चय ही वे सदा-सर्वदा साथ हैं, इसपर विश्वास करो तथा अनुभव भी करो। वे अपने-आप ही अनुभव भी कराते रहते हैं।

****

यदि तुम सर्वथा समर्पित हो चुके हो, तो फिर अपनी चिन्ता क्यों करते हो? तुम्हारा अपनापन तो सारा भगवान् की वस्तु बन चुका है। तुम्हें राग-विरागसे क्या मतलब? तुम अपनी जगह—अपनेको भगवान् के हाथका एकमात्र खिलौना समझो। वे अपनी इच्छानुसार कुछ भी करें, तुम अपना अधिकार क्यों मानते हो? न तो तुम्हें अब अपने लिये चिन्ता-शोक करनेका अधिकार है, न संसारकी किसी परिस्थितिको लेकर हर्ष और उल्लास करनेका। तुम तो निश्चिन्त रहकर परमानन्दस्वरूप प्रभुका अनवरत चिन्तन करते रहो। चिन्ता करनी होगी तो वे आप करेंगे। संसारकी कुछ भी स्थिति रहे।

तुम्हारे पाप तो उसी क्षण नष्ट हो गये थे, जिस क्षण तुमने अपनेको उनके चरणोंमें समर्पण कर दिया था। अब वे चाहे तुम्हारी खूब बड़ाई करें या तुम्हें खूब कोसें-फटकारें—अपमान करें। तुमको न अपनी बड़ाई माननी है, न फटकार-अपमान। वे अपनी ही बड़ाई करते हैं और अपनेको ही कोसते-फटकारते हैं। तुम्हें न तो बड़ाई सुनकर फूलना चाहिये, न अपनी बड़ाई मानकर संकोच करना चाहिये। इसी प्रकार न तो अपमान-निन्दासे दु:खी होना चाहिये और न अपनी निन्दा मानकर क्षोभ ही करना चाहिये।

तुम्हारी बड़ाई कौन करता है? वे तो अपनी वस्तुको बढ़िया मानकर, अपनी वस्तुपर रीझकर, अपनी वस्तुसे आप सुखी होकर, अपनी वस्तुके गुणगान करनेके बहाने प्रकारान्तरसे अपना ही गुणगान करते हैं। वे अपनेसे तुमको पृथक् मानते ही नहीं। तुम्हें अपनेमें मिलाकर अथवा तुममें स्वयं मिलकर वे अपने-आपमें ही अपने-आप खेल करते हैं। तुम एक खिलौना हो, पर वह खिलौना भी वे आप ही बने हैं। अतएव तुम सदा ही मौजमें रहो। जगत् का कोई रूप सामने आवे, कैसी भी परिस्थिति आवे, तुम यही समझो—‘वे तुम्हारे हैं—तुम उनके हो। न तुम्हारा अन्य कोई है, न तुम अन्य किसीके हो।’ फिर चिन्ता, भय, मान, मद, विषादको स्थान ही कहाँ है? तुम्हारे लिये तो दु:ख, भय, शोक नामकी कोई वस्तु ही नहीं रह गयी है, अधिक क्या कहा जाय?

****

इससे अधिक जाननेकी तुम्हें आवश्यकता ही नहीं है। तुम तो बस, इतना ही मानो-जानो कि ‘भगवान् मेरे हैं, मुझे बड़े ही प्रिय लगते हैं और मैं उनका हूँ’ फिर जब वे जनाना चाहेंगे, जना देंगे। हमें उनके ज्ञानसे मतलब नहीं, हमें तो उनसे तथा उनके प्रेमसे मतलब है। उनको स्वयं गरज हो, तब वे अपना पूरा ज्ञान दें। ज्ञान होनेपर भी यदि प्रेम कम हो जाय तो वह ज्ञान भी नहीं चाहिये। वे चाहे कोई, कुछ भी हों, ‘हमारे अपने हैं, पूरे अपने हैं, सदा अपने हैं, अत्यन्त मधुर प्रियतम हैं, सदा पास रहते हैं, सदा रसदान करते रहते हैं, उनपर हमारा सम्पूर्ण अधिकार है।’ बस, यह चीज सदा बनी रहनी चाहिये।

****

किसी भी वातावरणमें रहो, वे तुम्हें नित्य अपनाये हुए हैं। तुम तो केवल उनके नामका जप करते रहो। श्रीराधामाधव तुम्हारे हृदयमें ही बसे हैं। स्मृति और उत्कण्ठा उत्तरोत्तर बढ़ाते रहो। वे स्वयं ही तुम्हें सारे विघ्नोंसे बचायेंगे।

वस्तुत: तो तुम परम सुखी तभी होओगे—जब एकमात्र परम श्रेष्ठ श्रीभगवान् का ही अनन्य चिन्तन होगा। जगत् का यह रूप और इसके व्यवहार सभी मनसे सर्वथा निकल जायँगे। समस्त हर्ष, द्वेष, शोक, आकांक्षाका नाश हो जायगा। अत: बस, कोई भी दूसरा चिन्तन न करके भगवान् का ही मधुर-मनोहर चिन्तन करनेकी चेष्टा करो।

****

जो अपनेमें दोष देखता है, जिसको अपनेमें गुणोंका अभाव दीखता है, जो सदा अपनेको लेनेवाला ही मानता है, देनेकी कोई वस्तु या योग्यता ही नहीं मानता, वही तो वास्तवमें गुण-शील-सौजन्य-समन्वित उदार है। पवित्र प्रेमराज्यमें अपनेमें सर्वथा-सर्वदा दैन्य तथा दोषोंके ही दर्शन होते हैं और भगवान् में सदा गुणोंके तथा अमित उदारताके।

****

जगत् के विनाशी, क्षणस्थायी सम्बन्धको यथार्थ सम्बन्ध समझकर सुखी होना मूर्खता नहीं तो क्या है? ऐसे सम्बन्धको लेकर ममत्व करना और फिर रोना-धोना मूर्खता ही तो है। इसमें जो नित्य है, सत्य है, जिससे कभी विछोह नहीं होता, जो सदा साथ ही रहता है और रहेगा ......उसीसे प्रेम करना चाहिये। वह है—‘श्रीकृष्ण’। उसीके अनन्त नाम हैं। है वह एक ही। वही हमारा सब अवस्थाओंका और सब समयका मित्र है। वह नित्य सुहृद् है, नित्य सुन्दर है, नित्य मधुर है, वह सदाका साथी है, वह हमारे प्राणोंका प्राण है, आत्माका आत्मा है। इस श्रीकृष्णको छोड़कर अन्य किसीसे भी प्रेम करोगे, उसीमें धोखा होगा, जिसको चाहोगे, वही नष्ट होगा। न मालूम हमने कितनी योनियोंमें सुखके कितने संसार रचे हैं। वहाँ भी हमारे सगे-सम्बन्धी थे। पर हम सबको धोखा दे आये, आज उनकी तनिक भी चिन्ता हमें नहीं है। वे हमसे प्रेम करते थे, परंतु हमसे उन्होंने क्या पाया? बस, यही बात है। इसलिये एकमात्र श्रीकृष्णको ही अपना समझो, उन्हींसे प्रेम करो! सबमें उन्हींको देखकर फिर सबसे प्रेम करो। किसीमें खास ममत्व नहीं करना चाहिये। जीवन-मृत्यु तो उनका......श्रीकृष्णका......खेल है। सबमें, सब समय, सब ओरसे उन्हींको देखो, उन्हींको पकड़ लो, तभी जीवन सार्थक होगा, तभी सुखके—सच्चे सुखके, परमानन्दके यथार्थ दर्शन होंगे।

****

मन निरन्तर भगवान् की स्मृतिमें ही लगा रहे। दूसरेका चिन्तन हो ही नहीं। समर्पण पूर्ण होना चाहिये। जिस मनमें भगवान् बस गये, उसमें कभी, किसी भी हालतमें दूसरेको स्थान नहीं मिलना चाहिये। गोपियोंने तो उद्धवजीसे कहा था—परमात्माके ध्यानके लिये भी मनमें स्थान नहीं रहा। ‘नाहिन रह्यो हिय महँ ठौर।’ इसी प्रकार दिन-रात स्वप्न-जागरणमें सदा-सर्वदा एकमात्र प्रभु ही चित्तमें रहें, प्रभुमें ही चित्त रहे। प्रभुका चित्त ही अपना चित्त बना रहे। बस!

****

जहाँतक हो सके, राग-द्वेषको छोड़कर स्वार्थकी परवा न करके सबके हितकी उदार-दृष्टिसे जो कुछ हमारी बुद्धिमें आवे, भगवान् जैसी भी प्रेरणा करें, तदनुसार हमें उचित चेष्टा करते रहना चाहिये। फिर भगवान् के विधानसे जो कुछ हो, वही ठीक और यथार्थ है। उसीमें आनन्द भी है।

असलमें संसारका संयोग-वियोग, सफलता-विफलता, लाभ-हानि, जन्म-मृत्यु आदि हमारे मनकी क्षुद्र सीमामें ही व्यक्त होते हैं। अनन्त महासागरके वक्ष:स्थलपर क्रीडा करनेवाली असंख्य तरंगोंके समान विश्वमें भगवान् की यह लीला अनवरत चल रही है। इस लीलाको न समझनेके कारण ही ये सब हमें सुख-दु:ख देनेवाले होते हैं। यह हमारे ही विचारोंकी सृष्टि है। उस महान् अनन्तकी ओर देखनेसे तो इन लहरियोंमें अनन्त, अपार, एकरस आनन्दराशिके अतिरिक्त और कुछ भी नजर नहीं आता। अतएव चेष्टा करनी चाहिये कि हमारी आन्तरिक दृष्टि नित्य-निरन्तर अनन्तकी ओर ही लगी रहे। व्यावहारिक दृष्टिसे तरंगोंके साथ हम भी यथायोग्य तरंगित होते रहें। इन बाह्य तरंगोंका संग भी हमें सतत उस अनन्तकी अपार महिमा बताकर महान् आनन्दका अनुभव करानेवाला ही हो। किसी भी तरंगका आघात हमारे अंदर आनन्दकी ही अनुपम और ललित लहरी उत्पन्न करता रहे और सारी लहरियोंको लेकर हम उस अनन्त आनन्दसागरमें निमग्न हो जायँ।

****

पुरुष हो या स्त्री—मनुष्य-जीवनका प्रधान उद्देश्य—एकमात्र उद्देश्य है—‘भगवान् को अथवा उनके अनन्य प्रेमको प्राप्त करना एवं कर्मबन्धनोंसे सदाके लिये छूट जाना।’ जो मनुष्य अपने इस उद्देश्यकी सिद्धिमें लगा रहता है और उद्देश्यको प्राप्त कर लेता है, उसीका जीवन सार्थक है, वही बुद्धिमान् है।

वस्तुत: इस मानव-शरीरको पानेका फल विषय-भोग नहीं है। जो लोग विषय-भोगमें मन लगाते हैं, वे अमृत बदलकर जहर लेते हैं। इसीलिये बुद्धिमान् पुरुष विषयोंकी आसक्तिका त्याग करते हैं और इसीलिये परमार्थ-मार्गके पथिकगण अतुल सम्पत्तिका त्याग करके संन्यास-ग्रहण किया करते हैं। यदि वे विषय हमसे छूट जायँ तो सचमुच यह ईश्वरका वरदान है, उनका कोप नहीं।

अगला लेख  > ‘कल्याण’ में भूत-प्रेत-चर्चा क्यों?—प्रेतयोनि कभी न मिले इसलिये!