परहित-धर्म
परहित बस जिन्ह के मन माहीं।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
तामसी प्रकृतिका महान् बलशाली रावण जगज्जननी सीताका अपहरण करके लिये जा रहा था। वयोवृद्ध पक्षिराज जटायुने सीताका करुण विलाप सुना और वे दुर्वृत्त रावणके हाथसे उन्हें छुड़ानेके लिये उससे भिड़ गये। पक्षिराजने रावणको रणमें बहुत छकाया और जबतक उनके जीवनकी आहुति न लग गयी, तबतक लड़ते रहे। अन्तमें रावणने जटायुके दोनों पंख काटकर उन्हें मरणासन्न बनाकर गिरा दिया और वह सीताजीको ले गया। कुछ समय बाद भगवान् श्रीराम लक्ष्मणके साथ सीताजीको खोजते हुए वहाँ पहुँचे। जटायुको अपने लिये प्राण न्योछावर किये देखकर भगवान् श्रीराम गद्गद हो गये और स्नेहाश्रु बहाते हुए उन्होंने जटायुके मस्तकपर अपना हाथ रखकर उसकी सारी पीड़ा हर ली। फिर गोदमें उठाकर अपनी जटाओंसे उसकी धूल झाड़ने लगे—
दीन मलीन अधीन ह्वै अंग बिहंग परॺो छिति छिन्न दुखारी।
राघव दीन दयालु कृपालु कों देखि दुखी करुना भइ भारी॥
गीध कों गोद में राखि कृपानिधि नैन-सरोजन में भरि बारी।
बारहिं बार सुधारत पंख जटायुकी धूरि जटान सों झारी॥
गृध्रराज कृतार्थ हो गये। वे गृध्र-देह त्यागकर तथा चतुर्भुज नीलसुन्दर दिव्य रूप प्राप्त करके भगवान् का स्तवन करने लगे—
गीध देह तजि धरि हरि रूपा।
भूषन बहु पट पीत अनूपा॥
स्याम गात बिसाल भुज चारी।
अस्तुति करत नयन भरि बारी॥
स्तवन करनेके पश्चात् अविरल भक्तिका वर प्राप्त करके जटायु वैकुण्ठधामको पधार गये—
अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम॥