गीता गंगा
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राजनीति, धर्म और तीर्थ

भगवान् श्रीकृष्णने तामसी बुद्धिका स्वरूप बतलाते हुए अर्जुनसे कहा है—

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान् विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १८। ३२)

‘अर्जुन! तमोगुणसे आवृत जो बुद्धि अधर्मको धर्म मानती है तथा और भी सभी पदार्थोंको विपरीत (उलटा) ही समझती है, वह बुद्धि तामसी है।’

दैव-दुर्विपाकसे या किसी भी कारणसे आज जगत् के मानव-समाजकी बुद्धि प्राय: तमसाच्छन्न हो रही है, इसीसे आज सारा जगत् ईश्वर तथा सच्चे ईश्वरीय धर्मसे मुँह मोड़कर ‘अधिकार’ और ‘अर्थ’ के पीछे उन्मत्त हो रहा है। मानव-जीवनके असली उद्देश्य भगवत्प्राप्ति, मुक्ति या परम शान्तिकी प्राप्तिको भूलकर वह जिस किसी भी प्रकारसे भौतिक सुखकी—जो मनुष्यको वास्तविक सुखसे सदा ही वंचित रखता है और सुखके नामपर नये-नये दु:खोंकी सृष्टि करता रहता है—प्राप्तिके लिये नैतिक-अनैतिक सभी प्रकारके कर्म करनेको प्रस्तुत है। इसीसे वह मानव-जीवनके पवित्रतम आध्यात्मिक उत्कर्षकी अवहेलना करके भौतिक सुख-साधनोंकी अधिक-से-अधिक प्राप्तिके प्रयत्नमें संलग्न है और इसीमें अपनी तथा विश्वकी उन्नति समझता है और इसीको परम कर्तव्य या एकमात्र धर्म मान रहा है।

एक आदरणीय महात्मा कहा करते हैं कि ‘धर्महीन राजनीति विधवा है और राजनीतिरहित धर्म विधुर है।’ बात वास्तवमें सत्य ही है, परंतु वर्तमान राजनीतिमें—जहाँ तमोगुणकी प्रधानता है—सच्चे धर्मको स्थान मिलना बहुत ही कठिन है।

पाश्चात्य विचारशील विद्वान् श्रीशॉ डेसमण्ड (Shaw Desmond) महोदयकी ‘World-birth’ नामक एक पुस्तक लगभग अठारह वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई थी। उसमें उन्होंने राजनीति तथा वर्तमान राजनीतिक जगत् की आलोचना करते हुए लिखा था—

“Like horse-racing, there is something in politics which degrades. They turn good men into bad men and bad into worse. They blunt the fineness of youth and destroy the sensitive evaluation of the things by which we live. And the reason is as plain as the cloud which blots out the sun. Our politics today are always “Power-politics’’.

‘घुड़दौड़के जुएकी तरह राजनीतिमें ऐसा कुछ है, जो मनुष्यको नीचे गिरा देती है। वह अच्छे मनुष्यको बुरा और बुरेको और भी जघन्य बना देती है। वह यौवनकी तीव्रताको कुण्ठित करती और जीवनके लिये आवश्यक वस्तुओंके मूल्यांकनकी निपुणताको घटा देती है। इसका कारण उस बादलके टुकड़ेके समान बिलकुल स्पष्ट है, जो सूर्यको सर्वथा ओझल कर देता है। हमारी आजकी राजनीति सदा अधिकारपरक ही है।’

वे फिर लिखते हैं—

“The young politician, the flush of idealism upon the brow of innocence, eager to win his spurs, soon after he has been returned under the auspices of his party or group to congress or parliament or Chamber of Deputies finds himself as we have already indicated, faced with the following problem.

He has already been coached in the gentle art of suppressio veri and of fictitious promise in order to get elected, and as the ‘old hands’ will tell him no man on this earth would stand a chance if he told the truth the whole truth and nothing but truth.

‘’Now, he can either stand out against his party leaders, veterans in sin, who neither in life nor in death will forgive him, and find himself relegated to back stage with no chance to make his young eager voice heard, or he can go in with those leaders as a Yes-Man, as they are Known, and so at long last perhaps be rewarded with the lollipops of office. Jam or ginger, he can take his choice. If he, through idealism, fight the Machine, he will be fiattened out by the party steam-roller and will be so quick going that he wont even know he has come if he rides on the Juggernaut, he will be patted on the back by the ‘Old hands’ and spoiled as so often Age spoils youth.

Have we not seen in all these countries the once young idealists ‘’Sell out’’ as the process is perfectly well known to Power and Privilege and with the politicians capacity for self deception unhappily sometimes quite sincerely? Have we not seen them turn their upholstered backs upon the leanness of old comrades and old ideals, and find themselves sometimes, though not always, ultimately rewarded by power and position to their infernal eternal undoing both in this world to come! Poor devils usually democratic devils of that ilk..................

कूटनीतिकी चालोंसे अनभिज्ञ और आदर्शवादके उत्साहसे परिपूर्ण तथा सफलता-प्राप्तिके लिये उत्सुक तरुण राजनीतिज्ञ अपने दल या समुदायके टिकटपर काँग्रेस, लोकसभा या प्रतिनिधि-सभामें चुन लिये जानेके पश्चात् तुरंत ही अपने-आपको एक उलझनमें पाता है।

उसे चुनावमें सफलता प्राप्त करनेके लिये सत्यको छिपाने और झूठे वादे करनेकी शिष्ट कलामें पहलेसे ही दीक्षित कर दिया गया होता है। पुराने अनुभवी पुरुष उसे बतलाते हैं कि इस पृथ्वीमण्डलमें ऐसा कोई मनुष्य है ही नहीं, जो सत्य, पूर्ण सत्य, विशुद्ध सत्य बोलकर सफल हो सके।

अब उसके सामने दो ही मार्ग रहते हैं—या तो वह अपने दलके नेताओं—पापमें अभ्यस्त खूसटोंके विरुद्ध—जो न तो इस जीवनमें और मृत्युके बाद ही उसे क्षमा करेंगे—खड़ा हो और अपनेको रंगमंचके पीछे—नेपथ्यमें फेंका हुआ पाये, जहाँसे वह अपनी तरुण उत्सुकतापूर्ण आवाजको सुनानेके लिये कोई अवसर ही न पा सके, या वह उन नेताओंके अनुकूल बनकर उन्हींकी भाँति समादृत होकर रहे, जिससे अन्तमें कदाचित् वह ‘पद’ रूप प्रसादसे पुरस्कृत किया जाय। मुरब्बा या अदरकका पानी दोनोंमेंसे वह जो चाहे पसंद कर ले। यदि आदर्शवादके पीछे पड़कर वह इस पुरानी मशीनसे लड़नेकी ठानेगा तो उसपर उस मशीनके वाष्पचालित बेलनका इतना दबाव पड़ेगा कि उसे पिस जाना पड़ेगा और वह इतनी फुर्तीसे बाहर फेंक दिया जायगा कि उसको पता भी न चलेगा कि मैं भीतर आया था। पर यदि वह उस प्रेषणकारी यन्त्रपर आरूढ़ हो गया तो वे पुराने अनुभवी हाथ उसकी पीठ ठोकेंगे और फलत: जैसे बुढ़ापा जवानीको विरस कर देता है, वैसे ही उसका भी नैतिक पतन हो जायगा।

क्या हमें इन सब देशोंमें आदर्शवादके ऐसे तरुण भक्त नहीं मिले हैं, जिन्होंने अपने आदर्शवादके प्रेमको कुचलकर अपने-आपको ‘पद’ और विशेषाधिकारके मोल बेच डाला है? खेदकी बात तो यह होती है कि कई बार वे आत्मवंचनाके वशीभूत हो—जिसकी प्रत्येक राजनीतिके व्यवसायीमें क्षमता आ जाती है—शुद्ध नीयतसे अपने आदर्शोंको बेच डालते हैं। बहुधा यह भी देखा गया है कि वे अपने पुराने सहयोगियों और आदर्शोंका परित्याग करके बादमें कभी-कभी सदा नहीं—सत्ता और पदसे पुरस्कृत हुए हैं और इसके लिये उन्हें इस लोक और परलोकसे सदाके लिये हाथ धोना पड़ा है, प्राय: जनतन्त्रवादी भूतकी यही दशा होती है।

पाश्चात्य देशोंकी और उसीका अनुकरण करनेवाले भारतवर्षकी राजनीतिका आज यही स्वरूप है। इसके साथ सच्चे धर्मका मेल हो और पतिव्रता सतीकी भाँति वह धर्मकी अनुगता होकर रहे, यह बहुत कठिन है। आज तो बहुत-से लोग—पीछे नहीं—पहलेसे ही ‘पद’ और ‘अर्थ’ की अभिलाषासे ही लोकसभा आदिमें जाना चाहते हैं। ‘कर्तव्य और त्याग’ का पवित्र आसन ही आज ‘अधिकार और अर्थ’ के द्वारा अधिकृत कर लिया गया है। ऐसी अवस्थामें धर्मको राजनीतिके साथ स्थान मिलना बहुत ही कठिन है। हाँ, महात्मा गाँधी होते या उनकी नीतिकी प्रधानता राजनीतिमें अक्षुण्ण रहती तो कुछ आशा अवश्य थी। महात्माजीने राजनीतिके क्षेत्रमें बड़े महत्त्वके कार्य किये, परंतु उनका प्रत्येक कार्य ईश्वर-विश्वास तथा सत्य, अहिंसारूप धर्मपर अवलम्बित होता था, इससे उनकी राजनीतिमें व्यक्तिगत स्वार्थ-मूलक दोषोंका प्रवेश बहुत ही कम हो पाता था तथापि जो लोग धर्मभीरु हैं तथा देशकी राजनीतिको पवित्र देखना चाहते हैं और जिनकी चित्त-वृत्ति प्रवृत्तिपरायण है, उनको गीताके उपदेशको सामने रखकर आसक्ति तथा फलानुसंधानसे रहित होकर राजनीतिके क्षेत्रमें आना और काम करना चाहिये। देशकी वर्तमान स्थितिमें ऐसे राग-द्वेषहीन धर्मपरायण कर्मठ लोगोंकी बड़ी आवश्यकता है।

पर जो लोग केवल भगवत्परायण रहकर भजन ही करना चाहते हैं, जिनकी प्रकृति निवृत्तिपरक है और जो राग-द्वेषपूर्ण जनसंसदसे दूर रहनेमें ही अपना हित समझते हैं, उन्हें अवश्य ही राजनीतिसे अलग होकर भजनपरायण रहना चाहिये। यही उनके लिये निरापद मार्ग है। ऐसे भजनानन्दी पुरुषोंको एकान्तमें या पवित्र तीर्थस्थानोंमें रहकर सादा-सीधा, बहुत ही कम खर्चीला, सदाचार तथा भजनसे भरा जीवन बिताना चाहिये। यद्यपि आजकल पवित्र एकान्त स्थान मिलना कठिन है और तीर्थोंमें भी पवित्रतासे पूर्ण सात्त्विक वातावरण नहीं रह गया है, तथापि खोजनेपर तीर्थोंमें ऐसे एकान्त पवित्र स्थल अब भी प्राप्त हो सकते हैं। तीर्थोंका महत्त्व इसी कारण है कि वहाँ भगवत्प्राप्त या भजनानन्दी साधकोंने निवास किया था। अब भी भजनानन्दी पुरुष यदि तीर्थोंमें रहने लगें तो तीर्थोंके पवित्र विग्रहमें जो मलिनता या कालिमा आ गयी है, वह सहज ही दूर हो सकती है और तीर्थयात्रियोंके लिये तीर्थ पुन: पावन बन जा सकते हैं।

तीर्थोंके बाह्य सुधारकी भी आवश्यकता है, साथ ही पुराने तीर्थस्थानों तथा मन्दिरोंके जीर्णोद्धारका भी महान् कार्य है, जो परमावश्यक है। दक्षिणके महान् तीर्थोंमें सुशोभित अत्यन्त कलापूर्ण विशाल मन्दिर भारतकी भक्ति तथा कलापूर्ण संस्कृतिके जीते-जागते मूर्तरूप हैं—ये जगत् के आश्चर्य हैं। इनके रक्षणावेक्षणका कार्य भी, यदि कुछ पवित्र प्रवृत्तिवाले लोग दूसरे कार्योंसे पृथक् होकर वहाँ रहने लगें तो सहजमें सम्पन्न होनेकी सम्भावना है।

हिंदुओंके ये पवित्र तीर्थ हिंदू-संस्कृतिकी रक्षा और विभिन्न प्रदेशोंमें रहनेवाले विभिन्न भाषा-भाषी नर-नारियोंको एकताके पवित्र सूत्रमें बाँधे रखनेके लिये परम उपयोगी तथा श्रेष्ठ साधन हैं। अत: राजनीतिक दृष्टिसे भी इन धर्मस्थानोंकी सुरक्षा तथा सेवा परम आवश्यक है।

भारतकी राजनीति धर्मसे पृथक् नहीं थी और भारतवर्षका धर्म प्रत्येक नीतिके साथ संयुक्त था। भगवान् की मंगलमयी कृपासे फिर ऐसा हो जाय तो जगत् के लिये एक महान् आदर्श उपस्थित हो।

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