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भगवान‍्में लगनेका उपाय

(कोलकातामें १६-१-८६को दिया हुआ प्रवचन)

खाना, पीना, सोना, बातें करना, आलस्यमें पड़े रहना—इसमें जैसा मन लगता है, वैसा पाठ-पूजनमें नहीं लगता! कबीर साहबने कहा है—

कबीर मनुआँ एक है, भावे जहाँ लगाय।
भावे हरि की भगति कर, भावे बिषय कमाय॥

दो ही बातें हैं। बीचमें जीव है, एक तरफ संसार है और एक तरफ परमात्मा है। संसारसे संयोगजन्य सुख मिलता है और संसारमें आसक्ति होती है, प्रियता होती है। परन्तु भगवान‍्के भजन, पाठ, जप आदिमें प्रियता नहीं होती। मन तो एक ही तरफ लगेगा। अत: मनको संसारसे उठाओ। खाना, पीना, सोना आदिमें सुख मत लो। इनमें सुख लेते रहोगे तो मन भगवान‍्में नहीं लगेगा; क्योंकि मनको खुराक तो संसारसे ही मिल जायगी!

हमें संसारकी अनुकूल परिस्थिति अच्छी लगती है और प्रतिकूल परिस्थिति बुरी लगती है, तो हम संसारके ही ग्राहक हुए न? कसौटी लगा करके देखो कि हम परमात्माके ग्राहक हैं या संसारके? एक तरफ परमात्मा है और एक तरफ संसार है। अगर संसारकी अनुकूल परिस्थिति, अनुकूल पदार्थ, अनुकूल अवस्था अच्छी लगती है और प्रतिकूल परिस्थिति आदि बुरी लगती है, तो हम परमात्माके भक्त नहीं हैं।

जो लोग रुपया कमानेके लिये दुकानपर बैठते हैं, उनके सामने कई अनुकूल व्यक्ति आते हैं और कई प्रतिकूल व्यक्ति आते हैं। परन्तु वे न तो राजी होते हैं, न नाराज होते हैं। अपने व्यापारमें लगे रहते हैं कि राजी-नाराजगीसे क्या लेना, हमें तो पैसा कमाना है! इस तरह जैसे गृहस्थ पैसा कमानेमें लगे हैं, ऐसे साधकोंको तो कम-से-कम परमात्मामें लगना चाहिये। अनुकूलता-प्रतिकूलतामें फँस जाते हैं—यह बड़ी भारी बाधा है। गृहस्थोंका ज्यादा समय जाता है रजोगुणमें और साधुओंका ज्यादा समय जाता है तमोगुणमें! ऐसी बात मेरे मनमें वर्षोंसे आयी थी, पर कही आज है! आलस्यमें, प्रमादमें, खाने-पीनेमें, सोनेमें—इनमें साधुओंका ज्यादा समय जाता है। क्या करें बताओ! स्वयं आप अपनेको ठीक करो तो कर सकते हो और कोई उपाय नहीं है इसका। आप खुद ही बाबाजी बन गये, अब कौन कहे आपको? मैंने पुस्तकोंमें पढ़ा है कि खुदमें तो अक्ल नहीं और दूसरेकी मानता नहीं, उसको कौन समझाये?

अगर कुछ मिलता है तो परमात्मा ही मिलता है और कुछ मिलता है ही नहीं। परमात्माके सिवाय कभी किसीको कुछ नहीं मिला, कुछ नहीं मिलेगा और कुछ नहीं मिल सकता। वहम होता है कि इतना धन मिल गया, इतना मान मिल गया, शरीर मिल गया, नीरोगता मिल गयी, विजय मिल गयी, आराम मिल गया—बिलकुल कोरा धोखा है! आज मरो, तो कुछ नहीं मिला। आपलोग ध्यान दें। मिलना भगवान‍्का ही है, उसके सिवाय और मिलना है ही नहीं। धन, सम्पत्ति, मान,सुख आदिमें वृत्ति रहेगी तो बेईमानी होगी, चालाकी होगी,ठगाई होगी, धोखेबाजी होगी और आगे इसका फल होगा दु:ख, नरक, चौरासी लाख योनियाँ! मिलना अगर देखा जाय तो परमात्मतत्त्वके सिवाय मिलना कुछ है ही नहीं।

श्रोता—प्रभुकी कथामें मन लगानेसे प्रभुकी कृपा हो जायगी क्या?

स्वामीजी—भगवान‍्की और भक्तोंकी कथामें अगर मन लगता हो तो बहुत ही उत्तम बात है। आप उसको तल्लीन होकर पढ़ो, सुनो तो भगवान‍्की कृपा अपने-आप हो जायगी। भगवान‍्के और भक्तके चरित्रमें अगर मन लग जायगा, तल्लीन हो जायगा तो कृपा किये बिना भगवान् रह ही नहीं सकेंगे; कृपा जबर्दस्ती होगी। भगवान् और भक्त—इन दोनोंके चरित्रोंमें मन लग जायगा तो फिर एकदम ठीक हो जायगा।

हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं।
सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥
(मानस ७।४ ७।३)

केवल भगवान् और उनके भक्त—ये दो ही भला करनेवाले हैं। तीसरे किसी व्यक्तिसे, किसी वस्तुसे, किसी परिस्थितिसे, किसी योग्यतासे आपका भला हो जायगा—यह बात है ही नहीं। किसीसे कुछ होने का है नहीं। न धनसे कुछ होगा, न मानसे कुछ होगा, न बड़ाईसे कुछ होगा, न मकानसे कुछ होगा, न परिवारसे कुछ होगा। होगा कुछ नहीं, केवल समय बरबाद हो जायगा, पासमें रही हुई पूँजी खत्म हो जायगी और मरना पड़ेगा!

श्रोता—स्वामीजी! हम सन्तको ठीक-ठीक जानते नहीं, तो क्या उनकी कृपासे सब हो जायगा?

स्वामीजी—उनको जानने-न-जाननेकी चिन्ता मत करो। उनको जानो या मत जानो, उनके कहनेके अनुसार करो। हो जायगा क्यों? अभी होना चाहिये, अभी भगवान‍्में मन लगना चाहिये। हो जायगा—इसका क्या भरोसा? देखो भाई, मैं तो इसको धोखा मानता हूँ कि ये सन्त मिल गये, महात्मा मिल गये, गुरुजी मिल गये, इनकी कृपासे सब हो जायगा—ऐसा मान लेता है, पर करता कुछ नहीं। सन्त मिल गये तो तुम्हारेमें परिवर्तन आना चाहिये न? जैसे नींदमें प्यास लगी और जल पीते हैं, पर उससे तृप्ति नहीं होती, ऐसे ही सन्त मिलनेपर, अच्छा संग मिलनेपर भी हमारी तृप्ति नहीं हुई, हमारी दशा वैसी ही है, तो क्या मिल गया? हमारा जीवन बदल जाना चाहिये, जीवन भगवान‍्में लग जाना चाहिये।

भगवान‍्में, भगवान‍्के चरित्रमें, भगवान‍्के नाममें, भगवान‍्के गुणोंमें, भगवान‍्की लीलामें मन तल्लीन हो जाय तो यह लाभकी बात है। परन्तु आजकल पाठ, जप आदि करते हैं तो बारी निकालते हैं, ड्यूटी बजाते हैं, एक आफत मिटाते हैं। ‘रोजाना इतना जप आदि करना ही पड़ेगा, नहीं करें तो सन्तोष नहीं होता; अत: पाठ भी कर लो, जप भी कर लो, इतना सुन लो, तो एक आफत मिट गयी, छुट्टी हो गयी। उन्होंने कह दिया और हमने स्वीकार कर लिया, इसलिये पाठ करना पड़ता है, इतना जप करना पड़ता है। किसी तरह पूरा कर दो। पाठ पूरा हो गया, तो अब पुस्तक बाँधकर रख दो’ आदि-आदि। बालक पढ़ता है, पर छुट्टी होते ही दौड़ता है कि चलो आफत मिटी! इस तरह पाठ, जप आदिको आफत समझनेसे, भार समझनेसे लाभ थोड़े ही होगा? समय खाली पड़ा है, पर भगवान‍्की कथा आदिमें मन नहीं लगता—यह मनुष्यके लिये बड़ा काला दिन है। समय बरबाद करनेसे तो यही अच्छा है कि किसी काम धंधेमें लग जाओ।

सिद्धान्त है कि परमात्माके सिवाय मिलता कुछ नहीं, केवल धोखा होता है। चाहे आपके पास लाखों-करोड़ों रुपये हो जायँ, चाहे आपके हजारों श्रोता आ जायँ और आपको नमस्कार करें, आपका आदर करें पर मरोगे तो कुछ नहीं मिलेगा! क्योंकि यह मिलनेकी चीज है ही नहीं। बढ़िया भोजन मिल गया, बढ़िया कपड़ा मिल गया, बढ़िया सोनेको जगह मिल गयी, आराम मिल गया, तो केवल धोखा हो गया, मिला कुछ नहीं। इसलिये सावधान रहना चाहिये।

मैं तो यह कहता हूँ कि आप हरदम नाम-जप करो और दो-दो, चार-चार मिनटमें भगवान‍्को नमस्कार करके भीतरसे कहो कि ‘हे नाथ! आपको भूलूँ नहीं’; ‘हे प्रभु! आपके चरणोंमें मन लग जाय’; ‘हे नाथ! आप मुझे मीठे लगें, प्रिय लगें।’ आपकी एक ही माँग हो कि भगवान‍्में चित्त खिंच जाय, भगवान् मीठे लगें, भगवान‍्का नाम मीठा लगे, भगवान‍्के गुण मीठे लगें, भगवान‍्की लीला मीठी लगे, भगवान‍्के चरित्र मीठे लगें, प्रिय लगें।

श्रोता—मनसे रामायणजीको गुरु मान लें क्या? व्यक्तिविशेषको गुरु माननेसे उसके गुण-दोषोंपर मन चला जाता है।

स्वामीजी—बिलकुल मान लो, निहाल हो जाओगे। रामायणजीको गुरु मानकर परिक्रमा करो, दण्डवत्-प्रणाम करो, आदरसे पाठ करो और उसमें जो बातें लिखी हैं, उसको गुरु-शिक्षा, गुरु-वचन मान लो। हो जायगा कल्याण! गुरु ‘वचन’ ही होता है, ‘शरीर’ नहीं होता। मेरी सलाह भी यही है कि व्यक्तिको गुरु बनाना ही नहीं चाहिये। व्यक्तिको गुरु बनानेसे अड़चन होगी, उसमें फँस जाओगे, दूसरी जगह नहीं जा सकोगे, अच्छी बातोंसे वंचित रह जाओगे। अत: चाहे रामायणको ले लो, चाहे गीताजीको ले लो, चाहे पहले हुए किसी सन्त-महात्माको ले लो, चाहे अभी कोई अच्छा लगे, उसको ले लो और गुरु-शिष्यका सम्बन्ध न जोड़ कर उनसे जो अच्छी बातें मिलें, उनका तत्परतासे पालन करो। अपनेमें जो त्रुटियाँ हों, उनको दूर करो। उनसे सलाह पूछ लो कि क्या करें? कैसे करें? मेरेसे कोई साधनकी बात पूछता है तो मेरेको बड़ा आनन्द आता है, प्रसन्नता होती है। मैं गुरु बनूँ और दूसरा चेला बने—यह तो मुझे अच्छा नहीं लगता, पर कोई साधनकी बात पूछे तो यह मुझे बहुत अच्छा लगता है और जैसी बात आयेगी, वैसी बता दूँगा। कपट रखूँगा नहीं, छिपाऊँगा नहीं। लोग कहते हैं कि चेला बनो तो बतायें और मैं कहता हूँ कि चेला न बनो तो बताऊँ।

श्रोता—ठाकुरजीकी प्राप्तिकी तीव्र आकांक्षा होती है, ठाकुरजीके प्रति प्रेम उमड़ता है, इससे प्रभुका साक्षात्कार हो सकता है क्या?

स्वामीजी—हो सकता है। प्रेम उमड़ेगा, तब साक्षात्कार होगा। वह ठण्डा नहीं पड़ना चाहिये, जैसे सोडावाटरकी बोतलमें भभका आया, फिर शान्त हो गया! उसको तो बढ़ना चाहिये। कलसे आज ज्यादा हो, आजसे कल ज्यादा हो, कलसे परसों ज्यादा हो—ऐसे प्रतिदिन, प्रतिक्षण भगवान‍्में प्रेम बढ़ना चाहिये। भगवान‍्में प्रेम होना ही भजन है—‘पन्नगारि सुनु प्रेम सम भजनु न दूसर आन’। प्रेमके समान दूसरा कोई भजन नहीं है। भगवान‍्में जो आकर्षण है, वही भजन है। इसके लिये भगवान‍्से बार-बार प्रार्थना करो, एकान्तमें बैठकर भक्तोंके चरित्र पढ़ो।

एकान्तमें बैठ जाओ और कमरा बन्द कर लो। न हम किसीको देखें और न हमें कोई देखे। फिर भक्तोंके चरित्र पढ़ो, स्तोत्र पढ़ो, विनय-पत्रिका पढ़ो। पढ़ते-पढ़ते जब हृदय गद‍्गद हो जाय, नेत्रोंसे आँसू आने लगें, उस समय पुस्तक बन्द कर दो और नाम-जप करो, कीर्तन करो, प्रार्थना करो कि ‘हे नाथ! आपको भूलूँ नहीं’ ऐसा कहते जाओ। ऐसा करते-करते जब आँसू सूख जायँ, वैसा भाव नहीं रहे, तब जहाँ पढ़नेसे वैसा भाव बना, उससे एक पृष्ठ पीछेसे पुन: पढ़ो। पढ़ते-पढ़ते वहाँ आते ही वैसा भाव बन जाय, तो फिर पुस्तक छोड़ दो। पुस्तक पूरी करनेका लक्ष्य बिलकुल न रहे, भगवान‍्में मन लगानेका लक्ष्य रहे। जहाँ पढ़ते-पढ़ते मन लगा, वहाँ पुस्तक छोड़ दो और प्रार्थना करो, भगवान‍्से अपनी बात कहो, भगवान‍्के लिये रोते रहो। यहसाधन आप घंटा-दो-घंटा रोजाना करके देखो। उस समय दूसरा कोई काम आ जाय तो उसको छोड़ दो कि अभी नहीं। करोड़ काम बिगड़ते हों तो बिगड़ने दो, पर भगवान‍्का स्मरण मत छोड़ो—‘कोटिं त्यक्त्वा हरिं स्मरेत्’। भक्तोंके चरित्रमें मन लगे तो बहुत बढ़िया है! भगवान‍्से भी भगवान‍्के भक्तका चरित्र बढ़िया है। गोस्वामीजी महाराज लिखते हैं—

मोरे मन प्रभु अस बिस्वासा।
राम ते अधिक राम कर दासा॥
(मानस ७।१२०।८)

कोरा लिखते ही नहीं हैं, काममें भी लाते हैं। गोस्वामीजी महाराज अपने मनसे रामजीके साथ रहते हैं, इसलिये ‘इहाँ’ लिखते है—‘इहाँ प्रात जागे रघुराई’(६। १७। १) और रावणके साथ नहीं रहते, इसलिये ‘उहाँ’ लिखते हैं—‘उहाँ सकोपि दसानन......’ (६।३२ख) आदि। परन्तु जहाँ भगवान् और भक्त—दोनोंकी बात आती है, वहाँ गोस्वामीजी भगवान‍्को छोड़कर भक्तके साथ रहते हैं; जैसे—भरतजीका वर्णन करते समय वे भरतजीके लिये ‘इहाँ’ लिखते हैं—‘इहाँ भरतु सब सहित सहाए’ (२। २३३। २) और रामजीके लिये ‘उहाँ’ लिखते हैं—‘उहाँ रामु रजनी अवसेषा’ (२।२२६।२)।

भरत चरित करि नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं।
सीय राम पद पेमु अवसि होइ भव रस बिरति॥
(२।३२६)

गोस्वामीजीने रामायण लिखना शुरू किया तो सबसे पहले भरतजीका चरित्र (अयोध्याकाण्ड) ही लिखा है। इसके बाद बालकाण्ड लिखना शुरू किया। इसलिये अयोध्याकाण्ड और बालकाण्ड—दोनोंके आरम्भमें गुरु-वन्दना की गयी है और काण्डोंके आरम्भमें नहीं। कारण कि पहले गुरु-वन्दना अयोध्याकाण्डमें की और उसके बाद ग्रन्थका आरम्भ किया तो बालकाण्डके आरम्भमें गुरु-वन्दना की, फिर लिखते चले गये। इस प्रकार गोस्वामीजीने पहले भक्तका चरित्र लिखा, फिर भगवान‍्का चरित्र लिखा।

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