Hindu text bookगीता गंगा
होम > स्वाधीन कैसे बनें ? > परमात्मप्राप्तिकी सुगमता

परमात्मप्राप्तिकी सुगमता

(कोलकातामें ३-१-८६ को दिया हुआ प्रवचन)

एक बड़े महत्त्वकी बात है। इस तरफ आप ध्यान दें। जितने क्रिया और पदार्थ हैं, वे सब-के-सब उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं। दूसरे शब्दोंमें कहें तो वे परिवर्तनशील हैं। क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है। वस्तु पैदा होती है और नष्ट होती है। कोई घटना होती है तो वह मिट जाती है। परिस्थिति आती है, वह एकरूप नहीं रहती। अवस्था एकरूप नहीं रहती। व्यक्ति एकरूप नहीं रहता। ये सब-के-सब हरदम बदलते रहते हैं। ये सब मिल करके ही संसार है। इसीको संसार कहते हैं। इससे जो सुख चाहता है, वह बहुत बड़ी भूल करता है, मामूली भूल नहीं करता। स्वयं परमात्माका अंश है, परिवर्तनरहित है, नित्य निर्विकार है, उसको इस परिवर्तनशील संसारसे क्या मिलेगा? कुछ मिलनेका नहीं है। धोखा हो जायगा; रोना पड़ेगा; पश्चात्ताप करना पड़ेगा! इस बातको ठीक तरहसे मनुष्य ही समझ सकता है। एक दृष्टिसे देखें तो देवताओंको भी यह अधिकार नहीं है। वे भी भोगोंमें फँसे रहते हैं। जैसे, इस संसारमें बहुत बड़े धनी आदमी हैं, वे सत्संगमें प्राय: नहीं जा पाते, सद‍्गुण-सदाचारका पालन प्राय: नहीं कर पाते, तो फिर इनसे भी ज्यादा भोगी देवता क्या करेंगे? मनुष्योंमें योग्यता जरूर है, पर भोगोंकी इतनी बहुलता हो गयी कि वे इनसे छूट नहीं सकते। भोगोंकी और संग्रहकी लालसाके कारण वे बड़े जोरोंसे पतनकी तरफ जा रहे हैं। वे नरकोंसे बच नहीं सकते! भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस, असुर बनेंगे! वे महान् आफतसे बच नहीं सकते।

आप स्वयं उस परमात्माके साक्षात् अंश हैं, जो निर्विकाररूपसे सदा ज्यों-का-त्यों रहता है। उसमें कभी परिवर्तन हुआ नहीं, कभी परिवर्तन होगा नहीं और कभी परिवर्तनकी सम्भावना नहीं है। उसके अंश आप भी वैसे-के-वैसे ही हैं। अनेक युग बीत गये, पर आप स्वयं वही हैं—‘भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ (गीता ८। १९)। परन्तु परिवर्तनशील पदार्थोंकी तरफ ध्यान रखनेवाला उस अपरिवर्तनशील तत्त्वको कैसे समझ सकता है? परिवर्तनशील वस्तुको महत्त्व देनेके कारण वह उसीमें उलझ जाता है; अत: अपरिवर्तनशील तत्त्वकी तरफ वह अपना ध्यान ले जा सकता ही नहीं।

आपके जितने मनोराज्य हैं कि ‘यह काम हो जाय; वह काम हो जाय’ वे सब-के-सब काम हो जायँ तो कितनी खुशी होगी! ऐसे ही जितने परिवर्तनशील पदार्थ, व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति हैं, इन सबका अभाव हो जाय तो कितना आनन्द होगा—इसका कोई ठिकाना नहीं! आपको लड़कीकी शादीकी चिन्ता रहती है कि लड़की बड़ी हो गयी, क्या करें? उसको ठीक घर मिल जाता है, अच्छा वर मिल जाता है और आप योग्यताके अनुसार उसका ब्याह कर देते हो, उसको अपने घर पहुँचा देते हो, तो आपको एक प्रसन्नता होती है। आपकी चिन्ता मिट जाती है कि मेरी कन्या अच्छे घर चली गयी, वह सुख पायेगी। इस तरह ये सब जितने झंझट हैं, संसारकी जितनी वस्तु, परिस्थिति, घटना, अवस्था आदि है, वह सब-की-सब अपने घर चली जाय, प्रकृतिमें चली जाय और आप उससे अलग हो जाओ तो कितना आनन्द होगा! आप इस परिवर्तनशील संसारसे ऊँचे उठ जाओगे, इसमें फँसे नहीं रहोगे तो आपको मुक्तिका आनन्द मिलेगा। अगर संसारसे विमुख होकर परमात्माके सम्मुख हो जाओगे तो आपको परम आनन्द मिलेगा। इस प्रकार दु:खोंकी अत्यन्त निवृत्ति और परम आनन्दकी प्राप्ति होना मनुष्यमात्रके लिये सुगम है। अगर आप सुगम नहीं मानते हो तो सम्भव तो अवश्य ही है। पशु, पक्षी, वृक्ष आदिके लिये इसकी सम्भावना नहीं है। क्या भूत, प्रेत, पिशाच आदिके लिये इसकी सम्भावना है? क्या गाय, भैंस, भेड़, बकरी आदिके लिये इसकी सम्भावना है? वास्तवमें मनुष्यके लिये इसकी सम्भावना है—इतनी ही बात नहीं है, प्रत्युत यह बहुत सुगम है। आपको विश्वास नहीं होता तो उसका हमारे पास कोई इलाज नहीं है। आप कुछ-न-कुछ कल्पना करके मेरे लिये ऐसा मान लेते हो कि यह तो ऐसे ही कहता है! मैंने कोई भाँग नहीं पी है। कोई नशेमें आकर मैं नहीं कहता हूँ। फिर भी आपका विश्वास नहीं बैठता तो उसका कोई इलाज नहीं है।

भगवत्प्राप्ति बहुत सुगम है, बहुत सरल है। संसारमें इतना सुगम काम कोई है ही नहीं, हुआ ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं। भगवान‍्ने कृपा करके अपनी प्राप्तिके लिये ही मानव-शरीर दिया है, अत: उनकी प्राप्तिमें सुगमता नहीं होगी तो फिर सुगमता किसमें होगी? भगवत्प्राप्तिके सिवाय मनुष्यका क्या प्रयोजन है? दु:ख भोगना हो तो नरकोंमें जाओ, सुख भोगना हो तो स्वर्गमें जाओ और दोनोंसे ऊँचा उठकर असली तत्त्वको प्राप्त करना हो तो मनुष्य-शरीरमें आओ। ऐसी विलक्षण स्थिति मनुष्य-शरीरमें ही हो सकती है और बहुत जल्दी हो सकती है। इसमें आपको केवल इतना ही काम करना है कि आप इसकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् करो कि हमें तो इसीको लेना है। इतनी जोरदार अभिलाषा जाग्रत् हो कि आपको धन और भोग अपनी तरफ खींच न सकें। सुख-सुविधा, सम्मान, आदर—ये आपको न खींच सकें। जैसे बचपनमें खिलौने बड़े अच्छे लगते थे, पी-पी सीटी बजाना बड़ा अच्छा लगता था, पर अब आप उनसे ऊँचे उठ गये। अब वे अच्छे नहीं लगते। अब मिट्टीका घोड़ा, सीटी आदि अच्छे लगते हैं क्या? क्या मनमें यह बात आती है कि हाथमें झुनझुना ले लें और बजायें? जैसे इनसे ऊँचे उठ गये, इस तरहसे पदार्थोंसे, भोगोंसे, रुपयोंसे, सुखसे, आरामसे, मानसे, बड़ाईसे, प्रतिष्ठासे, वाह-वाहसे ऊँचे उठ जाओ, तो उस तत्त्वकी प्राप्ति स्वत: हो जायगी। न सम्मान रहेगा, न प्रतिष्ठा रहेगी, न पदार्थ रहेंगे, न रुपये रहेंगे, न कुटुम्ब रहेगा, न शरीर रहेगा, न यह परिस्थिति रहेगी। ये तो रहेंगे नहीं। इनके रहते हुए इनसे ऊँचे उठ जाओ तो तत्त्वकी प्राप्ति तत्काल हो जाय; क्योंकि वह तो नित्यप्राप्त है। केवल इधर उलझे रहनेके कारण उसकी अनुभूति नहीं हो रही है।

श्रोता—हमलोग कितना सुनते हैं, प्रयत्न भी करते है, फिर भी संसारसे सुखबुद्धि नहीं जाती महाराजजी!

स्वामीजी—इसमें आपका प्रयत्न काम नहीं देगा, आपका दु:ख काम देगा। यह जो संसारकी आसक्ति मिटती नहीं है, इसका दु:ख होना चाहिये, जलन होनी चाहिये कि कैसे करूँ! यह कैसे मिटे? यह दु:खकी मात्रा बढ़ेगी, तब यह आसक्ति मिटेगी। यह प्रयत्नसे नहीं मिटती। प्रयत्न जितना करोगे, संसारका सहारा लेकर करोगे, मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ-शरीरका सहारा ले कर करोगे। जड़का आश्रय लेना पड़ेगा। फिर जड़तासे ऊँचे कैसे उठोगे? पर इसका दु:ख होगा, जलन होगी, सन्ताप होगा तो इस आगमें यह शक्ति है कि संसारके भोगोंकी और संग्रहकी इच्छाको जला देगी। आपको ऐसी लगन लग जाय कि हमें तो उस तत्त्वको ही प्राप्त करना है। अधूरी चीज नहीं लेनी है। अधूरा सुख नहीं लेना है। निर्वाहमात्रकी रोटी खा लेनी है, निर्वाहमात्रका कपड़ा पहन लेना है। हमें सुख नहीं लेना है, आराम नहीं लेना है। ऐसे विचार होनेसे उसकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् होगी। उत्कट अभिलाषा होनेसे उस तत्त्वका अनुभव हो जायगा, क्योंकि वह तत्त्व सब जगह मौजूद है, संसार मौजूद नहीं है।

श्रोता—ऐसा विचार कैसे उत्पन्न हो?

स्वामीजी—अभी जो बातें कही हैं, इन बातोंका आदर करो। आप अनुकूल भोजनमें राजी हो जाते हो, कोई आपको बढ़िया-बढ़िया भोजन परोसे तो राजी हो जाते हो, कोई आदर करे तो राजी हो जाते हो, तो अधिकारी नहीं हो इस तत्त्वके! जो अनुकूलतामें राजी होता है उसमें मनुष्यपना है ही नहीं! अगर परमात्मप्राप्ति चाहते हो तो इसमें उलझो मत। इसमें सुख मत मानो। कोई आपके अनुकूल हो जाय तो बड़ा अच्छा लगता है और कोई आपके हितकी कड़वी बात कह दे तो आपको बुरा लगता है। जिसको हितकी बात भी बुरी लगती है, वह कैसे उस तत्त्वको प्राप्त कर सकता है? जो आपके मनके अनुकूल चिकनी-चुपड़ी बात करे, वह आदमी अच्छा लगता है तो आप इस तत्त्वके अधिकारी नहीं हो। आप असली सत्संगमें टिक नहीं सकते, ठहर नहीं सकते। बिना ठहरे उस तत्त्वकी प्राप्ति होती नहीं। यह अपने हृदयपर हाथ रख करके सोचो।

वह तत्त्व सबमें निरन्तर रहता है। सब देशमें, सब कालमें, सब वस्तुओंमें, सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें, सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें, सम्पूर्ण घटनाओंमें, सम्पूर्ण अवस्थाओंमें वह तत्त्व निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है। अत: इन सब नष्ट होनेवाली वस्तुओंसे विमुख हो जाओ अर्थात् इनसे सुख मत लो, इनमें रीझो मत, उलझो मत। तत्त्व यहाँ ही मिल जायगा। अगर इससे सुख लोगे तो दु:खके सिवाय कुछ नहीं मिलेगा। आप थोड़ा विचार करो तो बिलकुल प्रत्यक्ष बात है। अत: आप इनसे रहित हो जाओ। वास्तवमें आप इनसे रहित हो, अगर रहित न होते तो इन पदार्थों, व्यक्तियों, अवस्थाओं आदिके संयोग और वियोगको कौन देखता? इनके संयोग-वियोगको देखनेवाला, इनसे अलग होता है। अत: आप इतना खयाल रखो कि संयोग और वियोगको तटस्थ होकर देखते रहो, उनमें फँसो मत।

वह तत्त्व आपको स्वत: प्राप्त है। उसकी प्राप्तिमें कठिनता कैसी? कठिनता तो अनुकूल परिस्थितिकी प्राप्तिमें है, अनुकूल भोगोंकी प्राप्तिमें है, सम्मानकी प्राप्तिमें है, नीरोगताकी प्राप्तिमें है। उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंकी प्राप्तिमें कठिनता है; क्योंकि वे टिकनेवाली नहीं हैं; अत: मिलनेवाली नहीं हैं। वे सीमित हैं; अत: सबको नहीं मिलतीं। परन्तु परमात्मतत्त्व असीम है; अत: वह सबका अपना है और सबमें है। उसकी प्राप्तिके लिये आप उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंसे रहित हो जायँ। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्तिसे रहित हो जायँ। जाग्रत् में जितने पदार्थ, क्रियाएँ, घटनाएँ घटती हैं, उनसे रहित हो जायँ। ये तो बनने-बिगड़नेवाले हैं, हम इनके साथ नहीं हैं—ऐसे चुप हो जाओ, इनसे अलग हो जाओ। दिनमें पन्द्रह, बीस, पचीस बार, सौ-दो-सौ बार एक-एक, दो-दो सेकेण्डके लिये भी आप इनसे अपनेको अलग अनुभव करके देखो। मिनटभरके लिये अलग हो जाओ, तब तो कहना ही क्या! अगर चुप होनेपर हृदयमें उथल-पुथल मचे तो उससे भी अलग हो जाओ। यह उथल-पुथल भी जानेवाली है, मिटनेवाली है। कई संकल्प-विकल्प हो जायँ, वे भी मिटनेवाले हैं। मिटनेवाले हैं—बस, इतना खयाल रखो। मिटनेवालेमें क्या राजी और क्या नाराज हों? न पदार्थोंके संयोग-वियोगसे राजी-नाराज होना है, न संकल्पोंके संयोग-वियोगसे राजी-नाराज होना है। अच्छे-से-अच्छे संकल्प आ जायँ तो उनसे भी राजी नहीं होना है और बुरे-से-बुरे संकल्प आ जायँ तो उनसे भी नाराज नहीं होना है। राजी-नाराज न होनेसे गुणतीत हो जाओगे, तत्त्वकी प्राप्ति हो जायगी—

ज्ञेय: स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥
(गीता ५। ३)

अनुकूलता-प्रतिकूलता कुछ भी आये, इच्छा-द्वेष मत करो, सुखी-दु:खी मत होओ। चाहे मान हो, चाहे अपमान हो; कोई आदर करे, चाहे निरादर करे; अनुकूल पदार्थ मिले, चाहे प्रतिकूल पदार्थ मिले; अनुकूल व्यक्ति मिले, चाहे प्रतिकूल व्यक्ति मिले; केवल इतनी बात करनी है कि इसमें राजी और नाराज न हों। अगर राजी-नाराज हो जाते हैं तो ऐसा समझें कि यह तो बड़ी आफत है! मैंने कई बार कहा है कि सुखका भी दु:ख होना चाहिये और दु:खका भी दु:ख होना चाहिये। अनुकूल परिस्थितिमें सुखी हो गये तो दु:ख होना चाहिये कि हम सुखमें राजी क्यों हो गये और प्रतिकूल परिस्थितिमें दु:खी हो गये तो दु:ख होना चाहिये कि हम दु:खी क्यों हो गये! हम तो द्वन्द्वमें फँस गये! हम सुखी-दु:खी हो गये तो यह हमारी गलती हुई। केवल इसको गलती मानते रहो कि यह ठीक नहीं है। यह कर सकते हो कि नहीं? बताओ।

श्रोता—महाराजजी! सर्वत्र ऐसा नहीं होता।

स्वामीजी—सर्वत्र नहीं होता, आंशिक होता है तो कोई हर्ज नहीं। कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं, जिनमें सम रहना हमारे वशकी बात नहीं और कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं, जिनमें हम सम रह सकते हैं। अत: जिस परिस्थितिमें सम रहना आपको सुगम दीखता है, उसमें आप सम रह जाओ तो इसके दो परिणाम होंगे—पहला, जिसमें सम रहना आपको कठिन मालूम देता है, उसमें सम रहना सुगम हो जायगा; और दूसरा, जिन कमियोंका पता ही नहीं लगता, उनका पता लगने लगेगा। अत: जितना सुगमतापूर्वक होता है, उतना तो कर ही दो। आजसे ही आप इतनी बात मान लो कि जिसमें सम रहना सुगम है, उसमें हम सम रहेंगे।

अगला लेख  > परमात्मप्राप्तिमें मुख्य बाधा—सुखासक्ति