॥ श्रीहरि:॥
पराधीनतासे छूटनेका उपाय
(सींथलमें १५-४-८६ को दिया हुआ प्रवचन)
पराधीनता सबको बुरी लगती है। पराधीन मनुष्यको स्वप्नमें भी सुख नहीं मिलता—‘पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं’ (मानस १। १०२। ३)। ऐसा होनेपर भी मनुष्य दूसरेसे सुख चाहता है, दूसरेसे मान चाहता है, दूसरेसे प्रशंसा चाहता है, दूसरेसे लाभ चाहता है—यह कितने आश्चर्यकी बात है! वस्तुसे, व्यक्तिसे, परिस्थितिसे, घटनासे, अवस्थासे जो सुख चाहता है, आराम चाहता है, लाभ चाहता है, उसको पराधीन होना ही पड़ेगा, बच नहीं सकता, चाहे ब्रह्मा हो, इन्द्र हो, कोई भी हो। मैं तो यहाँतक कहता हूँ कि भगवान् भी बच नहीं सकते। जो दूसरेसे कुछ भी चाहता है,वह पराधीन होगा ही।
परमात्माको चाहनेवाला पराधीन नहीं होता; क्योंकि परमात्मा दूसरे नहीं हैं। जीव तो परमात्माका साक्षात् अंश है। परन्तु परमात्माके सिवाय दूसरी चीज हम चाहेंगे तो पराधीन हो जायँगे; क्योंकि परमात्माके सिवाय दूसरी चीज अपनी है नहीं। दूसरी चीजकी चाहना न होनेसे ही परमात्माकी चाहना पैदा होती है। अगर दूसरी चीजकी चाहना न रहे तो परमात्म-प्राप्ति हो जाय।
कुछ भी चाहना हो,वह चाहना दरिद्रताको सिद्ध करती है। अत: मुफ्तमें दरिद्रता क्यों खरीदते हो? अगर सुखी होना चाहते हो तो दूसरेसे सुख मत चाहो। दूसरेसे हमें लाभ होगा, यह खाता भीतरसे उठा दो। दूसरेसे कुछ नहीं हो सकता। दूसरेसे कुछ भी चाहनेवाला क्या पराधीनतासे बच सकता है? क्या वह स्वतन्त्र हो सकता है? इसलिये यह बात पक्की कर लें कि कोई भी चाहना हम नहीं रखेंगे। परमात्मासे भी किसी चीजकी चाहना नहीं रखेंगे।
जो अपनेको उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुके अधीन मानेगा, वह सुखी कैसे होगा? क्योंकि स्वयं उत्पन्न और नष्ट होनेवाला नहीं है। स्वयं अविनाशी है। एक और विलक्षण बात है कि जो दूसरेसे चाहता है, वह वास्तवमें अनधिकारी है, अधिकारी है ही नहीं। जैसे, जो दूसरेसे सम्मान चाहता है, वह सम्मानके लायक नहीं है। जो सम्मानके लायक होगा, उसको सम्मानकी चाहना नहीं होगी। आप खयाल करें कि अठारह अक्षौहिणी सेनामें, जिसमें सब क्षत्रिय-ही-क्षत्रिय हैं, स्वयं क्षत्रिय होते हुए भी भगवान् श्रीकृष्णका एक व्यक्तिका सारथि बन जाना, उसके रथके घोड़े हाँकना कितने तिरस्कारकी बात है! घोड़े हाँकना क्या बड़ा काम है? क्या यह सम्मानकी बात है? परन्तु उनको ऐसा काम करनेमें शर्म नहीं आती। वे सम्मानके लायक हैं, इसलिये उनमें सम्मानकी इच्छा नहीं है। वे सम्मानके लायक हैं, इसका क्या पता? उधर सबसे पहले भीष्मजी शंख बजाते हैं और इधर सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्ण शंख बजाते हैं! कारण कि कौरवसेनामें सबसे मुख्य भीष्मजी हैं और पाण्डवसेनामें सबसे मुख्य भगवान् श्रीकृष्ण हैं।
जिसको सम्मानकी इच्छा रहती है, वह सम्मानका गुलाम है, सम्मानके लायक है ही नहीं। जिसको चेलेकी इच्छा रहती है, वह चेलेका गुलाम (चेला) है, गुरु है ही नहीं। जिसको धनकी इच्छा रहती है, वह धनका गुलाम है, धनका मालिक है ही नहीं। अत: इच्छाको मनसे निकाल ही देना चाहिये।
जीवात्माके लिये आया है—‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी॥’ (मानस ७। ११७। १) और ब्रह्मके लिये आया है—‘ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनँद रासी’ (मानस १। २३। ३)। अत: जो आनन्दराशि ब्रह्म है, उसीका साक्षात् अंश यह जीवात्मा है। दोनोंके समान लक्षण बताये गये हैं। ऐसा होते हुए भी जीव तुच्छ चीजोंकी चाहना करे, यह कितनी बेइज्जतीकी बात है! कितना बड़ा इसका पद है! कितना इसका अधिकार है! कितना इसका महत्त्व है! परन्तु तुच्छ चीजोंकी इच्छा करता है, उनके मिलनेसे राजी होता है, उन चीजोंसे अपनी इज्जत मानता है, बेइज्जतीमें इज्जत मानता है! कहाँ चली गयी अक्ल सारी? इसमें जितनी शंकाएँ हों, आप पूछो।
श्रोता—शंका तो कोई नहीं, पर सामने जो राजा-महाराजा दीखते हैं.........!
स्वामीजी—जो दीखता है, वह नाशवान् है। आप बताओ,कोई अविनाशी दीखता है क्या? सामने सब नाशवान्-ही-नाशवान् दीखता है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, धन-सम्पत्ति, राज्य, पद, अधिकार आदि जो कुछ भी दीखता है, चाहे इन्द्रासन ही क्यों न दीखता हो, वह सब-का-सब नाशवान् है।
श्रोता—महाराजजी! संगका असर पड़ता है। ऐसा कोई सामने देखनेमें नहीं आता, जो सम्मान न चाहता हो!
स्वामीजी—मैं कहता हूँ आप मान लो। दूसरेको देखनेकी जरूरत ही क्या है! यह बात तो आप तब कह सकते हैं कि किसीको भोजन करते देखकर आपको भूख लग जाय! अगर दूसरेको देखनेसे असर पड़ता है, तो दूसरेको भोजन करते देखकर भूख लगनी चाहिये और दूसरेको भोजन करते न देखकर भूख नहीं लगनी चाहिये। दूसरेको जल पीते देखकर प्यास लगनी चाहिये और दूसरेको जल पीते न देखकर प्यास नहीं लगनी चाहिये।
भेड़चाल संसार है, एक एक के लार।
भिष्टा पर भागी फिरे, कैसे हो उद्धार॥
यह तो भेड़चाल है कि दूसरा चाहे तो मैं चाहूँ। दूसरा नरकोंमें जाय, तो फिर आप भी नरकोंमें पधारो! क्या यह मनुष्यपना है? जिसके मनमें सम्मान आदिकी इच्छा है, उसकी कितनी इज्जत है और जिसके मनमें सम्मान आदिकी इच्छा नहीं है, उसकी कितनी इज्जत है यह आपको दीखता है कि नहीं? जिसके मनमें सम्मानकी, धनकी इच्छा नहीं है, जो कुछ भी नहीं चाहता, उसकी बेइज्जती हो सकती है क्या? ‘जिनको कछू न चाहिये, सो साहनपति साह’। लोग उसके आगे नतमस्तक हो जायँगे!
भगवान् श्रीराम हनुमान्जीसे कहते हैं कि तू धनिक है और मैं तेरा कर्जदार हूँ, तू मेरेसे खत लिखवा ले! जो ले तो ले, पर देनेके लिये पासमें हो नहीं, वही खत लिखवाया करता है। भगवान् कहते हैं कि हे हनुमान्! मैं तेरा बदला चुकानेमें असमर्थ हूँ, मैं दे नहीं सकता, इसलिये तू खत लिखवा ले। मैं तेरा कर्जदार हूँ। कर्जदार होनेमें कारण क्या है? भगवान् इसका स्पष्ट उत्तर देते हैं—
मदङ्गे जीर्णतां यातु यत् त्वयोपकृतं कपे।
नर: प्रत्युपकाराणामापत्स्वायाति पात्रताम्॥
(वाल्मीकि०, उत्तर० ४०।२४)
तुमने जो मेरा उपकार किया है, यह कर्जा मेरेपर ही रहने दे। मैं कर्जा उतारना नहीं चाहता। मैं तो सदा ही कर्जदार बना रहना चाहता हूँ। कारण कि जो उपकारका बदला चुकाना चाहता है, वह विपत्ति चाहता है कि इसपर विपत्ति आये तो मैं इसका उपकार करूँ, इसकी सहायता करूँ। तेरेको बाप घरसे निकाल दे, स्त्रीको राक्षस ले जाय, साथ देनेवाला कोई नहीं हो, तब मैं तेरी सहायता करूँ! अत: तेरेपर कभी विपत्ति आये ही नहीं और मैं सदा ही तेरा कर्जदार बना रहूँ! इस प्रकार अगर मनमें कोई भी चाहना न हो, तो भगवान् ऋणी हो जायँ! भगवान् शंकरने रामजीकी सेवा करनेके लिये हनुमान्जीका ही रूप धारण क्यों किया? उन्होंने सोचा कि सेवा करनेके लिये बन्दरके समान कोई नहीं हो सकता; क्योंकि उसको न रोटी चाहिये, न कपड़े चाहिये, न मकान चाहिये; कुछ भी नहीं चाहिये। पत्ते खा ले, वृक्षोंपर रहे और कपड़ोंकी जरूरत नहीं! छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा सब काम रामजीका करेंगे और लेंगे कुछ भी नहीं।
जब राक्षसोंने सबको मूर्च्छित कर दिया, तो सबसे पहले जाम्बवान् जगे। जाम्बवान्ने जगते ही पूछा कि हनुमान् जीवित हैं या नहीं! यह नहीं पूछा कि रामजी जीवित हैं या नहीं। कितनी विलक्षण बात है! हनुमान्जी जीवित हैं तो सब जी जायँगे, चिन्ताकी कोई बात नहीं। इस प्रकार सबके प्राण हनुमान्जीके अधीन हैं। परन्तु उनकी भी पोल बताऊँ आपको! जब हनुमान्जी संजीवनी लानेके लिये चले, तब उन्होंने अपने बलका बखान किया कि अभी लेकर आता हूँ—‘चला प्रभंजन सुत बल भाषी’ (मानस ६। ५६। १)। इससे क्या हुआ? रातके समय प्यास लग गयी और कालनेमि राक्षससे ठगे गये, फिर संजीवनीका पता नहीं लगा और संजीवनी ले आये तो भरतजीका बाण लगा! परन्तु दिनके समय लंकामें आग लगा दी, तब प्यास नहीं लगी! कारण क्या था? जब लंकामें गये तो पहले रघुनाथजीको याद किया—‘बार बार रघुबीर सँभारी’ (मानस ५।१।३)।
जब हनुमान्जी सीता माताके पास गये तो सामने फल लगे देखकर उनको भूख लगी। माँको देखते ही बालकोंको भूख लग जाया करती है! और माँको मनमें भी आ जाता है कि कुछ खिला दूँ। सीता माताने सोचा कि यह बालक है, इसको कोई राक्षस खा जायगा! इसलिये कहा कि ‘न बेटा, हाऊ खा जायगा!’ हनुमान्जीने कहा कि माँ! मेरेको राक्षसोंका भय नहीं है! अगर तुम सुख मानो, मनमें प्रसन्न हो जाओ तो फल खा लूँ—‘तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं’ (मानस ५। १७। ५)। फल भी खाना है, तो माँकी राजीके लिये! माँने कहा कि बेटा! रघुनाथजी महाराजको याद करके मीठे-मीठे फल खाओ—‘रघुपति चरन हृदय धरि तात मधुर फल खाहु’(मानस ५।१७)। हनुमान्जीने फल खाये और राक्षसोंको अच्छी तरहसे मसल दिया।
जब हनुमान्जी छिपकर लंकामें प्रवेश कर रहे थे तो लंकिनीने उनको देख लिया और रोक दिया। हनुमान्जीने उसको मुक्का मारा। लंकिनी बेचारी तो अपनी ड्यूटीपर पक्की थी, उसको मुक्का मार दिया, यह कोई न्याय है? अनजान आदमीको रोकना तो पहरेदारका कर्तव्य है। बीकानेरके राजा श्रीगंगासिंहजी महाराजकी एक बात मैंने सुनी है। एक बार वे मामूली आदमी बनकर पहरेदारके पास गये और कहा कि मुझे भीतर जाने दो। पहरेदारने मना कर दिया कि नहीं जाने देंगे। गंगासिंहजीने दो रुपये निकाले और कहा कि ये दो रुपये ले लो, मुझे भीतर जाने दो। पहरेदारने उनको जोरसे एक थप्पड़ लगाया! वे चुपचाप पीछे लौट गये। सुबह उस पहरेदारको बुलाया और कहा कि ‘अरे! इतनी जोरसे थप्पड़ मारा करते हैं क्या! तात्पर्य है कि यह पहरेदारका अधिकार है। गंगासिंहजी भी कुछ कह नहीं सके कि तुमने थप्पड़ कैसे मारा? उनके मनमें तो यह आया कि ऐसे ईमानदार आदमीको अच्छी जगहपर रखना चाहिये; मेरेसे गलती हुई कि ऐसे आदमीको मामूली पहरे पर रखा! परन्तु हनुमान्जीने लंकाकी पहरेदार लंकिनीको मुक्का मारा! कारण क्या था? लंकिनीने कहा कि चोर मेरा आहार होता है—‘मोर अहार जहाँ लगि चोरा’(मानस ५। ४। २)। इसपर हनुमान्जीने उसको मुक्का मारा कि अगर चोर तेरा आहार होता है तो तूने सीताजीको चुरानेवाले रावणको क्यों नहीं अपना आहार बनाया? इतनी जोरसे मुक्का मारा कि उसके मुखसे खून बहने लगा और वह कहती है कि आज सुख मिला!—
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख
धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि
जो सुख लव सतसंग॥
(मानस ५। ४)
कारण कि उसकी दृष्टि अपने शरीरकी तरफ नहीं है, प्रत्युत सत्संगसे होनेवाले लाभकी तरफ है।