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परमात्मप्राप्तिमें मुख्य बाधा—सुखासक्ति

(कोलकातामें ४-१-८६ को दिया हुआ प्रवचन)

आपका पक्‍का विचार हो जाय तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कठिन नहीं है, संसारका हृदयसे त्याग करना कठिन है। यह जो सुखासक्ति है—संयोगजन्य सुख है, आरामका सुख है, मानका सुख है, संग्रहका सुख है, मेरी बात रह जाय—यह अभिमानका सुख है, यही खास बाधा है। इसीका त्याग कठिन मालूम देता है। इसका त्याग करनेके बाद परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति सीधी ही है; क्योंकि परमात्मतत्त्व सबको प्राप्त है और उसमें बड़ा भारी आनन्द है। इस संयोगजन्य सुखका त्याग सुगमतासे कैसे हो? सुगमतासे इसका त्याग तब होता है, जब भीतरका भाव बदल जाय कि दूसरेको सुख कैसे हो? दूसरेका सम्मान कैसे हो? दूसरेकी प्रशंसा कैसे हो? दूसरेका हित कैसे हो?

श्रोता—भीतरका भाव कैसे बदले महाराजजी!

स्वामीजी—यह तो खुदके बदलनेसे बदलेगा भाई! भाव बदलना अपने हाथकी बात है। भाव ऐसे बदलो कि हमें सुख नहीं लेना है। भोजन करो, पर भोजनका सुख मत लो; कपड़ा पहनो, पर कपड़ेका सुख मत लो। नींद लो, पर नींदका सुख मत लो। कपड़ा ओढ़ो, पर ओढ़नेका सुख मत लो। संसारको देखो, पर देखनेका सुख मत लो। बात अच्छी-अच्छी सुनो, पर सुननेका सुख मत लो। अच्छा विचार करो, पर अच्छे विचारका सुख मत लो।

श्रोता—इनमें सुख मालूम देता है!

स्वामीजी—मालूम देता है, तभी तो भोगना नहीं है। सुख मालूम देना दोष नहीं है, उससे राजी होना दोष है। कोई आदमी हमारे अनुकूल हो जाय तो हम राजी हो जाते हैं कि यह आदमी बड़ा अच्छा है। अत: राजी होना और उस आदमीको अच्छा मानना—ये दो दोष आते हैं। कोई आदमी हमारा तिरस्कार करता है तो हमें दु:ख होता है और हम उस आदमीको खराब मान लेते हैं। अत: दु:खी होना और उस आदमीको खराब मानना—ये दो दोष आते हैं। सुख लेना और दु:खी होना—ये दोनों मुख्य बाधाएँ हैं। जो सुख देता है, उस आदमीको अच्छा मानते हैं तो अच्छा मानना दोष नहीं है, पर सुखके कारण अच्छा मानते हैं—यह दोष है। सुख लेना इतना दोष नहीं है, जितना सुखसे राजी होना दोष है।

सुख-दु:खका ज्ञान होना दो नहीं है, सुखी-दु:खी होना दोष है। भगवान‍्ने क्या सुन्दर कहा है—‘दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:’ (गीता २।५६)। दु:खका ज्ञान हो, पर मनमें उद्वेग न हो और सुखका ज्ञान हो, पर भीतरमें स्पृहा न हो तो बुद्धि स्थिर हो जायगी। देखो, यह ऐसी गहरी बात है कि जल्दी पता नहीं लगता है। हमें तो बहुत वर्षोंतक पता नहीं लगा, आपलोगोंकी आप जानें। हमारी ऐसी खोज रहती थी कि बाधा क्या है और क्यों है? सुनते हैं, समझते हैं, पढ़ते हैं, विचार करते हैं, फिर भी जैसी स्थिति होनी चाहिये, वैसी नहीं हो रही है, तो बाधा क्या है? यह बाधा यहाँ लगती है कि अनुकूलतामें हम राजी होते हैं और प्रतिकूलतामें हम नाराज होते हैं। राजी-नाराज होना, सुखी-दु:खी होना भोग है। जितने भी सम्बन्धजन्य भोग हैं, वे सब-के-सब दु:खोंके कारण हैं—‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते’ (गीता ५। २२)। सुखके भोगीको भयंकर दु:ख पाना पड़ेगा। कोई टाल नहीं सकता उसको। सुख अपनी मरजीसे भोगेंगे और दु:ख परवश होकर, पराधीन होकर भोगेंगे।

श्रोता—सुखकी आसक्ति कैसे छूटे?

स्वामीजी—मैंने पहले ही यह बात बतायी कि हम अपना भाव बदल दें कि दूसरेको सुख कैसे हो? उसका हित कैसे हो? उसका कल्याण कैसे हो? उसकी सद‍्गति कैसे हो? उसका सुधार कैसे हो? उसकी उन्नति कैसे हो?

श्रोता—भाव कैसे बदलेगा महाराजजी! गुरु-कृपासे या सत्संगसे?

स्वामीजी—यह स्वयंसे बदलेगा। दूसरी बात हमने सोच रखी है, वह है—सत्संग। सत्संगमें आपसमें ऐसे विचार होते रहें तो इससे बड़ा भारी लाभ होता है। जैसे, एक कमा करके धनी बनता है और एक धनीकी गोद चला जाता है। गोद जानेवालेको क्या जोर आता है? आज कँगला, कल लखपति! कमाया हुआ धन मिलता है। ऐसे ही सत्संगके द्वारा कमाया हुआ धन मिलता है। जिन लोगोंने साधन किया है, विचार किया है और अपने साधनमें ऊँचे बढ़े हैं, उनको इसमें कितने वर्ष लगे हैं! परन्तु वे अपनी बात हमें बता दें तो हमारेको कमाया हुआ धन मिल गया न?

श्रोता—महाराजजी! सत्संग हमेशा मिलता नहीं है।

स्वामीजी—तो जब मिलता हो, तब पकड़ो। सत्संगके विषयमें हमने एक बहुत मार्मिक बात पढ़ी है कि सत्संग एक बार ही होता है, दो बार होता ही नहीं। दो बार सुनना होता है, चर्चा होती है, चिन्तन होता है, क्रिया होती है। सत्-क्रिया, सत्-चिन्तन, सत्-श्रवण, सत्-कथन! ये बार-बार होते हैं, पर सत् का संग एक बार ही होता है। एक बार हो जायगा तो वह सदाके लिये हो जायगा और उस एक बारके लिये ही बार-बार करना है।

अपने सत्-स्वरूपका एक बार बोध हो गया तो हो ही गया। आँख खुल गयी तो खुल ही गयी। क्या नींदसे जगनेके लिये अभ्यास करना पड़ता है? अभ्याससे भी कल्याण होता है, पर देरीसे होता है। परन्तु ज्ञान (बोध) होनेसे, मान लेनेसे अथवा त्याग करनेसे तत्काल कल्याण होता है। बोधका, मान्यताका और त्यागका कभी टुकड़ा नहीं होता। ये एक ही साथ होते हैं पड़ाकसे!

जैसे विवाह होनेपर स्त्रीको अपनी माननेके लिये आपको अभ्यास नहीं करना पड़ता, उद्योग नहीं करना पड़ता। केवल दृढ़तासे मान लेते हो कि मेरी स्त्री है। ऐसे ही गुरु बनाते हो तो उसमें भी मान्यता होती है। इसी तरह ‘भगवान् हमारे हैं’ ऐसी दृढ़ मान्यता हो जाय। जैसे स्त्रीको जँच जाता है कि मेरा पति है और पतिको जँच जाता है कि मेरी स्त्री है, इससे भी बढ़कर जँचना चाहिये कि भगवान् मेरे हैं। पति-पत्नीका भाव तो अपना बनाया हुआ है, पर हम परमात्माके हैं—यह अपना बनाया हुआ नहीं है, प्रत्युत स्वत:सिद्ध है। केवल इस तरफ ध्यान देना है कि ओहो! हम तो परमात्माके हैं! जैसे अर्जुनने कहा—‘नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा’(गीता १८। ७३), मोह नष्ट हो गया और याद आ गयी! याद आ गयी—यह नया ज्ञान नहीं है, नया सम्बन्ध नहीं है। भगवान‍्के सम्बन्धकी याद आ गयी तो यह पति-पत्नीके सम्बन्धकी अपेक्षा भी दृढ़ है; क्योंकि पति-पत्नीका सम्बन्ध तो मान्यता होकर आरम्भ हुआ है, पहले सम्बन्ध था नहीं। जिस समय विवाह होता है उस समय यह सम्बन्ध आरम्भ होता है। परन्तु भगवान‍्के साथ हमारा सम्बन्ध आरम्भ नहीं होता। यह तो सदासे ही है। केवल इस सम्बन्धको मान लेना है, बस। इसमें देरीका काम नहीं है। जिस दिन इसको मान लिया, उस दिन सत्संग हो गया,सत् का संग हो गया! इसमें बाधा यह है कि हम जिन पदार्थोंको नाशवान् मानते हैं, उनको अपना मान लेते हैं। यह गलती है। इस गलतीको मिटानेमें जोर पड़ता है। परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति तो सुगम है, पर संसारका त्याग करनेमें जोर पड़ता है। जिनको हम नाशवान् जानते हैं, उनका ही संग्रह करते हैं। उनसे ही सुख लेते हैं—यह जो हमारी चाल है न, यह चाल खतरनाक है। यह चाल बदलनी चाहिये। चालमें भी केवल भीतरका भाव बदलना है कि औरोंको सुख कैसे हो? यह भले ही घरसे शुरू कर दो कि माता, पिता, स्त्री, पुत्र, परिवारको सुख कैसे हो? पर साथ-साथ उनसे सुख लेनेकी आशा छोड़ दो। जिससे सुख मिलनेकी आशा नहीं है, उसको सुख नहीं पहुँचाते और जिसको सुख पहुँचाते हैं उससे सुख लेनेकी आशा रहती है—यह है खास बन्धन। इसलिये सुखकी आशा न रखकर दूसरोंको सुख देना है, दूसरोंको आराम देना है, दूसरोंकी बात रखनी है। अपनी बात रखोगे तो बड़ी भारी आफत हो जायगी। मेरी बात रहे—इसीमें बन्धन है।

हम जो नाशवान् पदार्थोंसे राजी होते है; जानते हैं कि ये रहेंगे नहीं, टिकेंगे नहीं,फिर भी उसमें रस लेते हैं, यहींसे बन्धन होता है।

श्रोता—महाराजजी! हमारी तो आदत ही ऐसी पड़ गयी सुख लेनेकी!

स्वामीजी—भैया! आदत छोड़नेके लिये ही तो हम यहाँ इकट्ठे हुए हैं। यहाँ कौन-से पैसे मिलते हैं! आदत सुधारनेके समान कोई उन्नति है ही नहीं। अपने स्वभावको शुद्ध बना लेनेके समान आपका कोई पुरुषार्थ नहीं है। इसके समान कोई लाभ नहीं है। आपका पुरुषार्थ, उद्योग, प्रयत्न इसीमें होना चाहिये कि स्वभाव सुधरे। स्वभाव ही सुधरता है और क्या सुधरता है बताओ? जो सन्त-महात्मा होते हैं, उनका भी स्वभाव ही सुधरता है। शरीरमें फर्क नहीं पड़ता, स्वभावमें फर्क पड़ता है। इसलिये अपनी आदत है, अपना स्वभाव है, अपनी प्रकृति है, इसको हमें शुद्ध करना है। इसमें जो-जो अशुद्धि आये, उसको निकालना है। यह एक ही खास काम करना है।

यह याद कर लो कि अपना स्वभाव सुधारनेमें हम स्वतन्त्र हैं, पराधीन नहीं हैं। इसको दूसरा कोई कर देगा—यह बात नहीं है। यह तो आप ही करोगे, तब होगा। जब कभी करोगे तो आपको ही करना पड़ेगा। आपने प्रश्न किया था कि यह गुरु-कृपासे होगा या संत-कृपासे होगा, तो इस विषयमें आपको एक मार्मिक बात बताता हूँ। अगर गुरु-कृपासे होगा तो गुरुको आप मानोगे, तब होगा। अगर संत-कृपासे होगा तो संतको आप मानोगे, तब होगा। अन्तमें बात आपके ऊपर ही आयेगी। आप मानोगे, तब होगा। ईश्वरकी कृपा तो सदासे है, पर आप मानोगे, तब वह काम करेगी। इसलिये गीतामें कहा गया है कि अपने-आपसे अपना उद्धार करे—‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ (६। ५)। आपके माने बिना गुरु क्या करेगा? हम गुरु मानेंगे, संत-महात्मा मानेंगे, तभी वे कृपा करेंगे।

भगवान‍्के रहते हुए हम दु:ख क्यों पा रहे हैं? भगवान‍्में तीन बातें हैं—वे सर्वज्ञ हैं, दयालु हैं और सर्वसमर्थ हैं। ये तीनों बातें याद कर लें और इनका मनन करें। सर्वज्ञ होनेसे वे हमारे दु:खको जानते हैं। दयालु होनेसे वे हमारा दु:ख नहीं देख सकते, दु:ख देख करके पिघल जाते हैं। सर्वसमर्थ होनेसे वे हमारे दु:खको मिटा सकते हैं। इन तीनों बातोंमेंसे एक भी बात कम हो तो मुश्किल होती है जैसे—दयालु हैं, पर हमारे दु:खको जानते नहीं और दयालु हैं तथा हमारे दु:खको भी जानते हैं, पर दु:ख दूर करनेकी सामर्थ्य नहीं! परन्तु तीनों बातोंके मौजूद रहते हुए हम दु:खी होते हैं, यह बड़े आश्चर्यकी बात है!

एक कायस्थ सज्जन थे। उन्होंने मेरेसे कहा कि क्या करें, मेरी लड़की बड़ी हो गयी, पर सम्बन्ध हुआ नहीं। मैंने कहा कि अभी एक तुम चिन्ता करते हो, ज्यादा करोगे तो हम दोनों चिन्ता करने लग जायँगे, दोनों रोने लग जायँगे, इससे ज्यादा क्या करेंगे? ज्यादा दया आ जायगी तो हम भी रोने लग जायँगे और हम क्या कर सकते हैं? हमारे पास पैसा नहीं, हमारे पास सामर्थ्य नहीं! ऐसे ही भगवान‍्को दया आ जाय और सामर्थ्य न हो तो वे रोने लग जायँगे और क्या करेंगे? परन्तु वे सर्वसमर्थ हैं, सर्वज्ञ हैं और दयालु हैं, दयासे द्रवित हो जाते हैं। इन तीनों बातोंके रहते हुए हम दु:खी क्यों हैं? इसमें कारण यह है कि हम इनको मानते ही नहीं, फिर भगवान् क्या करें, बताओ?

श्रोता—अपनी ही कमी है महाराजजी!

स्वामीजी—अपनी कमी तो अपनेको ही दूर करनी पड़ेगी, चाहे आज कर लो, चाहे दिनोंके बाद कर लो, चाहे महीनोंके बाद कर लो, चाहे वर्षोंके बाद कर लो, चाहे जन्मोंके बाद कर लो, यह आपकी मरजी है! जब आप दूर करना चाहो, कर लो। चाहे अभी दूर कर लो, चाहे अनन्त जन्मोंके बाद।

संसारको तो अपना मान लिया और भगवान‍्को अपना नहीं माना—यह बाधा हुई है मूलमें। अत: भगवान‍्को अपना मान लो—‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’। आप भगवान‍्को तो अपना मान लेते हो, पर ‘दूसरो न कोई’ इसको नहीं मानते। इसको माने बिना अनन्यता नहीं होती। अनन्य चित्तवाले मनुष्यके लिये भगवान् सुलभ हैं—अनन्यचेता: सततं.... तस्याहं सुलभ: पार्थ’(गीता ८। १४)। शर्त यही है कि अन्य किसीको अपना न माने। ‘एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की’ (मानस ३। १०। ४)। भगवान‍्के सिवाय दूसरा कोई सहारा न हो, प्यारा न हो, गति न हो, तो वह भगवान‍्को प्यारा लगता है। अत: अनन्य भावसे भगवान‍्को अपना मान लो। यह हमारे हाथकी बात है, हमारेपर निर्भर है। बातें सुनना, शास्त्र पढ़ना आदि इसमें सहायक है, पर करना अपनेको ही पड़ता है।

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