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(९) आत्मनिवेदन-भक्ति

श्रीभगवान् के तत्त्व, रहस्य, प्रभाव और महिमाको जानकर ममता और अहंकाररहित होकर सब कुछ भगवान‍्का ही समझते हुए तन-मन-धन-जनसहित अपने-आपको तथा सम्पूर्ण कर्मोंको श्रद्धा और परम प्रेमपूर्वक भगवान‍्को समर्पण कर देना ‘आत्मनिवेदनभावरूप भक्ति’ है।

भरतजीमें आत्मनिवेदनका भाव भी कम नहीं था; क्योंकि वेअपनेको भगवान‍्के अर्पित ही समझते थे। तुलसीकृत रामायणमें भरतजी विलाप करते हुए कैकेयीके सामने पिताको लक्ष्य कर कहते हैं—

चलत न देखन पायउँ तोही।
तात न रामहि सौंपेहु मोही॥

इसी प्रकार अध्यात्मरामायणमें भी कहा है—

हा तात क्व गतोऽसि त्वं त्यक्त्वा मां वृजिनार्णवे॥
असमर्प्यैव रामाय राज्ञे मां क्व गतोऽसि भो:।
(अध्यात्म०, अयोध्या० ७। ६६-६७)

‘हा तात! मुझे दु:ख-समुद्रमें छोड़कर आप कहाँ चले गये? हाय! महाराज रामको मुझे समर्पण किये बिना ही आप कहाँ चले गये?’

भरतजीके इस पश्चात्तापसे यह सिद्ध होता है कि वे अपने-आपको श्रीरामके समर्पित ही समझा करते थे।

इसके अतिरिक्त भरतजी ‘जो कुछ भी राज्य और धन है, वह सब श्रीरघुनाथजी महाराजका ही है, मैं भी उनका ही हूँ, अत: इन सबको उनके समर्पण करके उनकी सेवा करूँगा’—इस भावको हृदयमें रखकर चित्रकूट गये। वहाँ उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीको लौटानेकी अनुनय-विनयपूर्वक बहुत चेष्टा की, परंतु श्रीरामचन्द्रजीने किसी प्रकार भी वापस लौटना स्वीकार नहीं किया और भरतको ही राज्यशासनके लिये बाध्य किया। ‘महाराज रामकी आज्ञाका पालन करना ही तुम्हारा परम धर्म है’—गुरु वसिष्ठजीकी ऐसी सम्मति होनेके कारण भरतजीने भगवान‍्के स्थानमें भगवान‍्की चरणपादुकाओंको आश्रय बनाकर उनके प्रति ही समस्त राज्यको और अपने-आपको समर्पण कर दिया। चौदह वर्षकी अवधि बीतनेपर भगवान‍्के अयोध्या पधारनेपर धरोहररूपसे रखा हुआ भगवान‍्का राज्य भगवान‍्को सौंप दिया और अपना शरीर भी भगवान‍्के चरणोंमें अर्पण कर दिया। भरतजी भगवान‍्की शरणमें ही अपना परम कल्याण मानकर आजीवन उनकी आज्ञाका पालन करते रहे। राज्यके किसी भी पदार्थकी तो बात ही क्या, अपने शरीरमें भी वे अपना अधिकार नहीं समझते थे। वे केवल भगवान‍्को ही अपना सर्वस्व मानकर केवल उन्हींपर निर्भर रहा करते थे। इसके लिये रामायण आदि सब शास्त्र प्रमाण हैं। इस विषयमें नीचे कुछ प्रमाणोंका दिग्दर्शन कराया जाता है—

भरतजी भरद्वाजजीसे कहते हैं—

मम राज्येन किं स्वामिन् रामे तिष्ठति राजनि।
किङ्करोऽहं मुनिश्रेष्ठ रामचन्द्रस्य शाश्वत:॥
अतो गत्वा मुनिश्रेष्ठ रामस्य चरणान्तिके।
पतित्वा राज्यसम्भारान् समर्प्यात्रैव राघवम्॥
.............................................
नेष्येऽयोध्यां रमानाथं दास: सेवेऽतिनीचवत्॥
(अध्यात्म०, अयोध्या० ८। ४९-५१)

‘स्वामिन्! महाराज रामके रहते हुए मुझे राज्यसे क्या प्रयोजन है? मुनिश्रेष्ठ! मैं तो सदा ही श्रीरामचन्द्रजीका दास हूँ। अत: मुनिनाथ! मैं श्रीरामके पास जाकर उनके चरणकमलोंमें पड़कर यह सारी राजपाटकी सामग्री उन्हें यहीं सौंपकर लक्ष्मीपति श्रीरामको अयोध्या ले आऊँगा और अति तुच्छ दासकी भाँति उनकी सेवा करूँगा।’

आत्मसमर्पणका भाव व्यक्त करते हुए भरतजी श्रीरामचन्द्रजीसे कह रहे हैं—

कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी।
बोले पानि पंकरुह जोरी॥
नाथ भयउ सुखु साथ गए को।
लहेउँ लाहु जग जनमु भए को॥
अब कृपाल जस आयसु होई।
करौं सीस धरि सादर सोई॥
सो अवलंब देव मोहि देई।
अवधि पार पावौं जेहि सेई॥

नन्दिग्राममें निवास करते समय वे मन्त्रियोंसे बता रहे हैं—

ततो निक्षिप्तभारोऽहं राघवेण समागत:।
निवेद्य गुरवे राज्यं भजिष्ये गुरुवर्तिताम्॥
राघवाय च संन्यासं दत्त्वेमे वरपादुके।
राज्यं चेदमयोध्यां च धूतपापो भवाम्यहम्॥
(वा० रा०, अयोध्या० ११५। १९-२०)

‘श्रीरामचन्द्रजीका समागम होते ही उन महापुरुषकी सेवामें यह राज्य समर्पित कर देनेपर मेरा भार उतर जायगा और मैं उनकी आज्ञाके अधीन रहकर उन्हींकी सेवामें लग जाऊँगा। मेरे पास धरोहरके रूपमें रखी हुई इन उत्तम पादुकाओंको, इस राज्यको और अयोध्याको भी श्रीरामकी सेवामें समर्पित करके मैं सब प्रकारके पापोंसे मुक्त होकर विशुद्ध हो जाऊँगा।’

तदनन्तर भगवान‍्के अयोध्या लौटनेपर भरतजीने क्या किया, सो बतलाते हैं—

पादुके ते तु रामस्य गृहीत्वा भरत: स्वयम्।
चरणाभ्यां नरेन्द्रस्य योजयामास धर्मवित्॥
अब्रवीच्च तदा रामं भरत: स कृताञ्जलि:।
एतत् ते सकलं राज्यं न्यासं निर्यातितं मया॥
अद्य जन्म कृतार्थं मे संवृत्तश्च मनोरथ:।
(वा० रा०, युद्ध० १२७। ५४—५६)

‘फिर धर्मात्मा भरतजीने स्वयं ही हाथमें उनकी वे दोनों पादुकाएँ लेकर महाराज श्रीरामचन्द्रजीके पैरोंमें पहना दीं। उस समय भरतजीने हाथ जोड़कर श्रीरामचन्द्रजीसे निवेदन किया कि मेरे पास थाती रखा हुआ आपका यह समस्त राज्य आज मैंने आपको वापस सौंप दिया है, आज मेरा जन्म सफल हो गया एवं मेरा मनोरथ पूरा हुआ।’

अध्यात्मरामायणमें भी लगभग इसी तरहका प्रसंग आया है—

भरत: पादुके ते तु राघवस्य सुपूजिते।
योजयामास रामस्य पादयोर्भक्तिसंयुत:॥
राज्यमेतन्न्यासभूतं मया निर्यातितं तव।
अद्य मे सफलं जन्म फलितो मे मनोरथ:॥
(युद्ध० १४। ९३-९४)

‘तत्पश्चात् भरतजीने श्रीरामचन्द्रजीकी उन भलीभाँति पूजा की हुई पादुकाओंको भक्तिपूर्वक श्रीरामके ही चरणोंमें पहना दिया और कहा—प्रभो! मुझे धरोहररूपसे दिये हुए आपके इस राज्यको मैं पुन: आपको ही सौंपता हूँ; आज मेरा जन्म कृतार्थ हो गया और मेरी सारी मनोकामनाएँ पूरी हो गयीं।’

महाभारतमें भी बतलाया है—

तस्मै तद् भरतो राज्यमागतायातिसत्कृतम्।
न्यासं निर्यातयामास युक्त: परमया मुदा॥
(वन० २९१। ६५)

‘भरतजीने वह धरोहररूपमें रखा हुआ राज्य वनसे लौटकर आये हुए उन श्रीरामचन्द्रजीको बड़े ही हर्षसे अत्यन्त सत्कारपूर्वक सौंप दिया।’

वस्तुत: भरतजीका समस्त जीवन ही मूर्तिमान् आत्मसमर्पण है। उनके सारे कार्य श्रीरामके लिये ही होते थे। रामकी प्रीति और प्रसन्नता ही उनके जीवनका मुख्य तथा नित्य लक्ष्य था; क्योंकि भरतजीमें नवधा भक्तिके सिवा प्रेमलक्षणा भक्ति भी पूर्णतया विद्यमान थी। वे प्रेमकी एक जीती-जागती मूर्ति ही थे। इसीसे भरद्वाज मुनिने कहा था—

तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू।
धरें देहु जनु राम सनेहू॥

इतना सब होनेपर भी भरतजी अपनेमें कोई गुण नहीं देख पाते। वे अपनेको विषयी, कपटी, कुटिल ही मानते हैं। असलमें आत्मनिवेदन वही सच्चा है, जहाँ निवेदनका अभिमान भी नहीं है। सब कुछ सहज ही समर्पित है और माना जाता है कि कुछ भी नहीं है। भरतजी ऐसे ही हैं।

भरतजीकी इस विलक्षण आत्मनिवेदन-भक्तिको आदर्श बनाकर चलनेवाले पुरुष धन्य हो सकते हैं।

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