अर्चन
श्रीविष्णोरर्चनं ये तु प्रकुर्वन्ति नरा भुवि।
ते यान्ति शाश्वतं विष्णोरानन्दं परमं पदम्॥
(विष्णुरहस्य)
‘जो लोग इस संसारमें श्रीभगवान्की अर्चा-पूजा करते हैं वे श्रीभगवान् के अविनाशी आनन्दस्वरूप परमपदको प्राप्त होते हैं।’
भगवान्के भक्तोंसे सुने हुए, शास्त्रोंमें पढ़े हुए, धातु आदिसे बनी मूर्ति या चित्रपटके रूपमें देखे हुए अपने मनको रुचनेवाले किसी भी भगवान्के स्वरूपका बाह्य सामग्रियोंसे, भगवान्के किसी भी अपनी अभिलषित स्वरूपकी मानसिक मूर्ति बनाकर मानसिक सामग्रियोंसे अथवा सम्पूर्ण भूतोंमें परमात्माको स्थित समझकर सबका आदर-सत्कार करते हुए यथायोग्य नानाविध उपचारोंसे श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उनका सेवन-पूजन करना और उनके तत्त्व, रहस्य तथा प्रभावको समझ-समझकर प्रेममें मुग्ध होना अर्चन-भक्ति है।
पत्र, पुष्प, चन्दन आदि सात्त्विक, पवित्र और न्यायोपार्जित द्रव्योंसे भगवान्की प्रतिमाका श्रद्धापूर्वक पूजन करना, भगवान्की प्रीतिके लिये शास्त्रोक्त यज्ञादि करना, सबको भगवान्का स्वरूप समझकर अपने वर्णाश्रमके अनुसार उनकी यथायोग्य सेवा करना तथा सत्कार, मान, पूजा आदिसे सन्तुष्ट करना और दु:खी, अनाथ, अपंग, पीड़ित प्राणियोंमें—भूखोंकी अन्नसे, प्यासोंकी जलसे, वस्त्रहीनोंकी वस्त्रादिसे, रोगियोंकी औषधादिसे, अनाथोंकी आश्रयदानसे यथावश्यक यथाशक्ति श्रद्धा और सत्कारपूर्वक सबको भगवत्स्वरूप समझकर भगवत्प्राप्तिके लिये सेवा करना आदि सभी भगवान्की बाह्य पूजाके प्रकार हैं।
शास्त्रोंमें वर्णन किये हुए, अपने चित्तको अनायास ही आकर्षित करनेवाले भगवान्के किसी भी अलौकिक रूप-लावण्ययुक्त, अनन्त सौन्दर्य-माधुर्यमय परम तेजोमण्डित स्वरूपका प्रत्येक अवयव, वस्त्राभूषण, आयुधादिसे युक्त और हस्तपादादिके मंगलचिह्नोंसहित मनके द्वारा चिन्तन करके आह्लादपूर्वक मनमें उसका आवाहन, स्थापन और नानाविध मानसिक सामग्रियोंके द्वारा अत्यन्त श्रद्धा और प्रेमके साथ पूजन करना मानस-पूजाका प्रकार है।
भगवान्में अनन्य प्रेम होकर सबको उसकी प्राप्ति हो जाय, इस उद्देश्यसे परम श्रद्धापूर्वक स्वयं आचरण करना या करवाना इसका प्रयोजन है।
अर्चन-भक्तिका स्वरूप और तत्त्व जाननेके लिये भगवान्के परम प्रेमी भक्तोंका संग और सेवन करना चाहिये।
उपर्युक्त प्रकारसे भगवान्की पूजा करनेसे मनुष्य जो कुछ चाहता है, वही उसे मिल जाता है और सहज ही उसे भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। श्रीमद्भागवतमें कहा है—
स्वर्गापवर्गयो: पुंसां रसायां भुवि सम्पदाम्।
सर्वासामपि सिद्धीनां मूलं तच्चरणार्चनम्॥
(१०। ८१। १९)
‘श्रीभगवान्के चरणोंका अर्चन-पूजन करना जीवोंके स्वर्ग और मोक्षका एवं मर्त्यलोक और पाताललोकमें रहनेवाली समस्त सम्पत्तियोंका और सम्पूर्ण सिद्धियोंका भी मूल है।’
अपने-अपने कर्मोंके द्वारा भगवान्की पूजासे भगवत्प्राप्ति होती है, इस बातकी घोषणा स्वयं भगवान्ने गीतामें की है—
यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:॥
(१८। ४६)
‘जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धिको प्राप्त हो जाता है।’
इतना ही नहीं, परम श्रद्धा और प्रेमके साथ भगवान्की पूजा की जाय तो वे स्वयं अपने दिव्य मंगल-विग्रह स्वरूपमें प्रकट होकर भक्तके अर्पण किये हुए पदार्थोंको खाते हैं। भगवान् स्वयं कहते हैं—
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥
(९। २६)
‘जो कोई भक्त मेरे लिये पत्र, पुष्प, फल, जल आदि प्रेमसे अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुण रूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ।’
राजा पृथु, अम्बरीष आदि बहुतोंने विधिपूर्वक नाना उपचारोंसे और मन, इन्द्रियोंसे भगवान्की पूजा की और वे अनायास ही भगवान्को प्राप्त हो गये। इनकी तो बात ही क्या, नाना उपचारोंके बिना भी भक्तिपूर्वक पूजा करनेवाले सुदामाने केवल चावलोंकी कनियोंसे, गजेन्द्रने एक पुष्पसे, द्रौपदीने शाकपत्रसे भगवान्को पूजकर परम सिद्धि प्राप्त की। शबरी-जैसी हीन जातिकी स्त्री भी केवल बेरोंसे ही भगवान्को सन्तुष्ट कर परमपदको प्राप्त हो गयी।
अतएव भगवान्के प्रेममें विह्वल होकर श्रद्धापूर्वक अपनी-अपनी रुचि और भावनाके अनुसार भगवान्की पूजा करनी चाहिये।