गीता गंगा
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वन्दन

ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं
तीर्थास्पदं शिवविरिंचिनुतं शरण्यम्।
भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं
वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम्॥
(श्रीमद्भा० ११। ५। ३३)

‘हे पुरुषोत्तम! हे प्रभो! जो सर्वदा ध्यान करनेयोग्य हैं, तिरस्कारको नष्ट करनेवाले हैं, समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले हैं, जो तीर्थोंके आधार हैं, जिन्हें शिव और ब्रह्मा सिरसे नमस्कार करते हैं और जो शरणागतोंकी रक्षा करनेमें प्रवीण हैं, जो सेवकोंकी विपत्तिके नाशक हैं, नमस्कार करनेवालोंके रक्षक एवं संसार-सागरके जहाज हैं, तुम्हारे उन चरण-कमलोंकी मैं वन्दना करता हूँ।’

भगवान‍्के शास्त्रवर्णित स्वरूप, भगवान‍्के नाम, भगवान‍्की धातु आदिकी मूर्ति, चित्र अथवा मानसिक मूर्तिको शरीर अथवा मनसे श्रद्धासहित साष्टांग प्रणाम करना या समस्त चराचर भूतोंको परमात्माका स्वरूप समझकर श्रद्धापूर्वक शरीर या मनसे प्रणाम करना और ऐसा करते हुए भगवत्प्रेममें मुग्ध होना वन्दन-भक्ति है।

भगवान‍्के मन्दिरोंमें जाकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान‍्की मूर्तिको साष्टांग प्रणाम करना, अपने-अपने घरोंमें भगवान‍्की प्रतिमा या चित्रपटको, भगवान‍्के नामको, भगवान‍्के चरण और चरणपादुकाओंको, भगवान‍्के तत्त्व, रहस्य, प्रेम, प्रभाव और भगवान‍्की मधुर लीलाओंका जिनमें वर्णन हो, ऐसे सत्-शास्त्रोंको और सम्पूर्ण चराचर जीवोंको भगवान‍्का स्वरूप समझकर या उनके हृदयमें भगवान‍्को स्थित समझकर नियमपूर्वक श्रद्धाभक्तिसहित गद‍्गदभावसे प्रणाम करना वन्दन-भक्तिके प्रकार हैं। श्रीमद्भागवतमें योगीश्वर कवि कहते हैं—

खं वायुमग्निं सलिलं महीं च
ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन्।
सरित्समुद्रांश्च हरे: शरीरं
यत्किंच भूतं प्रणमेदनन्य:॥
(११। २। ४१)

‘आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, नक्षत्र, दिशाएँ और वृक्ष-लता आदि एवं नदियाँ, समुद्र और सम्पूर्ण भूतप्राणी भगवान‍्के शरीर हैं; अत: भगवान‍्का अनन्यभक्त यावन्मात्र जगत् को भगवद्भावसे प्रणाम करे।’

भगवान‍्को सर्वत्र और सब ओर समझकर उन्हें किस प्रकार प्रणाम करना चाहिये, इसके लिये अर्जुनका उदाहरण बड़ा सुन्दर है। अर्जुन भगवान‍्को नमस्कार करते हुए कहते हैं—

नम: पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं
सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्व:॥
(गीता ११। ४०)

‘हे अनन्त सामर्थ्यवाले! आपके लिये आगेसे और पीछेसे भी नमस्कार, हे सर्वात्मन्! आपके लिये सब ओरसे ही नमस्कार हो; क्योंकि अनन्त पराक्रमशाली आप सब संसारको व्याप्त किये हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं।’

श्रीतुलसीदासजी महाराज समस्त जगत् को ‘सीय-राममय’ देखकर प्रणाम करते हैं—

सीय राममय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥

भगवान‍्में अनन्य प्रेम होकर भगवान‍्को प्राप्त करना इस भक्तिका उद्देश्य है। भगवान‍्के प्यारे प्रेमी भक्तोंका संग और सेवन करके उनके द्वारा भगवान‍्की वन्दन-भक्तिका रहस्य, प्रभाव और तत्त्व समझनेसे इस वन्दन-भक्तिकी प्राप्ति होती है।

भगवान‍्के रहस्यको समझकर उन्हें प्रणाम करनेवाला सब दु:खोंसे छूट जाता है। मनुस्मृतिके वचन हैं—

न वासुदेवात्परमस्ति मंगलं
न वासुदेवात्परमस्ति पावनम्।
न वासुदेवात्परमस्ति दैवतं
तं वासुदेवं प्रणमन्न सीदति॥ १०१॥

‘भगवान् वासुदेवसे अधिक और कुछ मंगलमय नहीं है, वासुदेवसे अधिक और कुछ पावन नहीं है एवं वासुदेवसे श्रेष्ठ और कोई आराध्य देवता नहीं है, उन वासुदेवको नमस्कार करनेवाला कभी दु:खी नहीं होता।’

एकोऽपि कृष्णस्य कृत: प्रणामो
दशाश्वमेधावभृथेन तुल्य:।
दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म
कृष्णप्रणामी न पुनर्भवाय॥
(भीष्मस्तवराज ९१)

‘भगवान् श्रीकृष्णको किया हुआ एक भी प्रणाम दस अश्वमेधयज्ञोंके अवभृथस्नानके बराबर है, (इतना ही नहीं, विशेषता यह है कि) दस अश्वमेध करनेवालेको तो फिर जन्म लेना पड़ता है, किन्तु भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करनेवालेको फिर जन्म नहीं लेना पड़ता है।’

श्रद्धापूर्वक भगवान‍्को प्रणाम करनेवालेकी तो बात ही क्या है, किसी भी अवस्थामें भगवान‍्को प्रणाम करनेसे भी सब पापोंका नाश हो जाता है—

पतित: स्खलितश्चार्त: क्षुत्त्वा वा विवशो ब्रुवन्।
हरये नम इत्युच्चैर्मुच्यते सर्वपातकात्॥
(श्रीमद्भा० १२। १२। ४६)

‘पतित, स्खलित, आर्त, छींकता हुआ अथवा किसी प्रकारसे परवश हुआ पुरुष भी यदि ऊँचे स्वरसे ‘हरये नम:’ इस प्रकार बोल उठता है तो वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है।’

भगवान‍्के अनेकों भक्त इस प्रकार केवल नमस्कार करके ही परमपदको प्राप्त हो गये। देखिये, अक्रूरजी किस प्रकार मुग्ध होकर नमस्कार करते हैं—

रथात्तूर्णमवप्लुत्य सोऽक्रूर: स्नेहविह्वल:।
पपात चरणोपान्ते दण्डवद् रामकृष्णयो:॥
(श्रीमद्भा० १०। ३८। ३४)

‘अक्रूर प्रेमविह्वल होकर बड़ी शीघ्रताके साथ रथसे कूदकर भगवान् बलराम और श्रीकृष्णके चरणोंके पास दण्डवत् गिर पड़े।’

पितामह भीष्म गद‍्गद होकर भगवान‍्को नमस्कार करते हैं और भगवान् तत्काल ही उन्हें अपना दिव्य ज्ञान दे देते हैं। वैशम्पायन मुनि कहते हैं—

एतावदुक्त्वा वचनं भीष्मस्तद‍्गतमानस:।
नम इत्येव कृष्णाय प्रणाममकरोत्तदा॥
अभिगम्य तु योगेन भक्तिं भीष्मस्य माधव:।
त्रैलोक्यदर्शनं ज्ञानं दिव्यं दत्त्वा ययौ हरि:॥
(भीष्मस्तवराज १००-१०१)

‘जिनका मन भगवान‍्में तन्मय हो चुका है ऐसे भीष्मने अनेक प्रकारसे भगवान‍्की स्तुति करनेके बाद ‘नम: कृष्णाय’ इतना कहकर भगवान‍्को प्रणाम किया, तब भगवान् श्रीकृष्ण योगशक्तिद्वारा भीष्मकी भक्तिको समझकर उसे त्रिलोकीको (भगवत्स्वरूपसे) प्रत्यक्ष करनेवाला दिव्य ज्ञान देकर चले गये।’

अतएव श्रीभगवान‍्के प्रेममें विभोर होकर उपर्युक्त प्रकारसे भगवान‍्की वन्दना-भक्ति करनेकी प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये।

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