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आत्मनिवेदन

वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायण:।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम्॥
(वि० स० १३०)

‘जिस मनुष्यने भगवान् वासुदेवका आश्रय लिया है और जो उन्हींके परायण है, उसका अन्त:करण सर्वथा शुद्ध हो जाता है एवं वह सनातन ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है।’

परमात्माके तत्त्व, रहस्य, प्रभाव और महिमाको समझकर, ममता और अहंकाररहित होकर अपने तन-मन-धन-जनसहित अपने-आपको और सम्पूर्ण कर्मोंको श्रद्धा और परम प्रेमपूर्वक परमात्माको समर्पण कर देना आत्म-निवेदन भक्ति है।

लाभ-हानि, जय-पराजय, यश-अपयश, मान-अपमान, सुख-दु:ख आदिकी प्राप्तिमें, उन्हें भगवान‍्का भेजा हुआ पुरस्कार मानकर प्रसन्न रहना; तन-धन, स्त्री-पुत्र आदि सभीमें ममता और अहंकारका अभाव हो जाना; भगवान् यन्त्री हैं और मैं उनके हाथका यन्त्र हूँ ऐसा निश्चय करके कठपुतलीकी भाँति भगवान‍्के इच्छानुकूल ही सब कुछ करना; भगवान‍्के रहस्य और प्रभावको जाननेके लिये उनके नाम, रूप, गुण, लीलाके श्रवण, मनन, कथन, अध्ययन और चिन्तनादिमें श्रद्धा-भक्तिपूर्वक तन-मन आदिको लगा देना; इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि सभीपर एकमात्र भगवान‍्का ही अधिकार समझना; भगवान‍्की ही वस्तु भगवान‍्के अर्पण की गयी है ऐसा भाव होना; जिस किसी भी प्रकारसे भगवान‍्की सेवा बनती रहे इसीमें आनन्द मानना; सब कुछ प्रभुके अर्पण करके स्वाद, शौक, विलास, आराम, भोग आदिकी इच्छाका सर्वथा अभाव हो जाना; सर्वत्र-सर्वदा और सर्वथा एक भगवान‍्का ही अनुभव करना, भगवान‍्की इच्छाके अतिरिक्त स्वतन्त्र कोई इच्छा न करना; भगवान‍्के भरोसेपर सदा निर्भय, निश्चिन्त और प्रसन्न रहना; और भगवान‍्की भक्तिको छोड़कर मुक्तिकी भी इच्छा न होना आदि सभी इस आत्मनिवेदन भक्तिके प्रकार हैं।

भगवान् में अनन्य परम प्रेम और भगवान‍्की प्राप्तिके लिये यह आत्मनिवेदन-भक्ति की जाती है।

भगवान् के शरणागत प्रेमी भक्तोंका संग-सेवन करनेसे और उनके द्वारा भगवान‍्के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, तत्त्व, महिमा आदिका श्रवण और मनन करनेसे यह भक्ति प्राप्त होती है।

भगवान् ने स्वयं इस आत्मनिवेदनरूपा शरणभक्तिका महत्त्व प्रकट करते हुए इसके परम फलकी गीतामें बड़ी प्रशंसा की है। आप कहते हैं—

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
(७। १४)

‘क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं, यानी मेरी शरण आते हैं वे इस मायाको उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसारसे तर जाते हैं।’

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥
(९। ३२)

‘हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य और शूद्र तथा पापयोनि—चाण्डालादि जो कोई भी हों वे भी मेरे शरण होकर परम गतिको ही प्राप्त होते हैं।’

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥
(९। ३४)

‘केवल मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मामें ही अनन्यप्रेमसे नित्य-निरन्तर अचल मनवाला हो और मुझ परमेश्वरको ही श्रद्धाप्रेमसहित निष्कामभावसे नाम, गुण और प्रभावके श्रवण, कीर्तन, मनन और पठन-पाठनद्वारा निरन्तर भजनेवाला हो तथा मन, वाणी और शरीरके द्वारा सर्वस्व अर्पण करके अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमसे विह्वलतापूर्वक मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझ सर्वशक्तिमान्, विभूति, बल, ऐश्वर्य, माधुर्य, गम्भीरता, उदारता, वात्सल्य और सुहृदता आदि गुणोंसे सम्पन्न सबके आश्रयरूप वासुदेवको विनयभावपूर्वक, भक्तिसहित साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर, इस प्रकार मेरे शरण हुआ तू आत्माको मेरेमें एकीभाव करके मेरेको ही प्राप्त होवेगा।’

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
(१८। ६२)

‘हे भारत! तू सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही शरणमें जा। उस परमात्माकी कृपासे ही तू परम शान्तिको तथा सनातन परम धामको प्राप्त होगा।’

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(१८। ६६)

‘सर्व धर्मोंको अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंको मुझमें त्याग कर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार परमेश्वरकी ही शरणमें आ जा, मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।’

इस प्रकार जो पुरुष भगवान‍्के प्रति आत्मनिवेदन कर देता है उसके सम्पूर्ण अवगुण, पाप और दु:खोंका अत्यन्त नाश हो जाता है और उसमें श्रवण-कीर्तनादि सभी भक्तियोंका विकास हो जाता है। उसके आनन्द और शान्तिका पार नहीं रहता। भगवान् उससे फिर कभी अलग नहीं हो सकते। भगवान‍्का सर्वस्व उसका हो जाता है। वह परम पवित्र हो जाता है; उसके दर्शन, भाषण और चिन्तनसे भी पापात्मा लोग पवित्र हो जाते हैं। वह तीर्थोंके लिये तीर्थरूप बन जाता है। महाराज परीक्षित् श्रीशुकदेवजीसे कहते हैं—

सांनिध्यात्ते महायोगिन् पातकानि महान्त्यपि।
सद्यो नश्यन्ति वै पुंसां विष्णोरिव सुरेतरा:॥
(श्रीमद्भा० १। १९। ३४)

‘जैसे भगवान् विष्णुके सान्निध्यमात्रसे तुरंत दैत्योंका नाश हो जाता है वैसे ही हे महायोगिन् शुकदेव! आपके सान्निध्यमात्रसे बड़े-से-बड़े पापसमूह नष्ट हो जाते हैं।’

धर्मराज युधिष्ठिर श्रीविदुरजीसे कहते हैं—

भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्त:स्थेन गदाभृता॥
(श्रीमद्भा० १।१३।१०)

‘भगवन्! आप-जैसे भगवद्भक्त स्वयं तीर्थस्वरूप हैं, वे अपने हृदयमें स्थित भगवान‍्के द्वारा तीर्थोंको तीर्थ बनाते हैं।’ प्रचेतागण भगवान‍्की स्तुति करते हुए कहते हैं—

तेषां विचरतां पद्‍भ्यां तीर्थानां पावनेच्छया।
भीतस्य किं न रोचेत तावकानां समागम:॥

‘जो तुम्हारे भक्त तीर्थोंको पावन बनानेके लिये भूतलपर विचरते रहते हैं, भला, संसारसे भयभीत हुए किस मनुष्यको उनका समागम न रुचेगा।’

श्रीशुकदेवजी महाराज भगवान‍्की स्तुति करते हुए कहते हैं—

किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कसा
आभीरकंका यवना: खसादय:।
येऽन्ये च पापा यदुपाश्रयाश्रया:
शुद्‍ध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नम:॥
(श्रीमद्भा० २। ४। १८)

‘जिनके आश्रित भक्तोंका आश्रय लेकर किरात, हूण, आन्ध्र, भील, कसाई, आभीर, कंक, यवन, खस आदि तथा अन्य बड़े-से-बड़े पापी भी शुद्ध हो जाते हैं उन भगवान‍्के चरणोंमें नमस्कार है।’

भगवान् के प्रेमका मूर्तिमान् विग्रह बने हुए ऐसे भक्तको सारा संसार परम प्रेममय और परम आनन्दमय प्रतीत होने लगता है। वह जिस मार्गसे जाता है उसी मार्गमें श्रद्धा, प्रेम, भक्ति, आनन्द, समता और शान्तिका प्रवाह बहने लगता है। ऐसे भक्तको अपने ऊपर धारण कर धरणी धन्य और सनाथ होती है, पितरगण प्रमुदित हो जाते हैं और देवता नाचने लगते हैं।

मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवता: सनाथा चेयं भूर्भवति॥
(नारदभक्तिसूत्र ७१)

श्रीगोपियाँ, महाराजा बलि आदि इस आत्मनिवेदन भक्तिके परम भक्त हुए हैं।

इसलिये मनुष्यमात्रको मन, वाणी, शरीरसे, सब प्रकारसे श्रीभगवान् के शरण होनेके लिये कटिबद्ध होकर प्रयत्न करना चाहिये।

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