उपसंहार
भगवान् को प्राप्त करनेके लिय कर्म, योग, ज्ञान, सभी मार्ग उत्तम हैं, परन्तु भक्तिकी तो शास्त्रोंमें बड़ी ही प्रशंसा की गयी है। नवधा भक्तिमेंसे जिनमें एक भी भक्ति होती है वह संसारसागरसे अनायास तरकर भगवान्को पा जाता है, फिर प्रह्लादकी भाँति जिनमें नवों भक्तियोंका विकास है उनका तो कहना ही क्या है। ऊपर नवों भक्तियोंके वर्णनमें जिन-जिन भक्तोंके नाम उदाहरणमें दिये गये हैं उनमें केवल एक ही भक्तिका विकास था ऐसी बात नहीं है। जिनमें जिस भावकी प्रधानता थी उनका उसीमें नाम लिखा गया है। दुबारा नाम न आनेका भी खयाल रखा गया है। वस्तुत: वे लोग धन्य हैं जो भगवान्की भक्तिमें अपना मन लगाते हैं और वह कुल धन्य है जिसमें भगवान्के भक्त उत्पन्न होते हैं। भगवान् श्रीशिवजी पार्वतीसे कहते हैं—
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत॥
श्रीमद्भागवतमें श्रवणादि भक्तिकी महिमामें कहा है—
शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णश:
स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जना:।
त एव पश्यन्त्यचिरेण तावकं
भवप्रवाहोपरमं पदाम्बुजम्॥
(१। ८। ३६)
‘जो लोग बारंबार तुम्हारे चरित्रोंका श्रवण, गायन, वर्णन एवं स्मरण करते हैं और आनन्दमग्न होते रहते हैं वे ही शीघ्रातिशीघ्र संसारके प्रवाहको शान्त कर देनेवाले आपके चरणकमलोंका दर्शन पाते हैं।’
यत्कीर्तनं यत्स्मरणं यदीक्षणं
यद्वन्दनं यच्छ्रवणं यदर्हणम्।
लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषं
तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नम:॥
(२। ४। १५)
‘जिनका कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण एवं पूजन लोगोंके समस्त पापोंको तुरंत धो डालता है उन कल्याणमयी कीर्तिवाले भगवान्को बारंबार नमस्कार है।’
देवराज इन्द्र कहते हैं—
यस्य भक्तिर्भगवति हरौ नि:श्रेयसेश्वरे।
विक्रीडतोऽमृताम्भोधौ किं क्षुद्रै: खातकोदकै:॥
(श्रीमद्भा० ६। १२। २२)
‘परम कल्याणके स्वामी भगवान् श्रीकृष्णमें जिनका प्रेम है वे तो अमृतके समुद्रमें क्रीड़ा कर रहे हैं, उन्हें तुच्छ विषयरूप गड्ढेके जलोंसे क्या प्रयोजन है?’
भगवान् स्वयं अपनी तरन-तारिनी भक्तिकी प्रशंसा करते हुए उद्धवजीसे कहते हैं—
न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता॥
भक्त्याहमेकया ग्राह्य: श्रद्धयाऽऽत्मा प्रिय: सताम्।
भक्ति: पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात्॥
धर्म: सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता।
मद्भक्त्यापेतमात्मानं न सम्यक् प्रपुनाति हि॥
वाग्गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति॥
(श्रीमद्भा० ११। १४। २०—२२,२४)
‘हे उद्धव! मैं जिस प्रकार अनन्य भक्तिसे प्रसन्न होता हूँ उस प्रकार योग, सांख्य, धर्म, स्वाध्याय, तपस्या, त्याग आदिसे प्रसन्न नहीं होता। संतोंका परम प्रिय आत्मारूप मैं एकमात्र श्रद्धा-भक्तिसे ही प्रसन्न होता हूँ। मेरी भक्ति जन्मत: चाण्डालोंको भी पवित्र कर देती है। मेरी भक्तिसे रहित जीवको सत्य और दया आदिसे युक्त धर्म तथा तपस्यायुक्त विद्या भी पूर्णत: पवित्र नहीं कर सकती।’
‘जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीलाका वर्णन करती-करती गद्गद हो जाती है, जिसका चित्त मेरे रूप, गुण, प्रभाव और लीलाओंको याद करते-करते द्रवित हो जाता है, जो बार-बार रोता रहता है और कभी-कभी हँसने लग जाता है एवं जो लज्जा छोड़कर प्रेममें मग्न हुआ पागलकी भाँति ऊँचे स्वरसे गायन करता है और नाचने लग जाता है ऐसा मेरा भक्त संसारको पवित्र कर देता है।’
भगवान् गीताजीमें अर्जुनसे कहते हैं—
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा॥
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप॥
(११। ५३-५४)
‘जिस प्रकार तुमने मुझको देखा है—इस प्रकार चतुर्भुजरूपवाला मैं न वेदोंसे, न तपसे, न दानसे और न यज्ञसे ही देखा जा सकता हूँ। परन्तु हे परन्तप अर्जुन! अनन्य भक्तिके द्वारा इस प्रकार चतुर्भुजरूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये, तत्त्वसे जाननेके लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात् एकीभावसे प्राप्त होनेके लिये भी शक्य हूँ।’
भक्त श्रीकाकभुशुण्डिजी कहते हैं—
राम भगति चिंतामनि सुंदर।
बसइ गरुड़ जाके उर अंतर॥
परम प्रकासरूप दिन राती।
नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती॥
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा।
लोभ बात नहिं ताहि बुझावा॥
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई।
हारहिं सकल सलभ समुदाई॥
खल कामादि निकट नहिं जाहीं।
बसइ भगति जाके उर माहीं॥
गरल सुधासम अरि हित होई।
तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई॥
ब्यापहिं मानस रोग न भारी।
जिन्ह के बस सब जीव दुखारी॥
राम भगति मनि उर बस जाकें।
दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें॥
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं।
जे मनि लागि सुजतन कराहीं॥
अतएव सब लोगोंको उपर्युक्त सब प्रकारसे भगवान्की भक्तिका आश्रय ग्रहण करके जीवन और जन्मको सफल करना चाहिये।