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दास्य

सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥

भगवान‍्के गुण, तत्त्व, रहस्य और प्रभावको जानकर श्रद्धा-प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करना और उनकी आज्ञाका पालन करना दास्य-भक्ति है।

मन्दिरोंमें भगवान‍्के विग्रहोंकी सेवा करना, मन्दिर-मार्जनादि करना, मनसे प्रभुके स्वरूपका ध्यान करके उनकी सेवा करना, सम्पूर्ण चराचरको प्रभुका स्वरूप समझकर सबकी यथाशक्ति, यथायोग्य सेवा करना, गीता आदि शास्त्रोंको भगवान‍्की आज्ञा मानकर उसके अनुसार आचरण करना और जो कर्म भगवान‍्की रुचि, प्रसन्नता और इच्छाके अनुकूल हों उन्हीं कर्मोंको करना, ये सभी दास्य-भक्तिके प्रकार हैं।

भगवान‍्के रहस्यको जाननेवाले प्रेमी भक्तोंके संग और सेवनसे दास्य-भक्तिकी प्राप्ति होती है।

भगवान् में अनन्य प्रेमकी प्राप्ति और नित्य-निरन्तर सेवाके लिये भगवान‍्के समीप रहनेके उद्देश्यसे दास्य-भक्ति की जाती है।

केवल इस दास्य-भक्तिसे भी मनुष्यको सहज ही भगवान‍्की प्राप्ति हो जाती है।

गोस्वामी तुलसीदासजी तो कहते हैं कि दास्यभावके बिना भवसागरसे उद्धार ही नहीं हो सकता—

सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि॥

श्रीलक्ष्मण, हनुमान्, अंगद आदि इस दास्य-भक्तिके आदर्श उदाहरण हैं। भगवान् श्रीरामके वन जाते समय लक्ष्मणजीकी दशाका वर्णन करते हुए गोसाईंजी कहते हैं—

उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ।
नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ॥

माता सुमित्राने लक्ष्मणको रामके साथ जाकर उनकी सेवा करनेका कैसा सुन्दर उपदेश दिया है—

रागु रोषु इरिषा मदु मोहू।
जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू॥
सकल प्रकार बिकार बिहाई।
मन क्रम बचन करेहु सेवकाई॥
जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू।
सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू॥

श्रीहनुमान् जीका तो सारा जीवन ही दास्य-भक्तिसे ओतप्रोत है। प्रथम ही ऋष्यमूक पर्वतपर भगवान् श्रीरामचन्द्रजीको पहचानकर हनुमान् जी कहते हैं—

एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें।
सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥
नाथ जीव तव मायाँ मोहा।
सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥
सेवक सुत पति मातु भरोसें।
रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें॥

भगवान् भी अपनी सेवक-वत्सलताका परिचय देते हुए हनुमान् को उठाकर हृदयसे लगा लेते हैं और प्रेमाश्रुओंसे उनके अंगोंका सिंचन करते हुए कहते हैं—

सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना।
तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना॥
समदरसी मोहि कह सब कोऊ।
सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ॥

दास्य-भक्तिका भक्त अपने स्वामीकी कृपाका कितना विश्वासी होता है, इसके सम्बन्धमें हनुमान् जी ने विभीषणसे जो कुछ कहा है वह स्मरण रखनेयोग्य है—

सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।
करहिं सदा सेवक पर प्रीती॥
कहहु कवन मैं परम कुलीना।
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥

अंगदजीको जब भगवान् श्रीराम अयोध्यासे लौट जानेको कहते हैं तब अंगदजी भगवान‍्से प्रार्थना करते हैं—

मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता।
जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता॥
तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा।
प्रभु तजि भवन काज मम काहा॥
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना।
राखहु सरन नाथ जन दीना॥
नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ।
पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ॥

ऐसे अनेकों उदाहरण हैं, अतएव सबको चाहिये कि भगवान‍्के प्रेम-विह्वल होकर तन-मन-धन सब कुछ अर्पण करके भगवान‍्की दास्य-भक्ति करें।

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