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सख्य

अहो भाग्यमहो भाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम्।
यन्मित्रं परमानन्दं पूर्णं ब्रह्म सनातनम्॥
(श्रीमद्भा० १०। १४। ३२)

‘उन नन्दगोपके व्रजमें रहनेवाले लोगोंका भाग्य धन्य है! धन्य है! जिनका मित्र परमानन्द परिपूर्ण सनातन ब्रह्म है।’

भगवान् के प्रभाव, तत्त्व, रहस्य और महिमाको समझकर परम विश्वासपूर्वक मित्रभावसे उनकी रुचिके अनुसार बन जाना, उनमें अनन्य प्रेम करना और उनके गुण, रूप और लीलापर मुग्ध होकर नित्य-निरन्तर प्रसन्न रहना सख्य-भक्ति है।

अपने आवश्यक-से-आवश्यक कामको छोड़कर प्यारे प्रेमीके कामको आदरपूर्वक करना, प्यारे प्रेमीके कामके सामने अपने कामको तुच्छ समझकर उससे लापरवाह हो जाना, प्यारे प्रेमीके लिये महान् परिश्रम करनेपर भी उसे अल्प ही समझना, प्यारा जिस बातसे प्रसन्न होता हो उसी बातको लक्ष्यमें रखकर हर समय उसीके लिये प्राणपर्यन्त चेष्टा करना, वह जो कुछ भी करे उसीमें सदा सन्तुष्ट रहना, अपनी कोई भी वस्तु किसी भी प्रकारसे प्रेमीके काम आ जाय तो परम प्रसन्न होना, अपने शरीरपर और अपनी वस्तुपर जैसी अपनी आत्मीयता और अधिकार है वैसा ही अपने प्यारे प्रेमीका समझे और इसी प्रकार उसकी वस्तु और शरीरपर अपना अधिकार और आत्मीयता माने, अपने धन, जीवन और देहादि प्यारे प्रेमीके काममें लग सकें तो उनको सफल समझना, उसके साथ रहनेकी निरन्तर इच्छा रखना, उसके दर्शन, भाषण, चिन्तन और स्पर्शसे प्रेममें निमग्न हो जाना, उसके नाम, रूप, गुण और चरित्रोंको सुनकर, कहकर, पढ़कर और यादकर अत्यन्त प्रसन्न होना, किसीके द्वारा मित्रका सन्देश पाकर परम प्रसन्न होना और उसके वियोगमें व्याकुल होना तथा प्रतिक्षण उससे मिलनेकी आशा और प्रतीक्षा करते रहना आदि सखाभावके प्रकार हैं।

प्यारे प्रेमीको परम सुख हो, उसमें अपना सख्य-प्रेम पूर्णरूपसे बढ़ जाय और उससे अपना कभी वियोग न हो इसी उद्देश्यसे सख्य-भक्ति की जाती है।

सख्य-भक्तिकी प्राप्तिके लिये भगवान‍्के प्रेमी सखाओंका संग, सेवन, उनके जीवनचरित्रोंका अध्ययन और उनके तथा भगवान‍्के गुण, लीला और प्रभावका उनके प्रेमी भक्तोंद्वारा श्रवण करना चाहिये।

इस प्रकारकी केवल सख्य-भक्तिसे भी मनुष्यके दु:ख और दोषोंका अत्यन्त अभाव होकर भगवान‍्की प्राप्ति और भगवान‍्में परम प्रेम हो जाता है। यहाँतक कि भगवान् उस प्रेमी भक्तके अधीन हो जाते हैं और फिर उसके आनन्द और शान्तिका पार नहीं रहता।

मित्रका मित्रके प्रति क्या कर्तव्य होना चाहिये, इस विषयपर भगवान् श्रीराम सखा सुग्रीवसे कहते हैं—

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।
तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना।
मित्रक दुख रज मेरु समाना॥
जिन्ह कें असि मति सहज न आई।
ते सठ कत हठि करत मिताई॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा।
गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥
देत लेत मन संक न धरई।
बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा।
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥

इस सख्य-भक्तिके उदाहरण श्रीविभीषण, सुग्रीव, उद्धव, अर्जुन, सुदामा, श्रीदामादि व्रजसखा आदि हैं।

लंकाविजयके बाद विभीषण चाहते हैं—भगवान् एक बार मेरे घर पधारकर मुझे कृतार्थ करें और भगवान‍्से इसके लिये प्रार्थना करते हैं। सखाकी बात सुनकर भगवान् प्रेमविभोर हो जाते हैं, उनके नेत्रोंमें प्रेमाश्रु आ जाते हैं—और कहते हैं—भाई! तुम्हारा सब कुछ मेरा है, परन्तु इस समय भरतकी दशाका स्मरण करके मैं ठहर नहीं सकता।

तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात।
भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात॥

सुग्रीवके साथ सख्य स्थापित करके भगवान् अपनी प्राणप्रिया सीताको भूल जाते हैं और पहले सुग्रीवकी चिन्तामें लग जाते हैं।

तिय-बिरही सुग्रीव सखा लखि, प्रानप्रिया बिसराई।

और सुग्रीवसे आप कहते हैं—

सखा सोच त्यागहु बल मोरें।
सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥

उद्धवके साथ भगवान् इतना प्रेम करते थे कि एक बार उनसे बोले—‘भैया उद्धव! तुम-जैसे प्रेमी मुझको जितने प्यारे हैं, उतने प्यारे मुझे ब्रह्मा, शंकर, संकर्षण, लक्ष्मी और अपनी आत्मा भी नहीं है।’

न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शंकर:।
न च संकर्षणो न श्रीर्नैवात्मा च यथा भवान्॥
(श्रीमद्भा० ११। १४। १५)

उद्धवजीका भगवान् श्रीकृष्णसे बहुत गहरा सख्य-प्रेम था। इसीसे भगवान् उनके सामने मनकी कोई बात छिपाते नहीं थे। अपनी परम प्रेमिका गोपियोंको सन्देश भेजनेके लिये भगवान् श्रीकृष्ण उद्धवको ही सर्वोत्तम पात्र चुनते हैं। उस समयके वर्णनमें श्रीशुकदेवजी कहते हैं—

वृष्णीनां प्रवरो मन्त्री कृष्णस्य दयित: सखा।
शिष्यो बृहस्पते: साक्षादुद्धवो बुद्धिसत्तम:॥
तमाह भगवान् प्रेष्ठं भक्तमेकान्तिनं क्वचित्।
गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रपन्नार्तिहरो हरि:॥
गच्छोद्धव व्रजं सौम्य पित्रोर्नौ प्रीतिमावह।
गोपीनां मद्वियोगाधिं मत्सन्देशैर्विमोचय॥
(श्रीमद्भा० १०। ४६। १—३)

‘यदुवंशियोंके श्रेष्ठ मन्त्री, बृहस्पतिके साक्षात् शिष्य एवं अत्यन्त बुद्धिमान् उद्धव भगवान् श्रीकृष्णके परम प्रिय सखा थे।’ शरणागतका दु:ख दूर करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने एक दिन उस अनन्य एवं अत्यन्त प्रिय भक्त उद्धवका हाथसे हाथ पकड़कर कहा—‘प्यारे उद्धव! तुम व्रजमें जाकर मेरी माता एवं पिताको प्रसन्न करो तथा मेरे संदेशोंके द्वारा गोपियोंको वियोगके रोगसे मुक्त करो।’

अर्जुनके सख्यभावकी तो भगवान् स्वयं घोषणा करते हैं—

‘भक्तोऽसि मे सखा चेति’—तुम मेरे भक्त और सखा हो (गीता ४। ३); ‘इष्टोऽसि मे दृढमिति’—तुम मेरे परम प्यारे हो (गीता १८। ६४)।

अश्वत्थामाके द्वारा उत्तराके गर्भस्थ बालक परीक्षित् के मारे जानेपर भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—यदि यह सत्य है कि मैंने अपनी जानमें अर्जुनसे कभी भी मित्रतामें कोई बाधा नहीं आने दी है तो यह मरा हुआ बालक जी उठे।

यथाहं नाभिजानामि विजयेन कदाचन।
विरोधं तेन सत्येन मृतो जीवत्वयं शिशु:॥
(महा०, अश्वमेध० ६९। २१)

मित्र सुदामाको देखकर भगवान् कैसे प्रेमविह्वल हो जाते हैं और किस प्रकार सुदामाका आदर करते हैं। इस प्रसंगमें श्रीशुकदेवजी कहते हैं—

सख्यु: प्रियस्य विप्रर्षेरंगसंगातिनिर्वृत:।
प्रीतो व्यमुंचदब्बिन्दून् नेत्राभ्यां पुष्करेक्षण:॥
अथोपवेश्य पर्यंके स्वयं सख्यु: समर्हणम्।
उपहृत्यावनिज्यास्य पादौ पादावनेजनी:॥
अग्रहीच्छिरसा राजन् भगवाँल्लोकपावन:।
व्यलिम्पद् दिव्यगन्धेन चन्दनागुरुकुंकुमै:॥
(श्रीमद्भा० १०। ८०। १९—२१)

‘कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण अपने प्रिय सखा ब्रह्मर्षि सुदामाके अंगस्पर्शसे अत्यन्त हर्षित हुए एवं उनके नेत्रोंसे प्रेमाश्रु बहने लगे। इसके बाद उन्हें शय्यापर बैठाकर स्वयं भगवान‍्ने अपने हाथों उनके चरण धोये और उनकी पूजा की। लोकपावन भगवान‍्ने उनका चरणोदक अपने सिरपर रखा और उनके शरीरपर दिव्य गन्ध, चन्दन, अगुरु और कुंकुम आदि लगाया।’

इन भगवान‍्के परम प्यारे सखाओंकी तो बात ही क्या है, भीलोंका राजा गुह भी भगवान‍्से सख्य करके संसार-सागरसे तर गया।

अतएव भगवान‍्को ही अपना एकमात्र परम प्रियतम समझकर, अपना सर्वस्व उनको मानकर परम प्रेमभावसे सख्य-भक्ति करनी चाहिये।

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