(५) अर्चन-भक्ति
धातु आदिसे बनी मूर्ति या चित्रपटके रूपमें देखे हुए अथवा श्रीभगवान् के भक्तोंसे सुने हुए भगवान्के स्वरूपका बाह्य सामग्रियोंसे तथा भगवान्की मानसिक मूर्तिका मानसिक सामग्रियोंसे एवं उनके साक्षात् विग्रह और चरणोंका नानाविध उपचारोंसे श्रद्धा-भक्तिपूर्वक सेवन-पूजन करना और उनके तत्त्व, रहस्य तथा प्रभावको समझ-समझकर प्रेममें मुग्ध होना ‘अर्चन-भक्ति’ है।
ये लक्षण भी भरतजीमें विद्यमान थे। साक्षात् भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी प्रेमपूर्वक पूजा करनेकी तो बात ही क्या, भगवान्की अनुपस्थितिमें भरतजी मनसे भगवान्को आसनपर स्थापन करके मनसे ही उनकी सेवा-पूजा किया करते थे। जब भरतजी महाराज भरद्वाजजीके आश्रममें गये, तब वहाँ भरद्वाजजीने भरतजीके आतिथ्य-सत्कारमें सिद्धियोंसे राजमहलकी रचना करके भरतजीके लिये राजाओंके योग्य एक सिंहासनकी स्थापना की थी। किंतु भरतजी उस सिंहासनपर नहीं बैठे, बल्कि उसे साक्षात् भगवान् श्रीरामका सिंहासन मानकर स्वयं मन्त्रीके स्थान-पर स्थित हो रातभर चँवर डुलाते हुए ही भगवान्की सेवा करते रहे। श्रीवाल्मीकिजी कहते हैं—
तत्र राजासनं दिव्यं व्यजनं छत्रमेव च।
भरतो मन्त्रिभि: सार्धमभ्यवर्तत राजवत्॥
आसनं पूजयामास रामायाभिप्रणम्य च।
वालव्यजनमादाय न्यषीदत्सचिवासने॥
(वा० रा०, अयोध्या० ९१। ३८-३९)
‘भरतने वहाँ दिव्य राज्यसिंहासन, चँवर और छत्र भी देखे तथा उनमें राजाकी भावना करके मन्त्रियोंके साथ उन सबकी प्रदक्षिणा की। ‘सिंहासनपर श्रीरामचन्द्रजी विराजमान हैं’ ऐसा मानकर उन्होंने श्रीरामको प्रणाम किया और उस सिंहासनकी भी पूजा की। फिर अपने हाथमें चँवर ले वे मन्त्रीके आसनपर जा बैठे।’
भरतजीने इस प्रकार सेवा-पूजा करते हुए ही वह रात्रि व्यतीत की। कैसी अनोखी सेवा-पूजा है!
जब भरतजी नन्दिग्राम आये तब वहाँ राज्यसिंहासनपर भगवान्के स्थानमें भगवान्की चरण-पादुकाओंको स्थापित करके उनकी पत्र, पुष्प, गन्ध आदिके द्वारा शास्त्रविधिके अनुसार पूजा किया करते थे।
अध्यात्मरामायणमें बतलाया है—
तत्र सिंहासने नित्यं पादुके स्थाप्य भक्तित:॥
पूजयित्वा यथा रामं गन्धपुष्पाक्षतादिभि:।
राजोपचारैरखिलै: प्रत्यहं नियतव्रत:॥
राजकार्याणि सर्वाणि यावन्ति पृथिवीतले।
तानि पादुकयो: सम्यङ् निवेदयति राघव:॥
(अयोध्या० ९। ७१-७२, ७४)
‘वहाँ एक सिंहासनपर उन दोनों पादुकाओंको रखकर वे नियमित व्रतवाले रघुश्रेष्ठ भरतजी श्रीरामचन्द्रजीके समान ही उनकी नित्य भक्तिपूर्वक गन्ध, पुष्प और अक्षत आदि समस्त राजोचित सामग्रियोंसे पूजा करनेके अनन्तर पृथ्वीके प्रतिदिन जितने भी राजकार्य होते, उन सबको वे रघुश्रेष्ठ भरतजी पादुकाओंके सामने भली प्रकार निवेदन कर दिया करते थे।’
इसी प्रकार पद्मपुराणमें भी आता है—
रामस्य पादुके राज्यमवाप्य भरत: शुभे।
प्रत्यहं गन्धपुष्पैश्चापूजयत् कैकयीसुत:॥
तपश्चरणयुक्तेन तस्मिंस्तस्थौ नृपोत्तम:।
(उत्तर० २६९। १९०-१९१)
‘कैकेयीनन्दन भरतजी श्रीरामचन्द्रजीकी उन मंगलमयी पादुकाओंको राज्यसिंहासनपर स्थापित करके नित्य गन्ध-पुष्प आदिसे उनकी पूजा किया करते और इस प्रकार वे नृपश्रेष्ठ भरतजी उस नन्दिग्राममें तपस्यामें संलग्न होकर रहने लगे।’
श्रीतुलसीदासजीने भी कहा है—
नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति।
मागि मागि आयसु करत राजकाज बहु भाँति॥
भगवान् के श्रीविग्रहकी पूजा तो शास्त्रोंमें स्थान-स्थानपर मिलती है; किंतु भगवान्के स्थानमें चरणपादुकाओंको रखकर उनकी भी श्रद्धा-प्रेमपूर्वक पूजा करना—इस शिक्षाके प्रवर्तक आचार्य तो श्रीभरतजी ही हुए। धन्य है उनकी इस अलौकिक अर्चन-भक्तिको!
चौदह वर्षकी अवधि समाप्त होनेपर जब श्रीरामचन्द्रजी महाराज अयोध्या आ रहे थे, तब तो भरतजीने प्रत्यक्ष ही विमानपर स्थित श्रीरामचन्द्रजीका अर्घ्य-पाद्यादिसे विधिपूर्वक पूजन किया।
प्राञ्जलिर्भरतो भूत्वा प्रहृष्टो राघवोन्मुख:।
यथार्थेनार्घ्यपाद्याद्यैस्ततो राममपूजयत्॥
(वा० रा०, युद्ध० १२७। ३६)
‘भरतजी प्रसन्नतापूर्वक श्रीरामचन्द्रजीकी ओर दृष्टि लगाये हाथ जोड़कर खड़े हो गये। फिर उन्होंने विमानमें विराजमान श्रीरामजीकी विधिपूर्वक अर्घ्य-पाद्य आदिसे पूजा की।’
इस प्रकार रामचरित्रोंमें यत्र-तत्र भरतजीके द्वारा पूजा करनेके अनेक स्थल मिलते हैं। हमलोगोंको भी भरतजीको आदर्श मानकर भगवान्की सेवा-पूजा करनेमें तत्परतासे लगना चाहिये।