(६) वन्दन-भक्ति
श्रीभगवान् के शास्त्रवर्णित स्वरूप, भगवान्के नाम, भगवान्की धातु आदिकी मूर्ति, चित्र अथवा मानसिक मूर्तिको एवं भगवान्के साक्षात् चरणोंको शरीर अथवा मनसे श्रद्धासहित प्रणाम करना और ऐसा करते हुए भगवत्प्रेममें मुग्ध होना ‘वन्दन-भक्ति’ है। ये लक्षण भी भरतजीमें पूर्णतया विद्यमान थे। भरतजीकी वन्दन-भक्तिके विषयमें तो कहना ही क्या है! वे जब महाराज श्रीरामचन्द्रजीको लौटा लानेके लिये विदा हुए, तब रास्तेमें उनको नमस्कार करते हुए ही गये और चित्रकूटमें पहुँचकर तो वे दण्डकी भाँति भगवान्के चरणोंमें गिर पड़े तथा करुणाभावसे विह्वल हो गये। श्रीतुलसीदासजी लिखते हैं—
सखा बचन सुनि बिटप निहारी।
उमगे भरत बिलोचन बारी॥
करत प्रनाम चले दोउ भाई।
कहत प्रीति सारद सकुचाई॥
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कहत सप्रेम नाइ महि माथा।
भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥
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सानुज भरत उमगि अनुरागा।
धरि सिर सिय पद पदुम परागा॥
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए।
सिर कर कमल परसि बैठाए॥
श्रीअध्यात्मरामायणमें बतलाया है—
मातुर्मे दुष्कृतं किंचित्स्मर्तुं नार्हसि पाहि न:॥
इत्युक्त्वा चरणौ भ्रातु: शिरस्याधाय भक्तित:।
रामस्य पुरत: साक्षाद्दण्डवत्पतितो भुवि॥
(अयोध्या० ९। २५-२६)
‘मेरी माताका जो कुछ अपराध है, उसे भूल जाइये और हमलोगोंकी रक्षा कीजिये।’—ऐसा कहकर भरतजीने भाई श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंको भक्तिपूर्वक मस्तकपर रख लिया और साक्षात् श्रीरामचन्द्रजीके सम्मुख दण्डके समान पृथ्वीपर गिर पड़े।’
चित्रकूटसे वापस आते समय भी भरतजी भगवान्को प्रणाम करके दु:खित हृदयसे ही आये हैं। श्रीगोस्वामीजी कहते हैं—
अस कहि प्रेम बिबस भए भारी।
पुलक सरीर बिलोचन बारी॥
प्रभु पद कमल गहे अकुलाई।
समउ सनेहु न सो कहि जाई॥
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प्रभु पद पदुम बंदि दोउ भाई।
चले सीस धरि राम रजाई॥
जब भगवान् श्रीरामचन्द्रजी वनसे लौटकर अयोध्या आये, तब भरतजी उनके चरणोंमें लिपट गये; यद्यपि भरतजी उन चरणोंको छोड़ना नहीं चाहते थे, पर भगवान्ने बलपूर्वक उन्हें उठाकर हृदयसे लगा लिया। उस समय भरतजीने सीताजीको भी प्रणाम किया और अपनेको अपराधी मानकर उनसे अपराधके लिये क्षमा-प्रार्थना की।
श्रीवाल्मीकीय रामायणका वर्णन है—
ततो विमानाग्रगतं भरतो भ्रातरं तदा।
ववन्दे प्रणतो रामं मेरुस्थमिव भास्करम्॥
आरोपितो विमानं तद् भरत: सत्यविक्रम:।
राममासाद्य मुदित: पुनरेवाभ्यवादयत्॥
ततो लक्ष्मणमासाद्य वैदेहीं च परंतप:।
अथाभ्यवादयत्प्रीतो भरतो नाम चाब्रवीत्॥
(युद्ध० १२७। ३८, ४०, ४२)
‘उस समय भरतजीने विमानके अग्रभागमें विराजमान भाई श्रीरामको देखा और जिस प्रकार लोग मेरुपर्वतस्थ दीखते हुए सूर्यको नमस्कार करते हैं, उसी प्रकार उस समय श्रीरामको विनयपूर्वक प्रणाम किया। भगवान् श्रीरामने सत्यपराक्रमी भरतजीको उस विमानपर चढ़ा लिया। भरतजीने श्रीरघुनाथजीके पास पहुँचकर प्रसन्नचित्त हो पुन: प्रणाम किया। तदनन्तर भाई लक्ष्मणसे मिलकर फिर परंतप भरतजीने सीताजीको अपना नाम उच्चारण करके प्रेमसे अभिवादन किया।’
प्राय: ऐसा ही वर्णन अध्यात्मरामायणमें भी आया है। वहाँ बतलाया है—
आरोपितो विमानं तद् भरत: सानुजस्तदा।
राममासाद्य मुदित: पुनरेवाभ्यवादयत्॥
ततो लक्ष्मणमासाद्य वैदेहीं नाम कीर्तयन्।
अभ्यवादयत प्रीतो भरत: प्रेमविह्वल:॥
(युद्ध० १४। ८३, ८५)
‘उस समय भगवान् श्रीरामने भाई शत्रुघ्नके सहित भरतजीको उस विमानपर चढ़ा लिया; श्रीरामचन्द्रजीके निकट पहुँचनेपर भरतजीने अति आनन्दित हो उन्हें पुन: प्रणाम किया। फिर प्रेमसे विह्वल हुए भरतजीने लक्ष्मणजीसे मिलकर श्रीसीताजीको अपना नाम उच्चारण करते हुए प्रेमपूर्वक प्रणाम किया।’
उस समयकी भरतजीकी अवस्थाका दिग्दर्शन कराते हुए पद्मपुराणमें भी बतलाया है—
दृष्ट्वा समुत्तीर्णमिमं रामचन्द्रं स तैर्युतम्।
हर्षाश्रूणि प्रमुञ्चंश्च दण्डवत् प्रणनाम ह॥
उत्थापितोऽपि च भृशं नोदतिष्ठद् रुदन् मुहु:।
रामचन्द्रपदाम्भोजग्रहणासक्तबाहुभृत्॥
पतिव्रतां जनकजाममन्यत ननाम च॥
मात: क्षमस्व यदघं मया कृतमबुद्धिना।
(पद्म०, पाताल० २। २९, ३१, ३७-३८)
‘उन सहायकोंसहित श्रीरामचन्द्रजीको भूमिपर उतरे देख वे भरतजी हर्षके आँसू बहाते हुए उनके सामने ही दण्डकी भाँति धरतीपर पड़ गये। आरम्भमें भगवान्के बारंबार उठानेपर भी वे उठे नहीं; अपितु अपने दोनों हाथोंसे श्रीरामचन्द्रजीके चरणारविन्दोंको पकड़कर लगातार फूट-फूटकर रोते रहे। तत्पश्चात् पतिव्रता जनककिशोरीका दर्शन करके भरतजीने उन्हें सम्मानपूर्वक प्रणाम किया और कहा—‘माँ! मुझ मूर्खके द्वारा जो अपराध हो गया है, उसे क्षमा करना।’
श्रीरामचरितमानसका वर्णन इस प्रकार है—
गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज।
नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज॥
परे भूमि नहिं उठत उठाए।
बर करि कृपासिंधु उर लाए॥
स्यामल गात रोम भए ठाढ़े।
नव राजीव नयन जल बाढ़े॥
प्रेम और विनयकी क्या ही सुन्दर अवस्था है! भरतजी प्रेम और विनयकी तो मूर्ति ही थे। वन्दन करना तो उनका स्वभाव बन गया था। जब कभी वे भगवान्से मिलते, तभी उन्हें नमस्कार किया करते थे। उनकी यह आदर्श वन्दन-भक्ति हमलोगोंके लिये सदा अनुकरणीय है।