(७) दास्य-भक्ति
श्रीभगवान् के गुण, तत्त्व, रहस्य और प्रभावको समझते हुए श्रद्धा-प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करना और उनकी आज्ञाका पालन करना तथा प्रभुको स्वामी और अपनेको सेवक समझना ‘दास्य-भावरूप भक्ति’ है।
यह भाव तो भरतजीमें पद-पदपर पाया जाता है। यह तो उनका मुख्य भाव है। जब भरतजी ननिहालसे अयोध्या लौट आये, तब कैकेयीसे यह कह दिया कि मैं श्रीरामचन्द्रजीको लौटाकर उनका दास होकर उनकी सेवा करूँगा। बादमें गुरु वसिष्ठजी और मन्त्रियोंने उनको राज्य देनेकी बहुत चेष्टा की, किंतु उनके उत्तरमें भरतजीने यही कहा कि ‘मैं इसमें आपका और अपना किसीका भी हित नहीं देखता। मैं तो अपना हित उनकी सेवामें ही समझता हूँ।’ भरतजीके इस भावको सुनकर सभी मुग्ध हो गये। इसी भावको लेकर भरतजी रामचन्द्रजी महाराजको लाने अयोध्यासे चित्रकूटके लिये विदा हुए। मार्गमें जहाँ-कहीं वे ठहरे, उनके बर्ताव और वार्तालापसे यही भाव झलकता था। चित्रकूटमें भी उनकी प्रत्येक क्रियामें दासभाव टपकता था, क्योंकि वे दास्यभावकी एक जीती-जागती मूर्ति ही थे। उन्होंने आजीवन भगवान् श्रीरामकी सेवा और उनकी आज्ञाके पालनको ही अपना सर्वोत्तम परम धर्म मान रखा था और इसीमें वे अपना परम कल्याण समझते थे। उनकी दृष्टिमें भगवान् श्रीरामकी सेवासे बढ़कर और कोई दूसरा काम ही नहीं था। भगवान्की कठिन-से-कठिन आज्ञा उनके लिये सहर्ष शिरोधार्य थी। भरतजी अपने स्वामीको संकोचमें डालना पाप समझते थे। भगवान् श्रीरामकी आज्ञाके पालनार्थ ही उन्होंने चौदह वर्षतक उनका वियोग सहन किया। राज्यका काम करते हुए पद-पदपर उनका श्रीरामके प्रति सेवाभाव चमकता था। चौदह वर्षके पश्चात् भगवान्के वापस आनेपर भरतजी उनका राज्य उनके चरणोंमें समर्पित करके आजीवन उन्हींकी सेवा और आज्ञापालनमें लगे रहे। कभी नगरसे बाहर जाना होता, तब वहाँ भी उनकी सेवा करना और अपने हितके लिये उपदेशकी बातें पूछते रहना—उनका मुख्य काम था। इस प्रकार भरतजीने आजीवन प्रधानतया दास्यभावमें ही अपना समय बिताया।
उनकी सेवा, आज्ञापालन और प्रेमके भावसे भगवान् स्वयं मुग्ध थे। इस विषयमें उनकी जितनी प्रशंसा की जाय, उतनी ही थोड़ी है। प्रेम और विनयपूर्वक सेवाभावके लिये भरतजी परम आदर्श हैं। यद्यपि भरतजीके सारे ही आचरण दासभावके द्योतक हैं, तथापि कई स्थलोंमें तो दासभावकी ही प्रधानता है। अब नीचे कुछ प्रमुख प्रमाणोंके द्वारा उनके दासभावका दिग्दर्शन कराया जाता है—
माता कैकेयीके प्रति भरतजीके वचन हैं—
निवर्तयित्वा रामं च तस्याहं दीप्ततेजस:।
दासभूतो भविष्यामि सुस्थितेनान्तरात्मना॥
(वा० रा०, अयोध्या० ७३। २७)
‘मैं श्रीरामको लौटा लाऊँगा और उन देदीप्यमान तेजस्वी महापुरुषका दास बनकर सुस्थिर—शान्तचित्तसे जीवन व्यतीत करूँगा।’
अध्यात्मरामायणमें भी आता है—
गच्छाम्यारण्यमद्य स्थिरमतिरखिलं
दूरतोऽपास्य राज्यं।
रामं सीतासमेतं स्मितरुचिरमुखं
नित्यमेवानुसेवे॥
(अयोध्या० ७। ११४)
‘मैंने निश्चय कर लिया; मैं सम्पूर्ण राज्यको सर्वथा छोड़कर आज ही वनको जाऊँगा और मधुर मुसकानसे जिनका मुखारविन्द अति शोभित हो रहा है, उन श्रीराम और सीताकी नित्यप्रति सेवा करूँगा।’
भरतजी गुरु वसिष्ठजी तथा मन्त्रियोंसे कहते हैं—
हित हमार सियपति सेवकाई।
सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई॥
मार्गमें गुहके प्रति कहते हैं—
अहं रामस्य दासा ये तेषां दासस्य किंकर:।
यदि स्यां सफलं जन्म मम भूयान्न संशय:॥
(अध्यात्म०, अयोध्या० ८। ३३)
‘जो लोग भगवान् श्रीरामके दास हैं, उनके दासोंका अनुचर भी यदि मैं हो जाऊँ तो नि:संदेह मेरा जन्म सफल हो जाय।’
कैसा सुन्दर दास-भाव है!
चित्रकूटमें जाकर भरतजी भगवान् श्रीरामसे कहते हैं—
अहमप्यागमिष्यामि सेवे त्वां लक्ष्मणो यथा।
नो चेत्प्रायोपवेशेन त्यजाम्येतत्कलेवरम्॥
(अध्यात्म०, अयोध्या० ९। ३९)
‘(अच्छा, यदि आप वनसे नहीं लौटना चाहते तो मुझे आज्ञा दीजिये, जिससे) मैं भी वनमें चलकर लक्ष्मणके समान ही आपकी सेवा करूँ, नहीं तो मैं अन्न-जल छोड़कर इस शरीरको त्याग दूँगा।’ भगवान्की सेवाके लिये भरतजीका कितना आग्रह है!
किंतु भगवान्के स्वभावको यादकर भरतजी फिर कहने लगे—
अब करुनाकर कीजिअ सोई।
जन हित प्रभु चित छोभु न होई॥
जो सेवकु साहिबहि सँकोची।
निज हित चहइ तासु मति पोची॥
सेवक हित साहिब सेवकाई।
करै सकल सुख लोभ बिहाई॥
भगवान् के अयोध्या लौट आनेपर जब कभी भरतजी उनके साथ किसी उपवन या अमराईमें जाते थे, तो वहाँ भी सेवा ही करते रहते। श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना।
सुनहु नाथ प्रनतारति हरना॥
करउँ कृपानिधि एक ढिठाई।
मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई॥
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हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई।
गए जहाँ सीतल अँवराई॥
भरत दीन्ह निज बसन डसाई।
बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई॥
इस प्रकार भरतजी नित्य भगवान्की सेवामें ही लगे रहे। धन्य है भरतजीके इस आदर्श सेवाभावको! भरतजीके चरित्रका भलीभाँति मनन करके उनके सेवाभावको आदर्श बनाकर हमें उनका अनुकरण करना चाहिये।