(८) सख्य-भक्ति
श्रीभगवान् के प्रभाव, तत्त्व, रहस्य और महिमाको समझते हुए परम विश्वासपूर्वक मित्रभावसे उनकी रुचिके अनुसार बन जाना, उनमें अनन्य प्रेम करना तथा उनके गुण, रूप और लीलापर मुग्ध होकर नित्य-निरन्तर प्रसन्न रहना ‘सख्यभावरूप भक्ति’ है।
भरतजीके आचरण और भावोंसे केवल सखाभाव नहीं मिलता; किंतु अन्य भावोंके साथ-साथ सखाभाव भी झलकता है। जैसे वाल्मीकीय रामायणमें कहा है—
यो मे भ्राता पिता बन्धुर्यस्य दासोऽस्मि सम्मत:।
तस्य मां शीघ्रमाख्याहि रामस्याक्लिष्टकर्मण:॥
(वा० रा०, अयोध्या० ७२। ३२)
भरतजी मातासे कहते हैं—‘जो मेरे भाई, पिता और बन्धु हैं तथा जिनका मैं प्रिय दास हूँ, उन सरलस्वभाव श्रीरामचन्द्रजीका पता शीघ्र बतलाओ।’
चित्रकूटमें भरतजीने भगवान् श्रीरामसे प्रार्थना करते हुए कहा है—
एभिश्च सचिवै: सार्धं शिरसा याचितो मया।
भ्रातु: शिष्यस्य दासस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि॥
(वा० रा०, अयोध्या० १०१। १२)
‘इन मन्त्रियोंके साथ सिर झुकाकर मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि मैं आपका भाई, शिष्य और दास हूँ, मुझपर आप दया करें।’
उपर्युक्त श्लोकोंमें शिष्य, दास, पिता—इन सब शब्दोंके साथ ‘बन्धु’ और ‘भ्राता’ शब्द भी हैं, जो कि सख्य-भावके द्योतक हैं तथा ‘भ्राता’ शब्दके साथ ही ‘बन्धु’ शब्दका अलग प्रयोग करना तो सखाभावको स्पष्ट सिद्ध करता है। अतएव भरतजीका भाई, दास, शिष्य आदि भावोंके साथ-साथ सखाभाव भी था। भ्रातृत्वके भावमें भी बराबरीका भाव होनेके कारण सखाभाव टपकता है। तुलसीकृत रामायणको देखनेसे भी यह बात सिद्ध होती है। भरतजीके ही वचन हैं—
प्रभु पितु मातु सुहृद गुर स्वामी।
पूज्य परम हित अंतरजामी॥
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सुहृद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि॥
इन चौपाई-दोहोंमें प्रभु, पिता, माता, गुरु, स्वामी, पूज्य, हितू आदि शब्दोंके साथ ‘सुहृद्’ शब्दका प्रयोग किया गया है, जो कि इनसे अपना भिन्न अर्थ रखता है। अतएव यहाँ ‘सुहृद्’ शब्द सखाभावका ही द्योतक है। नि:संदेह भरतजीका श्रीराममें प्रधानतया दासभाव होते हुए भी भ्रातृत्व और प्रेमके नाते मित्रभाव भी था।
भगवान् श्रीरामके बर्तावसे भी भाइयोंके साथ सखाभाव प्रकट होता है। वनगमनके पूर्व राजतिलककी तैयारीके समय श्रीरामचन्द्रजी महाराज राज्यमें सब भाइयोंका समान अधिकार मानते हुए कहते हैं—
जनमे एक संग सब भाई।
भोजन सयन केलि लरिकाई॥
करनबेध उपबीत बिआहा।
संग संग सब भए उछाहा॥
बिमल बंस यहु अनुचित एकू।
बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई।
हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥
इससे सब भ्राताओंके साथ श्रीरामका मित्रताका भाव झलकता है। लक्ष्मणके प्रति तो मुख्यतया ‘सखा’ शब्दका प्रयोग मिलता है। वनमें साथ जानेको तैयार हुए लक्ष्मणसे भगवान् कहते हैं—
स्निग्धो धर्मरतो धीर: सततं सत्पथे रत:।
प्रिय: प्राणसमो वश्यो विधेयश्च सखा च मे॥
(वा० रा०, अयोध्या० ३१। १०)
‘लक्ष्मण! तुम मेरे परम स्नेही, धर्मपरायण, धैर्य-सम्पन्न और सदा सन्मार्गपर चलनेवाले हो। तुम मुझे प्राणोंके समान प्रिय एवं मेरे अधीन, आज्ञापालक और सखा हो।’
इसके अतिरिक्त पद्मपुराणके पातालखण्डमें एक श्लोक मिलता है, जिसमें भगवान् श्रीरामने प्रेममें विह्वल होकर भरतके प्रति पाँच बार ‘भाई’ शब्दका उच्चारण किया है। इसमें भरतजीके प्रति भगवान्का बराबरीका तथा आदर और प्रेमका भाव सन्निहित है, इससे यह सखाभावका ही द्योतक है।
यानादवतताराशु विरहक्लिन्नमानस:।
भ्रातर्भ्रात: पुनर्भ्रातर्भ्रातर्भ्रातर्वदन्मुहु:॥
(पद्म०, पाताल० २। २८)
‘निकट आनेपर भगवान् श्रीरामका हृदय विरहसे कातर हो उठा और वे ‘भैया! भैया भरत!’ इस प्रकार कहते तथा बारम्बार ‘भाई! भाई!! भाई!!!’ की रट लगाते हुए तुरंत ही विमानसे उतर पड़े।’
तुलसीकृत रामायणमें भी भरतजीके प्रति भगवान्के द्वारा सम्मानपूर्वक बराबरीका व्यवहार किये जानेकी बात आयी है।
श्रीगोस्वामीजी लिखते हैं—
कृपासिंधु सनमानि सुबानी।
बैठाए समीप गहि पानी॥
—इस व्यवहारसे भगवान्का भरतके प्रति सखाभाव स्पष्ट प्रकट होता है।
इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी महाराजके बर्तावमें तो कई जगह ही भरतके प्रति आदर-सम्मान, बराबरी और प्रेमका व्यवहार पाया जाता है, इससे स्पष्ट ही सखाभाव झलकता है। जैसे, जब-जब भरतजी नमस्कार करते, तभी भगवान् उन्हें हृदयसे लगा लिया करते। भगवान्का यह बर्ताव सखाभावका ही परिचायक है।