(२) कीर्तन-भक्ति
भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, चरित, तत्त्व और रहस्यका श्रद्धा-प्रेमपूर्वक उच्चारण करते-करते शरीरमें रोमांच, कण्ठावरोध, अश्रुपात, हृदयकी प्रफुल्लता, मुग्धता आदिका होना कीर्तन-भक्तिका स्वरूप है।
ये लक्षण भी भरतजीमें मिलते हैं। जिस समय भरतजी शृंगवेरपुर पहुँचकर गंगातटपर ठहर गये, उस समय वहाँ उनके पास गुह आया तो उसने—
दृष्ट्वा भरतमासीनं सानुजं सह मन्त्रिभि:।
चीराम्बरं घनश्यामं जटामुकुटधारिणम्॥
राममेवानुशोचन्तं रामरामेति वादिनम्।
ननाम शिरसा भूमौ गुहोऽहमिति चाब्रवीत्॥
(अध्यात्म०, अयोध्या० ८। २०-२१)
‘मेघके समान श्याम शरीरवाले, चीर-वस्त्र पहने, जटाका मुकुट धारण किये हुए तथा श्रीरामका ही स्मरण-चिन्तन करते हुए और ‘राम-राम’—इस प्रकार कहते हुए एवं मन्त्रियोंके साथ बैठे हुए छोटे भाई शत्रुघ्नजीसहित भरतजीको देखकर पृथ्वीपर माथा टेककर प्रणाम किया और कहा कि ‘मैं गुह हूँ।’
इसके पश्चात् भरतजी प्रयाग गये तो वहाँ भी भजन-कीर्तन करते हुए ही गये। श्रीगोस्वामीजी लिखते हैं—
भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग॥
जिस समय भगवान्के विरहमें व्याकुल हुए श्रीभरतजी नन्दिग्राममें निवास करते थे, उस समय वे मुनियोंकी भाँति अपना समय बिताया करते थे। वहाँ वे प्रेममें मुग्ध होकर भगवान्के नामका जप और उनके गुण तथा चरित्रोंकी अमृतमयी कथाका वर्णन भी किया करते थे। श्रीरामचरितमानसमें बतलाया है—
पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू।
जीह नामु जप लोचन नीरू॥
पद्मपुराणके पातालखण्डमें भी आता है—
गर्तशायी ब्रह्मचारी जटावल्कलसंयुत:।
कृशाङ्गयष्टिर्दु:खार्त: कुर्वन् रामकथां मुहु:॥
(१। ३०)
‘उन दिनों भरतजी जमीनमें गड्ढा खोदकर उसीमें सोया करते थे। ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए मस्तकपर जटा और शरीरपर वल्कल वस्त्र धारण किये रहते थे। उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था। वे बार-बार श्रीरामचन्द्रजीकी कथा कहते हुए वियोगके दु:खसे आतुर रहते थे।’
वहाँ नन्दिग्राममें भरतजीके पास जब हनुमान्जी पहुँचे, तब वे देखते हैं—
कथयन्तं मन्त्रिवृद्धान् रामचन्द्रकथानकम्।
तदीयपदपाथोजमकरन्दसुनिर्भरम्॥
(पद्म०, पाताल० २। १२)
‘भरतजी अपने वृद्ध मन्त्रियोंसे श्रीरामचन्द्रजीकी कथाएँ कह रहे हैं, जो कि उनके चरणकमलोंके मकरन्दसे अत्यन्त भरपूर हैं।’
उस समय तपस्यासे कृश हुए विरक्त भरतको भगवान् श्रीरामकी विरह-व्याकुलताभरी विह्वलताकी अवस्थामें निमग्न तथा भगवान्के नामका जप करते हुए देखकर हनुमान्के आनन्दकी सीमा नहीं रही। श्रीहनुमान्जीकी उस अवस्थाका वर्णन श्रीगोस्वामीजीके शब्दोंमें ही पढ़िये—
बैठे देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात।
राम राम रघुपति जपत स्रवत नयन जलजात॥
देखत हनूमान अति हरषेउ।
पुलक गात लोचन जल बरषेउ॥
मन महँ बहुत भाँति सुख मानी।
बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी॥
जासु बिरहँ सोचहु दिन राती।
रटहु निरंतर गुन गन पाँती॥
रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता।
आयउ कुसल देव मुनि त्राता॥
इस प्रकार श्रीभरतजीके भगवन्नामजप और गुणादिके कीर्तनका बड़ा ही सुन्दर प्रकरण मिलता है। हमलोगोंको उचित है कि जिस प्रकार प्रेमी भक्त भरतजी प्रेममें मग्न होकर जप तथा कथा-कीर्तन किया करते थे, उसी प्रकार हम भी उनका अनुकरण करें।