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(३) स्मरण-भक्ति

प्रभुके नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला, तत्त्व और रहस्यका प्रेममें मुग्ध होकर मनन करना और इस प्रकार मनन करते-करते भगवान‍्के स्वरूपमें तल्लीन हो जाना स्मरण-भक्तिका स्वरूप है। भरतजीमें ये लक्षण भी मिलते हैं। भगवान् श्रीरामका बारम्बार चिन्तन करनेका तो उनका स्वभाव ही था। वे सदा सर्वगुणसम्पन्न भगवान् श्रीरामके अद्भुत रूपलावण्यसंयुक्त स्वरूपका विशेषरूपसे चिन्तन किया करते थे। वे अयोध्यामें रहते हुए तो भगवान‍्का चिन्तन करते ही थे, किंतु जब भगवान‍्को अयोध्या लौटा लानेके लिये चित्रकूट गये तब रास्तेमें भी भगवान‍्का चिन्तन करते हुए ही चले और चित्रकूटमें तो वे साक्षात् भगवान् श्रीरामका दर्शन कर ही रहे थे। तदनन्तर जब भरतजी चित्रकूटसे अयोध्या लौटे तब रास्तेमें उनके गुण, चरित्र और स्वरूपका मनन करते हुए ही आये एवं नन्दिग्राममें आकर तो उन्होंने अपना अधिक समय चिन्तनमें ही बिताया।

अध्यात्मरामायणमें भरतजीके अयोध्या-निवास-कालका वर्णन करते हुए लिखा है—

अवसत्स्वगृहे तत्र राममेवानुचिन्तयन्।
वसिष्ठेन सह भ्रात्रा मन्त्रिभि: परिवारित:॥
(अयोध्या० ७। ११३)

‘वहाँ (अयोध्यामें) अपने घरमें गुरु वसिष्ठजी और भाई शत्रुघ्नके साथ एवं मन्त्रियोंसे घिरे हुए भरतजी श्रीरामचन्द्रजीका ही स्मरण करते हुए रहने लगे।’

चित्रकूटके मार्गमें भरतजीकी अवस्थाका वर्णन करते हुए बतलाया है—

इत्यद्भुतप्रेमरसाप्लुताशयो
विगाढचेता रघुनाथभावने।
आनन्दजाश्रुस्नपितस्तनान्तर:
शनैरवापाश्रमसन्निधिं हरे:॥
(अध्यात्म०, अयोध्या० ९। ४)

‘जिनका हृदय इस प्रकार अद्भुत प्रेमरससे भरा हुआ है, मन श्रीरघुनाथजीकी भावनामें डूबा हुआ है तथा वक्ष:स्थल आनन्दाश्रुओंसे भीगा हुआ है, वे भरतजी धीरे-धीरे श्रीहरिके आश्रमके निकट पहुँचे।’

तथा—

भरतस्तु सहामात्यैर्मातृभिर्गुरुणा सह॥
अयोध्यामगमच्छीघ्रं राममेवानुचिन्तयन्।
(अध्यात्म०, अयोध्या० ९। ६९-७०)

‘भरतजी अपने मन्त्रियों, माताओं और गुरु वसिष्ठजीके साथ श्रीरामचन्द्रजीका ही चिन्तन करते हुए शीघ्रतासे अयोध्याको लौट चले।’

श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—

मुनि महिसुर गुर भरत भुआलू।
राम बिरहँ सबु साजु बिहालू॥
प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं।
सब चुपचाप चले मग जाहीं॥

नन्दिग्राममें निवास करते हुए भरतजी अपने मन्त्रियोंसे कहते हैं—

दुर्भगस्य मम प्राप्तं स्वाघमार्जनमादरात्।
करोमि रामचन्द्राङ्घ्रिं स्मारं स्मारं सुमन्त्रिण:॥
(पद्म०, पाताल० १। ४०)

‘मन्त्रिगण! मुझ अभागेके लिये अपने पापोंके प्रायश्चित्त करनेका यह अवसर प्राप्त हुआ है। अत: मैं श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंका निरन्तर आदरपूर्वक स्मरण करते हुए अपने दोषोंका मार्जन करूँगा।’

उस समय हनुमान‍्जीने—

ददर्श भरतं दीनं कृशमाश्रमवासिनम्॥
मलपङ्कविदिग्धाङ्गं जटिलं वल्कलाम्बरम्।
फलमूलकृताहारं रामचिन्तापरायणम्॥
यं त्वं चिन्तयसे रामं तापसं दण्डके स्थितम्।
अनुशोचसि काकुत्स्थ: स त्वां कुशलमब्रवीत्॥
(अध्यात्म०, युद्ध० १४। ५१, ५२, ५५)

‘अति दीन और दुर्बल अवस्थामें आश्रममें निवास करते हुए, अत्यन्त मलिन शरीरवाले, जटाजूट और वल्कल वस्त्र धारण किये हुए तथा फल-मूलादिका भोजन करके भगवान् श्रीरामके ध्यानमें तत्पर हुए भरतजीको देखा और कहा—‘भरतजी! आप जिन दण्डकारण्यवासी तपोनिष्ठ भगवान् श्रीरामका चिन्तन करते हैं तथा जिनके लिये आप इतना अनुताप करते हैं, उन ककुत्स्थनन्दन श्रीरामने आपको अपनी कुशल कहला भेजी है।’

वहाँ भरतजी समय-समयपर भगवान‍्के गुण, चरित्र और प्रभावसे संयुक्त स्वरूपको याद करते हुए विरह-व्याकुलतामें मुग्ध हो जाया करते थे। परन्तु साथ-साथ उनको भगवान‍्के विरदपर यह पूरा विश्वास था कि भगवान् मुझे अवश्य मिलेंगे। इस आधारपर वे क्षण-क्षणमें भगवान‍्की प्रतीक्षा किया करते थे। उन्हें भगवान‍्के दर्शनमें विलम्ब असह्य था, अत: वे विरह-व्याकुलतामें निमग्न हुए मन-ही-मन करुणाभावसे विलाप किया करते थे। इस विषयमें श्रीतुलसीदासजीने उनके विलापका बहुत ही सुन्दर चित्र खींचा है। वे कहते हैं—

भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार।
जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार॥
रहेउ एक दिन अवधि अधारा।
समुझत मन दुख भयउ अपारा॥
कारन कवन नाथ नहिं आयउ।
जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ॥
अहह धन्य लछिमन बड़भागी।
राम पदारबिंदु अनुरागी॥
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा।
ताते नाथ संग नहिं लीन्हा॥
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी।
नहिं निस्तार कलप सत कोरी॥
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ।
दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ॥
मोरे जियँ भरोस दृढ़ सोई।
मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई॥
बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना।
अधम कवन जग मोहि समाना॥
राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवनसुत आइ गयउ जनु पोत॥

भगवान् श्रीरामके वियोगमें उनकी आशा-प्रतीक्षा करते हुए भरतजी किस प्रकार उनके गुण और स्वभावका चिन्तन करनेमें अपना समय बिता रहे हैं, यह ध्यान देने योग्य है।

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