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(४) पादसेवन-भक्ति

श्रीभगवान् के दिव्य मंगलमय स्वरूपकी धातु आदिकी मूर्ति, चित्रपट अथवा मानस मूर्तिके मनोहर चरणोंका तथा उनकी चरण-रज और चरण-पादुकाओंका श्रद्धापूर्वक दर्शन, चिन्तन, पूजन और सेवन करते-करते भगवत्प्रेममें मग्न हो जाना और उनका चरणामृत लेना ‘पाद-सेवन’ कहलाता है।

ये लक्षण भी भरतजीमें मिलते हैं। पादसेवन-भक्तिके तो भरतजी आचार्य ही हैं। यद्यपि लक्ष्मीजी सदा ही भगवान‍्के चरणोंकी सेवामें रत हैं, किंतु चरणोंके ही समान चरण-पादुकाओंकी भी सेवा-पूजा करनेकी शिक्षा तो हमें भरतजीसे ही मिलती है। इसके सिवा चरण-रजका आदर भी जैसा भरतजीने किया, वैसा किसीने किया हो, इसका कोई उल्लेख वाल्मीकीय रामायणकालसे पूर्व कहीं देखनेमें प्राय: नहीं आता।

चित्रकूटके लिये प्रस्थान करनेके पूर्वसे ही भरतजीके हृदयमें जो भगवान‍्के चरणकमलोंमें अनन्य भक्ति तथा चरणोंके दर्शन और सेवनकी लालसा विद्यमान थी, वह अलौकिक और प्रशंसनीय है। वे जब अयोध्यासे चित्रकूट गये, तब रास्तेमें जहाँ कहीं भगवान‍्की चरण-रज मिली, वे उसको बड़े ही आदर-सम्मानपूर्वक श्रद्धा-प्रेमसे सिर और आँखोंपर लगाकर मुग्ध हो गये। भरतजी महाराज श्रीरामचन्द्रजीकी चरण-सेवाके हेतु ही उनको चित्रकूटसे अयोध्या लौटनेका आग्रह करते रहे। किंतु जब भगवान‍्ने किसी प्रकार भी अयोध्या जाना स्वीकार नहीं किया, तब उन्होंने चरण-सेवाके अंगरूप चरण-पादुका प्रदान करनेकी प्रार्थना की। इतना ही नहीं, उन्होंने भगवान‍्के द्वारा दी हुई चरण-पादुकाओंको अपने मस्तकपर धारण करके उनको ही अपने वियोगकी अवधिका आधार बनाया तथा वे चित्रकूटसे लौटते समय मार्गमें भी चरण-पादुकाओंका ही मनन करते हुए नन्दिग्राम पहुँचे। वहाँ आकर भरतजी चरण-पादुकाओंको राज्यसिंहासनपर स्थापन करके राज्यका सारा कार्य उन्हींको निवेदन करके किया करते थे। वे चरण-पादुकाओंको ही अपने प्राणोंका आधार मानते और बहुत ही श्रद्धा-प्रेमपूर्वक उनका पूजन किया करते। वाल्मीकीय और अध्यात्मरामायणमें तो यहाँतक दिखलाया है कि जब श्रीरामचन्द्रजी महाराज अयोध्या लौटे, तब भरतजी चरण-पादुकाओंको मस्तकपर धारण करके उनके सामने गये। धन्य है, भरतजीकी चरण-सेवा-भक्तिको!

श्रीभरतजी कहते हैं—

यावन्न चरणौ भ्रातु: पार्थिवव्यंजनान्वितौ।
शिरसा प्रग्रहीष्यामि न मे शान्तिर्भविष्यति॥
(वा० रा०, अयोध्या० ९८। ९)

‘जबतक मैं राजाके उपयुक्त चिह्नोंसे युक्त भाईके चरणोंको सिरसे प्रणाम न कर लूँगा, तबतक मुझे शान्ति नहीं मिलेगी।’

श्रीरामचरितमानसमें लिखा है—

चरन रेख रज आँखिन्ह लाई।
बनइ न कहत प्रीति अधिकाई॥

तथा—

हरषहिं निरखि राम पद अंका।
मानहुँ पारसु पायउ रंका॥
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं।
रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥
देखि भरत गति अकथ अतीवा।
प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा॥

अध्यात्मरामायणमें बतलाया है—

स तत्र वज्रांकुशवारिजांचित-
ध्वजादिचिह्नानि पदानि सर्वत:।
ददर्श रामस्य भुवोऽतिमंगला-
न्यचेष्टयत्पादरज:सु सानुज:॥
अहो सुधन्योऽहममूनि राम-
पादारविन्दांकितभूतलानि।
पश्यामि यत्पादरजो विमृग्यं
ब्रह्मादिदेवै: श्रुतिभिश्च नित्यम्॥
(अयोध्या० ९। २-३)

‘भरतजीने वहाँ सब ओर भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके वज्र, अंकुश, कमल और ध्वजा आदिके चिह्नोंसे सुशोभित तथा पृथ्वीके लिये अतिमंगलमय चरण-चिह्न देखे। उन्हें देखकर भाई शत्रुघ्नके सहित वे उस चरणरजमें लोटने लगे और मन-ही-मन कहने लगे—‘अहो! मैं परम धन्य हूँ! जो आज श्रीरामचन्द्रजीके उन चरणारविन्दोंके चिह्नोंसे सुशोभित भूमिको देख रहा हूँ, जिनकी चरणरजको ब्रह्मा आदि देवगण और सम्पूर्ण श्रुतियाँ भी सदा खोजती रहती हैं।’’

जब चित्रकूटमें अनेक आग्रह करनेपर भी भगवान् श्रीराम अयोध्या चलनेको तैयार न हुए, तब भरतजीने कहा—

अधिरोहार्य पादाभ्यां पादुके हेमभूषिते।
एते हि सर्वलोकस्य योगक्षेमं विधास्यत:॥
चतुर्दश हि वर्षाणि जटाचीरधरो ह्यहम्॥
फलमूलाशनो वीर भवेयं रघुनन्दन।
तवागमनमाकाङ्क्षन् वसन् वै नगराद् बहि:॥
तव पादुकयोर्न्यस्य राज्यतन्त्रं परंतप।
चतुर्दशे हि सम्पूर्णे वर्षेऽहनि रघूत्तम॥
न द्रक्ष्यामि यदि त्वां तु प्रवेक्ष्यामि हुताशनम्।
(वा० रा०, अयोध्या० ११२। २१, २३—२६)

‘आर्य! आप इन दोनों सुवर्णभूषित पादुकाओंपर अपने चरण रखें! ये ही सम्पूर्ण जगत् के योग-क्षेमका निर्वाह करेंगी। वीर रघुनन्दन! मैं भी चौदह वर्षोंतक जटा और चीर धारण करके फल-मूलका भोजन करूँगा। हे परंतप! आपके आनेकी बाट जोहता हुआ नगरसे बाहर ही रहूँगा। इतने दिनोंतक राज्यका सारा भार आपकी इन चरण-पादुकाओंपर ही रहेगा। रघुनाथजी! चौदहवाँ वर्ष पूरा होनेके बाद यदि पहले ही दिन मुझे आपका दर्शन नहीं मिलेगा तो मैं जलती हुई आगमें प्रवेश कर जाऊँगा।

अध्यात्मरामायणमें भी भरतजी कहते हैं—

पादुके देहि राजेन्द्र राज्याय तव पूजिते।
तयो: सेवां करोम्येव यावदागमनं तव॥
(अयोध्या० ९। ४९)

‘राजेन्द्र! आप मुझे राज्य-शासनके लिये अपनी जगत्पूज्य चरण-पादुकाएँ दीजिये। जबतक आप लौटेंगे, तबतक मैं उन्हींकी सेवा करता रहूँगा।’

इत्युक्त्वा पादुके दिव्ये योजयामास पादयो:।
रामस्य ते ददौ रामो भरतायातिभक्तित:॥
गृहीत्वा पादुके दिव्ये भरतो रत्नभूषिते।
रामं पुन: परिक्रम्य प्रणनाम पुन: पुन:॥
भरत: पुनराहेदं भक्त्या गद‍्गदया गिरा।
नवपंचसमान्ते तु प्रथमे दिवसे यदि॥
नागमिष्यसि चेद् राम प्रविशामि महानलम्।
(अध्यात्म०, अयोध्या० ९। ५०—५३)

‘ऐसा कहकर भरतजीने श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें दो दिव्य पादुकाएँ (खड़ाऊँ) पहना दीं। श्रीरामचन्द्रजीने भरतका भक्तिभाव देखकर वे खड़ाऊँ भरतजीको दे दीं। भरतजीने वे रत्न-जटित दिव्य पादुकाएँ लेकर फिर श्रीरामचन्द्रजीकी परिक्रमा की और उन्हें बार-बार प्रणाम किया। तदनन्तर वे भरतजी प्रेमभरी गद‍्गद-वाणीसे इस प्रकार बोले—‘रामजी! यदि चौदह वर्षके व्यतीत होनेपर आप पहले दिन ही अयोध्या न लौटे तो मैं महान् अग्निमें प्रवेश कर जाऊँगा।’

श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—

प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं।
सादर भरत सीस धरि लीन्हीं॥

महाभारतमें बतलाया है—

विसर्जित: स रामेण पितुर्वचनकारिणा।
नन्दिग्रामेऽकरोद् राज्यं पुरस्कृत्यास्य पादुके॥
(वन० २७७। ३९)

‘पिताके वचनोंका पालन करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा विदा किये हुए भरतजी नन्दिग्राममें आ गये और उन श्रीरघुनाथजीकी पादुकाओंको सामने रखकर समस्त राज्यका पालन करने लगे।’

वाल्मीकीय रामायणमें वर्णन आता है कि भरतजी नन्दिग्राममें जाकर बड़े-बूढ़ोंसे इस प्रकार बोले—

एतद् राज्यं मम भ्रात्रा दत्तं संन्यासमुत्तमम्।
योगक्षेमवहे चेमे पादुके हेमभूषिते॥
(अयोध्या० ११५। १४)

‘मेरे भाई श्रीरामने मुझे उत्तम धरोहरके रूपमें यह राज्य दिया है और इसके योगक्षेमके संचालनके लिये ये दो स्वर्णभूषित पादुकाएँ दी हैं।’

फिर प्रजामण्डलसे कहने लगे—

छत्रं धारयत क्षिप्रमार्यपादाविमौ मतौ।
आभ्यां राज्ये स्थितो धर्म: पादुकाभ्यां गुरोर्मम॥
(वा० रा०, अयोध्या० ११५। १६)

‘ये पादुकाएँ आर्य श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंकी प्रतिनिधि हैं, अत: इनपर शीघ्र ही छत्र धारण करो। मेरे गुरु श्रीरामचन्द्रजीकी इन पादुकाओंसे ही राज्यमें धर्म स्थापित होगा।’

ततस्तु भरत: श्रीमानभिषिच्यार्यपादुके।
तदधीनस्तदा राज्यं कारयामास सर्वदा॥
तदा हि यत् कार्यमुपैति किंचि-
दुपायनं चोपहृतं महार्हम्।
स पादुकाभ्यां प्रथमं निवेद्य
चकार पश्चाद् भरतो यथावत्॥
(वा० रा०, अयोध्या० ११५। २३-२४)

‘तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीकी श्रेष्ठ पादुकाओंका अभिषेक करके और स्वयं सर्वदा उनके अधीन होकर श्रीमान् भरतजी उस समय राज्यका पालन करने लगे। उस समय जो कोई भी कार्य उपस्थित होता तथा जो कुछ भी श्रेष्ठ बहुमूल्य भेंट आती, वह सब भरतजी पहले पादुकाओंको निवेदित करके फिर उसका यथावत् प्रबन्ध कर देते।’

श्रीहनुमान‍्जीने नन्दिग्राममें आकर—

ददर्श भरतं दीनं कृशमाश्रमवासिनम्।
जटिलं मलदिग्धाङ्गं भ्रातृव्यसनकर्शितम्॥
फलमूलाशिनं दान्तं तापसं धर्मचारिणम्।
समुन्नतजटाभारं वल्कलाजिनवाससम्॥
नियतं भावितात्मानं ब्रह्मर्षिसमतेजसम्।
पादुके ते पुरस्कृत्य प्रशासन्तं वसुन्धराम्॥
(वा० रा०, युद्ध० १२५। ३०—३२)

—देखा कि भरतजी कृश और दीन हैं तथा आश्रम बनाकर रहते हैं। उनकी जटाएँ बढ़ी हुई हैं, शरीरपर मैल जम गया है, भाईके वनवासके दु:खने उन्हें बहुत ही कृश कर दिया है, फल-मूल ही उनका भोजन है, वे इन्द्रियोंका दमन करके तपस्यामें लगे हुए हैं और धर्मका आचरण करते हैं। उनके मस्तकपर जटाओंका भार है और शरीरपर वल्कल तथा मृगचर्मके वस्त्र हैं। उनका जीवन बहुत नियमित और अन्त:करण भगवान‍्के ध्यानसे विशुद्ध है, वे ब्रह्मर्षिके समान तेजस्वी भरतजी श्रीरघुनाथजीकी उन पादुकाओंको आगे रखकर पृथ्वीका शासन कर रहे हैं।’

महाभारतमें भी आया है—

स तत्र मलदिग्धाङ्गं भरतं चीरवाससम्॥
अग्रत: पादुके कृत्वा ददर्शासीनमासने।
(वन० ३९१। ६२-६३)

‘वनवाससे लौटकर उन भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने नन्दिग्राममें आकर चीर-वस्त्र पहने हुए और मैल जमे हुए शरीरवाले भरतको पादुकाओंको आगे रखकर आसनपर बैठे हुए देखा।’

श्रीरामचन्द्रजीको आते देखकर वे बड़े ही प्रसन्न हुए और—

आर्यपादौ गृहीत्वा तु शिरसा धर्मकोविद:॥
पाण्डुरं छत्रमादाय शुक्लमाल्योपशोभितम्।
शुक्ले च वालव्यजने राजार्हे हेमभूषिते॥
.........................................
प्रत्युद्ययौ तदा रामं महात्मा सचिवै: सह।
(वा० रा०, युद्ध० १२७। १७-१८, २१)

‘धर्मज्ञ भरतने अपने बड़े भाई श्रीरामचन्द्रजीकी पादुकाएँ सिरपर रख लीं तथा श्वेत मालाओंसे सुशोभित सफेद रंगका छत्र और राजाओंके योग्य सोनेसे मढ़े हुए दो सफेद चँवर भी ले लिये। उस समय वह महात्मा भरत मन्त्रियोंके साथ श्रीरामचन्द्रजीकी अगवानीके लिये शीघ्र ही चल पड़े।’

अध्यात्मरामायणमें भी लिखा है—

भरत: पादुके न्यस्य शिरस्येव कृताञ्जलि:॥
शत्रुघ्नसहितो रामं पादचारेण निर्ययौ।
(अध्यात्म०, युद्ध० १४। ७५-७६)

‘श्रीरघुनाथजीसे मिलनेके लिये भाई शत्रुघ्नके सहित भरतजी सिरपर भगवान‍्की पादुकाएँ रखकर हाथ जोड़े हुए पैदल ही चले।’

इस प्रकार चरण-पादुकाओंको चरणोंके तुल्य समझकर सेवा करनेका भाव, कथा या चरित्र भरतजीसे पूर्व कहीं देखनेमें नहीं आता। अत: हमलोगोंको भरतजीको आदर्श मानकर भगवान‍्के चरण, चरण-पादुका और चरण-रजकी सेवा करनी चाहिये।

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