(१) श्रवण-भक्ति
भगवान् के प्रेमी भक्तोंके द्वारा कथित भगवान्के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला, तत्त्व और रहस्यसे पूर्ण अमृतमयी कथाओंका श्रद्धा और प्रेमपूर्वक श्रवण करना एवं उन अमृतमयी कथाओंका श्रवण करके प्रेममें मुग्ध हो जाना श्रवण-भक्तिका स्वरूप है।
ये लक्षण श्रीभरतजीमें प्रत्यक्ष दीखते हैं। श्रीभगवान् के गुण, चरित्र, प्रेम और प्रभावको सुन-सुनकर भरतजी मुग्ध होते थे। जिस समय हनुमान्जी भगवान्का विजय-संदेश सुनाने भरतजीके पास नन्दिग्राममें पहुँचे, तब हनुमान्जीके द्वारा इस शुभ संदेशके सुनते ही भरतजीकी बड़ी ही अद्भुत दशा हो गयी।
उस अवस्थाका वर्णन करते हुए श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—
सुनत बचन बिसरे सब दूखा।
तृषावंत जिमि पाइ पियूषा॥
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मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता।
नयन स्रवत जल पुलकित गाता॥
कपि तव दरस सकल दुख बीते।
मिले आजु मोहि राम पिरीते॥
बार बार बूझी कुसलाता।
तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता॥
एहि संदेस सरिस जग माहीं।
करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं॥
नाहिन तात उरिन मैं तोही।
अब प्रभु चरित सुनावहु मोही॥
तब हनुमंत नाइ पद माथा।
कहे सकल रघुपति गुन गाथा॥
वाल्मीकीय रामायणमें भरतजी हनुमान् जी से कहते हैं—
बहूनि नाम वर्षाणि गतस्य सुमहद्वनम्।
शृणोम्यहं प्रीतिकरं मम नाथस्य कीर्तनम्॥
(युद्ध० १२६। १)
‘भगवान् श्रीरामचन्द्रजीको उस महान् वनमें गये बहुत-से वर्ष व्यतीत हो गये, किंतु उसके बाद आज ही मैं, मेरे स्वामीका प्रीतिकारक कीर्तन (संदेश) सुन रहा हूँ।’
ऐसा ही श्लोक कुछ पाठभेदसे अध्यात्मरामायणमें भी मिलता है। इसके बाद वहाँ बतलाया है—
एवमुक्तोऽथ हनुमान् भरतेन महात्मना॥
आचचक्षेऽथ रामस्य चरितं कृत्स्नश: क्रमात्।
श्रुत्वा तु परमानन्दं भरतो मारुतात्मजात्॥
(युद्ध० १४। ६५-६६)
‘इसके पश्चात् महात्मा भरतजीके इस प्रकार कहनेपर हनुमान्जीने श्रीरामचन्द्रजीका क्रमश: सम्पूर्ण चरित्र सुना दिया। पवनकुमार हनुमान्जीसे वह सब चरित्र सुनकर श्रीभरतजीको अत्यन्त आनन्द हुआ।’
उस समयकी भरतजीकी अवस्थाका वर्णन करते हुए महर्षि वाल्मीकिजी कहते हैं—
तत: स वाक्यैर्मधुरैर्हनूमतो
निशम्य हृष्टो भरत: कृताञ्जलि:।
उवाच वाणीं मनस: प्रहर्षिणीं
चिरस्य पूर्ण: खलु मे मनोरथ:॥
(वा० रा०, युद्ध० १२६। ५५)
‘इसके अनन्तर हनुमान्जीके उन मधुर वचनोंको श्रवण करके भरतजी बड़े ही प्रसन्न हुए। वे हाथ जोड़कर मनको अतिशय हर्षित करनेवाली वाणी बोले—‘अहो! आज मेरा बहुत दिनोंका मनोरथ पूर्ण हो गया।’
जिस समय भगवान् श्रीरामका राज्याभिषेक हो जानेपर सब भाई अयोध्यामें सुखपूर्वक निवास करने लगे, उस समय जब कभी भरतजी और शत्रुघ्नजी हनुमान् जी सहित उपवनमें जाया करते, तब श्रीहनुमान्जीसे भगवान्के गुणानुवाद सुना करते। उस वर्णनसे इनका कथा-श्रवणमें अत्यन्त अनुराग और तज्जन्य आह्लाद, मुग्धता आदि प्रत्यक्ष प्रकट हो रहे हैं। श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—
भरत सत्रुहन दोनउ भाई।
सहित पवनसुत उपबन जाई॥
बूझहिं बैठि राम गुन गाहा।
कह हनुमान सुमति अवगाहा॥
सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं।
बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं॥