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कीर्तन

भगवान‍्के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, चरित्र, तत्त्व और रहस्यका श्रद्धा और प्रेमपूर्वक उच्चारण करते-करते शरीरमें रोमांच, कण्ठावरोध, अश्रुपात, हृदयकी प्रफुल्लता, मुग्धता आदिका होना कीर्तन-भक्तिका स्वरूप है।

कथा-व्याख्यानादिके द्वारा भक्तोंके सामने भगवान‍्के प्रेम-प्रभावका कथन करना, एकान्तमें अथवा बहुतोंके साथ मिलकर भगवान‍्को सम्मुख समझते हुए उसके नामका उपांशु जप एवं ऊँचे स्वरसे कीर्तन करना, भगवान‍्के गुण, प्रभाव और चरित्र आदिका श्रद्धा और प्रेमपूर्वक धीरे-धीरे या जोरसे, खड़े या बैठे रहकर वाद्य-नृत्यके सहित अथवा बिना वाद्य-नृत्यके उच्चारण करना तथा दिव्य स्तोत्र एवं पदोंके द्वारा भगवान‍्की स्तुति-प्रार्थना करना, यही उपर्युक्त भक्तिको प्राप्त करनेका प्रकार है। किंतु ये सब क्रियाएँ नामके दस अपराधोंको बचाते हुए* दम्भरहित एवं शुद्ध भावनासे स्वाभाविक होनी चाहिये।

* सन्निन्दासति नामवैभवकथा
श्रीशेशयोर्भेदधी-
रश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकगिरां
नाम्न्यर्थवादभ्रम:।
नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहित-
त्यागो हि धर्मान्तरै:
साम्यं नाम्नि जपे शिवस्य च हरे-
र्नामापराधा दश॥
‘सत्पुरुषोंकी निन्दा, अश्रद्धालुओंमें नामकी महिमा कहना, विष्णु और शिवमें भेदबुद्धि, वेद, शास्त्र और गुरुकी वाणीमें अविश्वास, हरिनाममें अर्थवादका भ्रम अर्थात् केवल स्तुतिमात्र है ऐसी मान्यता, नामके बलसे विहितका त्याग और निषिद्धका आचरण, अन्य धर्मोंसे नामकी तुलना यानी शास्त्रविहित कर्मोंसे नामकी तुलना—ये सब भगवान् शिव और विष्णुके नामजपमें नामके दस अपराध हैं।’

उपर्युक्त कीर्तनभक्तिको प्राप्त करके सबको भगवान‍्में अनन्य प्रेम होकर उसकी प्राप्ति हो जाय, इस उद्देश्यसे कीर्तन करना, यह इसका प्रयोजन है।

कीर्तनभक्ति भी ईश्वर एवं महापुरुषोंकी कृपासे ही प्राप्त होती है। इसलिये इस विषयमें उनकी कृपा ही हेतु है। क्योंकि भगवान‍्के भक्तोंके द्वारा भगवान‍्के प्रेम, प्रभाव, तत्त्व और रहस्यकी बातोंको सुननेसे एवं शास्त्रोंको पढ़नेसे भगवान‍्में श्रद्धा होती है और तब मनुष्य उपर्युक्त कीर्तन-भक्तिको प्राप्त कर सकता है। अत: भगवान् और उनके भक्तोंकी दया प्राप्त करनेके लिये उनकी आज्ञाका पालन करना चाहिये।

इस प्रकारकी केवल कीर्तन-भक्तिसे भी मनुष्य परमात्माकी दयासे उसमें अनन्य प्रेम करके उसे प्राप्त कर सकता है। गीतामें भगवान‍्ने कहा है—

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(९। ३०-३१)

‘यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।’

इतना ही नहीं इस कीर्तन-भक्तिका प्रचारक तो भगवान‍्को सबसे बढ़कर प्रिय है। भगवान‍्ने गीतामें स्वयं कहा है—

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय:॥
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि॥
(१८। ६८-६९)

‘जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्रको मेरे भक्तोंमें कहेगा अर्थात् निष्कामभावसे प्रेमपूर्वक मेरे भक्तोंको पढ़ावेगा और अर्थकी व्याख्याद्वारा इसका प्रचार करके उनके हृदयमें धारण करावेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा—इसमें कोई सन्देह नहीं है। मेरा उससे बढ़कर अतिशय प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें कोई भी नहीं है; तथा मेरा पृथ्वीभरमें उससे बढ़कर प्रिय दूसरा कोई भविष्यमें होगा भी नहीं।’ यही इस कीर्तन-भक्तिका फल है।

भागवत और रामायण आदि सभी भक्तिके ग्रन्थोंमें भगवान‍्के केवल नाम और गुणोंके कीर्तनसे सब पापोंका नाश एवं भगवत्-प्राप्ति बतलायी है। श्रीमद्भागवतमें कहा है—

ब्रह्महा पितृहा गोघ्नो मातृहाऽऽचार्यहाघवान्।
श्वाद: पुल्कसको वापि शुद्‍ध्येरन्यस्य कीर्तनात्॥
(६। १३। ८)

‘ब्राह्मणघाती, पितृघाती, गोघाती, मातृघाती, गुरुघाती ऐसे पापी तथा चाण्डाल एवं म्लेच्छ जातिवाले भी जिसके कीर्तनसे शुद्ध हो जाते हैं।’

संकीर्त्यमानो भगवाननन्त:
श्रुतानुभावो व्यसनं हि पुंसाम्।
प्रविश्य चित्तं विधुनोत्यशेषं
यथा तमोऽर्कोऽभ्रमिवातिवात:॥
(श्रीमद्भा० १२। १२। ४७)

‘जिस तरह सूर्य अन्धकारको, प्रचण्ड वायु बादलको छिन्न-भिन्न कर देता है उसी तरह कीर्तित होनेपर विख्यात प्रभाववाले अनन्त भगवान् मनुष्योंके हृदयमें प्रवेश करके उनके सारे पापोंको निस्सन्देह विध्वंस कर डालते है।’ एवं—

आपन्न: संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो गृणन्।
तत: सद्यो विमुच्येतद‍‍्बिभेति स्वयं भयम्॥
(श्रीमद्भा० १। १। १४)

‘घोर संसारमें पड़ा हुआ यह मनुष्य जिस परमात्मासे स्वयं भय भी भय खाता है उस परमात्माके नामका विवश होकर भी उच्चारण करनेसे तुरंत संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।’

कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुण:।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसंग: परं व्रजेत्॥
(श्रीमद्भा० १२। ३। ५१)

‘हे राजन्! दोषके खजाने कलियुगमें एक ही यह महान् गुण है कि भगवान् कृष्णके कीर्तनसे ही मनुष्य आसक्तिरहित होकर परमात्माको प्राप्त हो जाता है।’

इत्थं हरेर्भगवतो रुचिरावतार-
वीर्याणि बालचरितानि च शन्तमानि।
अन्यत्र चेह च श्रुतानि गृणन्मनुष्यो
भक्तिं परां परमहंसगतौ लभेत॥
(श्रीमद्भा० ११। ३१। २८)

‘इस प्रकार इस भागवतमें अथवा अन्य सब शास्त्रोंमें वर्णित भगवान् कृष्णके सुन्दर अवतारोंके पराक्रमोंको तथा परम मंगलमय बालचरितोंको कहता हुआ मनुष्य परमहंसोंकी गतिस्वरूप भगवान‍्की परा भक्तिको प्राप्त करता है।’

अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान्
यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम्।
तेपुस्तपस्ते जुहुवु: सस्नुरार्या
ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते॥
(श्रीमद्भा० ३। ३३। ७)

‘अहो! आश्चर्य है कि जिसकी जिह्वापर तुम्हारा पवित्र नाम रहता है, वह चाण्डाल भी श्रेष्ठ है; क्योंकि जो तुम्हारे नामका कीर्तन करते हैं उन श्रेष्ठ पुरुषोंने तप, यज्ञ, तीर्थस्नान और वेदाध्ययन आदि सब कुछ कर लिया।’

रामचरितमानसमें गोस्वामी तुलसीदासजीने भी नाम-जपकी महिमा कही है—

नामु सप्रेम जपत अनयासा।
भगत होहिं मुद मंगल बासा॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू।
भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू।
अपने बस करि राखे रामू॥
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका।
भए नाम जपि जीव बिसोका॥
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई।
रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥

महर्षि पतंजलि भी कहते हैं—

तस्य वाचक: प्रणव:।
(योग० १।२७)

‘उस परमात्माका वाचक अर्थात् नाम ओंकार है।’

तज्जपस्तदर्थभावनम्।
(योग० १। २८)

‘उस परमात्माके नामका जप और उसके अर्थकी भावना अर्थात् स्वरूपका चिन्तन करना चाहिये।’

तत: प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च।
(योग० १। २९)

उपर्युक्त साधनसे सम्पूर्ण विघ्नोंका नाश और परमात्माकी प्राप्ति भी होती है। नारदपुराणमें भी कहा है—

हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
(१। ४१। ११५)

‘कलियुगमें केवल श्रीहरिका नाम ही कल्याणका परम साधन है, इसको छोड़कर दूसरा कोई उपाय ही नहीं है।’ इस तरह शास्त्रोंमें और भी बहुत-से प्रमाण मिलते हैं।

इस कीर्तन-भक्तिसे पूर्वकालमें बहुत-से तर गये हैं। इतिहास और पुराणोंमें एवं रामायणमें बहुत-से उदाहरण भी मिलते हैं।

भगवान‍्के नाम और गुणोंके कीर्तनके प्रतापसे पूर्वकालमें नारद, वाल्मीकि, शुकदेव आदि तथा अर्वाचीन समयमें गौरांग महाप्रभु, तुलसीदास, सूरदास, नानक, तुकाराम, नरसी, मीराबाई आदि अनेक भक्त परमपदको प्राप्त हुए हैं। इनके जीवनका इतिहास विख्यात ही है। परम भक्तोंकी बात तो छोड़ दीजिये, जो महापापी थे वे भी तर गये हैं। गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीने कहा है—

अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ।
भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥

अत: जैसे मेघको देखकर पपीहा जलके लिये पी-पी करता है वैसे ही भगवान‍्में परम प्रेम होनेके लिये एवं भगवान‍्की प्राप्तिके लिये भगवान‍्के नाम और गुणके कीर्तनकी नित्य-निरन्तर तत्पर होकर प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये!

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