स्मरण
प्रभुके नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला, तत्त्व और रहस्यकी अमृतमयी कथाओंका जो श्रद्धा और प्रेमपूर्वक श्रवण तथा पठन किया गया है उनका मनन करना एवं इस प्रकार मनन करते-करते देहकी सुधि भुलाकर भगवान्के स्वरूपमें ध्रुवकी भाँति तल्लीन हो जाना स्मरण-भक्तिका स्वरूप है।
जहाँतक हो सके, एकान्त एवं पवित्र स्थानमें सुखपूर्वक स्थिर, सरल आसनसे बैठकर इन्द्रियोंको विषयोंसे रहित करके कामना और संकल्पको त्याग कर प्रशान्त और वैराग्ययुक्त चित्तसे अथवा चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते, सभी काम करते हुए भी स्वाभाविक, शुद्ध और सरलभावसे भगवान्के सगुण-निर्गुण, साकार*-निराकारके तत्त्वको जानकर गुण और प्रभावसहित भगवान्के स्वरूपका चिन्तन करना, भगवान्के नामका मनसे स्मरण करना, भगवान्की लीलाओंका स्मरण करके मुग्ध होना, भगवान्के तत्त्व और रहस्य जाननेके लिये उनके गुण, प्रभावका चिन्तन करना तथा दिव्य स्तोत्र और पदोंसे मनके द्वारा स्तुति और प्रार्थना करना, इस तरह स्मरणके बहुत-से प्रकार शास्त्रोंमें बतलाये गये हैं।
* श्रीमद्भागवतमें सगुण साकारके ध्यान करनेका यह भी एक प्रकार है—
समं प्रशान्तं सुमुखं दीर्घचारुचतुर्भुजम्।
सुचारुसुन्दरग्रीवं सुकपोलं शुचिस्मितम्॥
समानकर्णविन्यस्तस्फुरन्मकरकुण्डलम्।
हेमाम्बरं घनश्यामं श्रीवत्सश्रीनिकेतनम्॥
शंखचक्रगदापद्मवनमालाविभूषितम्।
नूपुरैर्विलसत्पादं कौस्तुभप्रभया युतम्॥
द्युमत्किरीटकटककटिसूत्रांगदायुतम्।
सर्वांगसुन्दरं हृद्यं प्रसादसुमुखेक्षणम्।
सुकुमारमभिध्यायेत्सर्वांगेषु मनो दधत्॥
(११। १४। ३८—४१)
‘जो सम हैं, प्रशान्त हैं, जिनका मुख सुन्दर है, जिनकी लंबी-लंबी चार सुन्दर भुजाएँ हैं, जिनका कण्ठ अति सुन्दर है, जो सुन्दर कपोलवाले हैं, जिनकी मुसकान उज्ज्वल है, जो कानोंमें देदीप्यमान मकराकृत कुण्डलोंको धारण किये हुए हैं, जिनका वर्ण मेघके समान श्याम है, जो पीताम्बरधारी हैं, जिनके हृदयमें श्रीवत्स एवं लक्ष्मीका चिह्न है, जो शंख, चक्र, गदा, पद्म एवं वनमालासे विभूषित हैं, जिनके चरण नूपुरोंसे सुशोभित हैं, जो कौस्तुभमणिकी कान्तिसे युक्त हैं, जो कान्तिवाले किरीट, कड़े, मेखला और भुजबन्धों (बाजूबंद)-से युक्त हैं, जिनके सम्पूर्ण अंग सुन्दर हैं, जो मनोहर हैं, जो कृपायुक्त मुख-नेत्रवाले हैं, ऐसे सुकुमार भगवान्के अंगोंमें मनको लगाकर सम्यक् प्रकारसे ध्यान करे।’
प्रभुमें अनन्य प्रेम होकर उसकी प्राप्ति होना इसका उद्देश्य है।
प्रेमी भक्तोंके द्वारा नाम, रूप, गुण, प्रभाव आदिकी अमृतमयी कथाओंका श्रद्धा और प्रेमपूर्वक श्रवण करना, भगवद्विषयक धार्मिक पुस्तकोंका पठन-पाठन करना, भगवान्के नामका जप और कीर्तन करना, भगवान्के पद एवं स्तोत्रोंके द्वारा अथवा किसी भी प्रकारसे ध्यानके लिये करुणाभावसे स्तुति-प्रार्थना करना तथा भगवान् और महापुरुषोंकी आज्ञाका पालन करना आदि उपर्युक्त स्मरण-भक्तिको प्राप्त करनेके उपाय हैं।
ऊपर बतलायी हुई केवल स्मरण-भक्तिसे भी सारे पाप, विघ्न, अवगुण और दु:खोंका अत्यन्त अभाव हो जाता है। भगवत्-स्मरणके द्वारा मनुष्य जो कुछ भी चाहे प्राप्त कर सकता है। भगवत्-प्राप्तिरूप परमशान्तिकी प्राप्ति भी इससे अति शीघ्र एवं सुगमतासे हो जाती है। श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण, संत-महात्मा सबने एक स्वरसे भगवत्-स्मरण (ध्यान)-की बड़ी महिमा गायी है। कठोपनिषद्में कहा है—
एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम्।
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्॥
(१। २। १६)
‘यह ओंकार अक्षर ही ब्रह्म है, यही परब्रह्म है, इसी ओंकाररूप अक्षरको जानकर (उपासना करके) जो मनुष्य जिस वस्तुको चाहता है उसको वही मिलती है।’
सन्ध्योपासनविधिके आदिमें लिखा है—
अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:॥
‘अपवित्र हो, पवित्र हो, किसी भी अवस्थामें क्यों न हो, जो पुरुष भगवान् पुण्डरीकाक्षका स्मरण करता है वह बाहर और भीतरसे शुद्ध हो जाता है।’ श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान्ने कहा है—
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(६। ३०)
‘जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।’
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥
(गीता ८। ७-८)
‘इसलिये हे अर्जुन! तू सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिसे युक्त होकर तू नि:सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा। हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्वरके ध्यानके अभ्यासरूप योगसे युक्त दूसरी ओर न जानेवाले चित्तसे निरन्तर चिन्तन करता हुआ पुरुष परम प्रकाशस्वरूप दिव्य पुरुषको अर्थात् परमेश्वरको ही प्राप्त होता है।’
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(गीता ८। १४)
‘हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्य चित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तमको स्मरण करता है उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।’
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
(गीता ९। २२)
‘जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।’
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा:।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय:॥
(गीता १२। ६—८)
‘परन्तु जो मेरे परायण रहनेवाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मोंको मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वरको ही अनन्य भक्तियोगसे निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं, हे अर्जुन! उन मुझमें चित्तको लगानेवाले प्रेमी भक्तोंका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसारसमुद्रसे उद्धार करनेवाला होता हूँ। इसलिये हे अर्जुन! तू मुझमें मनको लगा और मुझमें ही बुद्धिको लगा; इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा अर्थात् मेरेको ही प्राप्त होगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।’
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर:।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्त: सततं भव॥
मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
(गीता १८। ५७-५८)
‘हे अर्जुन! तू सब कर्मोंको मनसे मुझमें अर्पण करके तथा समत्वबुद्धिरूप योगको अवलम्बन करके मेरे परायण और निरन्तर मुझमें चित्तवाला हो। उपर्युक्त प्रकारसे मुझमें चित्तवाला होकर मेरी कृपासे समस्त संकटोंको अनायास ही पार कर जायगा।’
श्रीमद्भागवतमें कहा है—
कीट: पेशस्कृता रुद्ध: कुड्यायां तमनुस्मरन्।
संरम्भभययोगेन विन्दते तत्सरूपताम्॥
एवं कृष्णे भगवति मायामनुज ईश्वरे।
वैरेण पूतपाप्मानस्तमापुरनुचिन्तया॥
कामाद् द्वेषाद्भयात्स्नेहाद्यथा भक्त्येश्वरे मन:।
आवेश्य तदघं हित्वा बहवस्तद्गतिं गता:॥
(७। १। २७—२९)
‘जैसे दीवालपर भँवरेके द्वारा रुद्ध किया हुआ कीड़ा भँवरेके क्रोधके भयसे उसका स्मरण करता हुआ उसके (भँवरेके) समान ही हो जाता है, वैसे ही मायासे मनुष्यरूप धारण करनेवाले परमेश्वर श्रीकृष्ण भगवान्का वैरभावसे भी बारंबार चिन्तन करते हुए बहुत लोग निष्पाप होकर उनको प्राप्त हो गये। इसी तरह काम, द्वेष, भय, स्नेह तथा भक्तिसे ईश्वरमें मन लगाकर बहुत-से साधक पापरहित होकर परमपदको प्राप्त हो चुके हैं।’
शृण्वन् गृणन् संस्मरयंश्च चिन्तयन्
नामानि रूपाणि च मंगलानि ते।
क्रियासु यस्त्वच्चरणारविन्दयो-
राविष्टचेता न भवाय कल्पते॥
(श्रीमद्भा० १०। २। ३७)
‘जो पुरुष सम्पूर्ण क्रियाओंको करते समय आपके मंगलमय रूप तथा नामोंका श्रवण, कथन, स्मरण एवं चिन्तन करता हुआ आपके चरणारविन्दोंमें ध्यान रखता है, वह फिर संसारमें नहीं आता।’
विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते।
मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते॥
(श्रीमद्भा० ११। १४। २७)
‘विषय-चिन्तन करनेवालेका मन विषयोंमें आसक्त होता है और मेरा बार-बार स्मरण करनेवालेका मन मुझमें ही लीन हो जाता है।’
अविस्मृति: कृष्णपदारविन्दयो:
क्षिणोत्यभद्राणि शमं तनोति च।
सत्त्वस्य शुद्धिं परमात्मभक्तिं
ज्ञानं च विज्ञानविरागयुक्तम्॥
(श्रीमद्भा० १२। १२। ५४)
‘श्रीकृष्णचन्द्र महाराजके चरणकमलोंकी स्मृति सब पापोंका नाश करती है तथा अन्त:करणकी शुद्धि, परमात्मामें भक्ति, विज्ञान-विरागसहित ज्ञान एवं शान्तिका विस्तार करती है।’
श्रीविष्णुसहस्रनामके आदिमें कहा है—
यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात्।
विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे॥
‘जिसके स्मरणमात्रसे मनुष्य जन्मरूपी संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है, संसारको उत्पन्न करनेवाले उस विष्णुके लिये नमस्कार है।’
श्रीतुलसीकृत रामायणमें सुतीक्ष्णकी स्मरण-भक्ति सराहनीय है। सुतीक्ष्ण भगवान्के प्रेममें मग्न होकर मन-ही-मन भगवान्का स्मरण करता हुआ कहता है—
सो परम प्रिय अति पातकी
जिन्ह कबहुँ प्रभु सुमिरन करॺो।
ते आजु मैं निज नयन देखौं
पूरि पुलकित हिय भरॺो॥
जे पदसरोज अनेक मुनि
करि ध्यान कबहुँक पावहीं।
ते राम श्रीरघुवंशमणि
प्रभु प्रेमतें सुख पावहीं॥
आगे जाकर भगवान्के ध्यानमें ऐसा मस्त हो गया कि उसे अपने तन-मनकी सुधि भी न रही।
मुनि मग माझ अचल होइ बैसा।
पुलक सरीर पनस फल जैसा॥
इतना ही नहीं, भगवान्के दर्शन होनेपर भी यही वर माँगा कि हे नाथ! मेरे हृदयमें आप निरन्तर वास करो।
अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम।
मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम॥
इससे यही सिद्ध होता है कि सुतीक्ष्णको भगवान्का ध्यान बहुत ही प्रिय था। इसी प्रकार स्मरण करनेवाले भक्तोंके शास्त्रोंमें बहुत-से नाम आते हैं, किन्तु सबका चरित्र न देकर केवल कतिपय भक्तोंके नाममात्र दे दिये जाते हैं। जैसे सनकादि, ध्रुव, भीष्म, कुन्ती आदि स्मरण-भक्तिसे ही परमपदको प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त नीच जातिवाली भिलनी एवं जटायु पक्षीको भी भगवत्-स्मरणसे परम गति मिली।
गुण प्रभाव एवं प्रेमसहित भगवान्के स्वरूपके ध्यानके समान इस संसारमें शीघ्र उद्धार करनेवाला और कोई भी साधन नहीं है। प्राय: सारे साधनोंका फल भगवत्-स्मरण है। इसलिये अपना सारा जीवन उपर्युक्त प्रकारसे भगवत्-चिन्तनमें बितानेकी कटिबद्ध होकर चेष्टा करनी चाहिये। श्रीकबीरदासजीने भी कहा है—
सुमिरनसों मन लाइये, जैसे दीप पतंग।
प्रान तजे छिन एकमें, जरत न मोड़ै अंग॥
सुमिरनसों मन लाइये, जैसे कीट भिरंग।
कबीर बिसारे आपको, होय जाय तेहि रंग॥
इसलिये भगवत्-प्राप्तिकी इच्छावाले साधक पुरुषको उचित है कि सब कार्य करते हुए भी जैसे कछुआ अण्डोंका, गऊ बछड़ेका, कामी स्त्रीका, लोभी धनका, नटी अपने चरणोंका, मोटर चलानेवाला सड़कका ध्यान रखता है, वैसे ही परमात्माका ध्यान रखे।