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॥ श्रीहरि:॥

नवधा भक्ति

भक्ति ही एक ऐसा साधन है जिसको सभी सुगमतासे कर सकते हैं और जिसमें सभी मनुष्योंका अधिकार है। इस कलिकालमें तो भक्तिके समान आत्मोद्धारके लिये दूसरा कोई सुगम उपाय है ही नहीं; क्योंकि ज्ञान, योग, तप, याग आदि इस समय सिद्ध होने बहुत ही कठिन हैं और इस समय इनके उपयुक्त सहायक सामग्री आदि साधन भी मिलने कठिन हैं। इसलिये मनुष्यको कटिबद्ध होकर केवल ईश्वरकी भक्तिका ही साधन करनेके लिये तत्पर होना चाहिये। विचार करके देखा जाय तो संसारमें धर्मको माननेवाले जितने लोग हैं उनमें अधिकांश ईश्वर-भक्तिको ही पसंद करते हैं। अब हमको यह विचार करना चाहिये कि ईश्वर क्या है और उसकी भक्ति क्या है? जो सबके शासन करनेवाले, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, सर्वान्तर्यामी हैं, न्याय और सदाचार जिनका कानून है, जो सबके साक्षी और सबको शिक्षा, बुद्धि और ज्ञान देनेवाले हैं तथा जो तीनों गुणोंसे अतीत होते हुए भी लीलामात्रसे गुणोंके भोक्ता हैं, जिनकी भक्तिसे मनुष्य सम्पूर्ण दुर्गुण, दुराचार और दु:खोंसे विमुक्त होकर परम पवित्र बन जाता है, जो अव्यक्त होकर भी जीवोंपर दया करके जीवोंके कल्याण एवं धर्मके प्रचार तथा भक्तोंको आश्रय देनेके लिये अपनी लीलासे समय-समयपर देव, मनुष्य आदि सभी रूपोंमें व्यक्त होते हैं अर्थात् साकाररूपसे प्रत्यक्ष प्रकट होकर भक्तजनोंको उनके इच्छानुसार दर्शन देकर आह्लादित करते हैं और जो सत्ययुगमें श्रीहरिके रूपमें, त्रेतायुगमें श्रीरामरूपमें, द्वापरयुगमें श्रीकृष्णरूपमें प्रकट हुए थे, उन प्रेममय नित्य अविनाशी विज्ञानानन्दघन, सर्वव्यापी हरिको ईश्वर समझना चाहिये।*

* इस विषयमें विशेष जानना हो तो ‘भगवान् क्या हैं?’ इस पुस्तकमें देख सकते हैं।

अब भक्ति किसका नाम है—इस विषयमें विचार करना चाहिये। महर्षि शाण्डिल्यने कहा है—‘सा परानुरक्तिरीश्वरे’ ‘ईश्वरमें परम अनुराग यानी परम प्रेम ही भक्ति है।’

देवर्षि नारदने भी भक्तिसूत्रमें कहा है—‘सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा’ (२) ‘उस परमेश्वरमें अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है।’ ‘अमृतस्वरूपा च’ (३) ‘और वह अमृतरूप है।’

इस प्रकार और भी बहुत-से वचन मिलते हैं। इनसे यही मालूम होता है कि ईश्वरमें जो परम प्रेम है, वही अमृत है, वही असली भक्ति है। यदि कहें कि व्याकरणसे भक्ति शब्दका अर्थ सेवा होता है; क्योंकि भक्ति शब्द ‘भज सेवायाम्’ धातुसे बनता है तो यह कहना भी ठीक ही है। प्रेम सेवाका फल है और भक्तिके साधनोंकी अन्तिम सीमा है। जैसे वृक्षकी पूर्णता और गौरव फल आनेपर ही है इसी प्रकार भक्तिकी पूर्णता और गौरव भगवान‍्में परम प्रेम होनेमें ही है। प्रेम ही उसकी पराकाष्ठा है और प्रेमके ही लिये सेवा की जाती है। इसलिये वास्तवमें भगवान‍्में अनन्य प्रेमका होना ही भक्ति है।

यद्यपि ईश्वरकी भक्तिमें सभी जीवोंका अधिकार होना न्याययुक्त है; क्योंकि हनुमान्, जाम्बवन्त, गजेन्द्र, गरुड़, काकभुशुण्डि और जटायु आदि पशु-पक्षी भी भगवान‍्की भक्तिके प्रतापसे परमपदको प्राप्त हुए हैं; परंतु मनुष्यातिरिक्त पशु-पक्षी आदिमें ज्ञान और साधनका अभाव होनेके कारण वे ईश्वर-भक्ति कर नहीं पाते—इसलिये शास्त्रकार ईश्वर-भक्तिमें मनुष्योंका अधिकार बतलाते हैं।

ईश्वरकी भक्तिमें आयु और रूपका तो कुछ भी मूल्य नहीं है। विद्या, धन, जाति और बल—ये भी मुख्य नहीं हैं एवं सदाचार और सद‍्गुणकी तरफ भी भगवान् इतना खयाल नहीं करते—वे केवल प्रेमको ही देखते हैं। किसी कविने कहा भी है—

व्याधस्याचरणं ध्रुवस्य च वयो
विद्या गजेन्द्रस्य का
का जातिर्विदुरस्य यादवपते-
रुग्रस्य किं पौरुषम्।
कुब्जाया: कमनीयरूपमधिकं
किं तत्सुदाम्नो धनं
भक्त्या तुष्यति केवलं न च गुणै-
र्भक्तिप्रियो माधव:॥

व्याधका कौन-सा (अच्छा) आचरण था? ध्रुवकी आयु ही क्या थी? गजेन्द्रके पास कौन-सी विद्या थी? विदुरकी कौन उत्तम जाति थी? यादवपति उग्रसेनका कौन-सा पुरुषार्थ था? कुब्जाका ऐसा क्या विशेष सुन्दर रूप था? सुदामाके पास कौन-सा धन था? भक्तिप्रिय माधव तो केवल भक्तिसे ही सन्तुष्ट होते हैं, गुणोंसे नहीं।

सदाचार और सद‍्गुण तो उस भक्तमें भक्तिके प्रभावसे अनायास ही आ जाते हैं, इसलिये ईश्वरकी भक्तिमें सदाचार और सद‍्गुणोंकी भी इतनी प्रधानता नहीं है; किंतु इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि ईश्वरकी भक्तिमें सदाचार और सद‍्गुणोंकी आवश्यकता ही नहीं है। जैसे बीमार आदमीके लिये रोगकी निवृत्तिमें औषधका सेवन प्रधान है और साथ-ही-साथ पथ्यकी भी आवश्यकता रहती है, इसी प्रकार जन्म-मरणरूपी भवरोगकी निवृत्तिके लिये ईश्वरकी भक्ति परमौषध है और सद‍्गुण तथा सदाचारका सेवन पथ्य है। लौकिक रोगकी निवृत्तिके लिये रोगी औषधका सेवन करता हुआ यदि पथ्यकी ओर ध्यान नहीं देता तो उसके रोगकी निवृत्ति प्राय: नहीं होती; किंतु सदाचार और सद‍्गुणरूपी पथ्यकी कमी रहनेपर भी भक्तिरूपी औषधके सेवनसे भवरोगकी निवृत्ति हो जाती है; क्योंकि भक्तिरूपी औषध पथ्यका काम भी कर लेती है। इतना ही नहीं, कुपथ्य-सेवनसे उत्पन्न हुए नाना प्रकारके दुर्गुण और विघ्नरूप दोषोंका नाश एवं सदाचार सद‍्गुणरूप पथ्यका उत्पादन भी ईश्वर-भक्ति कर देती है तथा सदाके लिये रोगकी जड़ उखाड़ डालती है। अत: ईश्वर-भक्ति परमौषध है।

भक्तिके प्रधान दो भेद हैं—एक साधनरूप, जिसको वैध और नवधाके नामसे भी कहा है और दूसरा साध्यरूप, जिसको प्रेमा-प्रेमलक्षणा आदि नामोंसे कहा है। इनमें नवधा साधनरूप है और प्रेम साध्य है।

अब यह विचार करना चाहिये कि वैध-भक्ति किसका नाम है। इसके उत्तरमें यही कहा जा सकता है कि स्वामी जिससे सन्तुष्ट हो उस प्रकारके भावसे भावित होकर उसकी आज्ञाके अनुसार आचरण करनेका नाम वैध-भक्ति है। शास्त्रोंमें उसके अनेक प्रकारके लक्षण बतलाये गये हैं।

तुलसीकृत रामायणमें शबरीके प्रति भगवान् श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं—

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥
नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना॥

तथा श्रीमद्भागवतमें भी प्रह्लादजीने कहा है—

श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
(७। ५। २३)

‘भगवान् विष्णुके नाम, रूप, गुण और प्रभावादिका श्रवण, कीर्तन और स्मरण तथा भगवान‍्की चरणसेवा, पूजन और वन्दन एवं भगवान‍्में दासभाव, सखाभाव और अपनेको समर्पण कर देना—यह नव प्रकारकी भक्ति है।’

इस प्रकार शास्त्रोंमें भक्तिके भिन्न-भिन्न प्रकारसे अनेक लक्षण बतलाये गये हैं, किन्तु विचार करनेपर सिद्धान्तमें कोई भेद नहीं है। तात्पर्य सबका प्राय: एक ही है कि स्वामी जिस भाव और आचरणसे सन्तुष्ट हो उसी प्रकारके भावोंसे भावित होकर उनकी आज्ञाके अनुकूल आचरण करना ही भक्ति है।

अब श्रीमद्भागवतमें प्रह्लादके द्वारा बतलायी हुई नवधा भक्तिके विषयमें उसके स्वरूप, विधि, प्रयोजन, हेतु, फल और उदाहरणका दिग्दर्शन कराया जाता है। इस उपर्युक्त नवधा भक्तिमेंसे एकका भी अच्छी प्रकार अनुष्ठान करनेपर मनुष्य परमपदको प्राप्त हो जाता है; फिर जो नवोंका अच्छी प्रकारसे अनुष्ठान करनेवाला है उसके कल्याणमें तो कहना ही क्या है।

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