श्रवण
भगवान्के प्रेमी भक्तोंद्वारा कथित भगवान्के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला, तत्त्व और रहस्यकी अमृतमयी कथाओंका श्रद्धा और प्रेमपूर्वक श्रवण करना एवं उन अमृतमयी कथाओंका श्रवण करके वीणाके सुननेसे जैसे हरिण मुग्ध हो जाता है, वैसे ही प्रेममें मुग्ध हो जाना श्रवणभक्तिका स्वरूप है।
उपर्युक्त श्रवणभक्तिकी प्राप्तिके लिये श्रद्धा और प्रेमपूर्वक महापुरुषोंको साष्टांग प्रणाम, उनकी सेवा और उनसे नित्य निष्कपटभावसे प्रश्न करना और उनके बतलाये हुए मार्गके अनुसार आचरण करनेके लिये तत्परतासे चेष्टा करना यह श्रवणभक्तिको प्राप्त करनेकी विधि है। श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान्ने कहा है—
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥
(४। ३४)
‘हे अर्जुन! उस ज्ञानको तू समझ; श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्यके पास जाकर उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे परमात्मतत्त्वको भलीभाँति जाननेवाले वे ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश करेंगे।’
महापुरुषोंके द्वारा वर्णित उपर्युक्त श्रवणभक्तिको प्राप्त करके प्रभुमें अनन्य प्रेम होनेके लिये प्रभुके भक्तोंमें उसका प्रचार करना—यह उसका प्रयोजन है।
यह श्रवणभक्ति महापुरुषोंके संग बिना प्राप्त होनी कठिन है। गोस्वामी तुलसीदासजीने भी कहा है—
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥
किन्तु महापुरुषोंके संगके अभावमें उच्च श्रेणीके साधकोंका संग एवं महापुरुषविरचित ग्रन्थोंका अवलोकन करना भी सत्संगके ही समान है।
सत्संग न होनेसे विषयोंका संग तो स्वाभाविक होता ही है। उससे मनुष्यका पतन हो जाता है और सत्संगसे प्रत्यक्ष परम लाभ होता है; क्योंकि मनुष्यके जैसा-जैसा संग होता है उस संगके अनुसार ही उसपर वैसा-वैसा प्रभाव पड़ता है। और श्रवणभक्ति भी सत्संगसे ही मिलती है इसलिये सत्संग ही श्रवणभक्तिका हेतु है।
उन सत्पुरुषोंके दर्शन, भाषण, स्पर्श, चिन्तन और संगसे पापी पुरुष भी पवित्र बन जाता है। महापुरुषोंकी कृपाके बिना कोई भी परमपदको प्राप्त नहीं हो सकता। श्रीमद्भागवतमें राजा रहूगणके प्रति महात्मा जडभरत कहते हैं कि—
रहूगणैतत्तपसा न याति
न चेज्यया निर्वपणाद् गृहाद्वा।
नच्छन्दसा नैव जलाग्निसूर्यै-
र्विना महत्पादरजोऽभिषेकम्॥
(५। १२। १२)
‘हे रहूगण! महापुरुषोंके चरणोंकी धूलमें स्नान किये बिना केवल तप, यज्ञ, दान, गृहस्थधर्मपालन और वेदाध्ययनसे तथा जल, अग्नि और सूर्यकी उपासनासे वह परमतत्त्वका ज्ञान नहीं प्राप्त होता।’
अतएव इससे यही सिद्ध होता है कि सारे कार्योंकी सिद्धि महापुरुषोंके संगसे ही होती है। श्रीमद्भागवतमें भगवान् उद्धवके प्रति कहते हैं—
यथोपश्रयमाणस्य भगवन्तं विभावसुम्।
शीतं भयं तमोऽप्येति साधून् संसेवतस्तथा॥
अन्नं हि प्राणिनां प्राणा आर्तानां शरणं त्वहम्।
धर्मो वित्तं नृणां प्रेत्य सन्तोऽर्वाग् बिभ्यतोऽरणम्॥
(११। २६। ३१,३३)
‘हे उद्धव! जिस प्रकार भगवान् अग्निदेवका आश्रय लेनेपर शीत, भय और अन्धकारका नाश हो जाता है उसी प्रकार संत-महात्माओंके सेवनसे सम्पूर्ण पापरूपी शीत, जन्म-मृत्युरूपी भय और अज्ञानरूपी अन्धकारका नाश हो जाता है।’
‘जैसे प्राणियोंका जीवन अन्न है और दु:खी पुरुषोंका आश्रय मैं हूँ तथा मरनेपर मनुष्योंका धर्म ही धन है, वैसे ही जन्म-मरणसे भयभीत हुए व्याकुल पुरुषोंके लिये संत-महात्माजन परमाश्रय हैं।’
न रोधयति मां योगो न साङ्ख्यं धर्म एव च।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा॥
व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमा:।
यथावरुन्धे सत्संग: सर्वसंगापहो हि माम्॥
(११। १२। १-२)
‘जैसे सम्पूर्ण आसक्तियोंका नाश करनेवाला सत्पुरुषोंका संग मुझको अवरुद्ध कर सकता है अर्थात् प्रेम-पाशसे बाँध सकता है वैसे योग, सांख्य, धर्मपालन, स्वाध्याय, तप, त्याग, यज्ञ, कूप-तड़ागादिका निर्माण, दान तथा व्रत, पूजा, वेदाध्ययन, तीर्थाटन, यम-नियमोंका पालन—ये कोई भी नहीं बाँध सकते अर्थात् इनके द्वारा मैं वशमें नहीं आ सकता।’
महापुरुषोंका संग दुर्लभ, अगम्य और अमोघ है। इसलिये भगवत्प्राप्तिके इच्छुक पुरुषोंको उन सत्पुरुषोंका संग अवश्यमेव करना चाहिये। देवर्षि नारदजी भी कहते हैं—
महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च।
(नारद० ३९)
‘महापुरुषोंका संग दुर्लभ, अगम्य और अमोघ है।’ अत:—
तदेव साध्यतां, तदेव साध्यताम्।
(नारद० ४२)
‘उस सत्संगकी ही साधना करो—सत्संगकी ही साधना करो अर्थात् संत-महापुरुषोंका संग, सेवा और आज्ञाका पालन करो।’
सत्पुरुषोंद्वारा प्राप्त हुई इस प्रकारकी केवल श्रवण-भक्तिसे भी मनुष्य परमपदको प्राप्त कर सकता है—यह उसका फल है। भगवान्ने श्रीमद्भगवद्गीतामें कहा है—
अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:॥
(१३। २५)
‘परंतु इनसे दूसरे अर्थात् जो मन्दबुद्धिवाले पुरुष हैं, वे स्वयं इस प्रकार न जानते हुए दूसरोंसे अर्थात् तत्त्वके जाननेवाले पुरुषोंसे सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागरको नि:सन्देह तर जाते हैं।’
नारदजीने भी श्रीमद्भागवतमाहात्म्यमें सनकादिके प्रति कहा है—
श्रवणं सर्वधर्मेभ्यो वरं मन्ये तपोधना:।
वैकुण्ठस्थो यत: कृष्ण: श्रवणाद् यस्य लभ्यते॥
(६। ७७)
‘हे तपोधनो! मैं भगवान्के गुणानुवादोंके श्रवणको सब धर्मोंसे श्रेष्ठ मानता हूँ; क्योंकि भगवान्के गुणानुवाद सुननेसे वैकुण्ठस्थित भगवान्की प्राप्ति हो जाती है।’
केवल श्रवणभक्तिसे भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। इसके लिये शास्त्रोंमें बहुत-से प्रमाण भी मिलते हैं तथा इतिहास और पुराणोंमें बहुत-से उदाहरण भी मिलते हैं। जैसे राजा परीक्षित् भागवतको सुननेसे ही परमपदको प्राप्त हो गये। श्रीमद्भागवतमाहात्म्यमें लिखा है—
असारे संसारे विषयविषसंगाकुलधिय:
क्षणार्द्धं क्षेमार्थं पिबत शुकगाथातुलसुधाम्।
किमर्थं व्यर्थं भो व्रजत कुपथे कुत्सितकथे
परीक्षित्साक्षी यच्छ्रवणगतमुक्त्युक्तिकथने॥
(६। १००)
‘हे विषयरूप विषके संसर्गसे व्याकुलबुद्धिवाले पुरुषो! किसलिये कुत्सित वार्तारूप कुमार्गमें व्यर्थ घूम रहे हो? इस असार संसारमें कल्याणार्थ (कम-से-कम) आधे क्षणके लिये तो शुकदेवजीके मुखसे निकली हुई भागवतकथारूप अनुपम अमृतका पान करो। श्रवणसे मुक्ति हो जाती है—इस कथनके लिये परीक्षित् साक्षी (प्रमाण) है।’
धुन्धुकारी-जैसा पापी भी केवल भगवान्के गुणानुवादोंके सुननेके प्रभावसे तर गया तथा शौनकादि बहुत-से ऋषि भी पुराण और इतिहासके श्रवणमें ही अपने समयको व्यतीत किया करते थे—वे कभी भी नहीं अघाते थे।
इस मनुष्य-जीवनके लिये और कोई भी इससे बढ़कर आनन्ददायक श्रवणीय विषय नहीं है और यह महापुरुषोंके संगसे ही प्राप्त होता है। इसलिये महापुरुषोंके संगके समान आनन्ददायक लाभप्रद संसारमें कोई भी पदार्थ मनुष्योंके लिये नहीं है। श्रीमद्भागवतमें सूतजी कहते हैं—
तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
भगवत्संगिसंगस्य मर्त्यानां किमुताशिष:॥
(१। १८। १३)
‘भगवत्संगी अर्थात् नित्य भगवान्के साथ रहनेवाले अनन्य प्रेमी भक्तोंके निमेषमात्रके भी संगके साथ हम स्वर्ग तथा मोक्षकी भी समानता नहीं कर सकते, फिर मनुष्योंके इच्छित पदार्थोंकी तो बात ही क्या है?’
अतएव अपना सारा जीवन महापुरुषोंके संगमें रहते हुए ही भगवान्के नाम, रूप, गुण, प्रेम, प्रभाव, लीला, धाम, रहस्य और तत्त्वकी अमृतमयी कथाओंको निरन्तर सुननेमें लगाना चाहिये और उन्हें सुन-सुनकर प्रेम और आनन्दमें मुग्ध होते हुए अपने मनुष्य-जीवनको सफल बनाना चाहिये।