पाद-सेवन
संचिन्तयेद्भगवतश्चरणारविन्दं
वज्रांकुशध्वजसरोरुहलाञ्छनाढ्यम्।
उत्तुंगरक्तविलसन्नखचक्रवाल-
ज्योत्स्नाभिराहतमहद्धृदयान्धकारम्॥
यच्छौचनि:सृतसरित्प्रवरोदकेन
तीर्थेन मूर्ध्न्यधिकृतेन शिव: शिवोऽभूत्।
ध्यातुर्मन:शमलशैलनिसृष्टवज्रं
ध्यायेच्चिरं भगवतश्चरणारविन्दम्॥
(श्रीमद्भा० ३। २८। २१-२२)
‘जो वज्र, अंकुश, ध्वजा एवं कमल आदि चिह्नोंसे युक्त हैं, जिनके शोभायुक्त, रक्तवर्ण, उन्नत नखमण्डलकी प्रभा भक्तोंके हृदयके महान् अन्धकारको पूर्णत: नष्ट कर देती है, श्रीभगवान्के उन चरणकमलोंका बड़े प्रेमसे चिन्तन करना चाहिये।’
‘जिनके चरणोंके प्रक्षालन जलसे निकली हुई गंगाजीके पवित्र जलको सिरपर धारण करके शिवने शिवत्व प्राप्त किया है और जो ध्यान करनेवाले पुरुषोंके अन्त:करणमें रहनेवाले पापरूप पहाड़ोंके लिये इन्द्रद्वारा छोड़े हुए वज्रके समान हैं अर्थात् जिनके ध्यानसे पापराशि नष्ट हो जाती है, भगवान्के उन चरणकमलोंका चिरकालतक चिन्तन करना चाहिये।’
श्रीभगवान्के दिव्य मंगलमय स्वरूपकी धातु आदिकी मूर्ति, चित्रपट अथवा मानस-मूर्तिके मनोहर चरणोंका श्रद्धापूर्वक दर्शन, चिन्तन, पूजन और सेवन करते-करते भगवत्प्रेममें तन्मय हो जाना ही ‘पाद-सेवन’ कहलाता है।
बार-बार अतृप्त नयनोंसे भगवान्के चरणारविन्दका दर्शन करना, हाथोंसे भगवच्चरणोंका पूजन और सेवन करना तथा चरणोदक लेना, मनसे भगवच्चरणोंका चिन्तन-पूजन-सेवन करना, भगवान्की चरणपादुकाओंका हाथोंसे पूजन और मनसे चिन्तन, सेवन तथा पूजन करना, भगवान्की चरणरजको मनसे मस्तकपर धारण करना, हृदयसे लगाना, भगवान्के चरणोंसे स्पर्श किये हुए शय्यासन आदिको तीर्थसे बढ़कर समझ उनका समादर करना, अयोध्या, चित्रकूट, वृन्दावन, मथुरा आदि स्थानोंको जहाँ-जहाँ भगवान्का अवतार या प्राकट्य हुआ है, या जहाँ-जहाँ भगवान्के चरण टिके हैं, परम तीर्थ समझकर—वहाँकी धूलिको भगवान्की चरणधूलि मानकर मस्तकपर धारण करना, जिस वस्तुको भगवान्का चरणस्पर्श प्राप्त हुआ है, उस वस्तुका हृदयसे आदर करना और उसे मस्तकपर धारण करना तथा श्रीगंगाजीके जलको भगवान्का चरणोदक समझकर प्रणाम-पूजन, स्नान-पानादिके द्वारा उसका सेवन करना आदि सभी ‘पाद-सेवन’ भक्तिके ही विभिन्न प्रकार हैं।
ममता, अहंकार और अभिमान आदिका नाश होकर प्रभुके चरणोंमें अनन्य प्रेमकी प्राप्ति होनेके उद्देश्यसे पाद-सेवन-भक्ति की जाती है।
भगवान्के अनन्य भक्तोंका संग करनेसे भगवान्की चरण-सेवाका तत्त्व, रहस्य और प्रभाव सुननेको मिलता है, उससे श्रद्धा होकर तब यह भक्ति प्राप्त होती है।
केवल इस पाद-सेवन-भक्तिसे भी मनुष्यके सम्पूर्ण दुराचार, दुर्गुण और दु:ख सर्वथा नष्ट हो जाते हैं और भगवान्में सहज ही अतिशय श्रद्धा और प्रेम होकर उसे आत्यन्तिकी परमा शान्तिकी प्राप्ति होती है। उसके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता।
शास्त्र और महात्माओंने पाद-सेवन-भक्तिकी बड़ी महिमा गायी है। श्रीशंकराचार्य कहते हैं कि भगवान्की चरणकमलरूपी नौका ही संसार-सागरसे पार उतारनेवाली है—
अपारसंसारसमुद्रमध्ये
सम्मज्जतो मे शरणं किमस्ति।
गुरो कृपालो कृपया वदैतद्
विश्वेशपादाम्बुजदीर्घनौका॥
शिष्य—‘हे कृपालु गुरुदेव! आप कृपा करके यह बतावें कि इस अपार संसाररूपी समुद्रमें मुझ डूबते हुएके लिये सहारा क्या है?’ गुरु—‘भगवान् विश्वेश्वरके चरण-कमलरूप जहाज ही एकमात्र सहारा है।’
भगवान्के चरणोदकका पान करनेसे और उसे मस्तकपर धारण करनेसे भी कल्याण होता है। भगवान् श्रीरामचन्द्रजीका चरणामृत पीकर उन्हें नौकासे उस पार ले जाते समयके प्रसंगमें केवटकी महिमा गाते हुए श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—
पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥
नित्य-निरन्तर प्रभुके चरणोंका दर्शन और सेवन करके पल-पलमें किस प्रकार आनन्दित होना चाहिये, इसका आदर्श श्रीसीताजी हैं। वनगमनके समय आप भगवान्से कहती हैं—
छिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकी।
रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी॥
मोहि मग चलत न होइहि हारी।
छिनु छिनु चरन सरोज निहारी॥
पाय पखारि बैठि तरु छाहीं।
करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं॥
सम महि तृन तरुपल्लव डासी।
पाय पलोटिहि सब निसि दासी॥
भगवान् श्रीरामके चरणचिह्न, चरणरज और चरणपादुकाके दर्शन तथा सेवनसे भरतजीको कितना आनन्द प्राप्त होता है और उनकी कैसी प्रेमतन्मय दशा हो जाती है। भगवान् शिवके शब्दोंमें सुनिये—
स तत्र वज्रांकुशवारिजांचित-
ध्वजादिचिह्नानि पदानि सर्वत:।
ददर्श रामस्य भुवोऽतिमंगला-
न्यचेष्टयत्पादरज:सु सानुज:॥
अहो सुधन्योऽहममूनि राम-
पादारविन्दांकितभूतलानि।
पश्यामि यत्पादरजो विमृग्यं
ब्रह्मादिदेवै: श्रुतिभिश्च नित्यम्॥
(अध्यात्मरामायण २। ९। २-३)
‘वहाँ उन्होंने सब ओर श्रीरामचन्द्रके वज्र, अंकुश, कमल और ध्वजा आदिके चिह्नोंसे सुशोभित तथा पृथ्वीके लिये अति मंगलमय चरणचिह्न देखे, उन्हें देखकर भाई शत्रुघ्नके साथ वे उस चरणरजमें लोटने लगे और मन-ही-मन कहने लगे—‘अहो! मैं परम धन्य हूँ जो आज भगवान् श्रीरामजीके उन चरणारविन्दोंके चिह्नोंसे विभूषित भूमिको देख रहा हूँ, जिनकी चरणरजको ब्रह्मादि देवता और श्रुतियाँ भी सदा खोजती रहती हैं।’
गोसाईं श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं।
रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥
नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति।
मागि मागि आयसु करत राजकाज बहु भाँति॥
अहल्या भगवान्के चरणरजको पाकर कृतार्थ हो जाती है और कहती है—
अहो कृतार्थास्मि जगन्निवास ते
पादाब्जसंलग्नरज:कणादहम्।
स्पृशामि यत्पद्मजशंकरादिभि-
र्विमृग्यते रन्धितमानसै: सदा॥
(अ० रा० १। ५। ४३)
‘हे जगन्निवास! आपके चरणकमलोंमें लगे हुए रज:कणोंका स्पर्श पाकर आज मैं कृतार्थ हो गयी। अहो! आपके जिन चरणारविन्दोंका ब्रह्मा, शंकर आदि सदा चित्त लगाकर अनुसन्धान किया करते हैं, आज मैं उन्हींका स्पर्श कर रही हूँ।’
भगवान्के चरणोंका आश्रय लेनेसे मनुष्यके सब दोषोंका नाश हो जाता है, उसकी सारी विपत्तियाँ टल जाती हैं और गोपदके समान संसार-सागरसे तर जाता है। श्रीमद्भागवतमें कहा है—
तावद्भयं द्रविणगेहसुहृन्निमित्तं
शोक: स्पृहा परिभवो विपुलश्च लोभ:।
तावन्ममेत्यसदवग्रह आर्तिमूलं
यावन्न तेऽङ्घ्रिमभयं प्रवृणीतलोक:॥
(३। ९। ६)
‘हे प्रभो? जबतक लोग तुम्हारे अभय चरणकमलोंका सच्चे हृदयसे आश्रय नहीं लेते तभीतक धन, घर, मित्र आदिके निमित्तसे भय, शोक, स्पृहा, पराजय एवं महान् लोभ—ये सब होते हैं और तभीतक सम्पूर्ण दु:खोंका मूल ‘यह मेरा है’ ऐसी झूठी धारणा रहती है। अर्थात् भगवान्की चरण-शरणमें आनेपर यह सब नष्ट हो जाते हैं।’
समाश्रिता ये पदपल्लवप्लवं
महत्पदं पुण्ययशो मुरारे:।
भवाम्बुधिर्वत्सपदं परं पदं
पदं पदं यद्विपदां न तेषाम्॥
(श्रीमद्भा० १०। १४। ५८)
‘जिन्होंने संतोंके आश्रयणीय, पवित्र यशवाले भगवान्के पदपल्लवरूपी जहाजका आश्रय लिया है, उनके लिये संसारसागर, बछड़ेका पैर टिके इतना-सा हो जाता है, उन्हें पद-पदमें परम पद प्राप्त है, इसलिये कभी भी उन्हें विपत्तियोंके दर्शन नहीं होते।’
त्वय्यम्बुजाक्षाखिलसत्त्वधाम्नि
समाधिनाऽऽवेशितचेतसैके।
त्वत्पादपोतेन महत्कृतेन
कुर्वन्ति गोवत्सपदं भवाब्धिम्॥
(श्रीमद्भा० १०। २। ३०)
‘हे कमलनयन! कई संतलोग सम्पूर्ण सत्त्वके धाम तुममें समाधिके द्वारा अपना चित्त तल्लीन करके महात्माओंके द्वारा अनुभूत तुम्हारे चरणकमलोंका जहाज बनाकर संसार-सागरको गोवत्सपदके समान पार कर जाते हैं।’
भगवान्की चरणरजके शरण हुए प्रेमी भक्त तो स्वर्गादिकी तो बात ही क्या, मोक्षतकका तिरस्कार कर चरणरजके सेवनमें ही संलग्न रहना चाहते हैं। नागपत्नियाँ कहती हैं—
न नाकपृष्ठं न च सार्वभौमं
न पारमेष्ठ्यं न रसाधिपत्यम्।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा
वाञ्छन्ति यत्पादरज: प्रपन्ना:॥
(श्रीमद्भा० १०। १६। ३७)
‘आपकी चरणधूलिकी शरण ग्रहण करनेवाले भक्तजन न स्वर्ग चाहते हैं, न चक्रवर्तिता, न ब्रह्माका पद, न सारी पृथ्वीका स्वामित्व और न योगसिद्धियाँ ही; अधिक क्या, वे मोक्षपदकी भी वाञ्छा नहीं करते।’
भगवान्की केवल पाद-सेवन-भक्तिसे ही भगवान्के अनन्य प्रेमको प्राप्त करनेवाले अनेकों भक्तोंका शास्त्रोंमें वर्णन आता है। अतएव भगवान्के पवित्र चरणोंमें श्रद्धापूर्वक मन लगाकर उनका नित्य सेवन करना चाहिये।