श्रीभरतजीमें नवधा भक्ति
श्रीमद्भागवतमें वर्णित नवधा भक्तिके आदर्श श्रीप्रह्लादजी थे। जब हिरण्यकशिपुने पूछा कि तुमने गुरुजीसे इतने कालतक जो कुछ पढ़ा है, उन पढ़े हुए पाठोंमें जिसको तुम सबसे श्रेष्ठ समझते हो, उसे सुनाओ; तब श्रीप्रह्लादजीने कहा—
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा।
क्रियते भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम्॥
(श्रीमद्भा० ७। ५। २३-२४)
‘भगवान् श्रीविष्णुके नाम, रूप, गुण और प्रभावादिका श्रवण, कीर्तन और स्मरण तथा भगवान्की चरण-सेवा, पूजन और वन्दन एवं भगवान्में दासभाव, सखाभाव और अपनेको समर्पण कर देनेका भाव—यह नौ प्रकारकी भक्ति है। यदि मनुष्यके द्वारा इस तरह यह नौ प्रकारकी भक्ति भगवान् श्रीविष्णुके प्रति की जाय तो मैं उसको निश्चय ही उत्तम अध्ययन समझता हूँ।’
श्रीप्रह्लादजीके द्वारा कथित नवधा भक्तिके ये सारे-के-सारे प्रकार परम प्रेमी अनन्य भक्त श्रीभरतजीमें प्राप्त होते हैं। भरतजी सदाचार-सद्गुणसम्पन्न, ज्ञानवान्, विरक्त, त्यागी एवं भगवान्के अनन्य विशुद्ध निष्काम प्रेमी भक्त थे। श्रीतुलसीदासजीने अपने रामचरितमानसमें उनकी महिमाका जगह-जगह मुक्तकण्ठसे गान किया है। श्रीरामचरितमानसमें जहाँ भी भरतजीका चरित्र आया है, उसको पढ़नेसे यदि पाठकके हृदयमें थोड़ा भी प्रेम हो तो उसका हृदय गद्गद हो जाता है और अश्रुपात होने लगते हैं।
भरतजीकी महिमाके वर्णनमें श्रीतुलसीदासजीने स्वयं कहा है—
भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु।
कबिहि अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु॥
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भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई।
सुनत सुखद बरनत कठिनाई॥
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भरत रहनि समुझनि करतूती।
भगति बिरति गुन बिमल बिभूती॥
बरनत सकल सुकबि सकुचाहीं।
सेस गनेस गिरा गमु नाहीं॥
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सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरतको॥
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को॥
श्रीजनकजी तो भरतजीके चरित्र, गुण, भक्ति और प्रेमभावको देखकर मुग्ध ही हो गये। चित्रकूटमें वे अपनी पत्नी रानी सुनयनासे कहते हैं—
सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि।
भरत कथा भव बंध बिमोचनि॥
धरम राजनय ब्रह्मबिचारू।
इहाँ जथामति मोर प्रचारू॥
सो मति मोरि भरत महिमाही।
कहै काह छलि छुअति न छाँही॥
बिधि गनपति अहिपति सिव सारद।
कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद॥
भरत चरित कीरति करतूती।
धरम सील गुन बिमल बिभूती॥
समुझत सुनत सुखद सब काहू।
सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू॥
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भरत अमित महिमा सुनु रानी।
जानहिं रामु न सकहिं बखानी॥
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देबि परंतु भरत रघुबर की।
प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी॥
भरतु अवधि सनेह ममता की।
जद्यपि रामु सीम समता की॥
परमारथ स्वारथ सुख सारे।
भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे॥
साधन सिद्धि राम पग नेहू।
मोहि लखि परत भरत मत एहू॥
भरतजी महाराज प्रेममयी भक्तिके अगाध सागर थे, या यों कहिये कि वे साक्षात् प्रेमकी मूर्ति ही थे। जहाँ-कहीं भरतजीका चरित्र देखते हैं, वहीं प्रेमका समुद्र लहराता दीखता है। इसके सिवा, वे सद्गुण-सदाचारमें भी अद्वितीय थे। जिनके गुण, चरित्र, स्वभाव और प्रेमको देखकर श्रीरामचन्द्रजी भी मुग्ध हो गये। वे कहते हैं—
तात भरत तुम्ह धरम धुरीना।
लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना॥
करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात।
गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात॥
भरतजीकी महिमा कहाँतक बतलायी जाय? उनकी महिमा रामायणमें भरी पड़ी है। यहाँ तो केवल संक्षेपमें कुछ दिग्दर्शन कराया गया है। लेखका कलेवर न बढ़ जाय, इसलिये अधिक प्रमाण उद्धृत नहीं किये गये।
अब भक्तिके उपर्युक्त नौ प्रकार श्रीभरतजीके जीवन-चरित्रमें जिस प्रकार घटित हुए हैं, इसका महाभारत, श्रीरामचरितमानस, पद्मपुराण, वाल्मीकिरामायण, अध्यात्मरामायण आदि ग्रन्थोंके आधारपर कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है।