॥ श्रीहरि:॥
आवश्यक शिक्षा
मनुष्यमात्र वास्तवमें विद्यार्थी ही है। देवता, यक्ष, राक्षस, पशु, पक्षी आदि जितनी स्थावर-जंगम योनियाँ हैं, वे सब भोगयोनियाँ हैं। उनमें मनुष्ययोनि केवल ब्रह्मविद्या प्राप्त करनेके लिये है, अविद्या और भोग प्राप्त करनेके लिये नहीं।
मनुष्यशरीर केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है; अत: परमात्मप्राप्ति कर लेना ही वास्तवमें मनुष्यता है। इसलिये मनुष्ययोनि वास्तवमें साधनयोनि ही है। मनुष्ययोनिमें जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं, यदि उनमें मनुष्य सुखी-दु:खी होता है तो वह भोगयोनि ही हुई और भोग भोगनेके लिये वह नये कर्म करता है तो भी उसमें भोगयोनिकी ही मुख्यता रही। अत: अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिको साधन-सामग्री बना लेना और भोग भोगने तथा स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्तिके उद्देश्यसे नये कर्म न करना, प्रत्युत परमात्मप्राप्तिके लिये शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार कर्तव्यकर्म करना ही मनुष्यता है। इस दृष्टिसे मनुष्यमात्रको साधक, विद्यार्थी कह सकते हैं।
मनुष्य-जीवनमें आश्रमोंके चार विभाग किये गये हैं—ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। जैसे, सौ वर्षकी आयुमें पचीस वर्षतक ब्रह्मचर्याश्रम, पचीससे पचास वर्षतक गृहस्थाश्रम, पचाससे पचहत्तर वर्षतक वानप्रस्थाश्रम और पचहत्तरसे सौ वर्षतक संन्यासाश्रम बताया गया है। ब्रह्मचर्याश्रम (विद्यार्थी-जीवन)-में गुरु-आज्ञाका पालन, गृहस्थाश्रममें अतिथि-सत्कार, वानप्रस्थाश्रममें तपस्या और संन्यासाश्रममें ब्रह्मचिन्तन करना मुख्य है।
ब्रह्मचारी (विद्यार्थी) दो तरहके होते हैं—नैष्ठिक और उपकुर्वाण। नैष्ठिक ब्रह्मचारी वे होते हैं, जो अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए, विवेक-विचारके द्वारा भोगासक्तिका त्याग करके परमात्माकी तरफ ही चल पड़े हैं। उपकुर्वाण ब्रह्मचारी वे होते हैं, जो विचारके द्वारा भोगासक्तिका त्याग नहीं कर सके; अत: केवल भोगासक्तिको मिटानेके लिये गृहस्थ-आश्रममें प्रवेश करते हैं। वे शास्त्रविधिपूर्वक विवाह करते हैं और धर्मका पालन करते हुए त्यागदृष्टिसे उपार्जन और भोग करते हैं। उनके सामने धर्मकी मुख्यता रहती है। धर्मका पालन करनेसे उनको भोग और संग्रहसे स्वत: वैराग्य हो जाता है—‘धर्म तें बिरति’ (मानस ३।१६।१) और वे परमात्माकी तरफ चल पड़ते हैं।
प्रश्न—विद्यार्थी किसे कहते हैं?
उत्तर—जो केवल विद्याध्ययन करना चाहता है, उसको विद्यार्थी कहते हैं। ‘विद्यार्थी’ शब्दका अर्थ है—विद्याका अर्थी अर्थात् केवल विद्या चाहनेवाला। कौन-सी विद्या? विद्याओंमें श्रेष्ठ ब्रह्मविद्या—‘अध्यात्मविद्या विद्यानाम्’ (गीता १०।३२)।
प्रश्न—विद्याका वास्तविक स्वरूप क्या है?
उत्तर—कुछ भी जानना विद्या है। अनेक शास्त्रोंका, कला-कौशलोंका, भाषाओं आदिका ज्ञान विद्या है। वास्तवमें विद्या वही है, जिससे जानना बाकी न रहे, जीवकी मुक्ति हो जाय—‘सा विद्या या विमुक्तये’ (विष्णुपुराण १।१९।४१)। अगर जानना बाकी रह गया तो वह विद्या क्या हुई!
एक शब्दब्रह्म (वेद) है और एक परब्रह्म (परमात्मतत्त्व)है। अगर शब्दब्रह्मको जान लिया, पर परब्रह्मको नहीं जाना तो केवल परिश्रम ही हुआ—
शब्दब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात् परे यदि।
श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्यधेनुमिव रक्षत:॥
(श्रीमद्भा० ११।११।१८)
अत: परमात्मतत्त्वको जानना ही मुख्य विद्या है और इसीमें मनुष्यजीवनकी सफलता है।
जिससे जीविकाका उपार्जन हो, नौकरी मिले, वह भी विद्या है, पर वह विद्या परमात्मप्राप्तिमें सहायक नहीं होती, प्रत्युत कहीं-कहीं उस विद्याका अभिमान होनेसे वह विद्या परमात्मप्राप्तिमें बाधक हो जाती है। विद्याके अभिमानीको कोई ब्रह्मनिष्ठ महात्मा मिल जाय तो वह तर्क करके उनकी बातको काट देगा, उनको चुप करा देगा, जिससे वह वास्तविक लाभसे वंचित रह जायगा। अत: कहा गया है—
षडङ्गादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति।
यशोदाकिशोरे मनो वै न लग्नं
तत: किं तत: किं तत: किं तत: किम्॥
‘छहों अंगोंसहित वेद और शास्त्रोंको पढ़ा हो, सुन्दर गद्य और पद्यमय काव्य-रचना करता हो, पर यदि यशोदानन्दनमें मन नहीं लगा तो उन सभीसे क्या लाभ है?’
प्रश्न—विद्या ग्रहण करनेकी क्या आवश्यकता है?
उत्तर—विद्याके बिना मनुष्यजन्म सार्थक नहीं होगा, प्रत्युत मनुष्यजन्म और पशुजन्म एक समान ही होंगे। अत: विद्याकी अत्यन्त आवश्यकता है।
कोई भी कार्य आरम्भ होता है तो वह किसी उद्देश्यको लेकर ही होता है। मनुष्यजन्म केवल दु:खोंका अत्यन्ताभाव और परमानन्दकी प्राप्तिके उद्देश्यसे ही मिला है। इस उद्देश्यकी सिद्धि अगर नहीं हुई तो मनुष्यता नहीं है। जैसे पशु-पक्षी आदि भोगयोनि है, ऐसे ही परमात्मप्राप्तिके बिना मनुष्य भी भोगयोनि ही है। कारण कि परमात्मप्राप्तिका अवसर प्राप्त करके भी मनुष्य केवल भोगोंमें लगा रहा तो वह भोगयोनि ही हुई और उसका पतन ही हुआ—‘तमारूढच्युतं विदु:’ (श्रीमद्भा० ११।७।७४)।
यदि मनुष्यजन्म चौरासी लाख योनियोंमें जानेके लिये, बार-बार जन्मने-मरनेके लिये ही हुआ तो फिर उसमें मनुष्यता क्या हुई? अत: मनुष्यजन्ममें विद्यार्थीको परमात्माकी प्राप्ति कर लेनी चाहिये, जिससे बढ़कर कोई लाभ नहीं—
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥
(गीता ६।२२)
‘जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर मनुष्य बड़े भारी दु:खसे भी विचलित नहीं किया जा सकता।’
वास्तवमें ब्रह्मविद्या ही विद्या है, अन्य विद्या तो अविद्या है। कारण कि ब्रह्मविद्याके प्राप्त होनेपर कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अन्य (लौकिक) विद्याएँ नहीं पढ़नी चाहिये। अन्य विद्याएँ भी पढ़नी चाहिये। अन्य भाषाओं, लिपियों आदिका ज्ञान-सम्पादन करना उचित है, पर उनमें ही लिप्त रहना उचित नहीं है; क्योंकि उनमें ही लिप्त रहनेसे मनुष्यजन्म निरर्थक चला जायगा। दूसरी बात, लौकिक विद्याओंको पढ़नेसे ‘मैं पढ़ा-लिखा हूँ’—ऐसा एक अभिमान पैदा हो जायगा, जिससे बन्धन और दृढ़ हो जायगा।
शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा
यस्तु क्रियावान्पुरुष: स विद्वान्।
‘शास्त्रोंको पढ़कर भी लोग मूर्ख बने रहते हैं। वास्तवमें विद्वान् वही है, जो शास्त्रके अनुकूल आचरण करता है।’
मनुष्यजन्मका उद्देश्य है—परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति करना और उसका साधन है—संसारकी सेवा। अत: लौकिक विद्या, धन, पद आदिका उपयोग संसारकी सेवामें ही है। ये संसारकी सेवामें ही काम आ सकते हैं, परमात्मप्राप्तिमें नहीं, क्योंकि परमात्मप्राप्ति लौकिक विद्याके अधीन नहीं है। जिसके पास लौकिक विद्या आदि है, उसीपर संसारकी सेवा करनेकी जिम्मेवारी है। मालपर ही जकात लगती है और इनकमपर ही टैक्स लगता है। माल नहीं हो तो जकात किस बातकी? इनकम नहीं हो तो टैक्स किस बातका?
लौकिक विद्या, धन, पद आदिको लेकर संसारमें मनुष्यकी जो प्रशंसा होती है, वह एक तरहसे मनुष्यकी निन्दा ही है। तात्पर्य है कि महिमा तो लौकिक विद्या आदिकी ही हुई, खुदकी तो निन्दा ही हुई! अत: जो लौकिक विद्या आदिसे अपनेको बड़ा मानता है, वह वास्तवमें अपनेको छोटा ही बनाता है।
प्रश्न—विद्याध्ययन बाल्यावस्थामें ही करना चाहिये या आजीवन?
उत्तर—बाल्यावस्थामें विद्याध्ययन करनेका नियम केवल उपकुर्वाण ब्रह्मचारीके लिये ही है। जो नैष्ठिक ब्रह्मचारी है, उसको तो आजीवन शास्त्रोंका, ब्रह्मविद्याका अध्ययन करते रहना चाहिये।
प्रश्न—अगर कोई विद्यार्थी विद्याध्ययन करते हुए बीचमें ही मर जाय तो उसकी क्या गति होगी?
उत्तर—विद्याध्ययन एक तपश्चर्या है, जो विद्यार्थीको शुद्ध कर देती है—‘स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते’ (गीता १७।१५)। अत: संसारमें भोग और संग्रहमें लगे हुए प्राणियोंसे वह बहुत अच्छा है। उसने जितनी मात्रामें भोग और संग्रहका त्याग किया है, उतना तो वह श्रेष्ठ है ही।
अन्त समयमें विद्यार्थीकी जिस प्रकारके विद्याध्ययनकी वृत्ति रही है, अगले जन्ममें वह पूर्वसंस्कारके अनुसार उसी विद्याको पढ़ेगा।
जो केवल जीविका चलानेके उद्देश्यसे विद्या पढ़ता है, वह अगर बीचमें मर जाय तो जैसे साधारण आदमीकी गति होती है, वैसे ही उसकी गति होगी। कारण कि कल्याण करनेवाला भाव है, क्रिया नहीं।
जो केवल दूसरोंको नीचा दिखानेके लिये और अपने अभिमानको पुष्ट करनेके लिये विद्याध्ययन करता है, वह अगर बीचमें मर जाय तो भूत-प्रेत, पिशाच आदि नीच योनिमें चला जायगा।
जिसकी केवल ग्रन्थ पढ़नेकी, ग्रन्थोंकी जानकारी प्राप्त करनेकी रुचि है, वह अगर बीचमें मर जाय तो उस रुचिके अनुसार आगे मनुष्यजन्म लेकर उन ग्रन्थोंको पढ़ेगा। ऐसे विद्यार्थीको फिर मनुष्यजन्म मिल गया तो यह काम कोई कम नहीं हुआ है! अगर वह ब्रह्मविद्या पढ़ते हुए मर जाय और मरते समय उसमें तत्त्वजिज्ञासा रही तो वह मुक्त हो जायगा और तत्त्वजिज्ञासा न रही तो वह योगभ्रष्ट हो जायगा।
जो केवल भगवान्की आज्ञा मानकर विद्याध्ययनरूप कर्तव्यका पालन करता है, वह अगर बीचमें मर जाय और मरते समय उसको भगवान्की स्मृति हो जाय तो उसका उद्धार हो जायगा* और भगवान्की स्मृति न हो तो वह योगभ्रष्ट हो जायगा।
*अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(गीता ८।५)
‘जो मनुष्य अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है,वह मेरेको ही प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।’
प्रश्न—प्राचीन और आधुनिक विद्यार्थियोंमें क्या अन्तर है?
उत्तर—प्राचीन विद्याको विद्यार्थी ज्यों-ज्यों सीखते थे, पढ़ते थे, अनुभव करते (अपने तथा दूसरोंके काममें लाते) थे, त्यों-त्यों उनमें निरभिमानिता, नम्रता आती थी। वे जिस विषयको पढ़ते थे, उसमें बड़े गहरे उतरते थे। दूसरा क्या करता है—इस तरफ वे खयाल ही नहीं करते थे। परन्तु आधुनिक विद्याको विद्यार्थी केवल पढ़ते हैं, सीखते हैं, अनुभव नहीं करते। अत: उनमें अभिमान आ जाता है। अनुभवके बिना सीखा हुआ ज्ञान अपने लिये और दुनियाके लिये खतरनाक होता है!
केवल सीखे हुए ज्ञानवाले तथा भोग और संग्रहमें आसक्त विद्यार्थियोंको यह वहम हो जाता है कि ‘हम ठीक जानते हैं, पुराने जमानेके लोग ठीक नहीं जानते थे।’ वे प्राचीन विद्याकी खिल्ली उड़ाते हैं कि ‘प्राचीन दर्शन तो अँधेरेमें काली बिल्लीपर हाथ फेरना है अर्थात् प्राचीन दर्शन फालतू हैं,’ वे खिल्ली क्यों उड़ाते हैं? क्योंकि उन्होंने केवल सीखा है, अनुभव नहीं किया है। परन्तु जिन्होंने अनुभव किया है, वे प्राचीन दार्शनिकोंका और उनके अनुभवका आदर करते हैं।
प्राचीन विद्वान् केवल पढे़ हुए नहीं थे। विद्याके साथ-साथ उनमें प्रभु-उपासना भी थी। अत: उनमें जोश नहीं था, होश था। आजकलके पढे़-लिखोंमें जोश तो होता है, पर होश नहीं होता, क्योंकि वे गहरे नहीं उतरते।
प्राचीन विद्वानोंको भी विद्याका अभिमान आता था। परन्तु वे ज्यों-ज्यों विद्यामें गहरे उतरते थे, त्यों-ही-त्यों उनका अभिमान गलता जाता था और जैसे बुखार उतरनेपर शरीर हलका हो जाता है, ऐसे ही वे भीतरसे हलके हो जाते थे। अर्थात् उनमें अभिमानका लेश भी नहीं रहता था। भर्तृहरिजीने कहा है—
यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्ध: समभवं
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मन:।
यदा किञ्चित्किञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतं
तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगत:॥
(नीतिशतक)
‘जब मैं थोड़ा-सा ज्ञान प्राप्त करके हाथीके समान मदान्ध हो रहा था, उस समय मेरा मन ‘मैं ही सर्वज्ञ हूँ’—ऐसा सोचकर घमण्डसे पूर्ण था। परन्तु जब विद्वानोंके संगसे कुछ-कुछ ज्ञान होने लगा, तब ‘मैं मूर्ख हूँ’—ऐसा समझनेके कारण मेरा वह मद (अभिमान) ज्वरकी तरह उतर गया।’
उन दार्शनिकोंमें किंचित् अहंभाव रहनेसे उनके दर्शनोंमें भेद रहता था; अत: सभी दार्शनिकोंकी विवेचन-शैली भिन्न-भिन्न होती थी। परन्तु परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेपर उनका वह सूक्ष्म अहंभाव मिट जाता था। तात्पर्य है कि जबतक दार्शनिकोंमें अहंभाव रहता था, तभीतक उनमें भेदबुद्धि रहती थी और उसके रहनेसे ही अपना दर्शन बढ़िया और दूसरोंका दर्शन घटिया मालूम देता था। परन्तु जब उनका अहंभाव मिट जाता था, तब प्रक्रियाभेद रहते हुए भी भेदबुद्धि नहीं रहती थी। आजकलके दार्शनिक उस भेदतक ही पहुँचते हैं, उससे आगे उनके अनुभवतक नहीं पहुँचते।
पुराने जमानेमें विद्यार्थी गुरुसे आदरसहित विद्या पढ़ते थे और आजकल विद्यार्थी नौकरोंसे पढ़ते हैं अर्थात् गुरुपर हुक्म चलाते हैं। नौकरसे ली हुई विद्या विकसित नहीं होती। पहले गुरु चाहे जिस विद्यार्थीको निकाल देते थे और चाहे जिसको रख लेते थे। परन्तु आजकल विद्यार्थी चाहे जिस गुरु (अध्यापक)-को निकाल देते हैं और चाहे जिसको रख लेते हैं। पहले गुरु गद्दीपर विराजमान होकर विद्या देते थे और शिष्य (विद्यार्थी) नीचे आसनपर बैठते थे। परन्तु आजके विद्यार्थी बेंचोंपर, कुर्सियोंपर बैठते हैं और अध्यापक काले बोर्डके पास खड़े-खड़े विद्यार्थियोंको पढ़ाते हैं।
पहले विद्यार्थी लौकिक व्यवहारके लिये पढ़ाई करते हुए भी परलोककी तरफ मुख्यरूपसे दृष्टि रखते थे। वे लौकिक विद्याको भी जानते थे और पारमार्थिक तत्त्वको भी। उनकी दृष्टि उच्च, श्रेष्ठ रहती थी। परन्तु आजकलके विद्यार्थी लौकिक विद्याको भी ठीक तरहसे नहीं जानते, फिर वे पारमार्थिक तत्त्वको क्या जानेंगे! उन्होंने जितना पढ़ा है, उसको भी वे दूसरोंको ठीक तरहसे नहीं पढ़ा सकते। केवल सर्टिफिकेट पानेके लिये वे नकल करके उत्तीर्ण होते हैं और अपने नामके साथ बी० ए०, एम० ए०, शास्त्री, आचार्य आदि उपाधियाँ जोड़कर राजी हो जाते हैं। वे केवल व्यवहारमें आनेवाली बातोंको ही सीखते हैं और जिनसे अधिक धन पैदा हो, अधिक भोग भोगें, उन्हीं उपायोंमें लगे रहते हैं। मनुष्यजन्म क्यों मिला है, इसका खास प्रयोजन क्या है, अपना कल्याण कैसे हो—इस तरफ उनकी दृष्टि जाती ही नहीं।
जैसे दो दीपक पासमें रख दें तो एक-दूसरेके प्रकाशसे दोनोंके नीचेका अँधेरा दूर हो जाता है, ऐसे ही पहले विद्यार्थी परस्पर वाद-विवाद करते थे, लौकिक-पारलौकिक बातोंपर विचार करते थे, जिससे उनको दोनों लोकोंकी बातोंका ज्ञान हो जाता था। परन्तु आजकलके विद्यार्थी ऐसा बहुत कम करते हैं। वे तो अपनेको ही विद्वान् मानकर बैठ जाते हैं, जिससे उनका विकास रुक जाता है।
पहलेके विद्यार्थी बड़े नम्र एवं गुरुके भक्त होते थे। परन्तु आजके विद्यार्थी प्राय: बड़े उद्दण्ड, उच्छृंखल होते हैं। वे स्कूल, कॉलेज, स्टेशन आदिपर दूसरोंकी हँसी उड़ाते हैं, दिल्लगी करते हैं। दूसरोंको कष्ट देते हैं, तंग करते हैं। उनमें माँ-बापकी और गुरुजनोंकी न भक्ति है, न आदर है, प्रत्युत वे उनका तिरस्कार, अपमान करते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि वे बड़े होनेपर अपनी सन्तानसे तिरस्कृत होते हैं और मजबूर होकर उनको तिरस्कृत होना ही पड़ता है। उनके लिये यह लोक भी सुखदायी नहीं होता, फिर परलोक कैसे सुखदायी हो सकता है?
प्राचीन विद्यार्थी ग्रन्थोंके गहरे तत्त्वको समझते थे और उनका उस विद्यापर अधिकार हो जाता था तथा वे उस विद्यासे नये आविष्कार भी कर सकते थे। ऐसे विद्यार्थी ‘आचार्य’ कहलाते थे। परन्तु आधुनिक विद्यार्थी विद्याके वास्तविक तत्त्वको समझते नहीं और समझना चाहते भी नहीं। हाँ, यदि उनमें लगन हो, उत्कण्ठा हो तो वे समझ सकते हैं।
प्राचीन विद्यार्थियोंको कोई नयी बात मिल जाती थी तो वे उसमें चिपक जाते थे, उसका आदर करते थे, उसको महत्त्व देते थे, उसका तत्त्व समझते थे, उसका ठीक मनन करके उसको धारण कर लेते थे। अत: वह बात, वह विद्या उनमें स्थायी हो जाती थी। परन्तु आधुनिक विद्यार्थियोंको कोई विशेष बात मिल जाय तो उनको उसमें विशेषता मालूम नहीं देती, क्योंकि वे उसमें प्रविष्ट नहीं होते।
पहले विद्यार्थी बाहरकी चमक-दमकमें न फँसकर भीतरके गहरे भावोंको समझते थे और समझनेकी उत्कण्ठा रखते थे। वे जितना नहीं जानते थे, उतना अनजानपना उनको खटकता रहता था और आगे जाननेकी उत्कण्ठा बनी रहती थी। आजकलके विद्यार्थियोंमें प्राय: वैसा उत्साह देखनेमें नहीं आता। वे जितना नहीं जानते, उतना अनजानपना उनको खटकता नहीं।
पहले विद्यार्थी गुरुकी सेवा करते थे, उनके अनुकूल रहते थे, उनकी प्रसन्नतामें अपनी प्रसन्नता मानते थे। वे भीतरसे गुुरुके साथ (विचार, सिद्धान्त, मान्यता आदिसे) एक हो जाते थे। अत: शिष्यमें गुुरुका अवतार हो जाता था। वे विद्याकी प्राप्तिमें गुुरु-कृपाको ही कारण मानते थे। वास्तवमें जो विद्या गुुरु-कृपासे मिलती है, वह अपने उद्योगसे, पुुरुषार्थसे नहीं मिलती।
पहले विद्यार्थी कार्यारम्भ या विद्यारम्भमें गुुरुका स्मरण करते थे, जिससे उन्हें उसमें सफलता मिलती थी। जैसे, लव-कुशने अपनी माता सीतासे ही धनुर्विद्या सीखी थी; अत: वे माँको गुुरु मानते थे। जब रामजीके यज्ञीय घोड़ेको पकड़नेपर शत्रुघ्न आदिके साथ युद्ध हुआ, तब लव-कुशने युद्ध के आरम्भमें माँ सीताका स्मरण किया। अत: युद्धमें लव-कुशकी विजय हुई। उन्होंने सब सेनाको हरा दिया तथा हनुमान्जी और अंगदको पकड़कर माँके पास ले गये। तात्पर्य है कि पहले विद्यार्थी गुुरुजनोंके कृतज्ञ होते थे। परन्तु आजके विद्यार्थी गुुरुजनोंके कृतज्ञ न होकर कृतघ्न होते हैं। गुुरुजनोंके विरोधमें वे आन्दोलन छेड़ देते हैं! अत: उनकी विद्या फलीभूत नहीं होती। अभिमानके कारण वे अपने ही अध्ययनसे अपनेमें विशेषता मानते हैं; अत: उनकी विशेषता सीमित होती है।
पुराने विद्यार्थी विशेष संयम रखते थे, ब्रह्मचर्यका पालन करते थे। वे स्वाद और शौकीनीके नजदीक भी नहीं जाते थे, पर आजके विद्यार्थी शृंगार, सुन्दर कपड़े, स्वाद-शौकीनी, सुख-आराम आदिको ज्यादा पसन्द करते हैं। अत: उनमें संयम, ब्रह्मचर्यका पालन नहीं होता। कोई-कोई तो संयम रखनेको दोष मानते हैं और कहते हैं कि इन्द्रियाँ सुख भोगनेके लिये ही मिली हैं।
पहले विद्यार्थी गुुरुकुलमें गुुरुके पास जाकर पढ़ते थे। अत: उनमें नम्रता होती थी। जैसे आमका पेड़ फलान्वित होता है तो वह नीचे झुक जाता है अर्थात् फल पाकर वह नम्र हो जाता है। आजके विद्यार्थी गुरुको अपने घरपर बुलाकर पढ़ते हैं और उनकी हाजिरी लेते हैं कि आप इतना समय देरीसे आये; अत: आपको इतने पैसे कम मिलेंगे! विद्या पढ़नेपर भी उनमें नम्रता नहीं आती, प्रत्युत वे ज्यादा उद्दण्ड हो जाते हैं। जैसे, एरण्डके वृक्षमें जब फल आते हैं, तब वह नीचे नहीं झुकता, प्रत्युत ऊपरकी ओर जाता है*।
* वास्तवमें देखा जाय तो अभिमान अधूरेपनमें, अधूरी जानकारीमें ही आता है। पूर्ण जानकारीमें अभिमान नहीं आता, प्रत्युत ज्यों-ज्यों पूर्णता आती है, त्यों-त्यों नम्रता, सरलता आती है।
पहले विद्यार्थियोंमें ‘कर्तव्य’ की प्रधानता थी। वे कर्तव्य-पालनमें ही अपना अधिकार मानते थे, फलमें नहीं—‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ (गीता २।४ ७)। अत: वे मुक्त हो जाते थे। आजके विद्यार्थियोंमें ‘फल’ की प्रधानता है। अत: वे फलमें आसक्त होकर बँध जाते हैं—‘फले सक्तो निबध्यते’ (गीता ५।१२)।
प्राचीन विद्यार्थी विद्याध्ययनको ही मुख्य मानते थे और उसीमें अपना समय लगाते थे। आजकलके विद्यार्थी राजनीति आदिमें पड़ जाते हैं, जिससे उनका विद्याध्ययन छूट जाता है, विद्याध्ययनमें उनकी तत्परता नहीं रहती, उनका मन नहीं लगता।
पहले विद्यार्थियोंमें आस्तिकताकी प्रधानता थी। वे जिस विद्याको पढ़ते थे, वह लोक और परलोक दोनोंमें काम आती थी। आजके विद्यार्थियोंमें नास्तिकता ज्यादा होती है। वे जिस विद्याको पढ़ते हैं, वह इस लोकमें भी प्राय: काम नहीं आती, फिर वह परलोकमें क्या काम आयेगी!
प्रश्न—प्राचीन और आधुनिक विद्यामें क्या अन्तर है?
उत्तर—प्राचीन (आध्यात्मिक)विद्या स्वयंको शान्ति देनेवाली है। उससे अशान्ति, कलह, अभाव आदि मिट जाते हैं। परन्तु आजकलकी (लौकिक) विद्या केवल बाहर काम आनेवाली है, स्वयंको शान्ति देनेवाली नहीं है। इससे अशान्ति, आपसका कलह बढ़ता है। जैसे धन आनेसे तृष्णा, धनका अभाव अधिक बढ़ता है, ऐसे ही आधुनिक विद्या सीखनेसे अभाव बढ़ता है।
आजकल तरह-तरहके आविष्कार होनेपर भी शान्ति नहीं मिल रही है; क्योंकि उनमें परवशता है, स्वतन्त्रता नहीं है अर्थात् मनुष्यको उनके परवश होना पड़ता है। परन्तु प्राचीन विद्यासे मनुष्यको परवश होना पड़ता और उसको स्वयंका बोध हो जाता है।
प्राचीन विद्या मनुष्यको परमात्माके सम्मुख कराती है और आधुनिक विद्या मनुष्यको नाशवान्के सम्मुख कराती है, नाशवान्को महत्त्व देती है।
आधुनिक विद्या व्यवहारमें काम आती है; अत: इसको व्यवहारकी जगह ही महत्त्व देना चाहिये। इसको सर्वोपरि महत्त्व देना ही गलती है। वास्तवमें विद्या वही है, जो मनुष्यका कल्याण कर दे—‘सा विद्या या विमुक्तये’ (विष्णुपुराण १।१९।४१)।
प्रश्न—विद्वान् किसे कहते हैं और विद्यार्थी विद्वान् कब कहलाता है?
उत्तर—साधारण दृष्टिसे जो जिस विषयमें अधिक जानकार है, वह उस विषयका विद्वान् कहलाता है। लौकिक विद्यामें जो चारों वेद, छहों शास्त्र, अठारहों पुराण, उपपुराण आदिका जानकार है, वह विद्वान् कहलाता है। परन्तु वास्तविक विद्वान् तो परमात्मतत्त्वको जाननेवाला ही होता है, चाहे वह पढ़ा-लिखा भी न हो! (गीता ४।१९; ५।१८)।
जब दूसरा व्यक्ति विद्यार्थीको अपनेसे अधिक पढ़ा-लिखा स्वीकार कर लेता है, तब वह उस विद्यार्थीको विद्वान् कह देता है। परंतु विद्यार्थीको अपनी दृष्टिसे अपनेको विद्वान् नहीं मानना चाहिये, प्रत्युत अपनी कमीको देखना चाहिये और उस कमीको दूर करनेकी चेष्टामें ही तत्पर रहना चाहिये। ऐसा करनेसे विद्यार्थीमें कमी नहीं रहेगी और वह अच्छा विद्वान् बन जायगा। परंतु जहाँ उसने अपनेको विद्वान् माना कि वहीं उसकी प्रगति रुक जायगी और उसमें अभिमान आ जायगा। अभिमान सम्पूर्ण दोषोंका स्थान है—
संसृत मूल सूलप्रद नाना।
सकल सोक दायक अभिमाना॥
(मानस ७। ७४। ३)
भगवान्का भी अभिमानसे द्वेषभाव और दैन्यसे प्रियभाव है—‘ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च।’ (नारद-भक्तिसूत्र २७)। तात्पर्य है कि भगवान्को अभिमान अच्छा नहीं लगता; क्योंकि वह मनुष्यका पतन करता है और सरलता, नम्रता अच्छी लगती है; क्योंकि वह मनुष्यका उद्धार करती है।
प्रश्न—विद्यार्थीके लिये विज्ञानकी पढ़ाई अच्छी है या वाणिज्यकी?
उत्तर—विद्यार्थीको दोनों ही पढ़ाई करनेकी आवश्यकता है। इनमें भी वाणिज्यकी पढ़ाई व्यवहारमें ज्यादा और जल्दी काम आनेवाली है। विज्ञानकी पढ़ाई व्यवहारमें इतनी जल्दी काम नहीं आती।
एक बात विशेष है कि पारमार्थिक बातोंको गहरा समझनेसे परमार्थ और व्यवहार दोनों ठीक हो जाते हैं। परन्तु केवल व्यवहार सीखनेसे परमार्थ सिद्ध नहीं होता; क्योंकि सीमित विद्यासे सीमित ही मिलता है और असीम तत्त्वको समझनेसे सब बातें ठीक समझमें आ जाती हैं।
प्रश्न—डॉक्टर और वकालतकी पढ़ाई करनी चाहिये या नहीं?
उत्तर—डॉक्टरकी पढ़ाईमें हिंसा और वकालतकी पढ़ाईमें झूठ-कपट रहता है। यदि हिंसा और झूठ-कपट छोड़कर पढ़ाई करे, काम-धन्धा करे तो कोई दोष नहीं है। लोगोंने हिंसा और झूठ-कपटको आवश्यक मान लिया है, अपना कर्तव्य मान लिया है, इसलिये इन दोनों विद्याओंमें हिंसा और झूठ-कपटकी प्रधानता हो रही है तथा ईमानदारीसे काम करनेमें कठिनता मालूम दे रही है।
प्रश्न—क्या विद्यार्थीके लिये संस्कृतकी पढ़ाई आवश्यक है?
उत्तर—विद्यार्थीके लिये तो सभी भाषाओंका ज्ञान आवश्यक है, पर संस्कृतका ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। कारण कि संस्कृतभाषामें जैसे गहरे ग्रन्थ हैं, वैसे दूसरी भाषाओंमें नहीं हैं। संस्कृतभाषा बहुत मर्यादित एवं परिष्कृत है। यह व्याकरणके नियमोंसे बँधी हुई है। संस्कृत-व्याकरणके समान दूसरी किसी भी भाषाका व्याकरण नहीं है। संस्कृत-व्याकरणका ज्ञान होनेपर दूसरी भाषाओंका ज्ञान सुगमतासे हो जाता है। परन्तु दूसरी भाषाओंका ज्ञान होनेपर संस्कृत-भाषाका ज्ञान सुगमतासे नहीं होता, प्रत्युत संस्कृतका ज्ञान करनेमें कठिनता मालूम देती है।
जो अपनी संस्कृतिको छोड़कर पाश्चात्य विद्या, भाषाको सीखता है और वैसा ही बन जाता है, उसने वास्तवमें विद्या ली नहीं है, प्रत्युत अपने-आपको खो दिया है। अत: अपनी संस्कृति सुरक्षित रखते हुए ही विद्या लेनी चाहिये, भाषा सीखनी चाहिये।
प्रश्न—विद्यार्थीको कौन-सी विद्याएँ ग्रहण करनी चाहिये?
उत्तर—विद्या तो हर एक ग्रहण करनी चाहिये, पर जो विद्या भोग और संग्रहमें लगाये, वह वास्तवमें अविद्या ही है। ऐसी विद्याकी विद्यार्थीके लिये जरूरत नहीं है अर्थात् विद्यार्थीके लिये नाटक, सिनेमा, उपन्यास आदिकी विद्या सीखनेकी कोई जरूरत नहीं है और इनको सीखना भी नहीं चाहिये। जो अपने ध्येय (विद्याध्ययन अथवा परमात्मप्राप्ति)-के प्रतिकूल न हो, वही विद्या ग्रहण करनी चाहिये।
प्रश्न—विद्यार्थीके आचरण और व्यवहार कैसे होने चाहिये?
उत्तर—मनुष्यके आचरण और व्यवहार उसकी अहंता (मैं-पन)-के अनुसार ही होते हैं। अत: विद्यार्थीमें यह भाव मुख्य रहना चाहिये कि ‘मैं विद्यार्थी हूँ; अत: विद्याध्ययन करना ही मेरा काम है और कोई भी काम मेरा नहीं है।’ उसको शरीर-निर्वाहके लिये खाना-पीना आदि काम भी केवल विद्याध्ययनरूपसे अर्थात् विद्यामें तल्लीन रहते हुए ही करना चाहिये। विद्याध्ययनके बिना एक क्षण भी खाली नहीं जाना चाहिये। उसको उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते हरदम विद्यापरायण ही रहना चाहिये।
विद्यार्थीके लिये संयमकी बहुत आवश्यकता है। जब देवताओंके वैद्य दोनों अश्विनीकुमार ब्रह्मविद्याको प्राप्त करनेके लिये दध्यङ् ऋषिके पास गये, तब ऋषिने कहा कि तुमलोग ब्रह्मचर्यका पालन करो। ऋषिके कहे अनुसार उन्होंने ब्रह्मचर्यका पालन किया। फिर उन्होंने ऋषिके पास जाकर ब्रह्मविद्याके लिये प्रार्थना की। ऋषिने उनको पुन: ब्रह्मचर्यका पालन करनेके लिये कहा। वे फिर जाकर ब्रह्मचर्यका पालन करने लगे। इस तरह ऋषिने उनको तीन बार ब्रह्मचर्यका पालन करनेके लिये भेजा और उन्होंने तीन बार अर्थात् सौ वर्षतक ब्रह्मचर्यका पालन किया। फिर वे ब्रह्मविद्या लेनेके लिये ऋषिके पास गये। ऋषिने उनसे कहा कि तुमलोगोंके जानेके बाद इन्द्र मेरे पास आया और उसने ब्रह्मविद्या देनेके लिये आग्रह किया तो मैंने कहा कि ‘तुम ब्रह्मविद्याके पात्र नहीं हो।’ इस बातपर इन्द्र चिढ़ गया और उसने कहा कि ‘मैं भी ब्रह्मविद्याका अधिकारी नहीं हूँ तो फिर और कौन अधिकारी होगा! अब यदि तुम किसीको ब्रह्मविद्या दोगे तो मैं तुम्हारा सिर काट लूँगा।’ अत: मैं तो तुमलोगोंको ब्रह्मविद्या दे सकूँगा नहीं और फिर तुमलोग दूसरी जगह जाओगे तो पहलेसे ही तुमलोग किसी दूसरेके पास जाकर ब्रह्मविद्या ग्रहण करो। अश्विनीकुमारोंने कहा कि ‘ऋषिवर! आपकी आज्ञा हो तो हम आपकी बाधा दूर कर सकते हैं। हम आपका मस्तक काटकर रख लेंगे और उसकी जगह दूसरा मस्तक लगा देंगे। उस मस्तकसे आप हमें ब्रह्मविद्या दें। जब इन्द्र आकर उसको काट देगा तो हम पुन: आपका पहला मस्तक जोड़ देंगे। फिर इन्द्रको वह मस्तक काटनेका अधिकार नहीं है। इस प्रकार इन्द्रका काम भी हो जायगा और हमें ब्रह्मविद्या भी मिल जायगी!’ ऋषिने उनकी बात स्वीकार कर ली। अश्विनीकुमारोंने ऋषिका सिर काटकर अपने पास रख लिया और घोड़ेका सिर लगा दिया। ऋषि घोड़ेके मुखसे अश्विनीकुमारोंको ब्रह्मविद्या देने लगे। इन्द्रने अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार घोड़ेका सिर काटकर कहीं फेंक दिया। अश्विनीकुमारोंने पुन: ऋषिका सिर जोड़ दिया। इसपर कुपित होकर इन्द्रने यज्ञमें अश्विनीकुमारोंका भाग छीन लिया। आगे चलकर जब अश्विनीकुमारोंने च्यवन ऋषिकी आँखें ठीक कर दीं तब उन्होंने यज्ञमें पुन: अश्विनीकुमारोंका भाग दिला दिया। इस तरह ब्रह्मचर्यका पालन करनेसे अश्विनीकुमारोंको ब्रह्मविद्या भी मिल गयी और यज्ञमें भाग भी मिल गया। तात्पर्य है कि विद्यार्थीको ब्रह्मचर्यका पालन अवश्य करना चाहिये। ब्रह्मचर्यका पालन किये बिना विद्यार्थी विद्याको धारण नहीं कर सकता।
विद्यार्थीको हर समय सावधान रहना चाहिये और अपनेमें विद्यार्थी-भाव जाग्रत् रखना चाहिये। जो विद्यार्थी होता है वह एक क्षण भी विद्याध्ययनके बिना नष्ट नहीं करता—
क्षणश: कणशश्चैव विद्यामर्थं च चिन्तयेत्।
क्षणत्यागे कुतो विद्या कणत्यागे कुतो धनम्॥
‘क्षण-क्षण करके विद्याका और कण-कण करके धनका संग्रह करना चाहिये। क्षणका त्याग करनेवालेको विद्या कहाँ और कणका त्याग करनेवालेको धन कहाँ?’
विद्यार्थीके लिये एक कहावत है—‘गलमें घाले गूदड़ी, निश्चय मांडे मरण। घो-पू-चि निशि-दिन करे, तब आवे व्याकरण॥’ ‘घो’ अर्थात् पढ़े हुए पाठको घोटता (रटता) रहे, ‘पू’ अर्थात् गुरुजनोंसे पूछता रहे और ‘चि’ अर्थात् पढ़े हुए पाठका चिन्तन करता रहे। ऐसा करनेसे व्याकरण आता है। ऐसे ही व्याकरणके विद्यार्थीके लिये आया है—‘वैयाकरणखसूची’ अर्थात् वह आकाशकी तरफ ही देखता रहे, जिससे न नींद आये और न संकल्प-विकल्प हों; क्योंकि आँखें बन्द करनेसे नींद आती है और आँखें खुली रहनेसे संसारका दृश्य सामने आता है।
विद्यार्थीको सुखकी आसक्तिका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये—
सुखार्थी चेत् त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी च त्यजेत् सुखम्।
सुखार्थिन: कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिन: सुखम्॥
(चाणक्यनीति १०।३)
‘यदि सुखकी इच्छा हो तो विद्याको छोड़ दे और यदि विद्याकी इच्छा हो तो सुखको छोड़ दे; क्योंकि सुख चाहनेवालेको विद्या कहाँ और विद्या चाहनेवालेको सुख कहाँ?’
विद्याध्ययन करना भी तप है और तपमें सुखका भोग नहीं होता। जब सुख लेना ही नहीं है तो फिर खेल-तमाशा, सिनेमा, टेलीविजन आदिका तो कहना ही क्या है! ये तो सर्वथा त्याज्य हैं; क्योंकि इनको देखनेसे समय तो जाता ही है, उनके संस्कार भी अन्त:करणमें पड़ जाते हैं, जो विद्याध्ययनमें बड़ी भारी बाधा डालते हैं। अत: विद्यार्थीको चाहिये कि वह ‘मेरे लिये संसार मर गया और संसारके लिये मैं मर गया’—इस तरह संसारसे सर्वथा उदासीन होकर केवल विद्यापरायण हो जाय। ऐसा होनेसे ही वह अच्छा विद्वान् बनेगा क्योंकि अच्छा विद्यार्थी ही अच्छा विद्वान् बनता है।
विद्यार्थीको विद्याध्ययन अथवा परमात्मप्राप्तिके एक ध्येयपर ही डटे रहना चाहिये; क्योंकि निश्चयवाली बुद्धि एक ही होती है—‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह’ (गीता २।४१) उसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ अपने ध्येयकी सिद्धिके लिये ही होनी चाहिये। ऐसी तत्परता, दृढ़ निश्चय होनेपर भगवान्, सन्त-महात्मा, धर्म, शास्त्र, नीति आदि सब-के-सब उसके पक्षमें हो जाते हैं और उसको ध्येयकी सिद्धि अवश्य हो जाती है—इसमें सन्देह नहीं।
विद्यार्थीके पाँच लक्षण बताये गये हैं—
काकचेष्टा बकध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च।
स्वल्पाहारी ब्रह्मचारी विद्यार्थिपञ्चीलक्षणम्॥
(१) काकचेष्टा—जैसे, कौआ हर एक चेष्टामें सावधान रहता है। वह इतना सावधान रहता है कि उसको जल्दी कोई पकड़ नहीं सकता। ऐसे ही विद्यार्थीको विद्याध्ययनके विषयमें हर समय सावधान रहना चाहिये। विद्याध्ययनके बिना एक क्षण भी निरर्थक नहीं जाना चाहिये।
(२) बकध्यान—जैसे, बगुला पानीमें धीरेसे पैर रखकर चलता है, पर उसका ध्यान मछलीकी तरफ ही रहता है। ऐसे ही विद्यार्थीको खाना-पीना आदि सब क्रियाएँ करते हुए भी अपना ध्यान, दृष्टि विद्याध्ययनकी तरफ ही रखनी चाहिये।
(३) श्वाननिद्रा—जैसे, कुत्ता निश्चिन्त होकर नहीं सोता। वह थोड़ी-सी नींद लेकर फिर जग जाता है। ऐसे ही विद्यार्थीको आरामकी दृष्टिसे निश्चिन्त होकर नहीं सोना चाहिये, प्रत्युत केवल स्वास्थ्यकी दृष्टिसे थोड़ा सोना चाहिये।
(४) स्वल्पाहारी—विद्यार्थीको उतना ही आहार करना चाहिये, जिससे आलस्य न आये, पेट याद न आये; क्योंकि पेट दो कारणोंसे याद आता है—अधिक खानेपर और बहुत कम खानेपर।
(५) ब्रह्मचारी—विद्यार्थीको ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहिये।
प्रश्न—विद्यार्थीको उन्नत करनेवाली बातें कौन-सी हैं?
उत्तर—ये सात बातें मनुष्यको उन्नत करनेवाली हैं—
उत्साहसम्पन्नमदीर्घसूत्रं
क्रियाविधिज्ञं व्यसनेष्वसक्तम्।
शूरं कृतज्ञं दृढसौहृदं च
सिद्धि: स्वयं याति निवासहेतो:॥
‘उत्साही, अदीर्घसूत्री, क्रियाकी विधिको जाननेवाले, व्यसनोंसे दूर रहनेवाले, शूर, कृतज्ञ तथा स्थिर मित्रतावाले मनुष्यको सिद्धि स्वयं अपने निवासके लिये ढूँढ़ लेती है।’
इन सात बातोंका विस्तार इस प्रकार है—
(१) विद्यार्थीमें यह उत्साह होना चाहिये कि मैं विद्याको पढ़ सकता हूँ, क्योंकि उत्साही आदमीके लिये कठिन काम भी सुगम हो जाता है और अनुत्साही आदमीके लिये सुगम काम भी कठिन हो जाता है।
(२) हर एक कामको बड़ी तत्परता और सावधानीके साथ करना चाहिये। थोड़े समयमें होनेवाले काममें अधिक समय नहीं लगाना चाहिये। जो थोड़े समयमें होनेवाले काममें अधिक समय लगा देता है, उसका पतन हो जाता है—‘दीर्घसूत्री विनश्यति’।
(३) कार्य करनेकी विधिको ठीक तरहसे जानना चाहिये। कौन-सा कार्य किस विधिसे करना चाहिये, इसको जानना चाहिये। शौच-स्नान, खाना-पीना, उठना-बैठना, पाठ-पूजा आदि कार्योंकी विधिको ठीक तरहसे जानना चाहिये और वैसा ही करना चाहिये।
(४) व्यसनोंमें आसक्त नहीं होना चाहिये। जूआ खेलना, मदिरापान, मांसभक्षण, वेश्यागमन, शिकार (हत्या) करना, चोरी करना और परस्त्रीगमन—ये सात व्यसन तो घोरातिघोर नरकोंमें ले जानेवाले हैं*।
* द्यूतं च मद्यं पिशितं च वेश्या
पापर्द्धि चौर्यं परदारसेवा।
एतानि सप्त व्यसनानि लोके
घोरातिघोरं नरके नयन्ति॥
इनके सिवाय चाय, कॉफी, अफीम, बीड़ी-सिगरेट आदि पीना और ताश-चौपड़, खेल-तमाशा, सिनेमा देखना, वृथा बकवाद, वृथा चिन्तन आदि जो भी पारमार्थिक उन्नतिमें और न्याय-युक्त धन आदि कमानेमें बाधक हैं, वे सब-के-सब व्यसन हैं। विद्यार्थीको किसी भी व्यसनके वशीभूत नहीं होना चाहिये।
(५) हर एक काम करनेमें शूरवीरता होनी चाहिये। अपनेमें कभी कायरता नहीं लानी चाहिये।
(६) जिससे उपकार पाया है, उसका मनमें सदा एहसान मानना चाहिये, उसका आदर-सत्कार करना चाहिये, कभी कृतघ्न नहीं बनना चाहिये।
(७) जिसके साथ मित्रता करे, उसको हर हालतमें निभाये। जैसे मुसाफिर स्वयं धर्मशालाको ढूँढ़कर उसके पास आते हैं, ऐसे ही उपर्युक्त सात गुणोंवाले व्यक्तिको ढूँढ़कर सिद्धि स्वयं उसके पास आती है।
प्रश्न—विद्यार्थीको राजनीतिमें भाग लेना चाहिये या नहीं?
उत्तर—राजनीतिमें पड़नेसे विद्यार्थीकी बाह्य वृत्ति ज्यादा हो जाती है, जिससे विद्याध्ययन, साधन-भजन आदि ठीक नहीं होता। मान-बड़ाई, आदर-सत्कार, वाह-वाह आदिमें समय बीत जाता है अर्थात् जिस समयसे विद्या अथवा परमात्माकी प्राप्ति कर सकते हैं, वह समय निरर्थक चला जाता है। राजनीतिमें भाग लेनेसे अन्त:करणमें भौतिक पदार्थोंकी मुख्यता आ जाती है, जो पढ़ाई एवं भजनमें बाधक है।
प्रश्न—आजकल विद्यार्थी छात्रसंघ (यूनियन) बनाते हैं, यह उचित है क्या?
उत्तर—यूनियन बनाकर विद्यार्थी उच्छृंखलता करते हैं, कॉलेजोंमें वस्तुओंकी तोड़-फोड़ करते हैं तो वे स्वयं अपना ही नुकसान करते हैं; क्योंकि भविष्यमें वे ही उनके मालिक होनेवाले हैं। अध्यापकोंके विरोधी आन्दोलनमें भाग लेना; रेलगाड़ी, बस आदिमें यात्रियोंको तंग करना, बाजारमें दूकानदारोंको तंग करना आदि भाव विद्यार्थियोंमें आयेंगे तो वे अच्छे नागरिक कैसे बनेंगे? समाज अच्छा कैसे बनेगा? अच्छे समाजके बिना देश अच्छा कैसे बनेगा? नहीं बन सकता। विद्यार्थी तो देशकी मूल चीज हैं; अत: विद्यार्थियोंके सुधरनेसे ही देशकी उन्नति होगी और इसकी जिम्मेवारी विद्यार्थियोंपर ही है।
अपनी, समाजकी, जाति आदिकी रक्षाके लिये संघ बनाना, समुदाय बनाना, अस्त्र-शस्त्र चलाना सीखना दोष नहीं है। कोई अनुचित काम करता हो तो उसको ठीक रास्तेपर लानेके लिये विद्यार्थीको सजग रहना ही चाहिये। परन्तु संघ बनाकर अपनी मनमानी करना, दूसरोंपर अनुचित शासन करना, शिक्षकोंको दबाना, गुरुजनोंका अपमान-तिरस्कार करना दोष है।
अन्यायपूर्ण अनुचित शासनको सहना भी अन्याय ही है। अत: अन्यायका प्रतिकार करनेके लिये विद्यार्थीको उत्साह रखना चाहिये, कभी भयभीत नहीं होना चाहिये।
प्रश्न—विद्यार्थीकी दिनचर्या कैसी होनी चाहिये?
उत्तर—विद्यार्थीको चाहिये कि वह सूर्योदयसे पहले उठे। अगर सोते हुए सूर्योदय हो जाय तो दिनभर उपवास करे, उसका प्रायश्चित्त करे। अपने समयका बड़ी सावधानीके साथ सदुपयोग करे, जिससे एक क्षण भी निरर्थक न चला जाय। नींद खुलते ही—
त्वमेव माता च पिता त्वमेव।
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव।
त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥
—यह श्लोक बोले। इसके बाद माता, पिता आदि गुरुजनोंको नमस्कार करे। फिर शौच-स्नान करे। शास्त्रके आज्ञानुसार सन्ध्या-गायत्री करे, भगवान्की उपासना करे। स्वास्थ्यके लिये आसनोंका व्यायाम करे।
विद्यार्थीको अपना पाठ ऐसे याद करना चाहिये कि वह बिना पुस्तक भी पाठ ठीक पढ़ सके। इसकी विधि यह है कि दिनमें जो पढ़ाई की है, रात्रिमें सोनेसे पहले उसको यथासम्भव याद करके सो जाय और सबेरे उठते ही पाठ करे तो वह बिना परिश्रमके याद हो जायगा। आगेका पाठ करना हो तो वह भी सबेरे करना चाहिये; क्योंकि सबेरेका समय सात्त्विक होता है और उस समय पाठ जल्दी याद हो जाता है।
विद्यार्थीको चाहिये कि वह आवश्यकता पड़नेपर माता-पिताकी आज्ञाके अनुसार घरका काम-धन्धा करे, फिर विद्यालयमें जाय। विद्यालयमें समयसे पहले ही हाजिर हो जाय। गुरुजनोंको नमस्कार करे। उनकी आज्ञाके अनुसार पढ़ाई करे। पढ़ते समय उनके मुख और नेत्रोंकी तरफ देखते हुए वे जैसा कहें, उसको ठीक तरहसे समझे और वैसा ही धारण कर ले। समझमें न आये तो गुरुकी आज्ञा लेकर उनसे पूछ ले। किसी विषयमें शंका हो तो अपने अध्यापकसे उसका समाधान कर ले। अपनी पढ़ाईमें कमी न रखे।
विद्यार्थीमें ऐसा उत्साह रहना चाहिये कि मैं जितना पढ़ा हूँ, उतना दूसरोंको पढ़ा सकता हूँ। इस तरह पढ़कर विद्यालयसे घर आये और बड़े शिष्टाचारपूर्वक माता-पिताके साथ भोजन करे। भोजन सात्त्विक होना चाहिये, राजस और तामस नहीं (गीता १७। ८—१०)। सात्त्विक आहार करनेसे बुद्धि सात्त्विक होती है, जिससे विद्याध्ययनमें बड़ा भारी लाभ होता है—
यादृशं भक्षयेच्चान्नं बुद्धिर्भवति तादृशी।
दीपकस्तिमिरमश्नाति कज्जलं च प्रसूयते॥
‘मनुष्य जैसा अन्न खाता है, वैसी ही उसकी बुद्धि होती है; जैसे—दीपक अन्धकारको खाता है तो उससे काजल उत्पन्न होता है।’
भोजन करके थोड़ा घूमे और फिर लेट जाय। सीधे लेटकर आठ श्वास, दायीं करवट लेटकर सोलह श्वास और बायीं करवट लेटकर बत्तीस श्वास लेकर उठ जाय और फिर अपना अध्ययन आदि कार्य करे। सायंकालमें अपने अधिकारके अनुसार सन्ध्यागायत्री आदि करे। सन्ध्याके विषयमें आता है कि प्रात:काल तारोंके रहते हुए सन्ध्या करना उत्तम, तारोंके छिपनेपर सन्ध्या करना मध्यम और सूर्योदय होनेपर सन्ध्या करना कनिष्ठ है। ऐसे ही सायंकाल सूर्यके रहते हुए सन्ध्या करना उत्तम, सूर्यके अस्त होनेपर सन्ध्या करना मध्यम और तारोंके दीखनेपर सन्ध्या करना कनिष्ठ है। इसलिये जहाँतक बने, उत्तम सन्ध्या करनी चाहिये।
रात्रिका भोजन करके उपर्युक्त विधिसे घूमना आदि क्रिया करे। फिर अपनी पढ़ाई करे और गीता, रामायण आदि ग्रन्थोंका अध्ययन करे। फिर पढ़ाई और गीता, रामायण आदिका चिन्तन करते-करते सो जाय।
विद्यार्थी-जीवन मानवमात्रकी आधारशिला, नींव है। यह ठीक होगा तो सब-का-सब जीवन ठीक होगा। अत: इसको ठीक रखनेमें विशेष सावधान रहे और अपने भाव, आचरण आदि सात्त्विक रखे। भागवतमें आया है—
आगमोऽप: प्रजा देश: काल: कर्म च जन्म च।
ध्यानं मन्त्रोऽथ संस्कारो दशैते गुणहेतव:॥
(११।१३।४)
‘शास्त्र, जल, प्रजाजन, देश, समय, कर्म, योनि, ध्यान (चिन्तन), मन्त्र और संस्कार—ये दस वस्तुएँ यदि सात्त्विक हों तो सत्त्वगुणकी, राजस हों तो रजोगुणकी और तामस हों तो तमोगुणकी वृद्धि करती हैं।’
यदि ये वस्तुएँ सात्त्विक होंगी तो बुद्धि और स्वभाव भी सात्त्विक होंगे।
प्रश्न—विद्यार्थीको बौद्धिक और शारीरिक विकासके लिये क्या करना चाहिये?
उत्तर—भगवच्चिन्तनसे बुद्धिका विकास होता है; अत: हर एक विद्यार्थीको, चाहे वह लौकिक हो या पारमार्थिक, भगवच्चिन्तन जरूर करना चाहिये। हमने ऐसा देखा है कि जो पाठ-पूजा, जप-ध्यान आदि पारमार्थिक कार्य करते हैं, वे परीक्षामें कभी फेल नहीं होते। कारण कि जप-ध्यान आदि करनेसे सात्त्विकता आती है और सात्त्विकतासे बुद्धिका विकास होता है। अत: विद्याध्ययनमें समय थोड़ा लगनेपर भी अधिक लाभ होता है।
भगवत्परायण होनेपर बुद्धि विशेषरूपसे विकसित होती है। कारण कि जो भगवत्परायण हो गया, उसका जीवन सही रास्तेपर आ गया; अत: उसके लिये प्राय: प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, परिस्थिति आदि फलमें अनुकूल हो जाती है, उसकी सहायक हो जाती है, जिससे उसके ध्येयकी सिद्धि अनायास ही हो जाती है। मनुष्यके जीवनमें अड़चन तभी आती है जब उसका ध्येय, लक्ष्य एक नहीं होता। एक ध्येय बननेपर कभी कोई अड़चन आती ही नहीं।
ब्रह्मचर्य और संयम रखनेसे मनुष्यकी बुद्धिमें बिना पढ़े, बिना अध्ययन किये, बिना समझे अनेक विषयोंका ज्ञान होने लगता है। उसकी बुद्धि हरेक विषयमें बड़ी शीघ्रतासे प्रविष्ट होती है।
संयमसे शारीरिक बल स्वत: ही प्राप्त हो जाता है। संयमपूर्वक सात्त्विक भोजन करनेसे जो शक्ति आती है, वह उच्छृंखलतापूर्वक और स्वादकी दृष्टिसे किये गये राजस-तामस भोजनसे नहीं आती। संयम, ब्रह्मचर्य, परमात्मचिन्तन, बड़े-बूढ़ोंकी सेवा आदिसे शरीर और अन्त:करणमें एक सात्त्विक बल आता है। सात्त्विक बलसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य—ये दोष स्वाभाविक ही शान्त हो जाते हैं और धैर्य, समता, शान्ति, प्रसन्नता आदि गुण स्वत:-स्वाभाविक आ जाते हैं। इन गुणोंका असर स्थूलशरीरपर भी पड़ता है। शरीरमें रोग स्वाभाविक कम होते हैं। यदि प्रारब्धजन्य रोग हो जायँ तो भी उनका असर अन्त:करणपर नहीं पड़ता।
विद्यार्थीको नियमितरूपसे आसन, प्राणायाम आदि करने चाहिये*।
* दण्ड-बैठक आदि ‘कुश्तीका व्यायाम’ और पद्मासन, मत्स्यासन आदि आसनोंका व्यायाम है। इन दोनोंमें आसनोंका व्यायाम करना ही उचित है, लाभप्रद है।
इससे अध्ययनमें भी सहायता मिलती है। आसन करनेसे शरीरमें भारीपन, आलस्य नहीं रहता। शरीर हलका रहता है। शरीरमें स्फूर्ति रहती है। हर एक कामको करनेमें उत्साह रहता है। उत्साह रहनेसे कठिन काम भी सुगम हो जाता है और हिम्मत हारनेसे सुगम काम भी कठिन हो जाता है।
प्रश्न—आजकल विद्यार्थियोंमें सिगरेट, शराब आदिके नशेकी प्रवृत्ति बढ़ रही है, इसका कारण और निराकरण क्या है?
उत्तर—इसका कारण तो मूर्खता है, बेसमझी है। वे दूसरोंको देखकर तो खाना-पीना सीख जाते हैं, पर स्वयं विचार नहीं करते कि नशीले पदार्थोंसे बुद्धि बिगड़ती है* और बुद्धि बिगड़नेसे विद्या कैसे आयेगी? अत: विद्यार्थीको नशीले और इन्द्रियोंको उत्तेजित करनेवाले पदार्थोंका कभी सेवन नहीं करना चाहिये, क्योंकि इनके सेवनसे बौद्धिक, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्यकी हानि होती है। इस विषयमें माता-पिता एवं अध्यापकोंको विशेष ध्यान देना चाहिये कि बच्चे बिगड़ें नहीं।
* ‘बुद्धिं लुम्पति यद् द्रव्यं मदकारि तदुच्यते’
(शार्ङ्गधरसंहिता १। ४।२२)
प्रश्न—परीक्षामें फेल होनेपर कोई-कोई विद्यार्थी आत्महत्या कर लेता है, इसका कारण और निराकरण क्या है?
उत्तर—आदर-सत्कार, मान-बड़ाई आदिकी इच्छामें बाधा पड़नेसे ही वह आत्महत्या करता है। आत्महत्या करनेमें कोई सुख नहीं है। जो आत्महत्या करनेकी चेष्टा तो करते हैं, पर बच जाते हैं, वे बताते हैं कि आत्महत्या करनेमें बड़ा भारी कष्ट होता है। आत्महत्या करनेवाला महापापी होता है। उसको मनुष्यकी हत्याका भयंकर पाप लगता है और आगे घोर यातना भोगनी पड़ती है। अत: विद्यार्थियोंको सच्छास्त्र, सत्पुरुषोंका संग करना चाहिये। इनके संस्कार ही ऐसे पापकी बातोंको मिटा सकते हैं।
प्रश्न—विद्यार्थीको खेल-कूदमें भाग लेना चाहिये या नहीं?
उत्तर—विद्यार्थीको वे ही खेल-कूद करने चाहिये, जिनसे शारीरिक अथवा बौद्धिक उन्नति हो। उसको केवल व्यायामकी दृष्टिसे खेल-कूदमें भाग लेना चाहिये, टोली नहीं बनानी चाहिये अर्थात् जिससे संघर्ष पैदा हो, ऐसा काम कभी नहीं करना चाहिये। टोली बनानेसे अपनी उन्नति करनेमें लगी हुई बुद्धि दूसरोंको नीचा दिखानेमें लग जायगी, जिससे अपनी बड़ी हानि हो जायगी। ताश-चौपड़ आदि खेल कभी नहीं खेलने चाहिये। तात्पर्य है कि जिनसे शारीरिक एवं बौद्धिक विकास न हो, जिनसे प्रमाद, आलस्य, भोग आदिमें प्रवृत्ति हो और जिनसे समय बर्बाद हो, वे खेल नहीं खेलने चाहिये। अत: विद्यार्थीको खेल-कूद आदिमें भी विशेष सावधान रहना चाहिये।
प्रश्न—विद्यार्थीको मनोरंजनके लिये क्या करना चाहिये?
उत्तर—विद्यार्थीका मनोरंजन विद्यामें ही होना चाहिये। विद्यार्थी आपसमें मिलकर अपने अध्ययनके विषयमें प्रश्नोत्तर करें तो मनोरंजन बहुत बढ़िया होता है। उसमें नयी-नयी बातें पैदा होती हैं। मनोरंजनके लिये विद्यार्थीको सिनेमा, टी० वी० आदि देखनेकी जरूरत नहीं है। टी० वी० आदि देखनेसे आँखें एवं मन खराब होते हैं, संस्कार खराब पड़ते हैं, जो पढ़ाई एवं भजन-ध्यानमें बाधक होते हैं। बुद्धिमें, अन्त:करणमें कूड़ा-कचरा भरनेसे क्या फायदा?
प्रश्न—विद्या पढ़नेका तरीका क्या है?
उत्तर—पढ़ते समय विद्यार्थीको चाहिये कि वह पढ़ानेवालेके नेत्रों एवं मुखकी तरफ देखता रहे और उनके एक-एक वाक्यको ध्यानपूर्वक सुनकर धारण करता रहे। उस समय वह दूसरा चिन्तन न करे और तत्परतासे सुनता रहे। उसमें यह अभिमान भी नहीं आना चाहिये कि ‘मैं तत्परतासे पढ़ता हूँ, दूसरे विद्यार्थी ऐसी तत्परतासे नहीं पढ़ते’! ऐसा अभिमान आनेसे वह विद्या अविद्या हो जायगी, अभिमानको बढ़ानेवाली हो जायगी।
विद्यार्थी पढ़े हुए पाठकी बिना पुस्तक बार-बार आवृत्ति करता रहे, जिससे उसकी जागृति रहे। ग्रन्थोंको इस रीतिसे पढ़े कि उनको वह दूसरोंको भी नि:सन्देह होकर पढ़ा सके। खुद पढ़नेसे विद्यार्थीको ग्रन्थ उतना उपस्थित नहीं होता, जितना दूसरोंको पढ़ानेसे होता है।
विद्यार्थीको अध्यापकके सामने तथा दूसरोंके सामने नम्र होकर रहना चाहिये; क्योंकि ‘विद्या ददाति विनयम्’—विद्या विनय प्रदान करती है।
प्रश्न—किसी विषयको कण्ठस्थ करनेका तरीका क्या है?
उत्तर—छोटी अवस्थामें तो श्लोक आदिको कण्ठस्थ करनेके बाद उसका अर्थ समझमें आता है, पर बड़ी अवस्थामें अर्थ समझनेके बाद कण्ठस्थ करना सुगम होता है।
कण्ठस्थ करनेके लिये सबेरेका समय बहुत बढ़िया रहता है। सबेरे जल्दी याद हो जाता है। अत: सबेरे तीन-साढ़े तीन बजे उठे और शौच जाकर, हाथ-पैर धोकर, कुल्ला करके पाठ कण्ठस्थ करना आरम्भ करे। जैसे, कोई श्लोक याद करना हो तो पहले श्लोकका प्रथम चरण याद करे। जब वह याद हो जाय, तब दूसरा चरण याद करे। जब वह याद हो जाय, तब प्रथम और द्वितीय चरण एक साथ बिना पुस्तक कण्ठस्थ कर ले। इसी तरह श्लोकका तीसरा चरण और चौथा चरण याद करे। जब वह याद हो जाय, तब तीसरा और चौथा चरण एक साथ बिना पुस्तक कण्ठस्थ कर ले। फिर पूरा श्लोक बिना पुस्तक कण्ठस्थ कर ले। इसके बाद दूसरा श्लोक उपर्युक्त विधिसे याद करे। फिर पहला और दूसरा श्लोक बिना पुस्तक कण्ठस्थ कर ले। इसके बाद तीसरा श्लोक याद करके पहले, दूसरे और तीसरे श्लोककी बिना पुस्तक आवृत्ति कर ले। इस प्रकार जितने श्लोक याद करने हों, उपर्युक्त विधिसे याद करके छोड़ दे। फिर रातमें सोते समय उन श्लोकोंका एक बार बिना पुस्तक पाठ कर ले और सो जाय। सबेरे नींदसे उठते ही उन श्लोकोंका पाठ करे तो वे बड़ी सुगमतासे धड़ाधड़ याद आ जायँगे!
नये कण्ठस्थ किये हुए श्लोकोंका तीन-चार दिनतक रोज दिनमें तीन-चार बार बिना पुस्तक पाठ कर लेना चाहिये और पुराने कण्ठस्थ किये हुए श्लोकोंकी भी दिनमें एक बार बिना पुस्तक आवृत्ति कर लेनी चाहिये। इस तरह कण्ठस्थ किये हुए पाठकी बिना पुस्तक आवृत्ति करनेका स्वभाव विद्यार्थीको अवश्य बना लेना चाहिये। यदि विद्यार्थी कण्ठस्थ किये हुए विषयका पुस्तक देखकर पाठ करेगा तो वह कुछ ही दिनोंमें कण्ठस्थ किया हुआ विषय भूल जायगा!
कण्ठस्थ करनेका दूसरा उपाय है—जो विषय कण्ठस्थ करना हो, उसका प्रतिदिन पुस्तक देखकर पाठ कर लेना चाहिये। जैसे किसीको गीता कण्ठस्थ करनी हो तो वह प्रतिदिन ध्यानपूर्वक पुस्तक देखकर गीताका पूरा पाठ कर ले। इस तरह एक वर्षतक पाठ करे। एक वर्षके बाद बिना पुस्तक पाठ करे और जहाँ अटक जाय, वह श्लोक या चरण उसी समय कण्ठस्थ कर ले, फिर आगे पाठ करे। इस तरह जब पूरी गीता कण्ठस्थ हो जाय तो फिर प्रतिदिन बिना पुस्तक पाठ करता रहे। ऐसा करनेसे गीता कण्ठस्थ रहेगी। यदि फिर पुस्तक देखकर पाठ करेगा तो गीता भूल जायगी।
प्रश्न—स्मरण-शक्ति बढ़ानेके क्या उपाय हैं?
उत्तर—स्मरणशक्ति बुद्धि बढ़ानेका मुख्य उपाय है—ब्रह्मचर्यका पालन। वीर्य खर्च न होनेसे, वीर्यका संग्रह होनेसे एक ओज-बल बढ़ता है, एक विशेष शक्ति आती है, जिससे बुद्धि विकसित होती है। शारीरिक बल तो हाथीमें ज्यादा होता है, पर ओज-बल सिंहमें ज्यादा होता है, क्योंकि सिंह सिंहनीसे उम्रमें एक बार ही संग करता है। अत: वीर्यका संग्रह होनेसे सिंहमें ओज-बल होता है, विशेष शक्ति होती है। इसी प्रकार ब्रह्मचर्यका पालन करनेसे विद्यार्थीमें ओज-बल बढ़ता है, जिससे उसकी बुद्धि विकसित होती है, उसमें उत्साह, धैर्य, शान्ति आदि गुण आने लगते हैं।
भोगेच्छा जितनी कम होती है, ब्रह्मचर्यके पालनमें उतनी ही सहायता मिलती है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—ये पाँच विषय तथा आदर-सत्कार और बड़ाई—इनसे राजस सुख मिलता है। प्रमाद, आलस्य और निद्रासे तामस सुख मिलता है। इन राजस-तामस सुखोंका त्याग करनेसे ब्रह्मचर्यमें सहायता मिलती है।
गहरी रीतिसे ग्रन्थोंका अध्ययन करनेसे भी बुद्धिका विकास होता है। केवल परमात्मप्राप्तिकी इच्छा होनेसे, लगन लगनेसे भी बुद्धि विकसित होती है, क्योंकि यह लगन स्वयंकी होती है। अत: इससे स्वाभाविक ही संयम होता है। परमात्मप्राप्तिका लक्ष्य पक्का होनेपर मनुष्य स्थितप्रज्ञ हो जाता है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है, जिससे हर एक विषयको समझनेमें उसकी बुद्धि विशेष काम करती है।
गायका दूध, घी और ब्राह्मी, मीठी बच, शंखपुष्पी आदि ओषधियोंका सेवन करनेसे भी बुद्धि विकसित होती है। शिव, गणेश और सरस्वतीकी उपासना करनेसे भी बुद्धि विकसित होती है। इनकी उपासनाकी विधि इस प्रकार है—
(१) एकान्तमें प्रतिदिन रात्रिमें ग्यारह बजे ऊन या टाटके आसनपर ईशान (पूर्व और उत्तरके बीचकी) दिशाकी ओर मुख करके बैठ जाय और रुद्राक्षकी मालासे ‘ॐ नम: शिवाय’—इस मन्त्रका एक सौ बीस माला जप करे। ऐसा छ: महीनेतक लगातार करनेसे बुद्धि विकसित होती है तथा अभीष्ट कार्यकी सिद्धि भी होती है। यदि जलके किनारे बैठकर अथवा बहते हुए जलमें पैर रखकर इस मन्त्रका जप किया जाय तो विशेष सिद्धि होती है।
यह अनुष्ठान कृष्णपक्षकी त्रयोदशीसे आरम्भ करना चाहिये। यदि शिवरात्रिसे आरम्भ किया जाय तो बहुत बढ़िया है। सोमवारसे भी आरम्भ कर सकते हैं। यदि श्रावणका सोमवार हो तो और बढ़िया है। अनुष्ठान आरम्भ करनेसे पहले शिवजीका पूजन कर लेना चाहिये। अनुष्ठानकालमें प्रदोष-(त्रयोदशीके दिन) व्रत भी करना चाहिये। व्रतके दिन एक समय फलाहार करना चाहिये। परन्तु एक समय ज्यादा पाना ठीक नहीं। इसकी अपेक्षा दो समय थोड़ा-थोड़ा पाना अच्छा है।
(२) प्रतिदिन प्रात: शौच-स्नानादि करनेके बाद लाल आसनपर पूर्व दिशाकी ओर मुख करके बैठ जाय और रुद्राक्ष या मूँगेकी मालासे ‘ॐ गं गणपतये नम:’—इस मन्त्रका कम-से-कम इक्कीस माला जप करे। ऐसा छ: महीनेतक लगातार करनेसे बुद्धि विकसित होती है।
यह अनुष्ठान शुक्लपक्षकी चतुर्थीसे आरम्भ करना चाहिये। अगर भाद्रपद महीनेके शुक्लपक्षकी चतुर्थी हो तो बहुत बढ़िया है। अनुष्ठानके आरम्भमें गणेशजीका पूजन कर लेना चाहिये। अनुष्ठानकालमें चतुर्थीका व्रत भी करना चाहिये।
गणेशस्तोत्र, गणेशाष्टक, गणेशसहस्रनाम आदिका पाठ करनेसे भी बुद्धिका विकास होता है।
(३) प्रतिदिन प्रात: लाल वस्त्र पहनकर लाल आसनपर पूर्व दिशाकी ओर मुख करके बैठ जाय और रुद्राक्ष या मूँगेकी मालासे ‘ऐं श्रीसरस्वत्यै नम:’—इस मन्त्रका ग्यारह, इक्कीस, इक्यावन, एक सौ एक आदि जितनी माला जप कर सके, उतना जप करे। ऐसा लगभग एक वर्षतक करनेसे बुद्धि विकसित होती है।
यह अनुष्ठान शुक्लपक्षकी अष्टमी या नवमीसे आरम्भ करना चाहिये। अनुष्ठानके आरम्भमें लाल पुष्पोंसे सरस्वतीका पूजन कर लेना चाहिये।
प्रात: नींदसे उठते ही ऐसी कल्पना, भावना करे कि जीभपर ‘ऐं’ लिखा हुआ है और मनसे उसको जीभपर देखता हुआ ‘ऐं’—इस बीजमन्त्रका एक सौ आठ बार जप करे। इससे भी बुद्धि विकसित होती है।
शिव, गणेश और सरस्वतीके उपर्युक्त अनुष्ठानोंमेंसे किसीको भी ‘बुद्धिवृद्ध्यर्थं क्रियते मया’—ऐसा संकल्प करके आरम्भ करना चाहिये।
रामचरितमानसका एक वर्षतक प्रत्येक महीने एक पाठ (कुल बारह पाठ) करनेसे बुद्धि विकसित होती है। अगर रामचरितमानसका प्रतिदिन एक पाठ अथवा नौ दिनोंमें एक पाठ करते हुए कुल नौ पाठ किये जायँ तो भी बुद्धिका विकास होता है। अगर रामचरितमानसका प्रतिदिन एक पाठ अथवा नौ दिनोंमें एक पाठ करते हुए कुल एक सौ आठ पाठ किये जायँ तो बुद्धि विकसित होनेके साथ-साथ भगवान्के साथ विशेष सम्बन्ध भी हो जाता है।
ऊपर जितने अनुष्ठान बताये गये हैं, उनका अभीष्ट कार्यकी सिद्धिके लिये भी प्रयोग किया जा सकता है।
भगवन्नाम तो सर्वश्रेष्ठ है ही। भगवन्नाम विद्यारूपी वधूका जीवन है, प्राण है—‘विद्यावधूजीवनम्।’ भगवन्नामका जप करनेसे मनुष्यमें विलक्षणता आ जाती है—ऐसा कई सन्त-महात्माओंका अनुभव है। एक वैरागी साधु थे। वे एक बार कुम्भ-मेलेके अवसरपर त्र्यम्बकेश्वर (नासिक) गये। वहाँ एक जगह विद्वान्लोग तत्त्वका निर्णय करनेके लिये परस्पर विचार कर रहे थे। वे वैरागी बाबा बीचमें ही बोल पड़े। पण्डितलोग कहने लगे कि ‘बाबाजी! पण्डितोंकी बातोंको तुम क्या जानो! तुम तो जाकर भजन-स्मरण करो।’ बाबाजी वास्तवमें अनपढ़ थे। परन्तु उनको पण्डितोंपर गुस्सा आ गया। वे जंगलमें चले गये और वहाँ घास-फूसकी कुटिया बनाकर उसमें ‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥’ इस मन्त्रका तत्परतासे जप करने लगे। जपके प्रभावसे उनको बिना पढ़े ही संस्कृत आ गयी और वे संस्कृतमें बोलने लग गये! यह बात एक पण्डितने लिखी है कि ‘मैं द्वारका जा रहा था। वहाँ एक जगह रास्ता भूल गया और जंगलमें भटक गया। जंगलमें घूमते-भटकते मैं बाबाजीकी कुटियाके पास पहुँच गया। बाबाजीने मेरे साथ संस्कृतमें बातें कीं। मैंने उनसे पूछा कि ‘आपने क्या पढ़ाई की है? उन्होंने अपनी जीवनी बता दी और कहा कि ‘नाम-जपके प्रभावसे मैंने संस्कृतके अनेक ग्रन्थ पढ़ लिये हैं। आजकल अद्वैतसिद्धि पढ़ रहा हूँ।’
अत: विद्यार्थीको भगवन्नामका स्मरण, जप और कीर्तन अवश्य करना चाहिये—
(१) नाम-स्मरण—केवल मनसे भगवान्के नामको याद करना नाम-स्मरण है।
(२) नाम-जप—यह तीन तरहका होता है—(क) नामका मनसे जप करना ‘मानसिक’ जप है। इस जपमें होठ और कण्ठ नहीं हिलते, आवाज नहीं आती। (ख) जबानसे बोलकर जप किया जाय, पर आवाज अपने कानोंतक ही पहुँचे तो यह ‘उपांशु’ जप है। (ग) मुखसे बोलकर जप करना ‘साधारण’ जप है। इसमें आवाज आती है। साधारण जपसे दसगुणा उपांशु जपका और उपांशु जपसे दसगुणा मानसिक जपका माहात्म्य है।
(३) कीर्तन—जो गाजे-बाजेके साथ जोरसे बोलकर किया जाता है, वह कीर्तन होता है। कीर्तन तीन तरहका होता है—(क) भगवान्के राम, कृष्ण आदि नामोंको गाजे-बाजेके साथ, साज-बाजके साथ रागपूर्वक जोरसे बोलना ‘नाम-कीर्तन’ है। (ख) भगवान्के गुणोंका वर्णन करना, गुणोंके पद गाना, भगवान्के गुणोंका वर्णन करनेवाले श्लोकों एवं स्तोत्रोंको पढ़ना ‘गुण-कीर्तन’ है। (ग) जिनमें भगवान्की बाललीलाओं आदिका वर्णन हो, ऐसे पद गाना ‘लीला-कीर्तन’ है।
नाम-स्मरण, नाम-जप और कीर्तन—तीनोंमेंसे जिसमें जिसका मन जितना अधिक लगेगा, तल्लीन होगा, उसके लिये वह उतना ही अधिक श्रेष्ठ हो जायगा।
प्रश्न—विद्यार्थीको किस नामका जप करना चाहिये?
उत्तर—विद्यार्थीका जिस नाममें श्रद्धा, विश्वास और प्रेम अधिक होगा तथा जिस नामके जपमें तल्लीनता अधिक होगी, वही नाम उसके लिये अधिक लाभदायक होगा; अत: उसको उसी नामका जप करना चाहिये।
प्रश्न—शिक्षकके प्रति विद्यार्थीका क्या कर्तव्य होना चाहिये?
उत्तर—जैसे माता-पिताके प्रति विद्यार्थीका पूज्यभाव होता है, वैसे ही शिक्षकके प्रति पूज्यभाव होना चाहिये। आजकलके जमानेमें तो शिक्षक किसी भी वर्णका हो सकता है। यदि शिक्षक ब्राह्मण है और उससे शिक्षा अच्छी मिली है तो उसमें जीवनभर गुरुभाव रखना चाहिये। यदि शिक्षक ब्राह्मण नहीं है, अपनेसे नीचे वर्णका है तो पढ़ाई करते समय उसका गुरुके समान आदर-सत्कार करना चाहिये। पढ़ाई करनेके बाद उसका कृतज्ञ तो बने रहना चाहिये, पर उसमें गुरुभाव रखनेकी जरूरत नहीं है।
प्रश्न—आजकल स्कूल-कॉलेजोंमें तो प्रत्येक घण्टेमें शिक्षक बदलता है! अत: विद्यार्थी किसके प्रति गुरुभाव रखे?
उत्तर—जिन-जिनसे जितना लाभ लिया है, उन-उनके प्रति उतना आदरभाव जरूर रखना चाहिये, उनके कृतज्ञ बने रहना चाहिये।
विद्या प्राप्त करनेके तीन साधन हैं—
गुरुशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा।
अथवा विद्यया विद्या चतुर्थं नैव कारणम्॥
गुरुकी सेवा करनेसे विद्या आती है। अपने पास धन हो तो धन देकर विद्या लेनी चाहिये अथवा अपने पास कोई विद्या हो और उसको उस विद्याकी गरज हो तो विद्या देकर विद्या लेनी चाहिये। इन तीनों उपायोंके सिवाय विद्या लेनेका चौथा कोई साधन नहीं है।
अगर किसी विद्वान्की केवल दूसरोंको पढ़ानेकी ही रुचि है और वह केवल पढ़ाना ही चाहता है, विद्यार्थियोंसे कुछ भी नहीं चाहता, उससे भी विद्या प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु इससे विद्यार्थीपर उसका ऋण रहेगा। जब विद्यार्थी अच्छा विद्वान् बन जायगा और उस विद्याके कारण उसकी प्रसिद्धि हो जायगी तथा उस प्रसिद्धिको सुनकर विद्या पढ़ानेवाला प्रसन्न हो जायगा, तब वह ऋण माफ हो सकता है। दूसरोंको वह विद्या पढ़ाकर, विद्वान् बनाकर भी विद्यार्थी उस ऋणसे उऋण हो सकता है। तात्पर्य है कि जैसे माँ-बापकी सेवा करके उनकी प्रसन्नता लेनेसे उनका ऋण माफ हो सकता है, पर उनके ऋणको कोई चुका नहीं सकता, ऐसे ही बिना कारण विद्या पढ़ानेवालेके प्रसन्न होनेपर उसका ऋण माफ हो सकता है, पर उसके ऋणको कोई चुका नहीं सकता।
यदि विद्यार्थीमें पढ़नेकी जोरदार लालसा, लगन हो तो भगवान् किसी भी रूपसे उसको पढ़ा देते हैं, उसको गुरुकी प्राप्ति करा देते हैं—‘जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥’ भगवान् जगद्गुरु हैं— ‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।’ केवल भगवन्नामका जप करनेसे भी विद्या आ जाती है। एक सन्तको कोई व्याकरण पढ़ानेवाला मिलता नहीं था तो उनको स्वयं पतंजलि महाराजने महाभाष्य पढ़ाया। चरणदासजीको स्वयं शुकदेवजीने भागवत पढ़ायी।
प्रश्न—विद्यार्थीको मित्रता किनसे करनी चाहिये?
उत्तर—विद्यार्थीको विद्यार्थियोंसे मित्रता करनी चाहिये अर्थात् जो विद्याके प्रेमी हों, पढ़ाईमें उत्साह रखते हों, सहारा देते हों, उनसे मित्रता करनी चाहिये। जो पढ़ाईमें उत्साह न रखते हों, उनके सम्पर्कमें नहीं रहना चाहिये; परन्तु वे भी तत्परतासे पढ़ाईमें कैसे लगें—ऐसा उपाय सोचते रहना चाहिये और जो उपाय दीखे, उसको काममें लाना चाहिये। अपनी पढ़ाईकी तरफ तो विशेष ध्यान देना ही चाहिये।
प्रश्न—मित्रोंके प्रति विद्यार्थीका क्या कर्तव्य होना चाहिये?
उत्तर—अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके उनका जैसे हित हो, वैसा बर्ताव उनके साथ करना चाहिये। विद्यार्थीको ऐसा भाव रखना चाहिये कि ये मेरे साथी एवं मित्र सब-के-सब श्रेष्ठ बन जायँ, विद्वान् बन जायँ, जिससे मैं इनसे भी अधिक विद्वान् बन सकूँ। तात्पर्य है कि यदि मित्र (दूसरा विद्यार्थी) आगे नहीं बढ़ेगा तो विद्यार्थीमें आगे बढ़नेकी लालसा नहीं रहेगी। वह जहाँ है, वहीं सन्तोष कर लेगा; अत: उसका आगे बढ़ना रुक जायगा। परन्तु मित्र आगे बढ़ेगा तो विद्यार्थीको उससे भी आगे बढ़नेका अवसर मिलेगा। अत: विद्यार्थीको हृदयसे अपने मित्रोंकी उन्नति चाहनी चाहिये और उनके उन्नत होनेपर बड़ा प्रसन्न होना चाहिये।
जैसे भगवान् कृष्णने सुदामाके साथ व्यवहार किया था, ऐसे ही विद्यार्थीको अपने मित्रोंके साथ व्यवहार करना चाहिये। रामायणमें आया है—
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा।
गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥
देत लेत मन संक न धरई।
बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा।
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥
(मानस, किष्किन्धा० ७।२-३)
प्रश्न—माता-पिताके प्रति विद्यार्थीका क्या कर्तव्य है?
उत्तर—हर एक लौकिक अथवा पारमार्थिक विद्यार्थीको चाहिये कि वह अपने माँ-बापकी प्रसन्नता ले; क्योंकि उनकी प्रसन्नतासे विद्याध्ययनमें सहायता मिलती है। शास्त्रमें आया है—
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥
(मनु० २।१२१)
‘जिसका प्रणाम करनेका स्वभाव है और जो नित्य वृद्धोंकी सेवा करता है, उसकी आयु, विद्या, यश और बल—ये चारों बढ़ते हैं।’
माँ-बाप किसी कारणसे, कार्यसे पढ़ाईके लिये मना भी करें तो रोकर उनसे आज्ञा माँग लेनी चाहिये कि अभी मेरा पढ़ाईका समय है। परीक्षा आनेवाली हो तो रातों जगकर विशेषतासे पढ़ाई करे। कई जगह ऐसी बात देखनेमें आती है कि बच्चा रातों जगकर पढ़ता है तो माँको चिन्ता हो जाती है कि यह कहीं बीमार न हो जाय। वास्तवमें यदि भीतरमें पढ़ाईकी लगन, रुचि न हो, फिर भी जबर्दस्ती पढ़ाई की जाय, तभी उसका शरीरपर बुरा असर पड़ता है, बीमारी आती है। यदि भीतरमें पढ़ाईकी लगन हो तो पढ़ाई करनेसे शरीरपर बुरा असर नहीं पड़ता।
श्रेष्ठ पुरुष वे ही हैं, जो जिस कार्यको स्वीकार कर लेते हैं, उस कार्यको कितनी ही बाधाएँ, विघ्न आनेपर भी छोड़ते नहीं—‘विघ्नै: पुन: पुनरपि प्रतिहन्यमाना: प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति’। जिस कार्यको स्वीकार किया है, उस कार्यको तत्परतापूर्वक सांगोपांग करनेसे मनुष्यका एक ऐसा स्वभाव बन जाता है, जिससे वह हर एक कार्यमें अग्रसर एवं विजयी हो जाता है और ऐसा मनुष्य ही श्रेष्ठ एवं आदर्श होता है। अत: विद्यार्थीको भी अपना स्वभाव ऐसा ही बना लेना चाहिये।
विद्यार्थीको अपने मनमें धैर्य एवं उत्साह रखना चाहिये। जैसा धैर्य एवं उत्साह सफलतामें रहता है, विफलतामें भी वैसा ही धैर्य एवं उत्साह रहना चाहिये। इस तरह धैर्य एवं उत्साह रहनेसे लौकिक पढ़ाई करते हुए, अपने कर्तव्यका पालन करते हुए भी विद्यार्थी अलौकिक, पारमार्थिक पढ़ाईमें पारंगत हो सकता है। भगवान्ने कहा है—‘असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष:’ (गीता ३।१९)। ‘आसक्तिरहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है।’
पारमार्थिक विद्यार्थी
लौकिक विद्यार्थी और पारमार्थिक विद्यार्थीके उद्देश्यमें तो भेद रहता है, पर उनकी चालमें भेद नहीं रहता। अगर चालमें भेद होता भी है तो पारमार्थिक विद्यार्थीकी चाल तेज होती है; क्योंकि उसका प्रत्येक कार्य साधनरूपसे होता है।
पारमार्थिक विद्यार्थी (साधक)-के लिये प्रतिकूल परिस्थिति ज्यादा लाभदायक होती है। कारण कि प्रतिकूल परिस्थितिमें पुराने पाप नष्ट होते हैं और नया उत्साह विशेषतासे पैदा होता है; परन्तु अनुकूल परिस्थितिमें पुराने पुण्य नष्ट होते हैं और भोगासक्ति, प्रमाद, आलस्य आदि आनेकी सम्भावना रहती है। अत: पारमार्थिक विद्यार्थीके लिये प्रतिकूल परिस्थिति तपके समान होती है, जो पारमार्थिक मार्गमें बड़ी सहायक होती है। आजतक जितने सन्त-महात्मा हुए हैं, उनके जीवनमें प्राय: प्रतिकूलता आयी है और प्रतिकूलता आनेसे उनका भगवान्की तरफ विश्वास अधिक बढ़ा है, जैसे ध्रुव, प्रह्लाद, मीराबाई आदिका जीवन देखें। अत: प्रतिकूलता बाधक नहीं होती, प्रत्युत साधक ही होती है। प्रतिकूलता भोगीके लिये बाधक और योगीके लिये साधक होती है। तात्पर्य है कि संसारके त्यागमें प्रतिकूलता सहायक होती है।
प्रश्न—पारमार्थिक विद्यार्थी और साधकमें क्या अन्तर है?
उत्तर—कोई अन्तर नहीं है। जो पारमार्थिक विद्यार्थी होता है, वही साधक होता है और जो साधक होता है, वही पारमार्थिक विद्यार्थी होता है। वास्तवमें मनुष्यजन्म केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिलनेसे मनुष्यमात्र जन्मजात विद्यार्थी है, साधक है। हाँ, वह साधन करे या न करे, यह उसकी मरजी है।
प्रश्न—पारमार्थिक विद्यार्थीकी दिनचर्या कैसी होनी चाहिये?
उत्तर—पारमार्थिक विद्यार्थीके लिये मुख्य बात है कि मेरेको भगवत्प्राप्ति ही करनी है, इस उद्देश्यको दृढ़तासे धारण करे और उसको निरन्तर जाग्रत् रखते हुए उसकी पूर्तिके लिये ही सब काम करे। इस उद्देश्यको सामने रखकर वह सबेरे नींदसे उठते ही भगवान्को आदरपूर्वक प्रणाम करके प्रार्थना करे कि ‘हे नाथ! मैं आपकी आज्ञाके अनुसार ही सब काम करता रहूँ। आप ही मेरे कल्याणके लिये अनेक रूपोंमें प्रकट हुए हैं। आपका उद्देश्य केवल मेरा उद्धार करना ही है। जहाँ मैं श्रोता बनता हूँ वहाँ वक्ता बनकर आप ही आते हैं। मैं वक्ता बनता हूँ तो केवल मेरेको बोध करानेके लिये श्रोता बनकर आप ही जिज्ञासुरूपसे मेरे सामने प्रश्न करते हैं। उस समय यदि मेरे मनमें यह बात आती है कि मैं उनको समझा दूँ तो यह मेरी गलती है। सही बात तो यह है कि आप केवल मुझे समझानेके लिये ही जिज्ञासु बन जाते हैं, मुझे बोध करानेके लिये ही अज्ञ (अनजान) बन जाते हैं और मुझे अपनी ओर अग्रसर करनेके लिये ही श्रोतारूपसे कह देते हैं कि आपने बहुत अच्छी बात कही, मेरा समाधान हो गया!’
‘मैं कोई भी चाहना करता हूँ तो उसके अनुरूप आप ही प्रकट होते हैं और तो क्या, भूख लगे तो अन्नरूपसे और प्यास लगे तो जलरूपसे आप ही आते हैं। मानकी इच्छा करता हूँ तो मानरूपसे, कीर्तिकी इच्छा करता हूँ तो कीर्तिरूपसे आप ही आते हैं। तात्पर्य है कि केवल मेरेको बोध करानेके लिये, केवल मेरा उद्धार करनेके लिये आप तरह-तरहकी लीलाएँ करते हैं; जड़-चेतन, स्थावर-जंगमरूपसे मेरे सामने आते हैं। मैं इस बातको भूल जाता हूँ तो आप शास्त्र, सन्त, गुरुजन, गीताके श्लोक एवं हृदयमें प्रेरणाके द्वारा मेरा अज्ञान दूर करते हैं।’
‘मैं सभी काम आपको प्रसन्न करनेके लिये ही करता हूँ। शौच-स्नान, घूमना-फिरना, उठना-बैठना तथा गीता-रामायणपाठ, नामजप, नित्यकर्म आदि जो कुछ करता हूँ, वह सब आपकी आज्ञासे और आपकी प्रसन्नताके लिये ही करता हूँ। वास्तवमें मेरे सम्पूर्ण कर्म आपकी प्रसन्नताके लिये ही होने चाहिये और मैं ऐसा करता भी हूँ; परन्तु समयपर संसारकी सत्ता और महत्ता बुद्धिमें आ जानेसे मैं भूल जाता हूँ। फिर भी आप मेरेको चेताते रहते हैं।’
छोटी-बड़ी प्रत्येक क्रिया भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही हो—यह भाव साधकमें हरदम जाग्रत् रहना चाहिये। कर्म चाहे शास्त्रीय हो, चाहे लौकिक हो, चाहे व्यावहारिक हो, चाहे शारीरिक हो, उसमें क्रियाभेद तो होना चाहिये, पर भावभेद बिलकुल नहीं होना चाहिये। इस प्रकार साधककी दिनचर्या, रात्रिचर्या, ऋतुचर्या, वर्षचर्या और आयुचर्या केवल भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही होनी चाहिये। चौबीस घण्टोंमें एक मिनट, एक सेकेण्ड भी भगवान्की आज्ञाके बिना कोई कार्य नहीं होना चाहिये। उसके भीतर यह भाव हरदम जाग्रत् रहना चाहिये कि ‘मैं केवल भगवान्का हूँ; भगवान्के ही घरमें रहता हूँ; भगवान्का ही प्रसाद पाता हूँ; बोलता हूँ तो भगवान्के ही गुण गाता हूँ, पाठ-पूजा, भजन-ध्यान आदि सब उनकी प्रसन्नताके लिये ही करता हूँ।’ भागवतमें आया है—
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा
बुद्ध्याऽऽत्मना वानुसृतस्वभावात्।
करोति यद् यत् सकलं परस्मै
नारायणायेति समर्पयेत्तत्॥
(श्रीमद्भा० ११।२।३६)
‘शरीरसे, वाणीसे, मनसे, इन्द्रियोंसे, बुद्धिसे, अहंकारसे अथवा अनुगत स्वभावसे मनुष्य जो-जो करे, वह सब परमपुरुष भगवान् नारायणके लिये ही है, इस भावसे उन्हें समर्पित कर दे।’
‘यह समर्पण भी मैं करता नहीं हूँ, प्रत्युत भगवान् स्वयं ही अपनी दी हुई शक्तिसे, बुद्धिसे ऐसा करवा लेते हैं। अत: मेरेको तो केवल उनकी कृपा मानकर प्रसन्न रहना है। मेरेको अपने लिये कुछ करना है ही नहीं। मेरे लिये न क्रिया है, न पदार्थ है, न अवस्था है और न कोई परिस्थिति ही है। केवल उनकी दी हुई बुद्धिसे यावन्मात्र क्रियाएँ हो रही हैं। भोजन आदि भी मैं करता नहीं हूँ, प्रत्युत उनकी शक्तिसे होता है।’
इस प्रकार यावन्मात्र क्रियाएँ ‘होनेमें’ बदल जायँ और ‘होना’ परमात्मामें बदल जाय; बस, यही पूर्णता है। इसमें न ‘मैं’ रहता है और न ‘मेरा’ रहता है। इसीको गीतामें ‘मय्यर्पितमनोबुद्धि:’ (८।७;१२।१४) कहा गया है। इसमें केवल एक आनन्दघन चिद्घन तत्त्व रह जाता है। वहाँ मन-बुद्धि नहीं पहुँच सकते।
विद्यार्थी पढ़ाई करते हैं, अध्यापक पढ़ाते हैं, सैनिक लड़ते हैं, किसान खेती करते हैं—इस तरह देश, काल, अवस्था, परिस्थितिके अनुसार स्त्री-पुरुषोंके कार्य अलग-अलग होंगे और बदलते रहेंगे, पर उनका उद्देश्य (भगवत्प्राप्ति) एक ही होगा, वह कभी बदलेगा नहीं।
प्रश्न—पारमार्थिक विद्यार्थी (साधक)-के आचरण कैसे होते हैं?
उत्तर—बाहरसे देखनेमें तो एक साधारण सज्जन आदमी और एक साधक—इन दोनोंके आचरणोंमें भेद मालूम नहीं देता; क्योंकि साधारण सज्जन आदमीके आचरण भी दैवी सम्पत्तिके होते हैं और साधकके आचरण भी दैवी सम्पत्तिके होते हैं। इसलिये उनके आचरणोंमें तो भेद मालूम नहीं देता, परन्तु उनके उद्देश्यमें भेद होता है।
साधारण सज्जन आदमीका उद्देश्य सांसारिक होता है अर्थात् काम-धन्धा, व्यवहार, व्यापार सचाईके साथ हो, जिससे हर एक आदमी मेरेपर विश्वास करे; संसारमें मेरी प्रतिष्ठा हो, मान हो आदि उद्देश्य होता है। परन्तु साधकका उद्देश्य समता होता है। उसकी दृष्टि समतापर ही रहती है अर्थात् कार्यकी सिद्धि-असिद्धि और सफलता-विफलतामें, शरीरके आदर-निरादरमें, नामकी निन्दा-स्तुतिमें समताका ही लक्ष्य रहता है। उसमें निर्विकारता जितनी अधिक होती है, उतना ही साधन ऊँचा होता है और साधन जितना ऊँचा होता है, उतनी ही निर्विकारता अधिक होती है। इसमें तीन बातें हैं—(१) उसमें विकार कम होंगे (२) विकार होंगे तो उनका वेग कम होगा (३) वेग होगा तो भी वे ठहरेंगे नहीं अर्थात् थोड़ी देरमें शान्त हो जायँगे। उसमें यह अन्तर क्रमश: पड़ता ही रहेगा। कभी-कभी साधकको ऐसा भी मालूम देता है कि पहले विकार कम आते थे, अब वे ज्यादा आने लग गये! वास्तवमें निर्विकारता ज्यादा रहनेसे थोड़ा भी विकार ज्यादा (बड़ा) मालूम देता है। अत: साधकको घबराना नहीं चाहिये। उसको कोई प्रायश्चित्त या दूसरा साधन करनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत वह जो साधन कर रहा है, उसीमें तत्परतासे लगे रहना चाहिये।
एक और बात ध्यान देनेकी है कि मनुष्यजन्म परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है। अत: सांसारिक कामनाएँ पूरी हों और न भी हों, पर पारमार्थिक सिद्धि अवश्यम्भावी है। पारमार्थिक मार्गमें निराशाके लिये कोई स्थान नहीं है।
गीतामें आया है—
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते॥
(१८।२६)
‘जो कर्ता रागरहित, अनहंवादी, धैर्य और उत्साहयुक्त तथा सिद्धि और असिद्धिमें निर्विकार है, वह सात्त्विक कहा जाता है।’
—इस श्लोकके अनुसार साधकको निश्चिन्त होकर अपने साधनमें लगे रहना चाहिये। फिर साधकका साधन ही आगे साधन बतानेवाला हो जायगा, उसका विवेक ही मार्गदर्शक बन जायगा। व्यवहारमें भी ऐसी घटनाएँ घटेंगी, जो उसको सावधान करेंगी।
प्रश्न—कर्मयोगके विद्यार्थीके आचरण कैसे होते हैं?
उत्तर—उसके आचरणोंमें अपने स्वार्थका त्याग और दूसरोंके हितकी मुख्यता रहती है; अत: उसके द्वारा संसारकी सेवा विशेषतासे होती है। उसमें सेवक-भाव तो रहता है, पर सेवकपनका अभिमान नहीं रहता अर्थात् सेवा करते समय ‘मैं सेवा करता हूँ’ यह भाव नहीं रहता। जब साधन बढ़ता है, तब उसमें यह भाव रहता है कि मैं शरीर आदिसे जिसकी सेवा करता हूँ, वह सब सेवा-सामग्री भी उसीकी है, मेरी नहीं है। इस तरह उसके पदार्थ और क्रियाएँ दूसरोंकी सेवामें ही समर्पित हो जाती हैं अर्थात् पदार्थ और क्रियाओंमें उसका अपनापन नहीं रहता। अन्तमें उसका व्यक्तित्व भी गलकर मिट जाता है और वह सेवा बनकर सेव्यरूप हो जाता है। ऐसे ही अन्तमें व्यक्तित्व मिटनेपर ज्ञानयोगी ज्ञान बनकर ज्ञानस्वरूप हो जाता है और भक्तियोगी भक्ति बनकर भगवत्स्वरूप हो जाता है।
प्रश्न—ज्ञानयोगके विद्यार्थीके आचरण कैसे होते हैं।
उत्तर—उसके आचरणोंमें उदासीनता, तटस्थता, निर्विकारता विशेष होती है। उसका स्वभाव अधिकतर एकान्तमें रहनेका होता है। एकान्त न मिलनेपर उसको थोड़ी उकताहट भी होती है, पर वह उकताहट कम होते-होते मिट जाती है। कारण कि शरीरके साथ सम्बन्ध माननेसे ही एकान्त न मिलनेपर उकताहट होती है, जबकि ज्ञानयोगीका मुख्य उद्देश्य शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेका ही होता है।
दूसरोंके शरीरोंके साथ उसका जैसा बर्ताव होता है, वैसा ही बर्ताव इस शरीरके साथ होता है। जैसे दूसरोंके शरीरोंके साथ बर्ताव होनेपर इस शरीरपर असर नहीं पड़ता, ऐसे ही इस शरीरके साथ बर्ताव होनेपर भी असर नहीं पड़ता। उसको ‘न करोति न लिप्यते’ (गीता १३।३१) ‘न करता है, न लिप्त होता है’—इसका अनुभव हो जाता है और अनुभव होनेपर उसमें स्वत: अहंकृतभाव और लिप्तता नहीं रहती—‘यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते’ (गीता१८।१७)।
प्रश्न—भक्तियोगके विद्यार्थीके आचरण कैसे होते हैं?
उत्तर—उसके आचरणोंमें नम्रता विशेष रहती है। उसकी संसारमें भगवद्बुद्धि विशेषतासे होती है। वह प्रत्येक परिस्थितिमें भगवत्कृपाको देखकर विशेष प्रसन्न, निश्चिन्त रहता है। उसकी दृष्टि सदा भगवान्की कृपाकी तरफ ही रहती है। शरीर, इन्द्रियाँ, अन्त:करणके विरुद्ध घटना घटनेपर भी उसका असर कम होता है और कम होते-होते मिट जाता है। जैसे, काकभुुशुण्डिजीको कौआ बननेका शाप मिलनेपर भी उनके मनमें न कुछ भय हुआ, न दीनता आयी, प्रत्युत इसमें उन्होंने भगवान्की कृपा ही मानी। इसी तरह भक्तको प्रतिकूलतामें भगवत्कृपाका विशेष अनुभव होता है। भगवत्-कृपाके बलपर वह निर्भय, नि:शोक, निश्चिन्त और नि:शंक रहता है।
प्रश्न—क्या कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगके विद्यार्थीको गुरुकी आवश्यकता है?
उत्तर—गुरुकी आवश्यकता तो सबके लिये रहती है, पर सन्तोषजनक गुरु न मिले तो निराश नहीं होना चाहिये और भगवत्प्राप्तिके लिये हतोत्साह भी नहीं होना चाहिये; क्योंकि यह शरीर भगवत्प्राप्तिके लिये ही मिला है। सन्तोषजनक गुरु न मिले तो भगवान्का आश्रय लेकर, भगवान् श्रीकृष्णको गुरु मानकर साधनमें लग जाना चाहिये; क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण जगत्के गुरु हैं—‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्’ अत: वे मेरे गुरु हैं ही; मैं जगत् में अलग नहीं हूँ।
वास्तवमें तीनों योगोंमें गुरुकी आवश्यकता है; परन्तु आवश्यकता होते हुए भी गुरुका अभाव नहीं है; क्योंकि भगवान् सदा मौजूद हैं। जो बातें गुरु नहीं बता सकते, वे बातें भगवान् साधकके अन्त:करणसे (वृत्ति, स्फुरणासे), ग्रन्थोंसे, घटनाओंसे बता देते हैं। उनको बतानेके कई तरीके आते हैं। जैसे दो आदमी आपसमें बात करते हैं तो उनके द्वारा उत्तर मिल जाता है। कोई पुस्तक अचानक खोलकर देखनेसे शंकाका समाधान हो जाता है। भगवान् नये-नये तरीकोंसे साधकको समझाते हैं; क्योंकि वे सबके परम सुहृद् हैं—‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५।२९)।
भगवान्का यह एक विलक्षण स्वभाव है कि दुनिया तो उपकारको जनाती है कि ‘मैंने उपकार किया’ पर भगवान् उपकारको जनाते ही नहीं और यह भाव भी नहीं रखते कि दूसरे मेरा उपकार मानें। जैसे सूर्यमें यह अभिमान नहीं होता कि मैं प्रकाश करता हूँ, ऐसे ही भगवान्में कभी यह अभिमान नहीं आता कि मैं उपकार करता हूँ; प्रत्युत उनके द्वारा स्वत:-स्वाभाविक उपकार होता है, प्रकाश मिलता है। जो भगवान्के सम्मुख हो जाता है, उसको वह प्रकाश विशेषतासे मिल जाता है। अत: साधकको गुरुके अभावमें हतोत्साह और निराश कभी नहीं होना चाहिये।
भगवान्ने सभीको विवेकरूपी गुरु दे रखा है अर्थात् कर्तव्य-अकर्तव्य, सार-असार, ग्राह्य-त्याज्य, धर्म-अधर्म आदिका ज्ञान मनुष्यमात्रको दे रखा है। अगर मनुष्य उस विवेकका आदर करे तो वह विवेक बढ़ जायगा और अन्तमें वही विवेक तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जायगा।
प्रश्न—क्या एक ही गुरु कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगकी शिक्षा दे सकता है?
उत्तर—हाँ, दे सकता है; परन्तु उसमें मुख्यता उसीकी रहेगी, जिस मार्गसे वह चला है। कारण कि गुरु जिस मार्गसे चलता है, उसी मार्गका उसको विशेष अनुभव रहता है और उसका उपदेश देनेमें उसे विशेष सुविधा होती है, पर दूसरे मार्गकी बात भी वह बता सकता है। यद्यपि महापुरुषोंकी प्रकृति अलग-अलग होती है, किसीकी उदासीन होती है और किसीकी उपकारी होती है, तथापि शिष्यकी जिज्ञासा होगी तो वह उसकी जिज्ञासाके अनुसार ज्ञान दे देगा, साधन बता देगा, इसमें सन्देह नहीं है। जैसे बछड़ेके आते ही गायके स्तनोंमें दूध आ जाता है, ऐसे ही जिज्ञासुके सामने आते ही महापुरुषके अन्त:करणमें स्वत: ज्ञान प्रकट हो जाता है। यद्यपि जीवन्मुक्त महापुरुषका अपने लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता, फिर भी वे केवल जिज्ञासुओंके लिये ही जीते हैं; जैसे माँ बच्चेके लिये ही होती है।
प्रश्न—क्या एक ही विद्यार्थी तीनों योगमार्गोंकी शिक्षा ले सकता है?
उत्तर—हाँ, ले सकता है; परन्तु साधकके लिये एक मार्गकी निष्ठा ही लाभदायक है, उत्तम है, श्रेष्ठ है। एक मार्गकी निष्ठा होनेपर दूसरे मार्गोंकी बातें भी उसके साधनमें सहायक हो जायँगी।
यदि साधक एक ही साधनकी मुख्यता रखे तो साथमें दूसरे साधन आ ही जायँगे। वह दूसरे साधनोंसे सर्वथा रहित हो जाय, यह बात नहीं है; जैसे—वह कर्मयोग करे और ज्ञानयोग तथा भक्तियोगसे शून्य हो जाय, यह बात नहीं है; वह ज्ञानयोग करे और कर्मयोग तथा भक्तियोगसे शून्य हो जाय, यह बात नहीं है; वह भक्तियोग करे और कर्मयोग तथा ज्ञानयोगसे शून्य हो जाय, यह बात नहीं है। कारण कि तत्त्वत: योग एक ही है। योगकी परिभाषा करते हुए भगवान्ने कहा है—‘तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्’ (गीता ६।२३) अर्थात् दु:खके संयोगके वियोगका नाम ‘योग’ है। तात्पर्य है कि संसारके साथ संयोग मानना,सम्बन्ध जोड़ना ही दु:ख है और इस संयोगका वियोग (सम्बन्ध-विच्छेद) होते ही परमात्माके साथ योग (सम्बन्ध)-का अनुभव हो जायगा।
प्रश्न—कौन-सा विद्यार्थी कर्मयोग, ज्ञानयोग अथवा भक्तियोगका अधिकारी है?
उत्तर—जिसकी संसारमें आसक्ति है, पर जो अपना कल्याण चाहता है, वह ‘कर्मयोग’ का अधिकारी है। जिसका संसारसे स्वत: वैराग्य है, वह ‘ज्ञानयोग’ का अधिकारी है। जो न अत्यन्त विरक्त है और न अत्यन्त आसक्त है, वह ‘भक्तियोग’ का अधिकारी है।
प्रश्न—तीनों योगमार्गोंके विद्यार्थियोंको किन ग्रन्थोंका मुख्यतासे अध्ययन करना चाहिये?
उत्तर—विद्यार्थियोंको मुख्यरूपसे गीताका ही अध्ययन करना चाहिये; क्योंकि इस छोटे-से ग्रन्थमें तीनों योगमार्गोंकी पूरी सामग्री आ गयी है। संक्षेपसे कहनेपर भी भगवान्ने कमी नहीं रखी है, प्रत्युत तीनों योगोंका सांगोपांग पूर्णतया वर्णन कर दिया है। अत: साधकके लिये एक भगवद्गीता ही पर्याप्त है।
साधक चाहे किसी भी मार्गका हो, यदि वह प्रभुके चरणोंका आश्रय लेकर गीताका अध्ययन करे तो उसको साधनकी पूरी सामग्री गीतामें अवश्य मिल जायगी। वह रामायण, भागवत आदि ग्रन्थ पढ़े तो अच्छी बात है, पर भगवद्गीता पढ़नेपर कुछ भी बाकी नहीं रहेगा।