Hindu text bookगीता गंगा
होम > अमृत बिन्दु > अभिमान

अभिमान

अच्छाईका अभिमान बुराईकी जड़ है॥६॥

••••

स्वार्थ और अभिमानका त्याग करनेसे साधुता आती है॥७॥

••••

अपनी बुद्धिका अभिमान ही शास्त्रोंकी, सन्तोंकी बातोंको अन्त:करणमें टिकने नहीं देता॥८॥

••••

वर्ण, आश्रम आदिकी जो विशेषता है, वह दूसरोंकी सेवा करनेके लिये है, अभिमान करनेके लिये नहीं॥९॥

••••

आप अपनी अच्छाईका जितना अभिमान करोगे, उतनी ही बुराई पैदा होगी। इसलिये अच्छे बनो, पर अच्छाईका अभिमान मत करो॥१०॥

••••

ज्ञान मुक्त करता है, पर ज्ञानका अभिमान नरकोंमें ले जाता है॥११॥

••••

सांसारिक वस्तुके मिलनेपर तो अभिमान आ सकता है, पर भगवान‍्के मिलनेपर अभिमान आ सकता ही नहीं, प्रत्युत अभिमानका सर्वथा नाश हो जाता है॥१२॥

••••

स्वार्थ और अभिमानका त्याग किये बिना मनुष्य श्रेष्ठ नहीं बन सकता॥१३॥

••••

जहाँ जातिका अभिमान होता है, वहाँ भक्ति होनी बड़ी कठिन है; क्योंकि भक्ति स्वयंसे होती है, शरीरसे नहीं। परन्तु जाति शरीरकी होती है, स्वयंकी नहीं॥१४॥

••••

जबतक स्वार्थ और अभिमान हैं, तबतक किसीके भी साथ प्रेम नहीं हो सकता॥१५॥

••••

अभिमानी आदमीसे सेवा तो कम होती है, पर उसको पता लगता है कि मैंने ज्यादा सेवा की। परन्तु निरभिमानी आदमीको पता तो कम लगता है, पर सेवा ज्यादा होती है॥१६॥

••••

बुद्धिमानीका अभिमान मूर्खतासे पैदा होता है॥१७॥

••••

जो चीज अपनी है, उसका अभिमान नहीं होता और जो चीज अपनी नहीं है, उसका भी अभिमान नहीं होता। अभिमान उस चीजका होता है, जो अपनी नहीं है, पर उसको अपनी मान लिया॥१८॥

••••

जितना जानते हैं, उसीको पूरा मानकर जानकारीका अभिमान करनेसे मनुष्य ‘नास्तिक’ बन जाता है। जितना जानते हैं, उसमें सन्तोष न करनेसे तथा जानकारीका अभाव खटकनेसे मनुष्य ‘जिज्ञासु’ बन जाता है॥१९॥

••••

जिन सम्प्रदाय, मत, सिद्धान्त, ग्रन्थ, व्यक्ति आदिमें अपने स्वार्थ और अभिमानके त्यागकी मुख्यता रहती है, वे महान् श्रेष्ठ होते हैं। परन्तु जिनमें अपने स्वार्थ और अभिमानकी मुख्यता रहती है, वे महान् निकृष्ट होते हैं॥२०॥

अगला लेख  > अहंता (मैं-पन)