बन्धन और मुक्ति
शरीरादि सांसारिक पदार्थोंको अपना मानना ही बन्धन है और अपना न मानना ही मुक्ति है। अपना मानने अथवा न माननेमें सब-के-सब स्वतन्त्र हैं॥ ३२२॥
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संसारके सब सम्बन्ध मुक्त करनेवाले भी हैं और बाँधनेवाले भी। केवल परमार्थ (सेवा) करनेके लिये माना हुआ सम्बन्ध मुक्त करनेवाला और स्वार्थके लिये माना हुआ सम्बन्ध बाँधनेवाला होता है॥३२३॥
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मानवशरीरका दुरुपयोग करनेसे जीव बँध जाता है और सदुपयोग करनेसे मुक्त हो जाता है। अपने स्वार्थके लिये दूसरोंका अहित करना मानव-शरीरका दुरुपयोग है और अपने स्वार्थका त्याग करके दूसरोंका हित करना उसका सदुपयोग है॥३२४॥
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नाशवान्को महत्त्व देना ही बन्धन है॥३२५॥
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मिले हुएको अपना मत मानो तो मुक्ति स्वत:सिद्ध है॥३२६॥
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अनुकूलता-प्रतिकूलता ही संसार है। अनुकूलता-प्रतिकूलतामें राजी-नाराज होनेसे मनुष्य बँध जाता है और राजी-नाराज न होनेसे मुक्त हो जाता है॥३२७॥
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शरीर संसारका अंश है और हम (स्वयं) परमात्माके अंश हैं। अत: शरीरको संसारके अर्पित कर दे अर्थात् संसारकी सेवामें लगा दे और स्वयंको परमात्माके अर्पित कर दे। फिर आज ही मुक्ति है!॥३२८॥
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मुक्तिकी इच्छा रहनेसे शरीरके रहनेकी इच्छा नहीं होती, अगर होती है तो मुक्तिकी इच्छा है ही नहीं॥३२९॥
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निष्कामभावपूर्वक (दूसरोंके लिये) कर्म करनेसे मुक्ति होती है और सकामभावपूर्वक (अपने लिये) कर्म करनेसे बन्धन होता है। अत: मनुष्यको निष्कामभावपूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये॥३३०॥
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संसार-बन्धनसे मुक्त होना हो तो प्राप्त वस्तुओंमें ममताका और अप्राप्त वस्तुओंकी कामनाका त्याग कर दो॥३३१॥
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भगवान्की बनायी हुई सृष्टि कभी बाँधती नहीं, दु:ख नहीं देती। जीवकी बनायी हुई सृष्टि (अहंता-ममता) ही बाँधती और दु:ख देती है॥३३२॥
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जिसको नहीं करना चाहिये, उसको करना और जिसको नहीं कर सकते, उसका चिन्तन करना—ये दो खास बन्धन हैं॥३३३॥
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वस्तुका मिलना अथवा न मिलना बन्धनकारक नहीं है, प्रत्युत वस्तुसे माना हुआ सम्बन्ध ही बन्धनकारक है॥३३४॥
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संसारको अपनी सेवाके लिये मानना बन्धनका हेतु है और अपनेको संसारकी सेवाके लिये मानना मुक्तिका हेतु है॥३३५॥
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बन्धन क्रियासे नहीं होता, प्रत्युत कामनासे होता है॥३३६॥
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अप्राप्त वस्तुकी इच्छा और प्राप्त वस्तुकी ममता ही बन्धन है, परतन्त्रता है॥३३७॥
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भोगोंकी इच्छाका त्याग करनेके लिये मुक्तिकी इच्छा करना आवश्यक है। परन्तु मुक्ति पानेके लिये मुक्तिकी इच्छा करना बाधक है॥३३८॥
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मनुष्य कर्मोंसे नहीं बँधता, प्रत्युत कर्मोंमें वह जो आसक्ति और स्वार्थभाव रखता है, उनसे ही बँधता है॥३३९॥
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किसी भी कर्मके साथ स्वार्थका सम्बन्ध जोड़ लेनेसे वह कर्म तुच्छ और बन्धनकारक हो जाता है॥३४०॥
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यह सिद्धान्त है कि जबतक मनुष्य अपने लिये कर्म करता है, तबतक उसके कर्मकी समाप्ति नहीं होती और वह कर्मोंसे बँधता ही जाता है॥३४१॥
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जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है, तबतक कर्म करना अथवा न करना—दोनों ही बन्धनकारक ‘कर्म’ हैं॥३४२॥
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मुक्ति स्वयंकी होती है, शरीरकी नहीं। अत: मुक्त होनेपर शरीर संसारसे अलग नहीं होता, प्रत्युत स्वयं शरीर-संसारसे अलग होता है॥३४३॥
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मुक्ति बाहरके त्यागसे नहीं होती, प्रत्युत भीतरके वैराग्यसे होती है॥३४४॥
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मुझे कुछ लेना है ही नहीं—केवल इतनी बातसे मुक्ति हो जायगी॥३४५॥
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मुक्ति सहज-स्वाभाविक है, बन्धन कृतिसाध्य है॥ ३४६॥
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वास्तवमें मुक्त ही मुक्त होता है, बद्ध मुक्त नहीं होता॥३४७॥