Hindu text bookगीता गंगा
होम > अमृत बिन्दु > बुराईका त्याग

बुराईका त्याग

साधकको चाहिये कि वह किसीको बुरा न समझे, किसीकी बुराई न करे, किसीकी बुराई न सोचे, किसीमें बुराई न देखे, किसीकी बुराई न सुने और किसीकी बुराई न कहे। इन छ: बातोंका दृढ़ता-पूर्वक पालन करनेसे साधक बुराई-रहित हो जायगा॥ ३४८॥

••••

कोई बुरा करे तो बदलेमें उसका बुरा न चाहकर यह समझो कि अपने ही दाँतोंसे अपनी जीभ कट गयी!॥३४९॥

••••

भलाई करनेकी उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी बुराईका त्याग करनेकी आवश्यकता है। बुराईका त्याग करनेसे भलाई अपने-आप होगी, करनी नहीं पड़ेगी॥३५०॥

••••

जिसको हम अच्छा समझते हैं, उसका पूरा-का-पूरा पालन करनेकी जिम्मेवारी हमारेपर नहीं है। परन्तु जिसको हम बुरा समझते हैं, उसका पूरा-का-पूरा त्याग करनेकी जिम्मेवारी हमारेपर है और उसके त्यागका बल, योग्यता, ज्ञान, सामर्थ्य भी भगवान‍्ने हमें दिया है॥३५१॥

••••

वीरता भलाई करनेमें नहीं है, प्रत्युत किसीकी भी बुराई न करनेमें है॥३५२॥

••••

जो अपना कल्याण चाहता है, उसे किसीके भी प्रति बुरी भावना नहीं करनी चाहिये॥३५३॥

••••

दूसरोंके प्रति हमारी बुरी भावना होनेसे उनका बुरा होगा या नहीं होगा—यह तो निश्चित नहीं है, पर हमारा अन्त:करण तो मैला हो ही जायगा॥३५४॥

••••

याद रखो, किसीका भी बुरा करोगे तो उसका बुरा होनेवाला ही होगा, पर आपका नया पाप हो ही जायगा॥३५५॥

••••

भलाई करनेसे सीमित भलाई होती है, पर बुराई छोड़नेसे असीम भलाई होती है॥३५६॥

••••

भला बननेके लिये हमें कुछ करनेकी जरूरत नहीं है। केवल बुराई सर्वथा छोड़ दें तो हम भले हो जायँगे॥३५७॥

अगला लेख  > भक्त