बुराईका त्याग
साधकको चाहिये कि वह किसीको बुरा न समझे, किसीकी बुराई न करे, किसीकी बुराई न सोचे, किसीमें बुराई न देखे, किसीकी बुराई न सुने और किसीकी बुराई न कहे। इन छ: बातोंका दृढ़ता-पूर्वक पालन करनेसे साधक बुराई-रहित हो जायगा॥ ३४८॥
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कोई बुरा करे तो बदलेमें उसका बुरा न चाहकर यह समझो कि अपने ही दाँतोंसे अपनी जीभ कट गयी!॥३४९॥
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भलाई करनेकी उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी बुराईका त्याग करनेकी आवश्यकता है। बुराईका त्याग करनेसे भलाई अपने-आप होगी, करनी नहीं पड़ेगी॥३५०॥
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जिसको हम अच्छा समझते हैं, उसका पूरा-का-पूरा पालन करनेकी जिम्मेवारी हमारेपर नहीं है। परन्तु जिसको हम बुरा समझते हैं, उसका पूरा-का-पूरा त्याग करनेकी जिम्मेवारी हमारेपर है और उसके त्यागका बल, योग्यता, ज्ञान, सामर्थ्य भी भगवान्ने हमें दिया है॥३५१॥
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वीरता भलाई करनेमें नहीं है, प्रत्युत किसीकी भी बुराई न करनेमें है॥३५२॥
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जो अपना कल्याण चाहता है, उसे किसीके भी प्रति बुरी भावना नहीं करनी चाहिये॥३५३॥
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दूसरोंके प्रति हमारी बुरी भावना होनेसे उनका बुरा होगा या नहीं होगा—यह तो निश्चित नहीं है, पर हमारा अन्त:करण तो मैला हो ही जायगा॥३५४॥
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याद रखो, किसीका भी बुरा करोगे तो उसका बुरा होनेवाला ही होगा, पर आपका नया पाप हो ही जायगा॥३५५॥
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भलाई करनेसे सीमित भलाई होती है, पर बुराई छोड़नेसे असीम भलाई होती है॥३५६॥
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भला बननेके लिये हमें कुछ करनेकी जरूरत नहीं है। केवल बुराई सर्वथा छोड़ दें तो हम भले हो जायँगे॥३५७॥